Friday, August 25, 2000

विज्ञान माफिया के शिकंजे में एक अनूठा वैज्ञानिक

नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक हरगोविन्द खुराना और चन्द्रशेखर की बेकद्री करके उन्हें अमरीका की गोद में फेंकनेवाली भारतीय नौकरशाही और विज्ञान माफिया आज भी बदला नहीं है। पिछले कुछ महीनों से यह माफिया सूर्य प्रकाश कपूर नाम के एक ऐसे वैज्ञानिक को फुटबाल की तरह उछाल रहा है जिसके शोध को देखकर खुद भारत के बड़े-बड़े वैज्ञानिक ही नहीं बल्कि मानव संसाधन विकास मंत्री डाॅ. मुरली मनोहर जोशी तक हैरान हैं। देश के कई प्रतिष्ठित अखबारों में श्री कपूर के अनूठे शोध की खबरे छप चुकी हैं। श्री कपूर ने चक्रवात को रोकने की तकनीकी विकसित की है। उनकी इस खोज का मूल्यांकन और उस पर गम्भीर चर्चा करने वालों में भारत सरकार के सर्वोच्च वैज्ञानिक संस्थान जैसे वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद् (सी.एस.आई.आर.), राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान, गोवा, सीमैक्स, व महासागर विकास विभाग आदि शामिल हैं।

दुनिया में प्राकृतिक आपदाओं से जो तबाही होती है उसका 64 फीसदी से ज्यादा केवल चक्रवात से होती है। 1970 में बांग्ला देश में 3 लाख लोग मरे थे। अक्टूबर 1999 में उड़ीसा में आये चक्रवात से 1 लाख लोग व 5 लाख पशु मरे, आधा उड़ीसा पूरी तरह ध्वस्त हो गया, पेड़ तक नहीं बचे और कुल नुकसान 7 हजार करोड़ रूपये का हुआ। चक्रवात की मार केवल गरीब देशों पर पड़ती हो ऐसा नहीं। दुनिया का धनी और विकसित देश अमरीका तक चक्रवात की मार लगातार सहता रहता है। 21 अगस्त 1992 को अमरीका के फ्लोरिडा इलाके में 320 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से आने वाले चक्रवात से वहाँ 1200 अरब रूपये की तबाही हुई थी। फिर भी अमरीका समेत कोई भी देश आजतक चक्रवात को रोकने की तकनीकी विकसित नहीं कर पाया।

