Friday, March 24, 2000

वंदावन पर ये हमला क्यों ?

वंृदावन में कहावत है कि यहां नौकरी करके एक महिला 15 सौ रुपया कमाती है, पर भिक्षा मांग कर कम से कम तीन हजार रुपए महीने कमाती है, इसमें अतिश्योक्ति जरा भी नहीं। पिछले दिनों मीडिया में वृंदावन की विधवाओं की दशा पर काफी लेख लिखे गए। वाॅटर फिल्म से उठे विवाद के बाद यह स्वभाविक था कि धर्मक्षेत्रों में आ कर रहने वाली विधवाओं की तरफ मीडिया की निगाह जाती। पर जिस तरह से ये लेख प्रकाशित हुए उससे ऐसा लगा मानो वृंदावन में रहने वाली विधवाओं की गति बंधुआ वेश्याओं से बेहतर नहीं है। जाहिर है कि यह लेख एक पूर्व निर्धारित मानसिकता से लिखे गए हैं। इसलिए इनमें कुछ तथ्यों को जानबूझकर अनदेखा कर दिया गया। मसलन, दिल्ली के एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक ने लिखा कि वृंदावन में लगभग 6 हजार विधवाएं रहती हैं। जबकि हकीकत यह है कि पश्चिम बंगाल की सरकार ने फरवरी में जो सर्वेक्षण करवा था उसमें इनकी संख्या मात्रा 4 हजार ही आंकी गई है। यह संख्या भी स्थिर नहीं रहती। मौसम, त्यौहारों और तीर्थ यात्रियों के आने से इन महिलाओं की संख्या घटती-बढ़ती रहती है। आजकल यह संख्या 2500 से ज्यादा नहीं है। जब वृंदावन में दान देने वाले तीर्थ यात्रियों की संख्या घट जाती है तो ये महिलाएं भी लौटकर पश्चिमी बंगाल में अपने गांव चली जाती हैं। इनमें भी बीस फीसदी ही कम उम्र की विधवाएं हैं। दस फीसदी परित्यक्ताएं हैं। जबकि बीस फीसदी वृद्ध महिलाएं हैं। जिनकी अपनी बेटे-बहुओं से अनबन होती है इसलिए वे भजनाश्रम में चली आती हैं। शेष 50 फीसदी महिलाएं बाकायदा शादीशुदा, शारीरिक रूप से सक्षम और अपने पति व परिवार के साथ रह रही होती हैं। जो रोजाना भजनाश्रम में कुछ घंटे भजन करने इसलिए आती हैं ताकि उन्हें भजन के बाद कुछ अनाज, दाल, पैसा या दूसरी सामग्री दान में मिलती रहे जो उनके परिवार की अतिरिक्त आमदनी का जरिया होती है।

इसलिए यह कहना सरासर गलत है कि ये सारी महिलाएं लाचार हैं, दयनीय दशा में हैं और पेट की आग बुझाने के लिए अपने तन को बेचने में संकोच नहीं करती या इनकी लाचारी का फायदा उठाकर भजनाश्रमों के प्रबंधक इनका शारीरिक शोषण करते हैं। वंृदावन में देश भर के लाखों संपन्न परिवार सारे साल तीर्थाटन करने आते रहते हैं। ये परिवार अक्सर भजनाश्रम की इन बंगाली महिलाओं को अच्छी नौकरी दे कर मुंबई, कलकत्ता, बंग्लौर जैसे शहरों में ले जाते हैं। उनकी भावना यह होती है कि एक भक्त महिला उनके घर रह कर भजन भक्ति करेगी। साथ ही उनके घर की रसोई या ठाकुर सेवा भी करेगी। पर अक्सर ये महिलाएं ऐसी इज्जतदार नौकरियों को भी छोड़कर वंृदावन भाग आती हैं। इनमें से ज्यादातर तो किसी किस्म की नौकरी करने को तैयार ही नहीं होती हैं। क्योंकि वो जानती है कि अगर नौकरी करेंगी तो उन्हें दिन में कुछ घंटे मेहनत करनी पड़ेगी। जबकि भजनाश्रम में कुछ घंटे भजन करके ही उनके ही नहीं उनके परिवार के लिए भी काफी दान मिल जाता है। एक अजीब बात यह है कि जो लोग केवल भजन भक्ति की भावना से वंृदावन में छोटे-छोटे भजनाश्रम खोलते हैं और उनमें भजन करने आने वाली महिलाओं को पेट भर राशन या भोजन देने की व्यवस्था करते हैं, उनमें ये महिलाएं जाना पसंद नहीं करती। ये तो बालाजी आश्रम और भगवान भजनाश्रम सरीखे उन भजनाश्रमों में सैकड़ों की संख्या में रोजना पहुंचती हैं, जहां आए दिन तमाम बड़े सेठ इन्हें साड़ी, बर्तन,कंबल, नकद आदि बांटते रहते हैं। यूं सड़क चलते भिक्षा के लिए लगी कतारों और भिक्षा मांगने वाली महिलाओं के बीच की धक्का-मुक्की को देखकर कोई भी अनजान व्यक्ति उनकी दयनीय दशा पर द्रवित हो जाएगा। पर असलियत यह है कि वंृदावन की इन बंगाली महिलाओं के बीच एक शब्द बड़ा लोकप्रिय है, ‘बांटा-बांटी।’ आग की तरह इनके बीच ये खबर फैल जाती है कि आज फलां आश्रम में या फलां धर्मशाला में ‘बांटा-बांटी’ होगी। यह सुनते ही सैकड़ों की तादाद में महिलाएं उसी तरफ दान बटोरने दौड़ पड़ती हैं। ज्यादातर महिलाएं साल भर में इतना सामान और धन इकट्ठा कर लेती हैं कि साल में एक बार उसे लेकर पश्चिमी बंगाल स्थित अपने गांव जाती हैं और अपने घर वालों को देकर आती हैं। इतना ही नहीं उनकी खुशहाली देखकर दूसरी महिलाएं व परिवार उनके साथ चले आते हैं।

