Friday, May 26, 2000

हवाला कांड आयकर विभाग के दोहरे मापदंड


हवाला कांड में आयकर विभाग की जांच में हो रही कोताही को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय ने नोटिस जारी किए हैं। आगामी 13 जुलाई को इस मामले की सुनवाई होगी। देश की राजनीति में हड़कंप मचा देने वाले हवाला कांड को लेकर एक बार फिर अटकलों का बाजार गर्म है। अदालत के नोटिस की इस खबर को देश के लगभग सभी अखबारों ने प्रमुखता से छापा है। जाहिर सी बात है कि देश का हर कारोबारी आदमी इस बात से हैरान है कि जब जैन बंधुओं के यहां से करोड़ों रुपए के काले धन के हिसाब-किताब के खाते 3 मई 1991 को छापे में बरामद हुए थे। तमाम देशों की विदेशी मुद्रा, इंदिरा विकास पत्रा और दूसरे अवैध लेन-देन के सबूत मिले थे तो आज तक आयकर विभाग ने जैन बंधुओं के खिलाफ क्या कार्रवाही की ?

यह उल्लेखनीय है कि अगर जैन बंधुओं के साथ इस देश के प्रमुख राजनेताआंे के अवैध आर्थिक लेन-देन के सबूत न मिले होते तो आयकर विभाग उनकी जम कर खबर लेता। जैसा इस देश के आम व्यापारी, कारखानेदार और दूसरे कारोबारियों के साथ होता है। किसी व्यापारी के घर छापे में अगर कच्चे हिसाब की एक पर्ची भी मिल जाए तो उसे भी आयकर वाले छोड़ते नहीं हैं। उससे और आगे सबूत नहीं मांगे जाते। उस पर्ची में दर्ज जमा-खर्च को सही मानकर आयकर और जुर्माने का निर्धारण कर दिया जाता है। पर देश की जनता को काले धन के नाम पर अखबारी और टीवी विज्ञापनों में आए दिन धमकाने वाले आयकर विभाग, राजस्व सचिव व भारत के वित्तमंत्राी जैन बंधुओं के साथ विशिष्ट व्यक्तियांेजैसा बर्ताव करते आए हैं। सितंबर 1993 में सर्वोच्च न्यायालय में दायर अपनी जनहित याचिका में मैंने ये मुद्दे उठाए थे । उसके बाद इसी मामले में 18 अप्रैल 199510 जनवरी 1996 को दायर अपने शपथ पत्रों में मैंने वे तमाम तथ्य रखे थे जिनसे हवाला मामले में आयकर विभाग की कोताही सिद्ध होती है। इन्हीं शपथ पत्रों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने भारत के राजस्व सचिव को निर्देश दिए थे कि आयकर के इस मामले में सेटलमेंट कमीशनभी अंतिम निर्णय लेने को स्वतंत्रा नहीं होगा। ऐसा सर्वोच्च न्यायालय को इस लिए कहना पड़ा क्योंकि जैन बंधुओं ने 1995 में आयकर विभाग को यह लिखकर दिया था कि वे अपने विरूद्ध हवाला कांड से जुड़े आयकर के सारे मामलों को निपटवाने की एवज में एकमुश्त सौ करोड़ रुपया बतौर आयकर व जुर्माना जमा कराने को तैयार हैं। जैन बंधुओं ने यह प्रस्ताव इस लिए किया क्योंकि उन्हें यह पता है कि अगर ईमानदारी से उनके विरूद्ध जांच हो तो इसकी कई गुना राशि उन्हें बतौर आयकर व जुर्माना जमा करानी पड़ेगी।
आश्चर्य की बात है कि आयकर विभाग ने जैन बंधुओं के इस प्रस्ताव के तहत सौ करोड़ रुपया आज तक जमा नहीं करवाया। अगर आयकर विभाग जैंन बंधुओं से यह रकम लेकर बैंक की सावधि जमा योजना में ही जमा कर देता तो आज ये बढ़ कर दो सौ करोड़ रुपया हो गई होती। सरकार को हुए इस सौ करोड़ रुपए के नुकसान के लिए कौन जिम्मेदार है ? क्या उसे इस साजिश की सजा मिलेगी ? पैसे जमा कराना तो दूर आयकर विभाग ने तो जैन बंधुओं के खिलाफ ढंग से जांच भी शुरू नहीं की है। इतना ही नहीं जैन बंधुओं ने अपने विरूद्ध चल रहे आयकर के मामलों की फाइलें बिना किसी दिक्कत के दिल्ली से मध्य प्रदेश ट्रांसफर करवा ली है। ताकि वे गुपचुप तरीके से, ले-देकर अपने विरूद्ध चल रहे सब मामलों को, अपने हित में सुलटाने में कामयाब हो जाएं। सबसे पहले इस मामले में जो वांछित कार्रवाही है वह होनी चाहिए। क्या दिल्ली उच्च न्यायालय 13 जुलाई को इस साजिश पर ध्यान देगा ?