भारत के एक भौतिक वैज्ञानिक सूर्य प्रकाश कपूर ने पिछले 7 वर्ष के अथक परिश्रम के बाद चक्रवात को रोकने की नायाब तकनीकी विकसित की है। वे अपनी खोज से सम्बन्धित तमाम शंकाओं का वैज्ञानिक समाधान देश के सर्वोच्च वैज्ञानिकों व नौकरशाहों के समक्ष प्रस्तुत कर चुकेे हैं और इन सबके बीच एक आम सहमति भी बन चुकी है कि श्री कपूर के शोध पर समुद्र में जाकर प्रयोग करना घाटे का सौदा नहीं रहेगा। अपने शोध को भारत सरकार में सर्वोच्च स्तर पर स्वीकार्य बनाने की इस अग्नि परीक्षा से गुजरने के बावजूद श्री कपूर को आगे नहीं बढ़ने दिया जा रहा है। उन्हेें भारत के बडे वैज्ञानिकों द्वारा यह प्रलोभन दिया जा रहा है कि वे दो-चार करोड़ रूपया लेकर अपना शोध उन्हें बेच दें ताकि राष्ट्रीय और अन्तर्राट्रीय अवार्ड लेने के आदी ये वैज्ञानिक श्री कपूर की मेहनत के बलबूते पर अपने सीने पर तमगे लटका सकें। पर श्री कपूर बिकने को तैयार नहीं हैं। वे अपनी निगरानी व निर्देशन में ही यह प्रयोग करवा कर पूरी दुनिया को दिखा देना चाहते हैं कि भारत में आज भी अनूठी वैज्ञानिक मेधा उपलब्ध है। अफसरशाही और विज्ञान माफिया की लालफीताशाही और सौदेबाजी से आहत श्री कपूर ने स्वदेशी के समर्थक व राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक श्री के.सी. सुदर्शन जी का द्वार खटखटाया। स्वयं इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि के सुदर्शन जी ने सूर्य प्रकाश कपूर के शोध पर उन्हें एक घन्टे सुना। कई बार विशेषज्ञों के साथ उनकी बैठक करवाई और जब श्री कपूर की तार्किक व प्रभावशाली प्रस्तुति से सुदर्शन जी सन्तुष्ट हो गये तो उन्होंने इस काम में काफी रुचि ली। श्री कपूर मानते हैं कि अगर सुदर्शन जी ने उनकी गुहार न सुनी होती तो नौकरशाह और विज्ञान माफिया कब का उन्हें दफन कर चुका होता। पर श्री कपूर को दुःख है कि इस सबके बावजूद भारत के नौकरशाह मामले को आगे नहीं बढ़ने दे रहे। सुदर्शन जी व डाॅ. मुरली मनोहर जोशी के बारे में उनका श्री कपूर से कहना है कि ये राजनेता तो ‘टेम्परेरी’ (अस्थाई) हैं। आज हैं कल हट जायेंगे। अपना भला चाहते हो तो दो-चार करोड़ रूपये का अनुदान लेकर घर बैठ जाओ। हम ये नहीं पूछेंगे कि तुमने इस धन का क्या किया। पर अपना शोध हमें देकर उसे भूल जाओ। इसके बावजूद श्री कपूर हताश नहीं हैं। उन्हें दैविक शक्ति पर पूरा विश्वास है। उनका कहना है कि जिस आध्यात्मिक शक्ति के बल पर उन्होंने अपने शोध में इतनी उपलब्धि प्राप्त की है वही शक्ति उनकी सहायक बनकर उनका काम आगे बढ़ायेगी।

श्री कपूर बतातेे हैं कि उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्र के महासागरों के एक बड़े इलाके में सूर्य की गर्मी जमा हो जाने पर जब समुद्र की ऊपरी सतह का तापमान साढ़े छब्बीस डिग्री सेंटीगे्रट को पार कर जाता है और यदि उस स्थान पर इन्टर ट्रापिकल कन्वर्जेन्स जोन हो तभी चक्रवात बनता है। इसमें ऊपर हवाओं का सहयोग भी उसे मिलना चाहिए। शुरू में तो चक्रवात में हवा की गति 20 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से भी कम और सीमित होती है। इसकी नाभि का व्यास केवल 20 किलोमीटर ही होता है। शुरू में चक्रवात अपने उद्गम स्थल पर लगभग 48 घंटे तक खड़ा रहता है। इसके बाद बरसात से निकली गुप्त ऊष्मा के कारण इसकी नाभि का तापमान बढ़ने लगता है। जिससे वायु का दबाव नाभि के अन्दर बढ़ जाता है। नतीजतन हवा बहुत तेज गति से नाभि की तरफ खिची चली आती है और चक्रवात की तीव्रता बढ़ जाती है। इसके साथ ही चक्रवात बहती हवाओं के साथ तैरता हुआ समुद्र के किनारे की तरफ बढ़ने लगता है। इस सब प्रक्रिया में इसे एक भीषण तूफान में बदलने में 6-7 दिन लग जाते हैं। श्री कपूर का शोध यह बताता है कि अगर शुरू के 48 घंटों के भीतर ही चक्रवात के उद्गम स्थल पर उनकी तकनीकी का प्रयोग किया जाय तो चक्रवात को बढ़ने से पहले ही समाप्त किया जा सकता है।