ऐसा नहीं है कि भजनाश्रम में रहने वाली महिलाओं के साथ यौनाचार होता ही न हो। पर यह समस्या इतनी व्यापक और भयावह नहीं है जितना बढ़ा-चढ़ा कर मीडिया में पेश की गई है। जैसाकि आंकड़ों से स्पष्ट ही है कि भजनाश्रमों में आने वाली आधी महिलाएं तो विवाहित हैं और अपने परिवार के साथ वंृदावन में रहती हैं। शेष आधी में से लगभग आधी वृद्धा हैं। इस तरह तीन चैथाई महिलाओं के तो शारीरिक शोषण की समस्या नगण्य है। जो चैथाई युवा विधवाएं हैं भी तो उनके साथ मुक्त यौनाचार की संभावनाएं ऐसी नहीं है, जैसी पेश की गई हैं। जो कुछ होता भी है वह पारस्परिक सहमति से ही होता है, जोर-जबरदस्ती से नहीं। वंृदावन के सामाजिक कार्यों में जमकर रूचि लेने वाले युवा श्री विपिन व्यास का कहना है कि अगर महिलाओं के साथ इस तरह का यौनाचार होता तो वंृदावन का समाज उसे चुप रह कर बर्दाश्त करने वाला नहीं था, बवेला खड़ा हो जाता। वे सवाल पूछते हैं कि महानगरों के कुलीन समाज में जेसिका लाल जैसी पार्टियां या घटनाएं क्या महिलाओं के शोषण की श्रेणी में आती हैं या आधुनिक समाज की तथाकथित मुक्त जीवन-शैली की श्रेणी में ? श्री व्यास जैसे वंृदावन के अनेक युवा पिछले दिनो वंृदावन पर हुए मीडिया के हमले को लेकर काफी नाराज हैं। वे सवाल करते हैं कि इस तरह की रिपोर्ट प्रकाशित करने वालों ने कुछ महत्वपूर्ण सवालों की उपेक्षा क्यों की ? क्या यह तथ्य पड़ताल का विषय नहीं है कि वंृदावन में आश्रय लेने वाली ज्यादातर महिलाएं और गरीब परिवार पश्चिमी बंगाल से ही क्यों आते हैं ? साफ जाहिर है कि दो दशकों के कम्युनिस्ट शासन के बावजूद पश्चिमी बंगाल की सरकार वहां के आम लोगों की गरीबी दूर नहीं कर पाई। दूसरा कारण यह है कि पश्चिमी बंगाल में विधवाओं के प्रति जो अत्याचार सदियों से होता आया है उसे भी वामपंथी सरकार रोक पाने में नाकाम रही है। तभी तो वे वहां से जान बचा कर वंृदावन भागी आती हैं। वैसे इस सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण कारण तो यह है कि 15वीं सदी में बंगाल के नादिया जिले में श्री चैतन्य महाप्रभु ने कुष्ण भक्ति की जो लौ जलाई थी उसकी लहर आज तक बंगाल से हर उम्र के कृष्ण भक्तों को खींचकर वंृदावन लाती रही है। ये महिलाएं वंृदावन में सादगी और साधना का जीवन जी कर अपना आध्यात्मिक जीवन सवारने के उद्देश्य से आती हैं। वंृदावन के एक मशहूर भजनाश्रम की व्यवस्था से जुड़े श्री कपिलदेव का मानना है कि भजनाश्रमों पर इस तरह का हमला बोलकर कुछ आत्मघोषित समाज सुधारक और सरकारी अधिकारी विधवा आश्रमों के नाम पर सरकारी अनुदान प्राप्त करने की योजना बना रहे हैं ताकि उसे हजम किया जा सके। वे प्रश्न पूछते हैं कि अगर सरकार को इन महिलाओं की इतनी ही चिंता है तो क्या वजह है कि भारत सरकार द्वारा वंृदावन में संचालित ‘मीरा उद्धार योजना’ के अंतरगत चल रहे शरणालय में भीषण जाड़ों में भी इन महिलाओं को बिस्तर तक उपलब्ध नहीं कराए गए। इसी तरह ‘अमार बाडी’ संस्था जो कि भारत सरकार से अनुदान लेती है और श्रीमती मोहिनी गिरी के निर्देशन में चलती है, इन महिलाओं को आकर्षित करने में नाकामयाब क्यों रही हैं?

दरअसल वंृदावन में रहने वाली इन महिलाओं की समस्या का रूप कुछ दूसरा ही है। सब जानते है कि तीर्थ स्थानों पर पंडों का अपना साम्राज्य चलता है। पंडागिरी की सदियों पुरानी यजमानी व्यवस्था के क्रमशः टूटते जाने के कारण अब पंडा समाज में भी काफी विकृति आती जा रही है। जहां पहले पंडा यानी तीर्थ पुरोहित अपने यजमान का मेजबान, गाॅइड व गुरू सब कुछ होता था वहीं आज पंडे और तीर्थ यात्राी का संबंध व्यापारिक होता जा रहा है। पंडे समाज के ही कुछ लोग भजनाश्रमों के नाम पर तीर्थयात्रियों को मूर्ख बना कर रोजना मोटा पैसा वसूल लेते हैं और उसे हजम कर जाते हैं। चूंकि तीर्थ स्थान पर आ कर दान करना एक पुरानी प्रथा है इसलिए हर गरीब या अमीर आदमी अपनी हैसियत अनुसार कुछ न कुछ दान अवश्य करता है। आवश्यकता इस बात की है कि इस दान के संग्रह और विनियोग की व्यवस्था को पारदर्शी और सुदृढ़ बनाया जाए। इसके साथ ही इन महिलाओं को धन और वस्तुओं का दान देकर उन्हें परजीवी न बनाया जाए। बल्कि इन्हें भजन के साथ धाम की सेवा व्यवस्था में रोजगार देकर लगाया जाए। क्योंकि ये धाम छोड़कर भी नहीं जाना चाहती और इतने तीर्थयात्रियों के आने से धाम की व्यवस्था सुचारू रह भी नहीं पाती। अगर कोई प्रतिष्ठित संस्था या समूह इस काम का बीड़ा उठाए और उसे वंृदावन के समाज, स्थानीय प्रशासन व सरकार का सहयोग मिले तो वृद्धा महिला आश्रम जैसे स्थानों पर सुविधाएं बढ़ा कर वास्तव में दुखी महिलाओं की अच्छी देखभाल की जा सकती है। जबकि कम उम्र महिलाओं के रोजगार की व्यवस्था की जा सकती है।

