Friday, January 28, 2000

शेषन के रास्ते विट्ठल ?

भ्रष्टाचार के मामलों में फंसे देश के 74 आईएएस व 21 आईपीएस अधिकारियों की सूची वेबसाइट पर जारी करके मुख्य सतर्कता आयुक्त श्री एन. विट्ठल ने नौकरशाही के बीच एक बम फेंक दिया है। पहली बार इस तरह अधिकृत रूप से इतने सारे अफसरों को इस तरह चैराहे पर निर्वस्त्रा करने के लिए जाहिर है कि श्री विट्ठल को जनता की बधाई मिल रही है। इसके साथ ही श्री विट्ठल ने पूरे देश के सरकारी दफ्तरों को निर्देश जारी किया है कि हर दफ्तर में श्री एन. विट्ठल के नाम वाला एक सूचना पट्ट लगाया जाए ताकि जनता उनसे भ्रष्टाचार की शिकायत कर सके। यह भी एक अच्छा प्रयास है। पर हम जानते हैं कि हर जो चीज चमकती है उसको सोना नहीं कहते। श्री विट्ठल के इरादे नेक हो सकते हैं। संभव है कि वे अपने नए पद के अनुरूप वाकई भ्रष्टाचार से लड़ने को कमर कस रहे हों। पर इस सबके बावजूद कुछ ऐसे पेंच हैं जिन्हें खोले बिना इस धर्मयुद्ध की असलियत नहीं समझी जा सकती।

लगभग सौ करोड़ की आबादी वाले इस देश में एक व्यक्ति पूरे देश की समस्याओं का हल नहीं निकाल सकता। न तो ये मानवीय रूप से संभव है और न ही व्यावहारिक। अगर यह मान भी लें कि अपने जीवट के कारण वह व्यक्ति सभी रूकावटों को पार करके अपने लक्ष्य को पाने में कामयाब हो जाएगा, तो भी यह प्रयास स्थायी नहीं हो सकता। क्योंकि उस व्यक्ति का कार्यकाल समाप्त होते ही ‘कुत्ते की पूंछ फिर टेढी’ हो जाएगी। वैसे भी लोकतंत्रा में सबसे ज्यादा ताकत लोगों के हाथ में होनी चाहिए। जिस काम को जनता जिम्मेदारी से उठाएगी उसके लंबे समय तक चलने की उम्म्ीद की जा सकती है। क्योंकि उसका लाभ जनता को ही मिलेगा। दुर्भाग्य से हमारे देश में सरकारी पदों पर बैठे लोग जब अपने सक्रिय जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंचते हैं तो उनमें से कुछ रातो रात क्रूसेडर बन जाते हैं। चूंकि देश की जनता की मानसिकता अभी भी सामंतवादी युग जैसी है, इसलिए उसे हमेशा किसी मसीहा या राजा का इंतजार रहमता है। उसकी अपेक्षा होती है कि ये मसीहा या राजा उसके सारे दुख दूर कर देगा और उसे यानी जनता को हाथ भी नहीं हिलाना पड़ेगा। मसीहाओं की इस मृगतृष्णा में भटकती जनता कभी जयप्रकाश नारायण के पीछे भागती है, कभी विश्वनाथ प्रताप सिंह के, कभी टीएन शेषन के और कभी अटल बिहारी वाजपेयी के। इस उम्मीद में कि कोई न कोई तो मुल्क के हालात जरूर बदल देगा। पर ऐसा हर व्यक्ति भ्रष्टाचार के विरूद्ध मुहिम में नाकाम रहता है। फिर जनता में हताशा फैल जाती है। हताशा के कुछ वर्षों के बाद फिर कोई नया मसीहा उदय होता है। लगता है मौजूदा केंद्रीय सतर्कता आयुक्त श्री एन. विट्ठल ऐसा ही नया मसीहा बनने की तैयारी कर रहे हैं। वो कितने कामयाब हो पाएंगे ये तो वक्त ही बताएगा। पर इतना निश्चित है कि भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी शक्तियां उन्हें कामयाब नहीं होने देंगी। जब तक वे भ्रष्टाचार से लड़ने का नाटक करते रहेंगे और उस नाटक का मीडिया में प्रचार करवाते रहेंगे तब तक किसी सत्ताधीश को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि उन्हें पता है कि लोकतंत्रा की सारी व्यवस्थाओं पर उनकी पकड़ इतनी मजबूत है कि श्री विट्ठल जैसे कितने ही आए और चले गए पर उनका बाल भी बांका नहीं कर सके। जैसे ही श्री विट्ठल ऐसे कड़े कदम उठाएंगे जिनसे सत्ताधीशों में अपने अस्तित्व का खतरा पैदा हो जाए तो वे श्री विट्ठल को पंगु बना कर एक कोने में पटक देंगे। ऐसा नहीं है कि श्री विट्ठल को इस बात का एहसास नहीं है। अपने भाषणों में वे खुल कर स्वीकार करते हैं कि सत्ताधीशों के विरूद्ध कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया जा सकता। तो फिर श्री विट्ठल क्या करने का प्रयास कर रहे हैं ? तो क्या इस अव्यवस्था से लड़ने का कोई तरीका नहीं है ? तो क्या भारत में कुछ नहीं बदलेगा ? नहीं, रास्ते तो हैं, बशर्तें कि उन्हें श्री विट्ठल जैसा व्यक्ति अपनाने को तैयार हो। ऐसी किसी भी बड़ी समस्या से लड़ने का सबसे शक्तिशाली तरीका है उस समस्या के विरूद्ध जनता को संगठित करके खड़ा कर देना। जो काम जयप्रकाश नारायण के बाद किसी ने नहीं किया। 1994-95 के बीच तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टीएन शेषन अपने कुछ कड़े फैसलों के कारण शहरी मध्यम वर्ग के आंख का तारा बन गए थे। शहरों में ही नहीं बल्कि देहातों और पिछड़ों इलाकों में भी उन्हें देखने और सुनने हजारों लोग उमड़ पड़ते थे। बंग्ला देश के युद्ध के बाद जैसी लोकप्रियता श्रीमती इंदिरा गांधी को मिली थी लगभग वैसी ही लोकप्रियता चुनाव सुधार के कदमों के कारण श्री शेषन को मिलने लगी। यह एक मौका था कि श्री शेषन अपनी लोकप्रियता का फायदा उठाते और गांव से लेकर देश की राजधानी तक जनता को हर स्तर पर संगठित करके चुनावों में निगरानी के लिए लोगों को प्रशिक्षित कर देते। उन्हें सिर्फ उत्प्रेरक की भूमिका निभानी थी। बहुत से लोगों ने उन्हें ऐसा करने की सलाह दी। उनके मतदाता जाकरूकता अधियान के तहत चूंकि मैंने भी उस दौर में देश भर में दर्जनों जनसभाएं उनके साथ जाकर संबोधित की और देखा कि उनकी लोकप्रियता को जन आंदोलन में बदलने की कितनी संभावना है। पर बार-बार सलाह देने के बावजूद वे ऐसे लोकतांत्रिक कदम उठाने को तैयार नहीं थे। नतीजा वही हुआ जो अपेक्षित था। लालू यादव सरीखे राजनेताओं ने और सर्वोच्च न्यायालय के रूख ने उनकी नाक में नकेल डाल दी। धीरे-धीरे वे हाशिए पर चले गए। चुनावों की जिन बुराइयों के खिलाफ वे मसीहा बन कर उभरे थे आज वे बुराइयां कमोबेश बदस्तूर जारी हैं। न तो राजनीति का अपराधिकरण रूका और न ही चुनावों में अवैध पैसे का प्रयोग ही। विधान सभाओं का चुनाव सामने है, सब फिर से सामने आ जाएगा।