जैन हवाला कांड में कुछ ठोस सबूत हासिल करने के उद्देश्य से उच्चतम न्यायालय ने आयकर विभाग के जांच प्रकोष्ठ को स्वतंत्रा जांच करने के आवश्यक निर्देश दिए थे। इस संबंध में ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि ये एजंसियां (सीबीआई और आयकर विभाग) संसद द्वारा पारित कानून के तहत काम करती हैं और इन्हें किसी भी मंत्राी या मंत्रालय से निर्देश लेने की आवश्यकता नहीं होती है। इसके अलावा जांच अधिकारी द्वारा इनकम टैक्स एक्ट के सैक्शन 131 के अंतर्गत दर्ज बयान के आधार पर न केवल किसी भी जरूरी समझे जाने वाले व्यक्ति को जांच के लिए बुलाया जा सकता है। बल्कि किसी भी तरह के कागजात की मांग के लिए सम्मन भेजा जा सकता है। इसके अलावा वांच्छित व्यक्ति के स्थान पर उसके वकील या किसी और व्यक्ति से पूछताछ नहीं की जा सकती। जांच अधिकारी उपयुक्त समझे तो आयकर अधिनीयम की धारा 276सी और 276 सीसी के अंतर्गत अवमानना और असहयोग बरतने के आरोप में उस व्यक्ति पर 10 हजार रूपए तक का दंड भी लगा सकते हैं। ये दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इतने प्रावधान होने के बाद भी आयकर विभाग ने अब तक इस मामले में पैसा लेने वालांे में से किसी भी व्यक्ति के खिलाफ सम्मन जारी नहीं किया और जांच पड़ताल के नाम पर केवल खानापूर्ति की है। फिर भी कोई राजनेता या दल इस कांड की जांच की मांग नहीं करता, क्यों ?
आयकर विभाग द्वारा की जाने वाली जांच-पड़ताल का काफी महत्व है। क्योंकि आयकर विभाग द्वारा जो भी सबूत आयकर अधिनियम की धारा 131 के तहत दर्ज किए जाते हैं उन्हें कोर्ट के सम्मुख दर्ज सबूतों का दर्जा प्राप्त होता है। जबकि पुलिस द्वारा दर्ज बयानों के साथ ऐसा नहीं है। फिर आयकर विभाग ने यह क्यों नहीं किया ? क्या भारत सरकार के राजस्व सचिव इसका जवाब दे सकते हैं ?