दक्षिणी दिल्ली के साउथ एक्सटेंशन इलाके में एक ईसाई मिशनरी संगठन अनेक वर्षों से बड़ी कुशलता से इस तरह का एक कार्यक्रम चला रहा है। यह संगठन जरूरतमंद ईसाई युवतियों को देश के विभिन्न हिस्सों से दिल्ली बुलाता है, उन्हें घर के सभी काम-काम करने का प्रशिक्षण देता है और फिर उन्हें सभ्रांत और संपन्न परिवारों में नौकरी दिलवा देता है। एक अच्छी बात ये है कि यह संगठन नौकरी दिलवाने के बाद इन युवतियों को भूल नहीं जाता बल्कि उनके मालिक से संबंध, उनके काम की दशा और उनकी बाकी जरूरतों के लिए हमेशा सजग और तत्पर रहता है। चूंकि एक इज्जतदार संगठन इन ईसाई महिलाओं के आचरण की जमानत लेने को तैयार बैैठा है इसलिए रोजगार देने वाले परिवारों को कोई शंका या संकोच नहीं रहता। ऐसे लोगों की एक लंबी प्रतीक्षा सूची इसं संस्था के कार्यालय में हमेशा बनी ही रहती है। यानी रोजगारा देने वाले ज्यादा, रोजगार लेने वाले कम। इसी तरह वंृदावन में भी कोई योजना चला कर इन महिलाओं को प्रशिक्षित व संगठित किया जा सकता है और यदि वे चाहें तो उन्हें साधन संपन्न कृष्ण भक्त परिवारों के यहां रोजगार दिलवाया जा सकता है। देश में अनेक कृष्ण भक्त संपन्न परिवार ऐसे हैं जो चाहते हैं कि उनके घर की बुजुर्ग विधवा महिला की देखभाल के लिए ऐसी ही कोई जरूरतमंद व भक्त प्रवृत्ति की महिला हो। इसलिए यदि यह योजना वंृदावन में ढंग से चलाई जाए तो न तो धन की कमी रहेगी और ना ही रोजगार की।

किसी भी व्यवस्था पर सीधे चोट कर देना सबसे सरल काम है। पर उस व्यवस्था को समझ कर उसमें सुधार करना या उससे बेहतर विकल्प देना बहुत कठिन होता है। जो लोग भी आज हिंदू समाज के पीछे डंडा लेकर पड़े हैं उन्हें अपनी बयानबाजी से पहले तथ्यों की निष्पक्ष पड़ताल करनी चाहिए। बुराई को बुरा कहना बुरा नहीं। पर अच्छाई को बुराई बना कर पेश कराना बहुत घातक होता है। वंृदावन के भजनाश्रमों ने दशकों से बेसहारा महिलाआंे को आश्रय दिया है और आज भी दे रहे हैं। यह सब बिना किसी सरकारी अनुदान के केवल निजी प्रयासों से हो रहा है। उन पर इस तरह एक तरफा तीखा हमला करना ना तो इन महिलाओं के हक में है और ना ही इस व्यवस्था के। इससे तो गेंहू के साथ घुन भे पिस जाएगा। जो लोग सदभावना से अपना निजी धन लगा कर ये व्यवस्थाएं चला रहे हैं उनके भी दिल पर ठेस लगेगी। हो सकता है कि वे इस दुष्प्रचार से दुखी होकर इस तरह की सेवा से ही हाथ खंींच लें। अगर प्रशासनिक अधिकारी, प्रोफेशनल समाजसेवी और चंद मीडिया वाले यह सोचते हैं कि सरकार इन महिलाओं के कल्याण के लिए कोई योजना सफलतापूर्वक चला पाएगी तो यह उनका भ्रम है। गरीबों को सहायता देने के नाम पर सरकार ने अंत्योदय, आंगनबाड़ी, प्रौढ़ शिक्षा और समेकित ग्रामीण विकास जैसी दर्जनों योजनाएं पिछले पचास वर्षों में देश भर में चलाईं। इन पर अरबो रुपया खर्च हुआ पर नतीजा शून्य के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रहा। सारी उपलब्धियां कागजों पर ही दिखाई दीं, धरातल पर नहीं। फिर कैसे माना जाए कि भजनाश्रम की महिलाओं के लिए सरकार कुछ अनूठा कर पाएगी? इसलिए उनकी समस्या का निदान मौजूदा स्थिति में ही ढूंढना होगा। वंृदावन की पूरी अर्थव्यवस्था तीर्थयात्रियों और दान पर टिकी है। अपनी संस्कृति को थाईलैंड, इंडोनेशिया और मलेशिया जैसे छोटे-छोटे देश पर्यटक पैकेज के रूप में बेच कर अरबों डाॅलर कमाते हैं और सराहे जाते हैं, उसी तरह वंृदावन जैसे धार्मिक क्षेत्रा भी तीर्थयात्रियों को आनंद की अनुभूति देकर बदले में कुछ दान प्राप्त करते हैं। इस तरह का सुनियोजित दुष्प्रचार वंृदावन की अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव ही डालेगा। जिससे किसी का भी भला नहीं होगा।

