Saturday, December 20, 1997

सत्ता के लिए कोई भी वादा कर सकती है भाजपा मुखौटे से मोहरा बने बाजपेयी

मध्यावधि चुनाव में भाजपा अटल बिहारी बाजपेयी जी को बतौर भावी प्रधानमंत्रh पेश कर रही है। भाजपा का दावा है कि उसे बहुमत मिलेगा और अगली सरकार भाजपा ही बनाएगी। बाजपेयी उसे सक्षम नेतृत्व प्रदान करेंगे। भाजपा इन चुनावी नारों को लेकर बड़े उत्साह में है। वह जानती है कि इन चुनावों में कांग्रेस की कोई विशेष उपस्थिति नहीं है। संयुक्त मोर्चा ही भाजपा का एक मात्रा प्रबल प्रतिद्वंदी है।

भाजपा दरअसल बाजपेयी जी की गैर विवादास्पद छवि को भुना कर सत्ता तक पहुंचना चाहती है। हाल ही में भाजपा की प्रतिष्ठा को एक गहरा धक्का लगा था। जब उसने उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बचाने के लिए आपराधिकरण तक का सहारा लिया। उत्तर प्रदेश के अलावा गुजरात, राजस्थान और दिल्ली में भी भाजपा सरकारों की नाकामियों और भ्रष्टाचार के कारण भाजपा की राजनैतिक प्रतिष्ठा आज चुल्लू भर ही रह गई है। इन सब कारणों से अब केंद्र में सरकार बनाने के लिए बाजपेयी जी की छवि का इस्तेमाल करना भाजपा की राजनैतिक मजबूरी बन गई है। ऐसे में भाजपा ने बाजपेयी जी का नाम प्रधानमंत्रh पद के लिए पेश कर उन्हें भाजपा के मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया है। पर बाजपेयी जी को इस पर अब कोई आपत्ति नहीं है। आज जब प्रधानमंत्रh पद के लिए सभी छोटे-बड़े नेताओं में आपा-धापी मची है तो बाजपेयी जी को इसके लिए मुखौटा या मोहरा बनने में क्यों एतराज होगा ?

वैसे भाजपा आलाकमान में वर्चस्व के लिए बाजपेयी और आडवाणी खेमे में जैसी खींच-तान चल रही है उसे देखते हुए बाजपेयी जी ने मोहरा बनने की मौन स्वीकृति देकर आडवाणी खेमे को पहली शिकस्त दी है।

भाजपा के दावे और उनकी असलियत आइए भाजपा के चुनावी दावों और उनकी नैतिकता का बेबाक मूल्यांकन करें जिसकी कसमें खाते भाजपा कल तक थकती नहीं थी। भाजपा को आखिर आज ऐसा कौन सा रास्ता मिल गया कि वह इतने आत्मविश्वास के साथ यह दावा कर पा रही है कि केंद्र में अगली सरकार भाजपा की ही होगी। और वह पिछली सभी सरकारों से ज्यादा मजबूत और स्थिर होगी। सच्चाई के लिए एक नजर अगर मध्यावधि चुनावों की घोषणा के बाद पैदा हुए राजनैतिक घटनाक्रम पर डाले तो यह पता चलता है कि कोई भी दल अकेले चुनावों में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। जनादेश का अकेले सामना करने का साहस आज किसी भी दल में नहीं है। सभी दल चाहे वो भाजपा ही क्यों न हो चुनाव में बहुमत पाने के लिए एक दूसरे से नैतिक या अनैतिक गठजोड़ करने में जुटे हुए हैं। सभी की मंशा केंद्र में अपने गठबंधन की सरकार बनाने की है। इसमें भाजपा का मामला विशेष रूप से हास्यादपद लगता है। क्योंकि इसी भाजपा ने 18 महीने पहले अपनी अल्पमत सरकार बचाने के लिए किसी भी ऐसे दल से गठजोड़ करने से या समर्थन लेने से इंकार कर दिया था जिससे उसका वैचारिक समभाव न हो। इस श्रृखला में उस समय कितने ही ऐसे दल आते थे जिनका भाजपा से कोई वैचारिक तालमेल नहीं था और जो भाजपा को साम्प्रदायिक कह कर राजनैतिक अछूत मानते थे। भाजपा ने उस समय इन दलों से ना तो समर्थन की गुहार की और ना ही अपनी सरकार बचाने के लिए किसी गठजोड़ की प्रत्यक्ष कोशिश की। लेकिन आज भाजपा लगभगग सभी दलों से अपने प्रभाव रहित और कम प्रभाव वाले राज्यों में गठजोड़ कर रही है और चुनावी तालमेल बैठा रही है। भाजपा कल तक भ्रष्टाचार के सख्त खिलाफ थी लेकिन हाल ही में तमिलनाडू में जयललिता के साथ उसने चुनावी गठजोड़ किया। क्या यह भाजपा का अपनी भ्रष्टाचार विरोधी छवि के साथ समझौता नहीं है? उड़ीसा में भाजपा ने जनता दल में विघटन को उकसाया। नवीन पटनायक के साथ समझौता किया। क्या इससे भाजपा की डेढ साल पुरानी जोड़-तोड़ विरोधी नीति का हनन नहीं होता ? भाजपा आज अगर भ्रष्टाचार के मामलों में लिप्त लालू यादव से कोई समझौता नहीं कर रही तो ऐसा इसलिए है कि लालू यादव स्वयं भाजपा के ही विरूद्ध धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाए हुए हैं। कल यदि भाजपा को अपनी सरकार बनाने के लिए लालू यादव की शरण में भी जाना पड़ जाए तो वह हिचकिचाएगी नहीं। बल्कि किसी नई मजबूरी की आड़ में गठजोड़ कर लेगी। जैसा कि कल्याण सिंह ने उत्तर प्रदेश में किया। वहां अपनी सरकार बचाने के लिए भाजपा ने कांग्रेस में टूट तो उकसाई ही साथ ही अपराधिक छवि वाले विधायकों का भी समर्थन लिया। कल्याण सिंह इसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया बहाल करने की भाजपा की मजबूरी मानते हैं। सत्ता लोलुप्ता और अवसरवादिता के ऐसे नमूने पेश करके भाजपा आखिर क्या सिद्ध कर रही है ? अगर ऐसे ही रास्ते अपनाए गए तो भाजपा बेशक अपना बहुमत सिद्ध कर देगी। भले ही जनादेश स्पष्टतः उसके हक में हो या न हो।