आयकर विभाग के जांच अधिकरी जहां एक ओर उच्चतम न्यायालय को यह दिखाने का नाटक कर रहे थे कि वे उसके सभी निर्देशों का कड़ाई से पालन कर रहे थे, वहीं दूसरी तरफ वे जांच-पड़ताल को लेकर गंभीर नहीं थे। वरना ऐसा क्यों होता कि डीडीआईटी (नार्थ) अग्रवाल देश भर में फैले 10 हजार से भी ज्यादा आयकर अधिकारियों को एक सर्कुलर भेज कर यह जानना चाहते कि उनमें से कौन सा अधिकरी जैन बंधुआं की डायरी में पैसा लेने वालों के मामले में कर निर्धारण करने का काम देख रहा है। जाहिर है कि इस सब के पीछे उनकी यही मंशा थी कि किसी भी तरह जांच की कार्रवाई को अनावश्यक रूप से लंबा खींच कर उसको बेमतलब सा कर दिया जाए। जबकि सब जानते हैं कि जिन लोगों का नाम जैन डायरी में पैसा लेने के मामले में दर्ज है वो कोई मामूली व्यक्ति नहीं है। उनके नाम पते सबको पता हैं। उन्हें यूं सारे देश में ढंूढने की जरूरत नहीं थी
जांच-पड़ताल के किसी भी मामले में जानबूझ कर कोताही बरतना, मामले को दबाने जैसा है, बल्कि उससे भी कही ज्यादा बदतर है।  इस मामले में 70 से ज्यादा लोगों के खिलाफ न तो सम्मन जारी किए गए और ना ही उनके खातों को आयकर अधिनियम के तहत जब्त किया गया है। जबकि इससे भी कही साधारण मामले में जरा-सी शंका होने पर ही ऐसा कर दिया जाता है, ऐसा क्यों किया गया ? क्या राजस्व सचिव जवाब दे सकते हैं ?
इस संबंध में एक रूचिकर तथ्य यह है कि आयकर अधिनियम किसी भी ऐसे खर्चे को जायज़ नही मानता, जो कि किसी नाजायज़ काम के लिए खर्च किया जाता है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति किसी काम के लिए रिश्वत देता है, जो गैर कानूनी है तो ऐसा करने के लिए जो भी व्यय होगा वो अमान्य होगा और उस पर भी आयकर लगेगा। इसके अलावा 1 लाख रुपए  सालाना से ऊपर की आमदनी को छुपाना भी एक दंडनीय अपराध है। जिसमें तीन से सात साल तक की सजा हो सकती है और देय इनकम टैक्स का 100 फीसदी से 300 फीसदी तक भी बतौर दंड वसूल किया जा सकता है। पर जैन बंधुओं के मामले में आयकर विभाग के अधिकारियों ने दूसरा ही रवैया अपनाया। उन्हें लगातार बचाया जाता रहा ताकि नेताओं को बचाया जा सके। जबकि आयकर अधिनियम, सरकारी खजाने का बकाया कर वसूलने का सबसे सशक्त अधिनियम है।
आयकर विभाग का एक मुख्य उद्देश्य यह रहता है कि वह हर लेन-देन की पूरी तरह जांच करे।  जैसे कि अगर कोई व्यक्ति यह दावा करता कि उसे इतना पैसा उपहार स्वरूप (गिफ्ट) मिला है तो संशोधित आधिनियम के अनुसार उपहार स्वीकार करने वाले को, दिए गए पैसे का 30 फीसदी बतौर गिफ्ट टैक्स देना होता था और यदि गिफ्ट स्वीकार करने वाला स्वेच्छा से आयकर रिटर्न नहीं दाखिल करता तो आयकर अधिनियम के अनुसार यह दंडनीय है।
लेकिन जैन डायरी में दर्ज लोगों के नाम किसी भी तरह की कोई जांच नहीं की गई। केवल कुछ ही लोगों से तफतीश की गई। पैसा लेने वाले लोगों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध रखने वालों की ना तो संपत्ति जब्त की गई और न ही उनके बैंक खाते सील किए गए और न ही इन लोगों के खिलाफ धारा 276सी और 276सीसी के अंतर्गत मुकदमें दायर किए गए, जबकि इस संदर्भ में काफी तथ्य पहले से ही प्रकाश में आ चुके थे, जाहिर है कि जांच करनी ही नहीं थी।