Friday, March 17, 2000

नए सरसंघ चालक के सामने कुछ चुनौतियां


आरएसएस के नए सरसंघ चालक श्री केएस सुदर्शन जी का ताजा बयान आरएसएस के भविष्य की ओर संकेत करता है। इस बयान को पढ़कर लगता है कि अपने गंभीर और चिंतनशील व्यक्तित्व के अनुरूप सुदर्शन जी संघ को जुझारू तेवर की तरफ मोड़ने की तैयारी कर रहे हैं। संघ के सर्वोच्च पद की कमान संभालते ही उन्होंने वाजपेयी सरकार के आर्थिक सलाकारों पर करारा प्रहार किया है। उन्हें तुरंत हटाए जाने की मांग की है और भरत झुनझुनवाला जैसे स्वदेशी अर्थव्यवस्था के समर्थक अर्थशास्त्रिायों की सलाह पर ध्यान देने की बात कही है। इसके साथ ही उन्होंने संविधान को पूरी तरह बदलने की आवश्यकता पर भी जोर दिया है। उन्होंने लघु और कुटीर उद्योगों और समाज के शोषित व पीडि़त वर्ग के साथ हो रही ना इंसाफी से भी निपटने की जरूरत पर बल दिया है। सुदर्शन जी जैसा व्यक्तित्व जिसने अपना पूरा जीवन त्यागमय सादगी से राष्ट्र को समर्पित कर दिया हो, जिसने राष्ट्र के हित को सर्वोपरि रखते हुए परिवार के बंधन में न बंधने की कसम खाई हो, जिसने पद, प्रशस्ति और पारितोषित की अपेक्षा के बिना केवल राष्ट्रनिर्माण की भावना से सारा जीवन काम किया हो, उसका उद्बोधन राजनैतिक बयानबाजी कतई नहीं हो सकता। उनके एक-एक शब्द में इस राष्ट्र के प्रति चिंता और पीड़ा झलकती है। इसलिए उनके इस बयान का काफी महत्व है। इससे पता चलता है कि संघ का नया नेतृत्व देश की वर्तमान व्यवस्था से संतुष्ट नहीं है। हालात से समझौता करना उसकी मजबूरी है। क्योंकि उन्हें पता है कि अल्पसंख्यक सरकार और राज्य सभा में बहुमत का अभाव भाजपा सरकार को वह सब कुछ नहीं करने देगा जिसकी उससे अपेक्षा थी। यह मजबूरी भी सुदर्शन जी के बयान में साफ दिखाई देती है। यानी संघ का नया नेतृत्व केवल भावनाओं के प्रवाह में बह कर अव्यवहारिक अपेक्षाओं को नहीं पाल रहा है। बल्कि संजीदगी से मौजूदा स्थिति का मूल्यांकन करते हुए, जो अधिकतम संभव है, उसकी अपेक्षा रखता है। संघ के नेतृत्व के नजरिए में यह परिवर्तन गत दो वर्ष में, केंद्र में अपनी समर्थित सरकार को चलाए जाने के दौरान आए अनुभवों के आधार पर आया है।
कैसी विडंबना है कि राष्ट्र और समाज के जिन मुद्दों को लेकर संघ का नेतृत्व चिंतित हैं उन्हीं मुद्दों को लेकर महात्मा गांधी के अनुयायी भी उतने ही चिंतित हैं। उन्हीं मुद्दों को लेकर देश के धुर-वामपंथी या नक्सलवादी भी चिंतित हैं। उन्हीं मुद्दों को लेकर वे लोग भी चिंतित हैं जो समाज के पीडि़त और शोषित वर्ग के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। फर्क इतना सा है कि जहां संघ की अंतरधारा सत्तारूढ़ भाजपा से जुड़ी है वहीं स्वदेशी के हामी बाकी के इन समूहों के कंधों पर ऐसा कोई भार नहीं है। शायद इसीलिए वे ज्यादा जुझारू और उन्मुक्त हैं। पर यहां जो बात आम आदमी की समझ में नहीं आती वह यह है कि इन विभिन्न वैचारिक धाराओं के बावजूद जब इन सभी के दिमाग में भारत की आर्थिक संरचना का स्वरूप लगभग एकसा है, जब इन सभी का लक्ष्य भारत को आत्मनिर्भर और सुदृढ़ राष्ट्र बनाना है, जब ये सभी बढ़ते उपभोक्तावाद से चिंतित हैं, जब ये सभी भू-मंडलीयकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मकड़ जाल से भारत को बाहर निकालने के पक्षधर हैं, तो क्या वजह है कि ये सारे जुझारू संगठन किसी आम सहमति के मसौदे पर एकजुट होकर व्यापक जन आंदोलन नहीं छेड़ते ? शायद इसलिए कि इनमें पारस्परिक अविश्वास है। इनमें से हर समूह दूसरें को शक की निगाह से देखता है और उसे निहित स्वार्थों के हितों का मुखौटा मानकर चलता है। सब एक दूसरे पर छिपे राजनैतिक एजेंडा होने का आरोप  भी लगाते हैं। केवल एक मुद्दा ऐसा है जिस पर ईमानदार लोगों के बीच भी स्वभाविक मतभेद है और वह है आध्यात्मिकता का सवाल। जहां गांधीवादी और संघी लोग राजनीति का आधार अपने अपने तरीके का अध्यात्म बनाना चाहते हैं, वहीं वामपंथियों को अध्यात्म से साम्प्रदायिकता की बू आती है। चूंकि यह बहस शाश्वत है इसलिए इसका तुरत-फुरत समाधान नहीं निकल सकता है। इसलिए यह जरूरी है कि इस सवाल को फिलहाल एक तरफ रख दिया जाए। केवल आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों को लेकर पारस्पिरिक संवाद स्थापित किया जाए और साझी रणनीति बनाए कर एक न्यूनतम साझे कार्यक्रम पर राष्ट्र को आंदोलित किया जाए। चूंकि सुदर्शन जी के पास इस वक्त इस किस्म का सबसे बड़ा संगठन है इसलिए उन पर ही यह नैतिक जिम्मेदारी आन पड़ती है। वे ही इसकी पहल करें तो बात कुछ बन सकती है। चूंकि उनके संगठन को परोक्ष रूप से वर्तमान सरकार का समर्थन प्राप्त है इसलिए सबसे ज्यादा शंका और आरोपों को सामना भी उन्हें ही करना होगा। बावजूद इसके अगर वे दूसरे वैचारिक समूहों को यह विश्वास दिला