सक्षम प्रधानमंत्रh का दावा भाजपा का दूसरा दावा है कि बाजपेयी जी के रूप में वह देश को एक सक्षम प्रधानमंत्रh देगी। इसमें कोई दो राय नहीं कि बाजपेयी जी एक सुलझी हुई राजनैतिक शख्सियत हैं। पर वह कितने सक्षम प्रधानमंत्रh साबित होंगे, इस बात का अंदाजा लगाने के के लिए थोड़े चिंतन और बतौर प्रधानमंत्रh उनके कार्यकाल की उपलब्धियों का अवलोकन करना जरूरी है। बाजपेयी जी के नेतृत्व में बनी भाजपा की 13 दिन की अल्पमत सरकार ने अपने कार्यकाल में कुछ अजीब निर्णय लिए। ऐसे फैसले की उम्मीद बाजपेयी सरिखे नेता से नहीं की जा सकती थी। बहुत कम लोग जानते हैं कि बतौर प्रधानमंत्रh बाजपेयी जी की एक मात्रा उपलब्धि यही थी कि जाते-जाते उन्होंने एनरा¡न जैसे राष्ट्रीयहित विरोधी समझौते पर हस्ताक्षर किए। जबकि एनरा¡न जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और परियोजनाओं की गैर जरूरतमंदी पर उन दिनों अच्छी-खासी चर्चा थी। खासकर राष्ट्रीय सेवक संघ ही स्वदेशी आंदोलन के तहत एनराॅन के विरूद्ध मोर्चा जमाए हुए था। पर तमाम विरोधों के बावजूद बाजपेयी सरकार ने एनरा¡न परियोजना को स्वीकृति दे दी।

राजनीति में बाजपेयी जी का सत्ता और विपक्ष का अच्छा अनुभव है। बाजपेयी जी जैसे बड़े नेताओं से यह उम्मीद की जाती है कि तमाम राजनैतिक विरोधों के बावजूद वह अपनी सही बात को मनवा सकेंगे। पर ऐसे अनेक मौके आए जब बाजपेयी जी के निर्णय में साहस की कमी साफ झलकती थी। इसी कारण से राष्ट्रीय हित के मुद्दों की राजनीति में बाजपेयी जी की अपने राजनैतिक अनुभव और कद के अनुसार कोई विशेष उपलब्धि नहीं हS। जबकि उनसे कहीं कम अनुभव वाले नेताओं ने राजनैतिक जोर पर अपने मुद्दांे पर समझौता करवा लिया। मंडल के मुद्दें पर अगर रामविलास पासवान अपनी शर्तें बदस्तूर मनवा ले गए तो दूसरी तरफ बाजपेयी जी मंदिर-मस्जिद मुद्दे पर आरंभ में उग्र रवैया अपनाने के बाद धीरे-धीरे नर्म पड़ने लगे। अगर बाजपेयी जी मंदिर-मस्जिद मुद्दे पर अपनी पार्टी की नीतियों से सहमत नहीं थे तो उन्हें शुरू से ही असहमति जतानी चाहिए थी। उन्हें यह भी देखना चाहिए था कि भाजपा जैसा राष्ट्रीय दल किसी ऐसे संवेदनशील मुद्दें पर वोटों की राजनीति ना करे जिस पर उसको बाद में पीछे हटना या नरम रूख अपनाना पड़े। पर बाजपेयी चुप रहे। जब मंदिर-मस्जिद मुद्दें पर स्थिति बेकाबू हो गई तो भाजपा ने बाजपेयी जी की विनीत छवि को भुनाया। बाजपेयी जी को ही भाजपा की ओर से इस दुर्घटना की निंदा करने की लिए चुना गया था।