उनका दावा है कि उनकी यह तकनीकी बड़ी सरल और सम्भव है। इसकी पे्ररणा उन्हें कैलिफोर्निया और पेरू के समुद्र तट का अध्ययन करने से मिली। जहाँ प्राकृतिक रूप से समुद्र की सौ मीटर गहराई से 8 डिग्री सेंटीगे्रट के ठन्डे पानी का चश्मा फूट पड़ता है। जो समुद्र की ऊपरी सतह के तापक्रम को 10 डिग्री सेंटीगे्रट तक घटा देता है। नतीजतन ऐसे इलाकों में कभी भी चक्रवात पैदा नहीं होता। चक्रवात रोकने के लिए श्री कपूर द्वारा विकसित तकनीकी भी कुछ इसी तरह की है। उनका दावा है कि यदि चक्रवात के उद्गम स्थल पर उसकी नाभि के बढ़े हुए तापमान को वहीं एक या दो डिग्री कम कर दिया जाय तो वह चक्रवात कभी पनप नहीं सकेगा। इसके लिए वहीं समुद्र की ऊपरी सतह से सौ मीटर नीचे बहने वाले ठन्डे पानी की पर्त से कुछ पानी खींच कर ऊपरी सतह पर चक्रवात की नाभि में छिड़क दिया जाय तो उसका तापमान साढ़े छब्बीस डिग्री सेंटंीग्रेट से घटाना सम्भव हो जायेगा। इसके लिए तीन चार पानी के जहाज, जिन पर डीजल से चलने वाले 145 मेगावाट क्षमता के पानी निकासी पम्प लगे हों, काफी होगे। चूंकि शुरू के 48 घंटों में चक्रवात की तीव्रता बेहद कम होती है इसलिए इस अभ्यास में कोई खतरा नहीं है। वैसे भी अब तो अमरीका में यू-2 नाम के ऐसे हवाई जहाज बन गये हैं जो भीषण चक्रवात की भी नाभि में जाकर आंकड़े इकट्ठे करते हैं। आम आदमी को शायद यह असम्भव लगे कि समुद्र के नीचे से ठन्डा जल खींच कर उसकी सतह पर अगर डाला भी जाय तो आखिर कितना पानी या वक्त लगेगा घ् पर श्री कपूर का कहना है कि चूंकि चक्रवात की नाभि का व्यास मात्र 20 किलोमीटर होता हैए जिसे ठन्डा करने के लिए उतना ही पानी चाहिए जितना 145 मेगावाट के पम्प 48 घंटे में खीच कर छिड़केंगे। श्री कपूर यहाँ यह भी स्पष्ट करते हैं कि जब ये पम्प इस तरह छिड़काव शुरू कर देंगे तो चक्रवात के बढ़ने की स्वभाविक प्रक्रिया में व्यवधान उत्पन्न हो जायेगा और वह क्रमशः कमजोर पड़ता जायेगा। नतीजतन न तो वह बढ़ेगा और न ही समुद्र तट की ओर चलेगा। इस तरह चक्रवात से होने वाली जान-माल की भारी तबाही रोकी जा सकेगी। चक्रवात बनने के इलाके और वर्ष में इनके बनने का समय लगभग निश्चित है। बंगाल की खाड़ी में ऐसा प्रायः अक्टूबर, नवम्बर, दिसम्बर में ही होता है। जिसकी सूचना समय रहते मिल सके इसके लिए विभिन्न देशों ने मौसम विज्ञान के 16 उपग्रह तैनात कर रखे हैं। जो इन्टरनेट पर त्वरित सूचना भेजते रहते हैं। उड़ीसा के चक्रवात की सूचना भी इसी तरह इन्टरनेट पर 5 दिन पहले ही आ गई थी। श्री कपूर का कहना है कि इन तीन महीनों में अगर डीजल पम्पों से लैस पानी के 2 जहाज अंडमान स्थित पोर्ट ब्लेयर में तैनात रहें व बाकी 2 जहाज दक्षिणी चीन सागर में पोर्ट ब्रूनाई में तैनात रहें तो चक्रवात शुरू होने की सूचना मिलते ही मौके पर मात्र 2 घंटे में पहुंच जायेंगे। पहुंचते ही इनके पम्प नीचे का ठन्डा पानी खींच कर उसके फुहारे समुद्र सतह पर चक्रवात की नाभि में फेकना शुरू कर सकते हैं। इस तरह सदियों से चली आ रही इस प्राकृतिक आपदा से बचा जा सकता है। इस पूरे अभियान पर कुल एक करोड़ रूपये का डीजल खर्च होगा। जबकि चक्रवात से तबाही और राहत कार्यों पर अरबों रूपया खर्च होता है। अगस्त का महीना समाप्त होने जा रहा है। अक्टूबर मात्र 6 हफ्ते दूर है। पर सब बातें तय हो जाने के बावजूद भारत सरकार के नौकरशाह श्री कपूर को इस प्रयोग के लिए हरी झंडी नहीं दे रहे। उधर पिछले दिनों भारत के एक अत्यन्त ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक ने पूना के इंडियन इंस्टीच्यूट आॅफ ट्रापिकल मैट्रोलाॅजी में बोलते हुए श्री कपूर के शोध को इस तरह प्रस्तुत किया मानों यह उनका मौलिक विचार हो। जाहिर है कि पिछले दो वर्षों से भारत सरकार के विभिन्न विभागों से चल रही श्री कपूर की खतो-किताबत ऊंचे स्तर के इन वैज्ञानिकों की नज़रों से कई बार गुजरी है। इसलिए श्री कपूर को और भी चिन्ता है कि कहीं उनके साथ धोखा न हो। देखना यह है कि डाॅ. मुरली मनोहर जोशी और उनके अधीन सम्बन्धित विभाग कब श्री कपूर के शोध को अमली जामा पहनाते हैं। कहीं ऐसा न हो कि पिछले वर्ष की तरह इस वर्ष भी श्री कपूर फरियाद ही करते रह जायें और बंगाल, उड़ीसा या आन्ध्रप्रदेश फिर किसी चक्रवात के रौद्ररूप का शिकार बन जाऐं।