सकें कि आर्थिक और सामाजिक मामलों पर बुनियादी सवालों को लेकर उनकी समझ और दृष्टि में कोई खोट नहीं है, तो शायद वे इन दूसरे वैचारिक समूहों को किसी साझे मंच पर लाने में कामयाब हो सकेंगे। सुदर्शन जी को चाहिए कि वे समाज और राष्ट्र के प्रति समर्पित ऐसे सभी वैचारिक समूहों को इस बात से आश्वस्त करें कि आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों पर उनका संगठन अपना दूरगामी एजेंडा नहीं थोपेगा। वे यह भी बताएं कि उनका मकसद किसी भी ऐसे संगठन या समूह का शोषण करके अपना राजनैतिक आधार मजबूत करना नहीं है। उन्हें मौजूदा परिस्थिति कीे भयावहता की दुहाई देकर इन समूहों और संगठनों को बताना चाहिए कि छोटे मुद्दों पर पारस्परिक संघर्ष में ऊर्जा बर्बाद करने से कहीं बेहतर होगा कि अपनी ताकत उन शक्तियों के विरूद्ध मोड़ी जाए जो भारत का दोहन करके इसकी हालत अफ्रीकी या लातनी अमेरीकी देशों के तरह कर देने पर तुली हैं। यदि सुदर्शन जी ऐसा कर पाए तो इसके दूरगामी परिणाम होंगे। इससे एक ऐसा दबाव समूह विकसित होगा जो मौजूदा और भावी सरकारों की नीतियों पर अंकुश का काम करेगा। जहां एक तरफ यह जिम्मेदारी सुदर्शन जी की है कि वे विभिन्न वैचारिक समूहों को एक साझे मंच पर ला कर इस लड़ाई को आगे बढ़ाएं वहीं बाकी के समूहों से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वे हालात की नजाकत को देखते हुए मैं ठीक बाकी गलतकी मानसिकता से बाहर निकलें और अपने संगठनों का आत्म-मूल्यांकन करें। यह देखें कि पिछले वर्षों में उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद उनकी उपलब्धियां क्या उल्लेखनीय रही हैं ? क्या वे अपने संघर्षों और अभियानों को अपेक्षित सफलता दिला पाने में कामयाब हुए हैं ? क्या उनको मिली सफलता राष्ट्र के सामने खड़ें संकट की तुलना में कुछ अहमियत रखती है ? अगर इन प्रश्नों के उत्तर नकारात्मक हैं तो उनके लिए भी यह चिंता का विषय होना चाहिए। इस तरह नौ दिन चले अढ़ाई कोसकी गति से वे कैसे अपनी मंजिल पा सकेंगे? कब तक वे यूं ही छोटे-छोटे स्थानीय संघर्षों में उलझ कर बड़े लक्ष्यों को कुर्बान कर देंगे ? क्या वे दानवीय शक्तियों की क्षमता से नावाकिफ हैं ? क्या वे मानते हैं कि जो दुनिया में अन्यत्रा नहीं हो सका, वे उसे कर दिखाएंगे ? क्या उन्हें अभी भी यह भ्रम है कि उनके पूर्वजों द्वारा प्रतिपादित क्रांति इस देश में हो पाएगी ? अगर नहीं तो फिर इस मिथ्या स्वाभिमान और मिथ्या आत्मविश्वास से उन्हें निराशा ही हाथ लगेगी। इसलिए राष्ट्रहित में ऐसे साझे मंच पर खडे़ होना उनके लिए भी घाटे का सौदा नहीं होगा।
यहां यह उल्लेख करना अप्रासांगिक नहीं होगा कि संघ नेतृत्व बार-बार यह दोहराता रहा है कि उनका लक्ष्य केंद्र व राज्य में सरकारें चलाना नहीं बल्कि राष्ट्र का निर्माण करना है। जिसकी प्राप्ति के लिए वे कोई भी कुर्बानी देने के लिए तैयार हैं। फिर चाहे वो उनके द्वारा समर्थित किसी सरकार की हो या उस सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे किसी व्यक्ति की हो। अगर यह उद्घोषणा आरएसएस के उच्च नैतिक आदर्शों के अनुरूप की गई है तो संघ पर शक करने की कोई वजह नहीं रह जाती। पर शक तब तक किया जाएगा जब तक इस उद्घोषणा का धरातल पर क्रियान्वयन देश देख नहीं लेता। कुछ मुद्दों पर अगर संघ कड़ा रूख अपना कर सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर दे तो उसकी विश्वसनीयता कई गुना बढ़ जाएगी। यहां यह सावधानी भी बरतनी होगी कि यह मुद्दे संघ के छिपे एजेंडे से न होकर उस एजेंडे से हो जिस पर साझी सहमति है। देश के जंगल, जल और जमीन से जुडे़ ऐसे तमाम सवाल हैं जिन पर संघ को अनेक वैचारिक समूहों का समर्थन मिलेगा। यह बात सुदर्शन जी अच्छी तरह जानते हैं। इसलिए उनसे अपेक्षा की जाती है कि अपनी नई भूमिका में वे कुछ ऐसे ही बुनियादी सवालों को उठाकर संघ और जन आंदोलनों को नई दिशा देने में कामयाब होंगे। अगर वे ऐसा नहीं कर सके तो वे इस मुल्क में अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाने से वंचित रह जाएंगे। तब उनकी दशा भी उन वयोवृद्ध समाजसुधारकों और राजनेताओं जैसी होगी जो पूरे जीवन भर अपने उच्च नैतिक मूल्यों के कारण समाज में सम्मान तो पाते रहे हैं पर समाज के लिए कुछ कर नहीं पाए। ऐसे तमाम लोग बड़ी आसानी से यह कह कर चुप बैठे हैं कि, ‘इस मुल्क में अब कुछ नहीं हो सकता।ऐसा कहने वालों में साम्यवादियों से लेकर कांग्रेसी और भाजपाई नेता तक भी शामिल हैं। माना जाना चाहिए कि सुदर्शन जी ऐसे अच्छे किंतु नाकारा लोगों की जमात में खड़ा होना पसंद नहीं करेंगे। वे अपने लंबे सामाजिक जीवन के अनुभव के आधार पर संघ को जुझारू तेवर भी देंगे और नई दिशा भी ताकि संघ भाजपा का पिछलग्गू संगठन न रह कर राष्ट्रनिर्माण का अगुआ बनें।