इस संबंध में एक और कानूनी पहलू यह है कि आयकर विभाग के उपनिदेशक से वरिष्ठ अधिकारी तक इस तरह के मामले में कार्रवाई के तरीकों पर कोई निर्देश जारी नहीं कर सकते। इस संबंध में जांच अधिकारी को ही इतने अधिकार होते हैं कि वह आयकर अधिनियम की सीमाओं के अंतर्गत यह सुनिश्चित करे कि न केवल मामले का शीघ्र निपटारा हो बल्कि राजस्व संबंधी कार्रवाई भी पूरी हो। परंतु इस तरह के प्रावधान के बावजूद भी ऐसे बहुत से उदाहरण हैं कि जब यह नहीं किया गया। इस बात के पर्याप्त सबूत मौजूद थे कि गैर कानूनी ढंग से लेन-देन हुआ, फिर भी कोई कार्रवाई आयकर विभाग के ओर से नहीं की गई। इससे सबसे ज्यादा धक्का आयकर विभाग की साख को ही पहुंचाता है।
विडम्बना देखिए कि देश की जनता को बताया जा रहा है कि हवाला कांड में सबूत नहीं है, जबकि हकीकत यह है कि जो सबूत हैं, उन्हें दबाया जा रहा है या तोड़-मरोड़ कर पेश किया जा रहा है। सरकारी जांच एजंसियों की इन साजिशों की कोई नेता चर्चा तक नहीं कर रहा है कि कैसे उन्होंने हवाला आरोपियों को लगातार बचाया है। जाहिर है कि जानबूझकर किए गए इस निकम्मेपन के लिए इन जांच एजंसियों के अधिकारियों को जैन बंधुओं ने मुंह मांगी मोटी रकमें बांटी होंगी। वरना कौन अपनी नौकरी खतरे में डालकर ऐसे अवैध काम करता है ? जो राजनेता हवाला कांड को अपने विरूद्ध षड़यंत्रा बता कर देशवासियों व अपने दल के कार्यकर्ताओं को मूर्ख बनाते आए हैं, उन्हें इस कांड की जांच में की गई इन तमाम बेईमानियों के खिलाफ संसद में और बाहर शोर मचाना चाहिए। पर वे ऐसी हिम्मत नहीं कर सकते। उनके दल के कार्यकर्ताओं को उनसे इस खामोशी की वजह पूछनी चाहिए। पर जब तक आयकर विभाग से हमेशा बेइज्जत होने वाले आम व्यापारी, कारोबारी, कारखानेदार और उद्योगपति मिलकर अपने अपने स्तर पर हवाला कांड से जुड़े इन बुनियादी सवालों पर सरकार और आयकर विभाग को कटघरे में खड़ा नहीं करते तब तक कुछ होने वाला नहीं है। दिल्ली उच्च न्यायालय अगर इन बिंदुओं पर कुछ करवा पाता है तभी उसके ताजा कदम का औचित्य है, वरना नहीं।

Friday, May 19, 2000

दिल्ली में श्री जगमोहन का आतंक

केंद्रीय शहरी विकास मंत्रh श्री जगमोहन के ताजा बयानों ने देश की राजधानी में आतंक फैला दिया है। खासकर मध्यमवर्गीय और निम्न वर्गीय आवासीय कालोनियों के निवासी ज्यादा चिंतित हैं। इसमें श्री जगमोहन का कोई दोष नहीं क्योंकि वे उन कुशल प्रशासकों में से हैं जो हर काम को मुस्तैदी से अंजाम देना चाहते हैं, चाहे जो भी काम क्यों न हो। आपातकाल के दौर में वे श्रीमती इंदिरा गांधी के तुनक मिजाज पुत्रा संजय गांधी के दाहिने हाथ हुआ करते थे। तब उन्होंने दिल्ली के तुर्कमान गेट इलाके और दूसरे इलाकों में बड़ी मात्रा में अवैध निर्माण गिराकर पहली बार शोहरत हासिल की थी। इसके बाद जब वे कश्मीर के उप राज्यपाल बने तो उन्होंने वैष्णो देवी तीर्थ स्थल पर व्याप्त भारी अवयवस्था को दुरूस्त करने का काम किया। जिससे उन्हें फिर वाहवाही मिली। घाटी में फैले आतंकवाद पर अपने कार्यकाल में अंकुश लगाने का काम भी उन्होंने बखूबी अंजाम दिया। वाजपेयी सरकार में जब उन्हें संचार मंत्रालय थमाया गया तो उन्होंने वहां हो रहे घोटालों पर अपनी लगाम कसने की कोशिश की। पर सत्ता के गलियारों में दखल रखने वालों को यह रास नहीं आया और श्री जगमोहन से संचार मंत्रालय लेकर उन्हें शहरी विकास मंत्रालय सौप दिया गया। इसलिए उनके ताजा बयानों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता।