Friday, August 18, 2000

छत्तीसगढ़ के लोग अब चुप नहीं बैठेंगे


छत्तीसगढ़ राज्य के गठन का विधेयक पास हो गया। केंद्रीय गृहमंत्री ने उम्मीद जताई है कि आगामी एक नवंबर तक छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हो जाएगा। इस तरह खनिज और वन्य संपदा से भरपूर इस इलाके के लोगों का वर्षों पुराना सपना पूरा हो जाएगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि अपने संसाधनों पर अपना अधिकार जमाकर छत्तीसगढ़ के लोग अब अपना आर्थिक विकास तेजी से कर पाएंगे। सबसे पहले छत्तीसगढ़ के पृथक राज्य की मांग इलाके के लोकप्रिय मजदूर नेता शहीद शंकरगुहा नियोगी जी ने उठाई थी। गरीब किसान-मजदूरों के हित में सादगी त्याग और तपस्या सं भरा जीवन समर्पित करने वाले नियोगी जी ने छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा  का गठन कर इस लड़ाई का अंत समय तक सफल संचालन किया। पर छत्तीसगढ़ राज्य के गठन की घोषणा होते ही इसके मुख्यमंत्री पद के लिए जिन राजनेताओं में मल्ल युद्ध होना शुरू हो गया है उनका छत्तीसगढ़ के गरीब किसान-मजदूरों और वनवासियों के दारिद्रपूर्ण, कठिन और संघर्षशील जीवन से या उनकी आकांक्षाओं से दूर-दूर का भी संबंध नहीं है। पुरानी कहावत है कि जुझारू और क्रांतिकारी लोग बलिदान देकर राजनैतिक परिस्थितियां बदलते हैं और चतुर भोगी लोग उनके त्याग की अग्नि पर सत्ता की रोटियां सेंकते हैं। शायद यही अब छत्तीसगढ़ में होने जा रहा है। इसलिए छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा नए राज्य के गठन को अपनी मंजिल नहीं मानता बल्कि इसे तो अपने संघर्ष का पहला पड़ाव भर मानता है।
मोर्चे के वर्तमान नेता श्री जनकलाल ठाकुर दूसरे राजनेताओं से भिन्न एक सच्चे जनसेवक के रूप में पिछले दो बार से मध्य प्रदेश विधानसभा में विधायक के रूप में अपनी विशिष्ट छवि बनाने में कामयाब हुए हैं। इस मोर्चे के लिए अपना जीवन समर्पित कर देने वाली सुश्री सुधा भारद्वाज मानती हैं कि उनके इलाके के लोगों के लिए आने वाले दिन और भी संघर्षमय होंगे। जब नवगठित राज्य के सत्तालोलुप राजनेता पदों, सरकारी वाहनों व बंगलों के पीछे भागेंगे। नव गठित राज्य की नई सरकार इलाके के गरीब और पिछड़े लोगों को राहत पहुंचाने की बजाए राज्य के सीमित संसाधनों को सत्ताधीशों के ऐशों आराम के सामान जुटाने में बर्बाद करेगी तब छत्तीसगढ़ की जुझारू जनता सड़कों पर उतरेगी और अपना हक मांगेगी। अलबत्ता ये लड़ाई पहले के मुकाबले अब ज्यादा आसान होगी। क्योंकि पहले सत्ताधीशों से अपनीे बात कहने छत्तीसगढ़ के आम लोगों को रेलगाडि़यों में भर कर भोपाल जाना पड़ता था। जो एक लंबा तकलीफदेह सफर होता था। अब तो सत्ता का केंद्र उनकी पहुंच के भीतर है। अब तो उन्हें अपने काम की जगह से यानी खेत, खदान या कारखानों से बहुत दूर नहीं जाना पड़ेगा। हर अन्याय के विरूद्ध इकट्ठा होना अब बहुत आसान होगा। इतना ही नहीं सत्ताधीशों के रंग-ढंग, उनकी पैनी निगाह के सामने होंगे। वो हर रोज देखेंगे कि छत्तीसगढ़ राज्य बनने से किसकी आर्थिक प्रगति तेजी से हो रही है ? आम लोगों की या सत्ताधीशों की ?