Friday, March 3, 2000

राम भरोसे स्वास्थ्य सेवाएँ

आजादी के बाद नियोजित कार्यक्रम के तहत देश भर में जो कार्यक्रम शुरू किए गए थे, उनमें ग्रामीण इलाकों के लिए स्वास्थ्य परियोजनाएं भी थीं । मकसद था देश के देहातों में स्वास्थ्य सेवाओं का जाल बिछाना ताकि गरीब लोगों की सेहत सुधर सके। आज पचास वर्ष बाद हालत यह है कि गरीब की सेहत सुधरना तो दूर स्वास्थ्य सेवाओं की ही सेहत खराब हो गई है। बावजूद इसके नए नए नारों से, नए नए वायदों से, नई नई योजनाओं के सपने दिखाकर देश का पैसा बर्बाद किया जा रहा है। स्वास्थ्य आदमी की बुनियादी जरूरत है। इसलिए उसकी चिंता जितनी आम आदमी को होती है उतनी ही सरकार को भी होनी चाहिए। केन्द्र की मौजूदा सरकार ने कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए विशेष रूचि दिखाई है। एक मंत्राी इसी काम के लिण् तैनात कर दिया है। जाहिर है कि सभी चालू सरकारी योजनाओं की गुणवत्ता में सुधार आना चाहिए। इसलिए जरूरी है कि अब तक चले कुछ महत्वपूर्ण कार्यक्रमों का मूल्यांकन किया जाए। उत्तर प्रदेश में भाजपा की ही सरकार है। अगर कोई सुधार लागू हो सकता है तो वह यहां ज्यादा सरलता से होगा बजाय उन राज्यों के जहां केन्द्र सरकार के विरोधी दल सत्ता में हैं। देश की संसद को सातवां हिस्सा सांसद देनेवाला सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में बुरी तरह विफल रहा है। पिछले कई वर्षों की भाजपा सरकार के बावजूद इसके हालात सुधर नहीं रहे हैं। विकास के नाम पर विनाश की यह बर्बादी पांच दशक पुरानी है। जिसका बड़ा गहरा अध्ययन वाॅलन्ट्री हेल्थ ऐसोसिएशन की उत्तर प्रदेश टीम ने किया है। जिससे सारी तस्वीर साफ हो जाती है। बिना संकोच के यह माना जा सकता है कि जो तस्वीर उत्तर प्रदेश की है कमोवेश वही तस्वीर देश के बाकी प्रान्तों की भी है।

नियोजित विकास के तहत प्रदेश के देहातों में सामुदायिक विकास खण्डों में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की स्थापना की गई। मूल सोच यह थी कि ग्रामवासियों के लिए चिकित्सा, स्वास्थ्य व परिवार कल्याण सेवाएं एकीकृत रूप में उपलब्ध कराई जायेंगी। जिनमें उपचार, वातावरण स्वच्छता (सुरक्षित पेय जय आपूर्ति व कूड़ा-मलमूत्रा निपटाना), मातृ शिशु स्वास्थ्य, विद्यालय स्वास्थ्य, संक्रामक रोगों की रोकथाम, स्वास्थ्य शिक्षा व जन्म-मृत्यु आंकड़ों का संकलन जैसी सेवाएं शामिल थीं। दूसरी पंचवर्षीय योजना की समाप्ति पर उत्तर प्रदेश में 907 प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र स्थापित हो चुके थे। मैदानी क्षेत्रों में 5000 व बुन्देलखण्ड व पर्वतीय क्षेत्रों में 3000 की आबादी पर एक मातृ शिशु स्वास्थ्य उपकेन्द्र भी खोले गए। इन उपकेन्द्रों पर प्रसवपूर्व, प्रसव के दौरान व प्रसवोपरान्त स्वास्थ सेवाओं के साथ प्रतिरक्षण, निर्जलीकरण उपचार के लिए घोल वितरण और खून की कमी दूर करने के लिए आयरन या फोलिक एसिड की गोलियां बांटना व अन्धेपन व नेत्रारोग से बचाव हेतु विटामिन घोल बांटना शामिल था। कालान्तर में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में परिवर्तित होना था। इसलिए पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान इन केन्द्रों में जहां शल्य क्रिया, बाल रोग विशेषज्ञ, महिला रोग विशेषज्ञ व पैथालाॅजी सेवाएं और बढ़ाई गईं वहीं प्रत्येक केंद्र में मरीजों के लिए उपलब्ध बिस्तरों की संख्या 6 से 30 कर दी गई। जाहिर है इस पूरे तामझाम पर जनता का अरबों रूपया खर्च हो रहा है। पर क्या जो कुछ कागजों पर दिखाया जा रहा है वह जमीन पर भी हो रहा है ? उत्तर प्रदेश के किसी भी गांव में जाकर असलीयत जानी जा सकती है। इतना ही नहीं आबादी के तेजी से बढ़ते आकार के बावजूद 1988-89 से पूरे प्रदेश में जनसंख्या पर आधारित सेवा केन्द्रों व कर्मचारियों को बढ़ाने का काम ठप्प पड़ा है। प्रदेश के 48 ए.एन.एम. प्रशिक्षण केन्द्रों में डल्लू बोल रहे हैं। यहां से आखिरी बैच 1986-87 में निकला था। जिसमें 2000 स्वास्थ्यकर्मि पास हुए थे। पर उनकी भी आज तक न तो नियुक्ति की गई और न ही उपकेन्द्र ही खेले जा सके। इन केन्द्रों के हाल इतने बुरे हैं कि सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में कोई भी विशेषज्ञ अपनी नियुक्ति नहीं चाहता। सब जानते हैं कि ए.एन.एम. गांव में नहीं रहती। प्रशिक्षण केन्द्रों का पूरा स्टाफ व साज सज्जा 10 साल से बेकार पड़ी है। पिछले 10 वर्षों से जो स्टाफ रिटायर हो चुका है उनकी जगह रिक्त हुए पदों पर कोई प्रतिनियुक्ति नहीं हुई। अतः हजारों की संख्या में महिला व पुरुष स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के पद खाली पड़े हैं। दिवालिया सरकार और कर भी क्या सकती है ?