सब जानते हैं कि देश के अन्य बड़े नगरों की तरह दिल्ली भी बुरी तरह भू-माफियाओं की गिरफत में रही है, जिन्हें पुलिस, प्रशासन व राजनेताओं का खुला संरक्षण प्राप्त है। इसलिए अवैध निर्माण के मामले में देश के महानगरों में दिल्ली का स्थान सबसे ऊपर है। कहते हैं कि आधी से ज्यादा दिल्ली अवैध रूप से निर्मित है। इसलिए श्री जगमोहन की ताजा मुहिम दिल्ली में शहरी निर्माण नियमों और कानूनों को कड़ाई से लागू करवाने की है। वे चाहते है कि दिल्ली में हो रहे अवैध निर्माण रूक जाएं। जो हो चुके हैं उन्हें तोड़ दिया जाए और इन अवैध निर्माणों को अनदेखा करने के लिए जिम्मेदार प्रशासनिक अधिकारियों को सजा दी जाए। उनके इन कदमों को उनकी सरकार के बाकी मंत्रियों को सहमति प्राप्त है ऐसा बताते है। इसीलिए वे दमखम के साथ अपने बयान और निर्देश जारी कर रहे हैं। सबसे ताजा निर्देश यह है कि डीडीए के जिन फ्लैटों में अवैध निर्माण हुए हैं उनके आवंटन रद्द कर दिए जाएं। चूंकि डीडीए के अवंटन की शर्तों में यह अधिनियम पहले से ही मौजूद है इसलिए इसमें नया कुछ भी नहीं।नई बात तो यह है कि इस अधिनियम को पहली बार लागू करने की संभावना दिखाई दे रही है। जाहिर है कि अपने जीवन भर की कमाई को लगा कर किसी तरह डीडीए के एक फ्लैट का जुगाड़ करने वाले मध्यवर्गीय और निम्न वर्गीय लोग काफी आतंकित हैं। जैसाकि श्री जगमोहन ने संकेत भी दिया है कि इस आदेश को लागू करने का मकसद डीडीए के घरों में रहने वालों के मन में कानून का डर पैदा करना है। डीडीए के कुछ बस्तियों में अवैध निर्माण गिराने का काम शुरू भी हो चुका है। श्री जगमोहन का यह प्रयास वांछित भी है और समर्थन करने योग्य भी। पर इसके साथ ही कुछ ऐसे टेढ़े सवाल खड़े हो जाते हैं जिनका उत्तर दिए बिना श्री जगमोहन को अपना अभियान आगे बढ़ाने से पहले कुछ सोचना होगा।

आमतौर पर डीडीए का फ्लैट लेने वाले परिवारों की इतनी हैसियत नहीं होती कि वे बच्चों के जवान हो जाने पर दूसरे घर खरीद सकें। इसलिए उन्हीें फ्लैटों में किसी तरह जगह बनाई जाती है। वैसे भी राजनेताओं के भारी भ्रष्टाचार के चलते देश में जो बे इंतहा महंगाई बढ़ी है जिसने आम लोगों की कमर तोड़ दी है। इसलिए ऐसे मजबूर लोगों के मामले में इन बातों का भी ध्यान रखना होगा। सबको एक लाठी से नहीं हांका जा सकता। कानून लोगों के सुख के लिए है, उन्हें प्रताडि़त करने के लिए नहीं। इसी तरह यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि एक तरफ तो सरकार देश की अर्थ व्यवस्था का पश्चिमीकरण कर रही है और दूसरी तरफ दिल्ली के व्यवसायिक इलाकों में बड़े कमर्शियल भवन नहीं बनने दे रही। जबकि आधुनिक किस्म के स्टोरों बनाने के लिए हजारों वर्ग फुट के हाॅल चाहिए। सही योजना के अभाव में बेतरतीब विकास होगा ही। पर इसका अर्थ यह नहीं कि गलत को सही ठहराया जाए। हां, यह जरूर देखा जाएगा कि कानून की मार किस पर पड़ती है, बेलगाम राजनेताओं पर या साधारण जनता पर ?