भावी संघर्ष के लिए छत्तीसगढ़ के लोगों ने अभी से जमीन तैयार करनी शुरू अर दी है। पिछले दिनों बैंकों के कर्जा वसूली अभियान के दौरान प्रशासन के दोहरे रवैए के विरूद्ध छत्तीसगढ़ के किसानों ने एकजुट होकर मोर्चा लिया। हुआ यूं कि बैंकों ने छत्तीसगढ़ के छोटे और गरीब किसानों से कर्जा वसूलने का नायाब और आततायी तरीका ईजाद किया। मार्च 2000 में दुर्ग जिले के गुरूर थाने में कर्जा वसूली का शिविर लगाया गया। थाने और पुलिस को इस्तेमाल कर बैंक अधिकारियों ने कर्जदार किसानों को थाने में तलब किया। वहां उन्हें आतंकित किया जाने लगा। जबकि दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ अंचल के ही उद्योगपतियों पर बैंकों का सैकड़ों करोड़ रुपया बकाया है। जो कि पूरे इलाके के हजारों किसानों को दिए गए कुल कर्जे का पचासों गुना ज्यादा रकम है। पर इन उद्योगपतियों के विरूद्ध कर्जा वसूली के लिए कभी भी ऐसे सख्त और भयाक्रांत कर देने वाले कदम नहीं उठाए गए।  जैसे ही छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चे के कार्यकर्ताओं को पता चला वे गुरूर थाना पहुंच गए और उन्होंने किसानों से कहा कि पुलिस से भयभीत होने की कतई जरूरत नहीं है। तब सब किसानों ने मिलकर बैंक अधिकारियों को चुनौती दी। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि बैंक अधिकारी पहले उन उद्योगपतियों से कर्जा वसूलें जिन पर करोड़ों रुपए की देनदारी है। जो बैंकों का पैसा हड़प कर पांच सितारा जिंदगी जी रहेे हैं। जब उनसे वसूली कर लें तब उन किसानों की तरफ मुखातिब हों जिन पर चंद हजार रुपए कर्ज है और जो खराब फसल के कारण भुखमरी की जिंदगी जी रहे हैं। इसी मोर्चे की एक कार्यकर्ता सुश्री सुधा भारद्वाज जो कि अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अर्थशास्त्री दिवंगतत प्रो. श्रीमती कृष्णा भारद्वाज की बेटी हैं। स्वयं सुधा आईआईटी, कानपुर और लंदन में पढ़ी और पिछले दस वर्षों से भी ज्यादा से छत्तीसगढ़ इलाके में गरीबतम मजदूरों की सी जिंदगी जीकर उनके संघर्ष में साथ दे रही हैं। सुधा चाहती तो किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करके लाखों रुपए महीने कमा रही होतीं। ऐसी अनुभवी और तपस्वी सुश्री सुधा भारद्वाज का कहना है कि कहने को तो हमारे देश में लोकतंत्र है पर आम लोगों के वोटांे से चुनी हुई सरकारें उन उद्योगपतियों के इशारे पर चलती हैं जो कभी वोट डालने भी नहीं जाते। सुधा पूछती हैं कि क्या वजह है कि महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश जैसे संपन्न राज्यों के किसान भी बैंके के छोटे-छोटे कर्जे न चुका पाने की स्थिति में आत्म हत्या कर लेते हैं। जबकि इस देश के उद्योगपतियों पर बैंकों और सरकार का 55 हजार करोड़ रुपया कर्ज है पर न तो उनमें से किसी की कुर्की होती है, न किसी को जेल होती है और न ही उन्हें समय पर कर्ज और ब्याज न देने की एवज में कोई सजा ही दी जाती है । सजा देना तो दूर उलटा इन उद्योगपतियों के संगठन बड़ी निर्लजता से इस गरीब देश की सरकार पर दबाव डालते हैं कि सरकार उन पर बकाया 55 हजार करोड़ रुपए का कर्जा माफ कर दे।
छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चे के ही एक समर्पित कार्यकर्ता अनूप सिंह, जो दस वर्ष पूर्व दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टिफिन्स काॅलेज से पढ़ कर मोर्चे में एक मजदूर कार्यकर्ता के रूप में शामिल हुए, कहते हैं कि जितना कर्जा दुर्ग, राजनंद गांव व कवंरघा जिलों के सब किसानों पर बकाया है उससे कहीं ज्यादा कर्जा अकेले भिलाई वायर्स लिमिटेड के ऊपर बकाया है। प्रशासन 37 हजार किसानों को प्रताडि़त कर, इतनी मेहनत करके जितना कर्जा वसूलेगा उसकी बजाए अगर अकेले भिलाई वायर्स लिमिटेड से ही कर्जा वसूल ले तो मेहतन भी कम लगेगी और वसूली भी कहीं ज्यादा होगी। अनूप पूछते हैं कि क्या वजह है कि प्रशासन 37 हजार किसानों पर डंडे बरसाने में तो इतना फुर्तीला है पर उद्योगपतियों की तरफ उसकी नजर ही नहीं जाती, क्यों? दक्षिणी अफ्रीका के रंगभेद की ही तरह क्या यह गरीबों के विरूद्ध और अमीरों के पक्ष में सरकार का नस्लवाद नहीं है ? छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चे के लोग पिछले दिनों भारत के राष्ट्रपति श्री केआर नारायनन से मिले और उनसे इस तरह के प्रशासनिक नस्लवाद को रोकने की अपील की। 
छत्तीसगढ़ के ये जुझारू नौजवान आरोप लगाते हैं कि केंद्र और प्रांतीय सरकारों का जो हजारों करोड़ का घाटा है उसका एक बड़ा कारण यही रंग भेद है। आज देश में लगभग आठ लाख करोड़ रुपया काला धन है। यदि इस पर मात्र 33 फीसदी कर लगा दिया जाए तो सरकार की तमाम आर्थिक जरूरतें पूरी हो सकती हैं और विदेशी कर्ज भी तेजी से घट सकता हैं इतना ही नहीं सरकार का वार्षिक बजट भी फिर घाटे का बजट न रह कर मुनाफे का बजट बन सकता है। अगर सरकार ईमानदारी से ऐसा करे तो उसे विनिवेशी करण की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। बशर्ते कि सत्ताधीशों का इरादा देश से काला धन समाप्त करने का हो।असलियत यह है कि देश में देशी व विदेशी धनी वर्ग से सरकारी कर्ज वसूलने की दर पिछले दस वर्षों से लगातार गिरती जा रही है।
छत्तीसगढ़ का इलाका खनिज और वन्य संपदा से भरा पूरा है। आवश्यकता है स्थानीय संसाधनों के संतुलित दोहन की। उम्मीद की जानी चाहिए कि अन्य राज्यों के मुकाबले ज्यादा लंबा और खतरनाक संघर्ष करने के अनुभवी छत्तीसगढ़ के लोग नए राज्य में अपना शोषण नहीं होंने देंगे। वे अपने हक के लिए तो लड़ेंगे ही नए राज्य के नए सत्ताधीशों को बेफिक्री से प्रदेश लूटने की इजाजत नहीं देंगे। यदि वे ऐसा कर सकें तो छत्तीसगढ़ राज्य एक सबल राज्य होकर ऊभरेगा। तभी इसके गठन का मकसद पूरा होगा।