आज वही गलती श्री विट्ठल दोहरा रहे हैं। वे श्री शेषन की तरह ही भाषणों की मैराथन में दौड़ रहे हैं। वही बात हर जगह कहते हैं। लोगों की तालियों की गड़गड़ाहट में आत्मसम्मोहन की अवस्था में सभागारों से बाहर निकलते हैं। पर पिछले डेढ वर्ष में उनकी एक भी उपलब्धि उल्लेखनीय नहीं है। वे हर सरकारी दफ्तर में अपने नाम का सूचना पट्ट लगा कर शायद जनता की निगाह में हीरो बनना चाहते हैं। ताकि जब मुख्य सतर्कता आयुक्त के रूप में उनका कार्यकाल समाप्त हो तो बिना सरकारी भ्रष्टाचार खत्म करवाए ही लोग उन्हें भ्रष्टाचार के विरूद्ध मसीहा मान लें। उन्हें कुछ अंतराष्ट्रीय एवार्ड मिल जाए और उनकी ख्याति इतनी फैल जाए कि सरकार उन्हें कोई बड़ा राजनैतिक पद देने को मजबूर हो जाए। अगर ऐसा नहीं है तो उन्हें सरकार में चार दशक तक काम करने के अपने अनुभव के आधार पर रणनीति बनानी चाहिए। देश भर से शिकायतें इकट्ठी करने की बजाए उन्हें जनता को इस तरह प्रशिक्षित करना चाहिए कि स्थानीय जनता भ्रष्ट सरकारी व्यवस्था से अपने स्तर पर स्वयं ही निपट ले। इससे न सिर्फ जनता में भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ने का उत्साह पैदा होगा बल्कि भ्रष्ट अधिकारियों और राजनेतओं में भी खौफ फैलेगा। क्योंकि उन्हें पता है कि एक शेषन या एक विट्ठल के तो हाथ-पांव बांधे जा सकते हैं पर एक लोकतांत्रिक देश में जब जनता का सैलाब उठता है तो उसे रोका नहीं जा सकता। फिर तो यह सैलाब अपनी चैथ वसूल करके ही लौटता है। इतना ही नहीं एक बार जब जनता भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई में छोटी-सी भी सफलता का स्वाद चख लेगी तो फिर खामोश नहीं बैठेगी। फिर तो उसका उत्साह और लड़ने की इच्छा दोनों बढ़ेंगे और उन सब लोगों को भी खींच लेंगे जो प्रायः ऐसी संघर्षात्मक स्थित में तटस्थ बैठ कर नजारा देखते हैं। फिर श्री विट्ठल रहंे या न रहें यह क्रम चलता रहेगा। जनता को क्या सिखाया जाए ? कैसे सिखाया जाए ? इस पर अलग से एक विस्तृत लेख लिखा जा सकता है। पर यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि ऐसे बहुत सारे तरीके हैं जिन्हें श्री विट्ठल टेलीविजन और अखबरों की मार्फत आम जनता तक पहुंचा सकते हैं। दुनियां के तमाम लोकतांत्रिक देशों में ऐसी ही प्रक्रियाओं से गुजर कर आम जनता जागरूक हुई है, संगठित हुई है और जुझारू बनी है। नतीजतन इन देशों की प्रशासनिक व्यवस्थाएं बहुत हद तक पारदर्शी और जवाबदेह है। उन व्यवस्थाओं में कार्यरत कर्मचारी और अधिकारी अपने वरिष्ठ अधिकारियों और राजनेताओं कीे चाटुकारिता में वक्त खराब नहीं करते बल्कि सड़क चलते आम आदमी को भी सम्मानसूचक शब्दों से संबोधित करके उसकी सेवा करने को तत्पर रहते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि अगर यह आम नागरिक नाराज हो गया तो उनकी नौकरी सलामत नहीं रहेगी।