मानी हुई बात है कि समाज के प्रतिष्ठित और ताकतवर लोग जो करते हैं शेष समाज उनका अनुसरण करता है। दिल्ली में अवैध निर्माण को सबसे ज्यादा संरक्षण यहां के बड़े राजनेताओं ने दिया है और उनसे संबंधित अवैध निर्माणों को तुड़वाए बिना श्री जगमोहन मध्यमवर्गीय और निम्न वर्गीय परिवारों के सीने पर बुलडोजर नहीं चला सकते। दिल्ली की रिंग रोड पर स्थित मशहूर पांच सितारा होटल हयाॅत रिजेंसी के सामने की ओर अनंतराम डेरी कालोनी है, जिसमें देश के कई मशहूर राजनीतिज्ञों ने गैर-कानूनी तरीके से विशालकाय महलनुमा अवैध बंगले बना रखे हैं। जबकि इस जमीन पर सरकारी फ्लैट बनाए जाने थे। इन राजनेताओं में मौजूदा केंद्रीय सरकार के मंत्राी भी शामिल हैं। इन अवैध आलिशान बंगलों को तोड़ने के शहरी विकास मंत्रालय के पिछले वर्षों में सब प्रयास नाकामयाब रहे। ये ताकतवर राजनेता हर परिस्थिति में अपनी ताकत का उपयोग करके अपने अवैध निर्माणों को सुरक्षित रख पाने में सफल रहे हैं। श्री जगमोहन के सामने अनंतराम डेरी के ये अवैध निर्माण एक चुनौती के रूप में खड़े हैं। जिन्हें तुड़वाए बिना अगर वे डीडीए के फ्लैट वालों या झुग्गी-झोपडि़यों पर बुलडोजर चलवाते हैं तो यह नैतिक काम नहीं होगा। फिर अगर ऐसी तमाम कालोनियों और बस्तियों के लोग शहरी विकास मंत्रालय के सामने धरने पर बैठ जाएं और मांग करें कि ‘पहले अनंतराम डेरी के महल तोड़ों, फिर हमारी ओर मुख मोड़ों।’ अनंतराम डेरी तो एक उदाहरण हैं ऐसे दर्जनों मामले जगमोहन जी के मंत्रालय की फाइलों में बंद हैं जो जनता व मीडिया के निगाह में है।

गनीमत है कि जगमोहन जी ने इस बार ये कहा है कि इन अवैध निर्माणों को अनदेखा करने के लिए जिम्मेदार प्रशासनिक अधिकारियों को सजा दी जाएगी। अगर दिल्ली के विभिन्न इलाकों में हुए अवैध निर्माणों की सूची तैयार की जाए तो पता चलेगा कि पिछले बीस वर्ष में डीडीए, एमसीडी और एनडीएमसी के ज्यादातर अधिकारी सजा पाने वालों की कतार में खड़े होंगे। जाहिर है कि इन अधिकारियों ने प्रेम और करूणावश तो दिल्ली वासियों को ये अवैध निर्माण करने की छूट तो दी नहीं होगी। मोटी रकम ऐंठ कर ही अपनी आंखंे बंद की होंगी। अगर जगमोहन जी वाकई कानून का डर पैदा करना चाहते हैं तो पहले इन अधिकारियों की खबर ले। इसका एक आसान तरीका यह होगा कि वे सार्वजनिक घोषणा करके दिल्ली वासियों से पूछें कि उन्होंने किस अधिकारी को कब, कितनी रिश्वत देकर अवैध निर्माण करवाया था। जिनके विरूद्ध शिकायतें आएं उनके बारे में निश्चित समय सीमा में जांच करवा कर उन्हें बर्खास्त करें। ताकि भविष्य में कोई भी अधिकारी अवैध निर्माण को देख कर आंख न मीच पाए।

इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि नए अवैध निर्माण तोड़ने से पहले श्री जगमोहन पहले उन विवादास्पद भवनों की जांच करवाएं जिनके अवैध रूप से निर्मित् हिस्सों को पिछले वर्षों में गिराया गया था। ऐसा करना इसलिए जरूरी है कि इनमें से ज्यादा तर ने संबंधित विभागों को फिर पैसा खिलाकर दुबारा पहले ही की तरह अवैध निर्माण करलिए हैं। नए अवैध निर्माण गिराने से क्या फायदा जब तक कि यह सुनिश्चित न हो जाए कि अब दुबारा अवैध निर्माण नहीं होगा। ऐसे बहुत सारे विवादास्द भवन आसानी से पहचाने जा सकते हैं क्योंकि जब उनके अवैध हिस्से गिराए गए थे तब वे खबरों में छाए रहे थे।

लोकतंत्रा में सांसदों, विधायकों और मंत्रियों की भूमिका मार्ग दर्शक ही होती है। वीआईपी माने जाने वाले केंद्रीय दिल्ली इलाके में बने सांसदों और मंत्रियों के भवनों और सत्तारूढ भाजपा सहित सभी दलों के मुख्यालयों में नियमों और कानूनों को ताक पर रखकर डट कर अवैध निर्माण हुए है। जिन्होंने अंग्रेजों की बसाई इस दिल्ली का खूबसूरत चेहरा बिगाड़ कर रख दिया है। कानून में आस्था रखने वाला देश का हर आम नागरिक श्री जगमोहन से अगर यह अपेक्षा रखे कि वे इन अतिविशिष्ट लोंगों के खिलाफ बिना देरी के कड़ी कार्रवाही करेंगे तो इसमें क्या गलत है ?

इस बात के तमाम प्रमाण प्रशासनिक फाइलों में दर्ज हैं कि अवैध निर्माण कर चुके साधन संपन्न लोगों ने प्रशासन के विरूद्ध विभिन्न न्यायालयों से स्थगन आदेश ले रखे हैं और सरकारी अफसरों को रिश्वत देकर मुकदमें की तारीख लगातार आगे बढ़वाते रहते हैं, या तारीख पड़ने ही नहीं देते हैं। इससे पहले कि शहरी विकास मंत्रालय के बुलडोजर आम जनता के विरूद्ध अभियान छेड़े, यह जरूरी होगा कि न्यायालयों में लंबित ऐसे सभी मामलों में देरी के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को खींचा जाए और इन मामलों को जल्दी निपटवाने की मुहिम चलाई जाए। ताकि लोग अवैध निर्माण को बचाने के लिए अदालतों की तरफ दौड़ना बंद करें। जगमोहन जी से पहले इसी सरकार में शहरी विकास मंत्राी रहे श्री राम जेठमलानी ने दिल्ली की रिंग रोड पर स्थित सिंधिया परिवार की विशाल बेशकीमती जमीन को निहायत पक्षपातपूर्ण ढंग से अधिग्रहण से मुक्त करके सिंधिया परिवार को सैकड़ों करोड़ रुपए का फायदा करवाया है। जबकि दिल्ली के देहातों में बसे लाखों परिवारों की खेती और चरागाहों की जगह को अधिग्रहण करते समय सरकार का दिल नहीं पसीजा। श्री जेठमलानी तो ऐसे और भी भूखंडों को अधिग्रहण से मुक्त करने की कार्रवाही शुरू कर चुके थे। वो तो भला हो श्री जगमोहन की मुस्तैदी का कि उन्होंने शहरी विकास मंत्रालय का पदभार संभालते ही उस पर रोक लगा दी। क्या श्री जगमोहन सिंधिया परिवार की इस विवादास्पद जमीन और ऐसी ही दूसरी जमीनों के मामले में जनता से किए गए धोखे को खुलासा करके इस घोटाले से जुड़े जिम्मेदारों लोगों को सजा दिलवाने की भी कोई कदम उठाएंगे। अगर वे ऐसा नहीं कर पाते है तब यह संदेश जाएगा कि जगमोहन जी की नजर में भी सब बराबर नहीं हैं और वे अपना निशाना साधारण लोगों को बना रहे हैं जबकि बड़ें लोगों को हाथ तक नहीं लगा रहे हैं।