हाल ही में पेट्रोल कीमतों में हुई तेज वृद्धि को लेकर बतौर विपक्षी नेता बाजपेयी जी ने आपत्ति जताई थी। उनका आश्वासन था कि वह इस मुद्दें को सदन में उठाएंगे। पर वक्त आने पर बाजपेयी जी अन्य मुद्दों की आड़ में इससे किनारा कर गए। विपक्ष के नेता के रूप में बाजपेयी के तेवर आक्रामक नहीं रहे। उनसे ज्यादा आक्रामक छवि तो उनसे कम कद वाले भाजपा नेताओं की रही है। बाजपेयी जी ने राजनीति के केंद्र में रहते हुए भी विवादों से दूर रहने की कोशिश की है। भले ही इसके लिए उन्हें अपने मुद्दों और शर्तों से समझौता करना पड़ा हो। आज राजनीति का जैसा माहौल है उसके लिए गुजराल या बाजपेयी जी जैसे प्रधानमंत्रh शायद उचित न बैठें। अपनी सौम्य और मैत्रिपूर्ण छवि को बनाए रखने के लिए गुजराल ने प्रधानमंत्रh पद पर रहते हुए भी जिस तरह एक के बाद एक समझौते किए उससे यह सीख लेना काफी है कि प्रधानमंत्रh पद किसी ऐसे व्यक्ति को सौंपना जिसे मुद्दों से ज्यादा अपनी छवि की चिंता हो, गंभीर चिंतन का विषय है। प्रधानमंत्रh को तो हर हाल में राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि रखना चाहिए ना की पार्टी के हितो को या निजी स्वार्थों को। उसमें सच को सच कहने का साहस हो चाहे उसका राजनैतिक अंजाम कुछ भी क्यों न हो।

स्थायित्व के खोखले दावे भाजपा स्थायित्व की बात करती है। उसका दावा है कि मध्यावधी चुनाव में भाजपा बहुमत पाएगी। केंद्र में स्थिर सरकार देगी। क्या बहुमत से स्थायित्व का कोई रिश्ता है ? भाजपा शासित राज्यों की स्थिति का जायजा लें तो भाजपा का यह दावा गलत सिद्ध होता है। अगर बहुमत ही स्थिरता की गारंटी है तो गुजरात में भाजपा क्यों स्थायित्व नहीं दे सकी ? वहां तो भाजपा के पास दो-तिहाई बहुमत था। जाहिर है कि आलाकमान की कमजोर पकड़ थी। नैतिकता व मूल्यों का आवरण आपसी मतभेद व अंतर्कलह को ज्यादा देर तक नहीं ढक सका। गुजरात में भाजपा के स्थिरता के दावे का सच सामने आ गया। दिल्ली में भी तो भाजपा बहुमत में है। ‘दिल्ली के हालात’ आज किस से छुपे हैं ? यहां भी भाजपा का बहुमत निजी महत्वाकांक्षाओं और अंतर्कलह का शिकार हो रहा है। राज्य में कानून व्यवस्था दिनो-दिन गिरती जा रही है। भाजपा सरकार का कहना है कि कानून व्यवस्था राज्य सरकार का विषय नहीं है बल्कि केंद्रीय सरकार का है। तो क्या इन पांच वर्षों में एक जिम्मेदार सरकार का यह कर्तव्य नहीं था कि वह कि वह केंद्र से पुलिस व्यवस्था के हस्तांतरण की सार्थक कोशिश करती? राजस्थान में भ्रष्टाचार और असंतोष भाजपा के शासन का ही सूचक है। उत्तर प्रदेश में भाजपा के नेतृत्व में अपराधिकरण और भ्रष्टाचारिकरण के बारे में पहले ही बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है। उस पर ज्यादा शोध की जरूरत नहीं है।

दरअसल सत्ता में काबिज होने की भाजपा की ब्याकुलता सहानुभूति का भी विषय है। भारत जैसे विशाल लोकतंत्रा का आज सबसे बड़ा राजनैतिक दल कब तक अपनी नीतियों, सिद्धांतों और मूल्यों से समझौता न करने का झूठा दिखावा करके खुद को सत्ता सुख से वंचित रख सकता है ? जबकि उससे कहीं छोटे और राज्य स्तर के दल अवसरवादी गठजोड़ करके सत्ता का सुख भोग रहे हैं। भाजपा कब तक अपने सिपाहियों को सत्ता के दरवाजे तक ला कर उनसे कदम ताल करवाती रहेगी ? भाजपा को भी यह डर है कि जिस तरह उत्तर प्रदेश में सत्ता का लालच देकर उसने दूसरे दलों में सेंध लगाई है वैसे ही केंद्र में भी दूसरे दल भाजपा के सांसदों को सत्ता प्रलोभन में फंसा कर भाजपा में जोड़-तोड़ करा सकते हैं। इसलिए भाजपा साम, दाम, दंड, भेद से केंद्र तक पहुंचने की कोशिश कर रही है। सत्ता के केंद्र तक पहुंचने के लिए वो आज कैसा भी वादा कर सकती है। बहुमत का। स्थायी सरकार का। सक्षम प्रधानमंत्रh का। पर यह देखना मतदाता का फर्ज है कि भाजपा के इन दावों में कितना दम है और कितनी अवसरवादिता।