जहां तक कि आम जनता द्वारा श्री विट्ठल के पास शिकायतें भेजने की बात है तो इसमें श्री विट्ठल सिवाए असफल होने के और कुछ नहीं हासिल कर पाएंगे। नई शिकायतें तो जब आएंगी तब आएंगी, पर उन शिकायतों का क्या हुआ जो पिछले सवा साल से श्री विट्ठल की फाइलों में धूल खा रही हैंे ? ये जानते हुए कि इन शिकायतों के समर्थन में पर्याप्त सबूत मौजूद है फिर भी श्री विट्ठल उन पर कुछ कर क्यों नहीं पाए ? आईएएस और आईएसपीएस अधिकारियों की जो सूची उन्होंने जारी की है वो तो ठीक है पर जो काम सीधे उनके अधीन है उसमें वे क्यों कोताही बरत रहे हैं ? श्री विट्ठल को ध्यान होगा कि ‘वादी विनीत नारायण व प्रतिवादी भारत सरकार’ के जिस मुकदमें के फैसले के तहत श्री विट्ठल को यह सब अधिकार दिए गए हैं, उसी फैसले में उन्हें यह भी हिदायत दी गई थी कि अपना कर्तव्य ठीक से अंजाम न देने वाले सीबीआई के अधिकारियों को वे सजा देने में सक्षम होंगे। उपरोक्त फैसले के तहत ही सीबीआई का निदेशक हर मामले में जांच की प्रगति की रिपोर्ट श्री विट्ठल को देने के लिए बाध्य है। दरअसल इस फैसले के बाद से सीबीआई के कामकाज पर निगरानी का जिम्मा ही केंद्रीय सतर्कता आयुक्त का हो गया है। सीबीआई के तमाम बड़े अधिकारी रिश्वत या तरक्की के लालच में भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामले पर खाक डालते रहे हैं व आरोपियों को बचाते रहे हैं। उनके ऐसे भ्रष्ट कारानामों की शिकायतों के प्रमाण श्री विट्ठल को कई बार सौपे जा चुके हैं। फिर क्या वजह है कि श्री विट्ठल सीबीआई के इन भ्रष्ट अधिकारियों को सजा देने या दिलवाने में नाकामयाब रहे हैं ?

अगर श्री विट्ठल वाकई इस देश में फैले भ्रष्टाचार को समाप्त करना चाहते हैं तो बजाए चारो तरफ हाथ मारने के उन्हें कुछ चुनिंदा मामलों में दिलचस्पी लेनी चाहिए। ये वो मामले हैं जिनमें देश के बड़े पदों पर बैठे सत्ताधीश शामिल हैं और जिन्हें तमाम सबूतों के बावजूद बड़ी बेशर्माई से दबा दिया गया है। अगर ऐसे कुछ बड़े मामलों को उनकी तार्किक परिणिति तक पहुंचाने में श्री विट्ठल जुट जाते हैं तो न सिर्फ इस मामलों में उन्हें सफलता मिलेगी बल्कि बाकी क्षेत्रों में भी आतंक फैल जाएगा। कहते हैं यथा राजा तथा प्रजा। पर श्री विट्ठल के तौर-तरीके को देखकर नहीं लगता कि वे ऐसा साहस दिखा पाएंगे। इस तरह न तो जनता को जागृत, संगठित और मजबूत कर पाएंगे और ना ही देश को लूटने वाले बड़े पदों पर आसीन सत्ताधीशों को ही सजा दिलवा पाएंगे। अंत में रहेंगे वही ढाक के तीन पात। इसलिए श्री विट्ठल के कामों को इस परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है, वरना निराशा ही हाथ लगेगी।

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