जो हालत दिल्ली की है कमोवेश वही हालत देश के दूसरे नगरों की है। जहां इसी तरह सरकारी अधिकारियों की मिली भगत से अवैध निर्माण का धंधा फलता-फूलता रहा है।वहां भी जब कभी कोई दमखम वाला अफसर या मंत्राी अवैध निर्माण गिराने की कोशिश करता है तो उसका लक्ष्य प्रायः आम लोग ही होते है। साधन संपन्न और ताकतवर लोग नहीं। इसलिए आम जनता के मन में ऐसी दोहरी नीतियों को देखकर क्रोध आना स्वभाविक ही है। एक अंग्रेजी कहावत है कि, ‘सीजर की पत्नी को ईमानदार होना ही नहीं, ईमानदार दिखना भी चाहिए।’ जगमोहन जी की कर्तव्यनिष्ठा और नेक ईरादों पर उंगली नहीं उठाई जा सकती पर अगर वे राजधानी के साधन संपन्न और ताकतवर लोगों को छुए बिना आम लोगों पर बुलडोजर चलाते हैं तो स्वभाविक ही है कि जनता की ओर से इसका भारी विरोध होगा। इतना ही नहीं जगमोहन जी चाहे कितनी ही सावधानी क्यों न बरते, फिर भी उनके अधिनस्थ अधिकारी इस माहौल का निजी लाभ उठाने से नहीं चूकेंगे। अक्सर ज्यादातर शहरों में देखा गया है कि स्थानीय पुलिस पैसे खाकर अवैध निर्माण की तरफ से आंख मूंद लेती है और अगर धमकाती भी है तो अवैध निर्माण रोकने के मकसद से नहीं बल्कि ऐसा निर्माण करने वालों से मोटा पैसा ऐठने के मकसद से। इस बात की पूरी संभावना है कि जगमोहन जी अपने मंत्रालय की फाइलों में उलझे रहे या इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के पुस्तकालय की पुस्तकों में डूबे रहे है और उनके फारमानों का डर दिखा कर उनके ही अधीनस्थ अधिकारी राजधानी वासियों से नए सिरे से उगाही शुरू कर दें। यह असंभव नहीं है। इसलिए जगमोहन जी का रास्ता काफी मुश्किल है। पर मजबूत इरादे के लोग राह की मुश्किलों से रास्ते नहीं बदला करते। जगमोहन जी भी आसानी से इस अभियान को छोड़ने वाले नहीं है। वह दूसरी बात है कि जिनके स्वार्थ इस अभियान से टकराएंगे वे भू-माफिया सरकार पर दबाव डलवार कर एक बार फिर जगमोहन जी का मंत्रालय ही छिनवा दें। इस संभावना से बचने का एक ही तरीका है कि श्री जगमोहन राजधानी की जनता से खुलकर सहयोग लें और अवैध निर्माण तोड़ने के अभियान में सरकार और जनता को आमने-सामने खड़ा करने की बजाए एक ही पाली में खड़ा करें। हां, यह स्वभाविक ही है कि जनता का विश्वास जीते बिना उससे ऐसे धर्मनिष्ठ आचरण की अपेक्ष नहीं की जा सकती। विश्वास जीतने की पहली शर्त है अपने आचरण से उदाहरण प्रस्तुत करना। इस लेख के शुरू में उठाए गए सवालों पर अगर जगमोहन जी जनता को यह विश्वास दिला पाते हैं तो कि उनकी नजर में नियम और कानून तोड़ने वाले सभी लोग एक जैसे हैं तो उन्हें जनता का सहयोग अवश्य मिलेगा। पर इसके लिए पहल डीडीए की कालोनियों से और गंदी बस्तियों से नहीं बल्कि अनंतराम डेरी, सरकारी बंगलों और दूसरे बड़े लोगों के खिलाफ कड़ी और ठोस कार्रवाही करके ही की जानी चाहिए। ताकि किसी के मन में कोई शक न रह जाए। अगर जगमोहन जी इन सब सीमाओं के भीतर राजधानी को सुंदर और सुव्यवथित बना पाते हैं तो इससे देश के बाकी नगरों में भी बैठे अधिकारियों को प्रेरणा मिलेगी।