Friday, November 14, 1997

जैन आयोग रिपोर्ट विवाद सबसे गंभीर मुद्दे से सब बेखबर


 जैन आयोग की रिपोर्ट पर लिखने, बोलने और भविष्यवाणियां करने वाले तमाम लोग एक गंभीर तथ्य को पूरी तरह अनदेखा कर रहे हैं। वह यह की इतना महत्वपूर्ण दस्तावेज गृह मंत्रालय से लीककैसे हो गया ? अगर यह सूचना लीक हो सकती है, तो देश का कोई भी रहस्य गोपनीय नहीं है। यानी सरकार ऐसी निकम्मे लोगों के हाथ में है, जो पद और गोपनीयता की शपथपालन करने में अक्षम हैं। यह बेहद खतरनाक स्थिति है। इससे जुड़े कई महत्वपूर्ण सवाल और भी हैं।
उधर दिल्ली के आधा दर्जन वरिष्ठ पत्राकारों में इस रिपोर्ट को लीक करने का श्रेय लेने की होड़ मची है। इनमें से हरेक का दावा है कि उसके पास इस रिपोर्ट की जानकारी पहले से ही थी और उसने इस जानकारी के अंश प्रकाशित भी किए थे। अगर यह सच है तो आश्चर्य जनक है कि एक गोपनीयकहा जाने वाला दस्तावेज गोपनीयकैसे रहा ?
जैन आयोग ने यह रपट 28 अगस्त 1997 को गृह मंत्रालय को साSपी थी। सरकार को इस पर निर्णय लेना था कि इसे सदन में पेश करे या न करे ? करे तो कब करे, इसका कितना अंश करे ? क्योंकि इस रपट में मात्रा एक पूर्व प्रधानमंत्रh की हत्या से जुड़े तथ्य ही नहीं हैं बल्कि देश की विदेश नीति और पड़ौसी देशों से उसके संबंधों के बारे में भी काफी गोपनीय जानकारी है। इस जानकारी को जगजाहिर करने के कई दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। इसके कारण भारत की अंतर्राष्ट्रीय साख पर और पड़ौसी देशों की जनता के मन पर विपरीत प्रभाव भी पड़ सकता है। इसका अर्थ यह नहीं कि दोषियों को सजा ही न दी जाए। इसका अर्थ ये भी कतई नहीं कि लोकतंत्रा में जनता से सच्चाई छिपाई जाए। सूचना का अधिकार मांगने वाले भी यह जानते हैं कि अkतरिक और बाहृय सुरक्षा से जुड़े तमाम मसले अत्यंत गोपनीय किस्म के होते हैं। उनका इस तरह बिना किसी पूर्व तैयारी के अचानक खुलकर सामने आ जाना, देश की स्थिरता को डांवाडोल कर सकता है।
जिस तरह से गृह मंत्रालय से यह रिपोर्ट लीक हुई है वह बहुत ही खतरनाक बात है। पूरे देश की जनता का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया जाना चाहिए कि गृह मंत्रालय के अधिकारी इतने निकम्मे या लापरवाह हैं कि इतने महत्वपूर्ण दस्तावेज को भी सुरक्षित नहीं रख सके। यह तो एक मामला है जो देश के सामने आ गया। इस तरह तो न जाने कितनी गोपनीय जानकारियां गृह मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय और भारत सरकार के अन्य मंत्रालय चुपचाप देशद्रोहियों तक सरका रहे होंगे। जिसकी देश को जानकारी नहीं है। प्रायः यह लीकेजया तो मोटी रकम पाने की एवज में किए जाते हैं या विदेशी ताकतों की जासूसी करने के लिए या फिर भारत के ही अपने आका-राजनीतिज्ञों की चाटुकारिता करने के लिए ? तीनों में ही लीकेज करने वाला, निजी लाभ को राष्ट्र के हित से ऊपर रख कर देखता है। तभी इतना गंभीर अपराध करने का दुस्साहस करता है।
गृह मंत्रालय के पास देश की साम्प्रदायिक स्थिति, अपने अद्धसैनिक बलों की स्थिति और आतंकवादियों व विदेशी खुफिया संगठनों की गतिविधियों से जुड़ी तमाम जानकारी नियमित रूप से आती है। यह जानकारी फिर गोपनीयया अत्यंत गोपनीयदस्तावेजों की श्रेणी में, फाइलों में कैद हो जाती है। जिसका उपयोग सरकार प्रशासन चलाने में करती है। सामरिक व नीतिगत निर्णय लेने में इस जानकारी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अगर यह जानकारी जैन आयोग की रिपोर्ट की तरह लीक करा दी जाती है तो देश का कितना बड़ा अहित हो रहा है ?
गृह मंत्रालय का जब यह हाल है तो रक्षा मंत्रालय, विज्ञान व तकनीकि मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और दूसरे मंत्रालयों की गोपनीयता के बारे में क्या आश्वस्त रहा जा सकता है ? नहीं। यानी पूरी की पूरी सरकार ऐसी लापरवाही  से  चलाई जा रही है कि देश के हितों का कोई ध्यान नहीं रखा जा रहा। इतना बड़ा और संगीन अपराध करके भी प्रधानमंत्रh और संयुक्त मोर्चे के घटक दलों के नेता केवल अपनी कुर्सी बचाने में जुटे हैं।
गृहमंत्रh ने इस मामले में जांच कराने का आश्वासन दिया है। पर जांच का क्या मायना है ? आज तक जो जांचे पहले कराई गई, उनका क्या हुआ ? उनकी रिपोर्ट कहां गई ? क्या उनमें कुछ लोगों को सजा मिली ? नहीं। तो यह जांच क्या कर देगी ? इससे क्या यह सुनिश्चित हो जाएगा कि भविष्य में देश के हितो के विरूद्ध गोपनीय जानकारी किसी तरह लीक नहीं होगी ?