इस तरह यह सभी सेवा केन्द्र चिकित्सकीय व स्वास्थ्य सेवाएं तो न मुहैया करा पाये, अलबत्ता नसबन्दी कराने के केन्द्र जरूर हो गए। 1970-71 से 1991-92 तक नसबंदी के अलावा यहां कुछ भी नहीं हुआ। बीस सूत्राीय कार्यक्रमों के दौरान जो फर्जी नसबंदी का दौर चला था, वह अभी थमा नहीं है। नसबंदी की उपलब्धियां फर्जी तौर पर बढ़ा चढ़ाकर बताई जाती रहीं और इन्हीं ‘उपलब्धियों’ की एवज में नौकरशाह करोड़ों रूपए के पुरस्कार लेते रहे। इस तरह प्रदेश की बेबस जनता पर दुहरी मार पड़ी है। 1994 में काहिरा के अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में तय हुआ कि लक्ष्य निर्धारण बजाए ऊपर से नीचे की तरफ होने के, नीचे से ऊपर की ओर होगा। इससे तो स्वास्थ्य कर्मियों की मौज आ गई। काम तो वो पहले भी कागजों पर ज्यादा करते थे, अब तो उसकी भी जरूरत नहीं रही क्योंकि लक्ष्य मुक्त कार्यविधि 1995-96 से लागू कर दी गई। इस तरह सब कार्यमुक्त हो गए व नसबंदी भी नहीं हुई। इस घोटाले से उबरने के लिए भारत सरकार ने मजबूर होकर दुबारा लक्ष्य मुक्त पद्धति के स्थान पर सामुदायिक परख पद्धति 1997 में लागू की। मकसद था कि समुदाय की आकांक्षाओं के अनुरूप सेवाएं दी जाएं। सबसे बड़ी बात यह हुई कि नीति व पद्धतिगत इस मौलिक बदलाव के लिए कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण बाद में हो रहा है, यानी घोड़ांे के आगे गाड़ी खड़ी है। फिर ये गाड़ी चलेगी कैसे ?
1970-71 से प्रदेश में अन्तर्राष्ट्रीय दाताओं का बड़े पैमाने पर प्रादुर्भाव हुआ। विश्व बैंक द्वारा इसी वर्ष प्रदेश के 6 पूर्वी जिलों में ‘भारत जनसंख्या परियोजना’ लागू हुई। योजना का मूल उद्देश्य सेवा संगठनों को मजबूत करना था। फलतः एक ओर नव निर्माण शुरू हुआ दूसरी ओर नए चिकित्सकीय सेवा केन्द्र खोले गए। आजमगढ़, गाजीपुर, बलिया में तमाम उपकेन्द्र गांव से दूर बनाए गए, जो कभी इस्तेमाल नहीं हुए। आज ये केंद्र वीराने में खण्डहर बन चुके हैं। इसी तरह लखनऊ में खोले गए 8 मैटरनिटी होम में विभाग के अन्य कार्यालय खुल गए हैं। सेवा के नाम पर यहां सब कुछ शून्य हैं। इसी परियोजना में लखनऊ में एक जनसंख्या केन्द्र भी खोला गया था। 1979-80 से पुनः विश्व बैंक संपोषित ‘भारत जनसंख्या परियोजना-2’ लागू हुई। जिसका मूल उद्देश्य सूचना, शिक्षा संचार व प्रशिक्षण था। इस योजना के नाम पर तमाम ब्यूरोक्रेट-टेक्नोक्रेट अमरीका, थाईलैण्ड, इंग्लैण्ड आदि से प्रशिक्षण लेकर आए। पर जहां से प्रशिक्षण ले गए थे, वहां वापिस लौटकर नहीं आए। उन्हें उनकी नियुक्ति दूसरी जगह कर दी गई, आखिर क्यों ? जब यही करना था तो लाखों रुपया प्रशिक्षण पर बर्बाद करने की क्या जरूरत थी ? इसी तरह सूचना शिक्षा संचार के नाम पर प्राइवेट छपाई भी लाखों रूपए खर्च करके करवाई गई। जनचेतना फैलाने के नाम पर छपवाई गई यह स्टेशनरी कभी काम नहीं आई। न जाने कितने फार्म छपे व रद्दी में बिक गए।

इस पूरे कार्यक्रम के नतीजे असन्तोषजनक थे। ऐसा विश्व बैंक द्वारा कराए गए मूल्यांकन से पता चला। नतीजतन उत्तर प्रदेश को ‘भारत जनसंख्या परियोजना 3,4,5’ नहीं दी गई। पर इसके कुछ अन्तराल के बाद 1989-90 में ‘भारत जनसंख्या परियोजना-6’ उत्तर प्रदेश को मिल गई। जिसका मूल उद्देश्य श्रम संसाधनों का विकास करना था। इस योजना के तहत ऊपर के अधिकारी तो विदेशी सैेरगाहों में घूम आए पर नीचे का स्टाफ भी पीछे नहीं रहा। वे भी अहमदाबाद, गांधीग्राम, मुंबई में सैर सपाटे करता रहा। फिर आया सूचना क्रांति का दौर। स्वास्थ्य सेवा भले ही लोगों को न मिले पर सूचना के आधुनिक उपकरणों को खरीदनें में संकोच क्यों किया जाए ? सूचना नहीं तो कमीशन की आमदनी तो होगी ही। इसलिए प्रौद्योगिकी से तालमेल बिठाए रखने के नाम पर कराड़ों रूपये के सैकड़ों कंप्यूटर व व बाकी का साजो सामान खरीद लिया गया। जनजागरण के नाम पर हजारों रंगीन टी.वी. व वी.सी.आर. भी खरीदे गए, जो स्वास्थ्य सेवाओं के अधिकारियों के बंगलों की शोभा बढ़ा रहे हैं। इतना ही काफी नहीं था और भी घोटाले हुए। प्रथम पंचवर्षीय योजना के दौरान खोलेे गए जनसंख्या केन्द्रों के ही साइन बोर्ड रातोंरात बदलकर उन्हें स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण प्रशिक्षण केन्द्र में तबदील कर दिया गया। केन्द्र की जमीन की पुनः खरीद दिखाई गई। बने भवनों में थोड़ा परिवर्तन करके पूरे भवन निर्माण की राशि वसूल कर ली गई। परिवार प्रशिक्षण के लिए पहले 7 क्षेत्राीय प्रशिक्षण केन्द्र थे जिनके स्थान पर 18 केन्द्र खोल दिए गए। जिनका भवन निर्माण हुआ, साज-सज्जा के लिए भारी खरीदारियां की गईं, पर योजनाबद्ध तरीके से कभी कोई प्रशिक्षण नहीं हुआ। दरअसल तो इन केन्द्रों में पहुंचवालों की बारातें टिकती रहती हैं। गरीब जनता के पैसे से खरीदे गए कंप्यूटर व साज सज्जा अपनी मूल पैकिंग में रखे रखे ही आउटडेटेड हो गए।