एक प्रमुख दल के वरिष्ठ नेता ने बहुत दबी जुबान में बात उठाई है और यह भी कहा है कि उनका दल इस मुद्दे पर संसद में शोर मचाएगा। हकीकत यह है इसी दल के नेता पिछले दिनों ऐसे कई मुद्दों पर शोर मचाने और सरकार को कटघरे में खड़ा करने की घोषणा कर चुके हैं और बाद में अनजान कारणों से अपनी घोषणा से ही मुकर जाते हैं। वैसे भी मात्रा कह भर देने से कोई देश का ध्यान इस ओर आकर्षित नहीं हो जाएगा। इसके लिए तो विशेष प्रयास करना होगा जिसके लिए शायद यह दल तैयार नहीं। क्योंकि उसके लिए भी आज कुर्सी हथियाने की लालसा राष्ट्रहित से ऊपर हो गई है।
बार-बार सरकार से समर्थन वापिस लेने की धमकी ब्लैक मेलिंगसे ज्यादा कुछ नहीं है। इससे यही लगता है कि धमकी देने वाले अपने और अपने समर्थक औद्योगिक घरानों के अटके अवैध काम करवाने के लिए यह धमकी देते हैं। जब काम हो जाता है तो अपना तेवर बदल लेते हैं। जबकि हालात वहीं के वहीं रहते हैं। अखबार में जो बयान छपते हैं, उनमें जो मुद्दे उछाले जाते हैं वो सिर्फ जनता को भ्रमित करने के लिए होते हैं। अंदर ही अंदर दूसरी खिचड़ी पकती रहती है।
दरअसल इन राजनेताओं और विभिन्न दलों को अपने मतदाताओं और देश की चिंता होती तो यह लोग इस अस्थिरता का फायदा उठाकर और सरकार पर दबाव डालकर ऐसे तमाम कानून पास करवाते जो देश के लोगों को राहत देने वाले हों। यह राजनेता ऐसी नीतियां बनवा सकते हैं जो लोगों के फायदे की हों। जिन मुद्दों को विपक्षी दल आज तक उठाते आए और उन पर शोर मचाते आए, उन सबको भी वे आज भूल गए हैं। अब तक उनका तर्क होता था कि नेहरू खानदान का वंशवाद या कांग्रेस का सत्ता पर एकाधिकार, ऐसा नहीं होने दे रहा है। अब तो दोनों समाप्त है फिर यह ढीलापन क्यों ?
एक बार को मान भी लें कि इनका विरोध मुद्दों पर होता है। तो यह बार-बार की धमकी का नाटक क्यों? अभी केसरी कुछ कहते हैं और 24 घंटे बाद कुछ और। इंका अध्यक्ष सीताराम केसरी के सामने तो बहुत बड़ी दुविधा है। अगर समर्थन वापिस लेते हैं तो सरकार गिरेगी और चुनाव होंगे। जिसमें कांग्रेस को उल्लेखनीय सफलता मिलने की संभावना बहुत कम है। अगर समर्थन वापिस नहीं लेते हैं और द्रमुक समर्थित सरकार चलने देते हैं तो सोनिया खेमा चैन से नहीं बैठने देगा। बाकी बची तीसरी स्थिति वह यह कि उत्तर प्रदेश की तरह कांग्रेस का विघटन हो जाने दें और भाजपा को सरकार बनाने दे। इस डर से कुछ तय नहीं हो पा रहा। यही हाल दूसरे नेताओं का भी है। अगर वाकई मुद्दों पर विरोध है और सरकार निकम्मी है तो उसे एक झटके में गिरा क्यों नहीं देते ? पर गिराना भी नहीं चाहते क्योंकि रूह कांपती है कि मतदाताओं के पास क्या मुंह लेकर जाएंगे ? फिर गिराएं तो तब जब नेता के पीछे उसके दल के सारे सांसद चट्टान की तरह खड़े हों। हकीकत यह है कि ज्यादातर सांसदों की आस्था अब न तो दल में है और न किसी विचारधारा में। उन्हें पता है कि चुनाव की स्थिति में उनका अपना काम और व्यक्तिगत लोकप्रियता का ही फायदा उन्हें मिलेगा। नेता या दल का उतना नहीं जितना पहले मिलता था। ऐसे में वे अपना स्वार्थ पहले देखते हैं। इसलिए पार्टी नेताओं के मन में यह डर बैठा हुआ है कि अगर कोई कड़ा कदम उठा लें तो कहीं उत्तर प्रदेश के विधायकों की तरह सभी दल टूट कर नई सरकार में शामिल न हो जाए।
इस तरह की बार-बार की धमकियों से देश में अस्थिरता का माहौल लगातार बना हुआ है। जिसका विपरीत प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। आज बाजार में भारी चिंता व अनिश्चितता है। व्यापारी, कारखानेदार, भवन निर्माण वाले, शेयर मार्केट सभी बेचैन हैं। हाल में हुए एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार अगर बीस वर्ष तक भारत अपने विकास की दर 7 फीसदी पर स्थिर रख पाता है तो देश की गरीबी मात्रा 6 फीसदी रह जाएगी। इसमें शर्त यह है कि विकास के लाभ का वितरण ठीक तरह से हो। पर आज तो उलटा हो रहा है। खुद सरकार ने ही, विकास की दर का अपना लक्ष्य 7 फीसदी से घटाकर 6 फीसदी कर दिया है। कुल जमा बात यह है कि धमकियां देकर राजनैतिक अस्थिरता पैदा करने वाले अर्थव्यवस्था और जन-जीवन से खिलवाड़ कर रहे हैं।
इन हालातों में देश की जनता को तो राम भरोसे छोड़ दिया गया है। गोपनीयता, स्थायित्व, विकास दर, आंतरिक व बाहृय सुरक्षा सभी को तिलांजली देकर एक-दूसरे की टांग खींचने और कुर्सी हथियाने का सर्कस चालू है। जैन आयोग की रिपोर्ट के लीक होने से उठे व जन-हित से जुड़े इन गंभीर मुद्दों पर किसी का ध्यान नहीं है।

Friday, October 10, 1997

घोटालेबाज नेताओं की रिहाई से जनता हैरान

1996 की शुरूआत देश की भ्रष्ट राजनीति को बुरी तरह झकझोरने वाले एक धमाके के साथ हुई थी। जब पहली बार राजनेताओं, मंत्रियों, राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों को ‘हवाला कांड’ में चार्जशीट किया गया। इसके बाद सेंटकिट्स, झामुमो रिश्वत कांड, लखुभाई पाठक रिश्वत कांड, संचार घोटाला, यूरिया घोटाला, जयललिता कांड, चैरासी के दंगों की सुनवाई, मकानों और पेट्रोंल पंपों के अवैध आवंटन का घोटाला और चारा घोटाला जैसे दर्जनों घोटाले एक के बाद एक सामने आने लगे। पहली बार देश की जनता को लगा कि कानून की निगाह से कोई बच नहीं सकता। चाहे वो किसी भी पद पर क्यों न हो।

किंतु 1997 की शुरूआत लोकतंत्रा के इतिहास में अपशकुनी रही। जब एक-एक करके सभी नेता अदालतों से छूटने लगे। देश की जनता हतप्रभ है कि ऐसा क्यों हो रहा है ? उसे यह सवाल भी खाए जा रहा है कि पिछले 50 वर्ष में कभी भी कोई बड़ा नेता, मंत्रh या अफसर भ्रष्टाचार के मामले में पकड़ा क्यों नहीं गया ? जबकि एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार भारत दुनियां के दस भ्रष्टतम राष्ट्रों में से ण्क है। एक कहावत है कि, ‘शासक को ईमानदार होना ही नहीं चाहिए बल्कि दीखना भी चाहिए’। पूरा देश बिहार बन जाएगा

इस सबका नतीजा यह हुआ कि लालू यादव चार्जशीट होने के बाद भी कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं थे। यह तो आगाज है आगे-आगे देखिए होता है क्या ? एक बार पकड़े जाने के बाद जब यह नेता छूटते जाएंगे तो ये डंके की चोट पर ऐलान करेंगे कि, ‘देखा हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सका?’ फिर बिहार और उत्तर प्रदेश की तरह आए दिन अपहरण, अवैध कब्जें, लूटपाट पूरे देश में होंगे और कोई सुनने वाला नहीं होगा।

षड़यंत्रा किसके खिलाफ: नेताआs के या देश के ?

हवाला कांड को ही लीजिए बजाए शमिंदा होने के ये नेता आज देश को गुमराह करने में जुटे हैं। ये कहते हैं कि इन्हें षड़यंत्रा करके हवाला कांड में फंसाया गया। आप जानते हैं कि मार्च 1991 में दिल्ली पुलिस ने शाहबुद्दीन गौरी और अशफाक हुसैन लोन को लाखों रूपए के बैंक ड्राफ्टों और नकद के साथ गिरफ्तार किया था। ये पैसा कश्मीर के आतंकवादी संगठनों को भेजा जा रहा था। इनकी सूचना पर पुलिस और सीबीआई ने देश के कई हवाला कारोबारियों और जैन बंधुओं के यहां छापा डाला। जिसमें करोड़ों रूपए का हिसाब-किताब, लाखों रूपए की नकदी, सोने की छड़े, पचास देशों की मुद्राएं व संवेदनशील दस्तावेज मिले थे। यह धन दुबई और लंदन से अवैध रूप से आ रहा था और जैन बंधुओं के मार्फत देश की राजनीति में ताकतवर लोगों में बंट रहा था। इतनी बड़ी जब्ती और इतनी सारी जानकारी सीबीआई के इतिहास में शायद ही कभी मिली हो। इसके फौरन बाद जैन बंधु से जुड़े आला अफसरों, मंत्रियों और दूसरे अधिकारियों के घर छापे डालकर कड़ी पूछताछ व धर-पकड़ करनी चाहिए थी। पर बड़े राजनेताओं के दबाव के कारण सीबीआई ने देशद्रोह के हवाला कांड को बड़ी बेशर्मी और बेईमानी से दबा दिया। इसे अपने विरूद्ध षड़यंत्रा बताने वाले इन नेताओं से कोई पूछे कि
क्या आतंकवादियों को धन पहुंचाने वालों को पकड़ना इनके विरूद्ध षड़यंत्रा था ?
क्या इनको लगता है कि इन युवको के विरूद्ध टाडा के तहत कार्रवाई नही करनी चाहिए थी?

साफ है कि जैन बंधुओं को सिर्फ इसलिए बचाया गया ताकि उनके चक्कर में हवाला आरोपी नेता न पकड़े जाए ? सीबीआई में तब सुगबुगाहट हुई जब जुलाई 1993 में कालचक्र वीडियो के कैमरों ने इस मामले की खोजबीन शुरू की। पर असली हरकत में वो तब आई जब हमारी जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायधीशों ने सीबीआई को उसके निकम्मेपन के लिए फटकारा। ये इसे षड़यंत्रा कहते हैं। तो यह षड़यंत्रा किसने किया ? जनहित याचिका दायर करके हमने या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों ने ?