फिर एक नया नारा दिया गया कि ‘सन् 2000 ई. तक सबके लिए स्वास्थ्य’ की गारन्टी होगी। 1978-79 में अल्माआटा, रूस में विश्व स्वास्थ्य सम्मेलन हुआ जिसमें शताब्दी के शेष दो दशकों में स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ करने व सन् 2000 तक सबके लिए स्वास्थ्य उपलब्ध करा देने के लक्ष्यों की घोषणा की गई। औरों की क्या कहें खुद भारत सरकार का ही मानना है कि उत्तर प्रदेश में ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ का लक्ष्य पूरा करने में अभी 100 साल और लगेंगे।
वैश्वीकरण व उदारीकरण के दौर में जो हो रहा है वह भी कम रोचक नहीं। कुछ समय पूर्व तक ग्रामवासी पूरी तरह आत्मनिर्भर होते थे। हजारों साल से हमारे गांव में रहने वाले हर व्यक्ति की जरूरतें गांव में ही पूरी हो जाती थी। पशुधन प्रचुर मात्रा में था। प्रौद्योगिकी विकास से परिवर्तन तो जरूर आया, पर कैसा ? साठ के दशक में हम गेहूं बाहर से मंगाते थे। हरितक्रांति के फलस्वरूप आज देश में रेकार्डतोड़ खाद्यान्न उत्पादन होता है। पर इसके बावजूद हमारे देश में 0-14 आयुवर्ग में 60 फीसदी बच्चे भयंकर कुपोषण के शिकार हैं। महिलाओं में 80 फीसदी गर्भवती महिलाएं खून की कमी से पीडि़त हैं। 35 फीसदी गर्भ जोखिम भरे होते हैं। पौष्टिक आहार की कमी इसका प्रमुख कारण है। हरित क्रांति के बावजूद ऐसा क्यों हो रहा है ?
बढ़-चढ़ कर दावा किया जाता है कि चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्रा में हुई खोजों व शोध के कारण उपचार के क्षेत्रा में अत्यधिक सुविधाएं आज सुलभ हैं। हृदय के साथ ही अन्य अंगों का प्रत्यारोपण भी आज हो रहा है। परन्तु वैश्वीकरण व उदारीकरण के फलस्वरूप इस दिशा में जितना भी विकास हुआ व सेवा सुविधाएं उपलब्ध हुईं उन तक पहुंच समाज के धनाढ्य व नव-धनाढ्य वर्ग की ही है। आम जनता को इससे कुछ लेना देना नहीं है। अपोलो अस्पताल, एस्कोर्ट अस्पताल या ऐसे तमाम दूसरे बड़े सरकारी संस्थान या प्राइवेट अस्पताल या क्लीनिक की सेवाएं केवल विशिष्ट वर्ग के लिए ही सुरक्षित व सुलभ हैं। दूसरी त्रासदी यह है कि कुछ गिनेचुने विशेषज्ञ जिनकी सेवाएं सामान्य जनता को सरकारी अस्पतालों में मिल भी जाती थीं, वह भी अब इन्हीं पांच सितारा अस्पतालों में चले गए हैं।

इस प्रक्रिया का कुप्रभाव दवाइयों के उत्पादन, मूल्यांकन, वितरण व विक्रय पर भी पड़ रहा है। जीवनरक्षक दवाइयों का उत्पादन आवश्यकतानुसार नहीं है। जबकि प्रतिबन्धित बेहूदा, तर्कहीन व प्रभावहीन दवाइयों का उत्पादन ज्यादा हो रहा है। जेनरिक नाम से 400-500 के बीच ही सभी जरूरी दवाइयां आ जाती हैं। जबकि ब्रांड नाम से 30 हजार से ज्यादा दवाइयां बाजार में अटी पड़ी हैं। डाक्टर इन्हें लिख रहे है। मरीज खरीद रहे हैं व विदेशी कंपनियां मालामाल हो रही हैं। नकली व मिलावटी दवाइयों का बाजार समानान्तर चल रहा है। दवाइयों के पेटेण्ट नियम लागू होते ही रही सही कसर भी पूरी हो जायेगी, क्योंकि भारत सरकार डब्ल्यू.टी.ओ. के निर्देशों को मान चुकी है।

उदारीकरण का एक और महत्वपूर्ण परिणाम स्वैच्छिक संस्थाओं को सीधे मिलने वाली फंडिंग के रूप में भी उभर कर आया है। तमाम अन्तर्राष्ट्रीय दाता संगठनों व संस्थाओं ने सरकार के सामने यह शर्त रखनी शुरू की कि वह गैर सरकारी संस्थाओं व स्वैच्छिक संस्थाओं को ही फंडिंग करेंगे। जाहिर है कि यह बदलाव इसलिए आया कि ये संगठन सरकारी तंत्रा की लालफीताशाही, भ्रष्टाचार, लूट, निकम्मापन व गैरजिम्मेदारी के रवैये से त्रास्त हो चुके थे। सरकार भी खुलकर मानने लगी थी कि विकास के काम सरकारी तंत्रा से उतनी कुशलता व लगन से नहीं हो सकते, जितना स्वैच्छिक संस्थाओं के द्वारा। पर इससे नई किस्म के घोठाले होने लगे। तमाम फर्जी स्वयंसेवी संस्थाएं सामने आ गई। विशेषज्ञों का मानना है कि होना यह चाहिए था कि विभिन्न स्तरों पर जो स्वैच्छिक संस्थाएं अच्छा काम कर रही थीं, उन्हीें को यह फंडिंग होती और वही विकास का काम करतीं। परन्तु सरकार ने इसकी भी काट निकाल ली। जहां विकास व समाज सेवा के नाम पर सरकार के पास पूरी फौज तैनात थी, पूरे पूरे विभाग व पूरा सरकारी अमला व संसाधन मौजूद थे, वहीं सरकार ने ही स्वैच्छिक संस्थाएं बनाकर उन्हें पंजीकृत कराना शुरू कर दिया और सभी फंडिंग इन्हीं के द्वारा हड़पी जाने लगी। इतना ही काफी नहीं था आला अफसरों की बेगमों ने सैकड़ों स्वयंसेवी संस्थाएं बना डालीं और अनुदान राशि की लूट शुरू कर दी। ‘अन्धा बांटे रेवड़ी फिर-फिर अपने को देय’। इस सबसे तो चाणक्य पंडित की वही बात सिद्ध होती है कि ढांचे बदलने से कुछ नहीं बदलता जब तक कि उसमें काम करने वाले लोग नहीं बदलते। स्वास्थ्य के मामले में भारत का पारंपरिक ज्ञान और लोकजीवन का अनुभव इतना समृद्ध है कि हमें बड़े ढांचों, बड़े अस्पतालों और विदेशी अनुदानों की जरूरत नहीं है, जरूरत है अपनी क्षमता और अपने संसाधनों के सही इस्तेमाल की। वरना विकास के नाम पर ऐसे ही विनाश होता रहेगा। हर नई सरकार नए नारों से नए सपने दिखाकर लोगों को यूं ही मूर्ख बनाती रहेगी।