1991 में सीबीआई को जैसे ही पता चला कि बड़े-बड़े नेता जैन बंधुओं से अवैध रकम पाते रहे हैं। तो उसने जांच को वहीं रोक दिया। फिर ये षड़यंत्रा किसके खिलाफ था, इनके या देश के ?

अगस्त 1993 में कालचक्र वीडियो मैगजीन ने जब बार-बार इनका इंटरव्यू लेने का प्रयास किया तो ये सब नेता इतने घबरा क्यों गए थे ? मैं इनसे सिर्फ दो सवाल पूछना चाहता था। क्या ये जैन बंधुओं को जानते हैं ? और क्या इन्होंने जैन से इतने पैसे लिए ? अगर इनके पास छुपाने को कुछ नहीं था? तो सच बोलने में इतनी घबराहट क्यों थी ?

संसदीय चुप्पी ?

इनके खिलाफ आरोप पत्रा जनवरी-फरवरी 1996 में दाखिल हुए। जबकि इनका नाम हवाला कांड में अगस्त 1993 से समाचारों में था। यदि यह इनके विरूद्ध षड़यंत्रा था तो इसके खिलाफ इन वर्षों में इन्होंने आवाज क्यो नहीं उठाई? क्या ये मान कर चुप बैठे रहे कि किसी नेता का कुछ नहीं बिगड़ेगा। इसलिए क्यों बर्र के छत्ते में हाथ डाला जाए? वैसे 11 नेताओं ने माना है कि जैन डायरी में दर्ज धन उन्होंने लिया था, इस बारे में इनका क्या ख्याल है?

ये नेता अच्छी तरह जानते हैं कि हवाला कांड मात्रा भ्रष्टाचार का नहीं बल्कि देशद्रोह का भी कांड है। क्योंकि यह कश्मीर के आतंकवाद और देश की सुरक्षा से जुड़ा मामला है। फिर इन्होंने संसद में शोर मचा कर हवाला कांड में ईमानदारी से जांच की मांग क्यों नहीं की? जैसे आज तक हर कांड पर करते आए हैं। यह अनैतिक चुप्पी क्यों? इस तरह चुप रह कर इन नेताओं और इनके साथियों ने देश के साथ जो गद्दारी की है उसका क्या ख़ामियाजा ये देश को देने को तैयार हैं ? ऐसे अनैतिक आचरण के बाद इनकी ये ‘नैतिक’ जीत कैसे है?

सीबीआई के आपराधिक कारनामे पाठक जानते हैं कि सीबीआई हवाला कांड के मामले में सुप्रीम कोर्ट तक में झूठ बोलती आई है। ताकि इनके जैसे बड़े राजनेताओं को बचा सके। मसलन सीबीआई ने जनवरी 1994 में दावा किया कि वह मुस्तैदी से जांच कर रही है। जबकि 4 वर्ष बाद मार्च’95 तक आकर भी उसने प्राथमिक कार्रवाई भी नहीं शुरू की थी। सीबीआई ने लिखकर कोर्ट में कहा कि जैन बंधुओं के यहां से छापे में बरामद 50 देशों की विदेशी मुद्राओं को वो पहचान नहीं पाई है। क्या ये देश सौर्यमंडल से बाहर के नक्षत्रों पर हैं ? सीबीआई ने दावा किया कि वह ‘तमाम कोशिशों के बावजूद जैन बंधुओं को नहीं ढूंढ पाई। मजबूरन उसे जैन बंधुओं को ढंwढ़ने वाले इश्तहार लगवाने पड़े, तब भी बात नहीं बनी तो उसे आव्रजन अधिकारियों की मदद लेनी पड़ी।’ जबकि जैन बंधु खुलेआम दिल्ली में घूम रहे थे, आलीशान दावतें दे रहे थे और इसकी खबरें अखबारों में छप रही थी। दिल्ली उच्च न्यायालय के सामने भी सीबीआई ने अधूरे तथ्य रखे ताकि हवाला कांड के आरोपी नेताओं को निकल भागने का रास्ता मिल सके । ऐसे तमाम झूठ पर खड़ी यह ‘असत्य पर सत्य की विजय’ कैसे है ?
अब जबकि इनके ‘सर पर से बोझ उतर गया है’ तब क्या इनमें यह नैतिक बल है कि हवाला कांड में सीबीआई की बेईमानियों के खिलाफ निष्पक्ष जांच की मांग करें ? ये नेता और इनसे हमदर्दी दिखाने वाले बुद्धिजीवी क्या देश की जनता को यह बताने को तैयार है कि यह मांग क्यों नहीं कर रहे ?

सर्वोच्च न्यायलय पर दबाव डालने वाला आज़ाद क्यों ?

14 जुलाई 1997 को सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश माननीय श्री जेएस वर्मा जी ने यह बता कर कि हवाला मामले को दबाने के लिए उन पर दबाव डालने की कोशिश की जा रही है, सारे देश में सनसनी फैला दी। किंतु माननीय मुख्य न्यायधीश श्री जेएस वर्मा उस अपराधी का नाम बताने तक से बच रहे हैं जिसने उन पर व उनके सहयोगी जजों पर ‘दबाव’ डालने की कोशिश की। हवाला आरोपियों के हितैषी इस व्यक्ति ने ‘न्यायालय की अवमानना कानून’ को तोड़ने का गंभीर अपराध किया है। जिसकी सजा उसे मिलनी ही चाहिए। किंतु संसद, सुप्रीम कोर्ट बार काउंसिल और अखबारों के संपादकीयों में जोरदार मांग उठने के बावजूद माननीय न्यायधीशगणों की चुप्पी, इस अपराधी को संरक्षण दे रही है। इन हालातों में जनता क्या उम्मीद करे ? इससे यह तो जाहिर हो ही गया कि हवाला केस इतना दमदार है कि इसमें फंसे सभी प्रमुख दलों के नेता हर कीमत पर इसे दबा देना चाहते हैं। कोई भी दल हवाला कांड में ईमानदारी से जांच की मांग नहीं कर रहा। स्वर्ण जयंती यात्रा के बहाने पूरे देश में भ्रष्टाचार के विरूद्ध बिगुल बजा कर लौटे भाजपा के नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी व उनके अन्य साथी नेता तक यह हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं, आखिर क्यों ?

विचित्रा विरोधाभास दरअसल हवाला कांड पूरी दुनियां में पहला ऐसा बड़ा कांड है कि जिसमें सत्तापक्ष व विपक्ष दोनों लिप्त हS। इसलिए इसलिए इस कांड की जांच की मांग कोई नहीं कर रहा। इस कांड ने भ्रष्ट राजनीति को बुरी तरह झकझोर कर रख दिया है। भारत के इतिहास में पहली बार दर्जनो मंत्रियों, राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के विरूद्ध भ्रष्टाचार के मामले में आरोप पत्रा इसी कांड में दाखिल हुए। एक साल में तीन प्रधान मंत्रh बदल गए और एक के बजाए 15 दल मिलकर सरकार चलाने पर मजबूर हैं। फिर भी इतने बड़े कांड में निष्पक्ष जांच की मांग को लेकर कोई जन प्रदर्शन नहीं हो रहे, कोई सेमिनार, कोई धरने नहीं हो रहे, कोई हस्ताक्षर अभियान नहीं चलाए जा रहे, संसद का कोई बर्हिगमन नहीं कर रहा, कोई इस्तीफे नहीं मांगे जा रहे।

सावधान आपका ध्यान हटाया जा रहा है

ऐसे में देश की जनता को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि अखबार और टेलीविजन के माध्यम से हर घोटाले पर शोर मचाने वाले लोग कितनी होशियारी से हवाला कांड से आपकी निगाह हटा देना चाहते हैं। इसीलिए दिल्ली हाई कोर्ट के निर्णय की खामियों को उजागर करते हुए हमने एक पर्चा छापा था। इसमें उन तमाम कानूनी मुद्दों का ब्यौरा था जिनसे यह सिद्ध होता है कि हवाला आरोपी नेताओं व दूसरे लोगों के खिलाफ कोई जांच ही नहीं की गई है। इस पर्चे में दिल्ली हाई कोर्ट के निर्णय में ‘एविडेंस एक्ट’ के अनेक प्रावधानों की उपेक्षा का भी विवरण था। इस पर्चे में दी गई जानकारी को आधार बनाकर ही सीबीआई ने सर्वोच्च न्यायलय में अपील दायर की है। तो बिना जांच हुए ही इस तरह घोटालेबाज नेताओं का छूट जाना इस देश की करोड़ों जनता के साथ विश्वासघात है। कानून में आस्था रखने वाले लोग काफी चिंतित हैं। किंतु पिछले कुछ हफ्तों से जो बहस सर्वोच्च न्यायलय में चल रही है उसमें हवाला केस की जांच की खामियों का जवाब ढूंढने की बजाय भविष्य की सावधानियों पर समय लगाया जा रहा है। यह तो ऐसा हुआ कि चोर निकल कर भागा जा रहा हो और हम शोर मचाए कि अगली बार मजबूत ताला लगाना।

जनता क्या करे ?

उधर आजादी के पचासवें वर्ष में देश के कुछ गिने-चुने समाजसेवी, बुजुर्ग पत्राकार और बुद्धिजीवी देश में जगह-जगह गोष्ठियां करके बिगड़ी हालत पर चिंता जता रहे हैं। भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए लोगों का आव्हान कर रहे हैं। पर इनकी अपीलों का कोई असर नहीं पड़ रहा। क्योंकि ये बैठकें बयान जारी करने तक सीमित रहती हैं। मजे की बात यह है कि जिनके विरूद्ध ये लड़ाई लड़ी जानी है, उनसे ही सुधार की अपील की जाती है। आज जबकि हवाला घोटाले से लेकर दूसरे घोटालों में अनेक दलों के बड़े नेता रंगे हाथ पकड़े जा चुके हैं उस वक्त बैठकें करने से क्या होगा? जरूरत सब लोगों को एकजुट होकर आम जनता को जागृत करने की है। ताकि हर कस्बे और शहर में लोग सड़कों पर उतर आएं और सफेदपोश अपराधियों के खिलाफ निष्पक्ष व तीव्रता से जांच की मांग करें और इन्हें सजा देने की मांग करें। अब तो भारत के वर्तमान राष्ट्रपति जी तक ने जनता से सत्याग्रह करने की अपील की है। फिर संकोच कैसा ? भारत से ज्यादा जागरूक तो बांग्लादेश के आम नागरिक हS। जिन्होंने सड़कों पर उतर कर, चुनाव जीत कर आए राष्ट्रपति को जेल पहुंचवा दिया। कुछ बड़े नेताओं के सजा मिलने से भ्रष्टाचार जड़ से समाप्त नहीं होगा। परंतु उसके समाप्त होने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। कानून का डर मन में बैठने लगेगा।