Friday, August 11, 2000

कश्मीर: चलो ये भी करके देख लें !

कश्मीर की घाटी में पिछले एक दशक से खून की होली खेलने वाला संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन अब अचानक अपने तेवर बदल रहा है। उसने भारत सरकार से शांति-वार्ता शुरू कर दी है। ये दूसरी बात है कि इस वार्ता के शुरू होते ही अमरनाथ के पवित्र दर्शनों को जा रहे 100 बेगुनाह तीर्थयात्रिओं को मौत के घाट उतार दिया गया। हिजबुल मुजाहिद्दीन ने इस हत्या कांड की निंदा की है। पर घाटी के ही आतंकवादी संगठन लश्करे-तोइवा और जैश-ए-मोहम्मद की तरफ उंगलिया उठ रही हैं। ये तो शुरूआत है अभी तो इस बात का पूरा भरोसा भी नहीं कि हिजबुल मुजाहिद्दीन इस बातचीत के बारे में कितना गंभीर है ? क्या उसके सभी नेता इस पहल पर एकमत हैं ? क्या वे वाकई कश्मीर में शांति चाहते हैं ? कहीं ये उनकी कोई नई चाल तो नहीं ? कहीं ये कदम अमरीका के पाकिस्तान पर पड़ रहे दबाव के कारण ही तो नहीं उठाया गया ? जो भी हो फिलहाल कुछ भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है। ये तो आने वाला वक्त बताएगा कि ये बातचीत किस दिशा में आगे बढ़ती है। फिलहाल इतना ही कहा जा सकता है कि ये एक अच्छी शुरूआत है। अगर दोनो पक्ष ईमानदारी से इस पहल को आगे बढ़ाते हैं तो भविष्य में कुछ रास्ता निकल सकता है। पर इसके लिए कई तरह की सावधानियां बरती होगी।

कश्मीर घाटी में फैले लगभग 9 आतंकवादी संगठनों में से केवल एक ही संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन से बातचीत करने से घाटी की समस्याओं से निजात नहीं मिल सकता। क्योंकि बाकी के आतंकवादी संगठनों के नेताओं व कार्यकताओं में इससे हताशा फैलेगी और वे अपने अस्तित्व को बचाने के लिए कश्मीर घाटी में आतंकवाद और तेजी से फैलाने में जुट जाएंगे। इसलिए यह जरूरी होगा कि जितनी ज्यादा समूहों से अगल-अलग स्तर पर बातचीत चलाना संभव हो उतनों से ये बातचीत चलाई जानी चाहिए। वैसे भी हिजबुल मुजाहिद्दीन कश्मीर घाटी में फैले बाकी आतंकवादी संगठनों का कोई अकेला सरपरस्त तो है नहीं। अलग-अलग गुटों के अलग-अलग निहित स्वार्थ हैं और उन्हें सहारा और बढ़ावा देने वाले लोग भी अलग-अलग हैं। चाहे वो कश्मीर की राजनीति में हाशिए पर बैठा दिए गए स्थानीय नेता हों या भारत की सरहदों के बाहर बैठी ताकतें।

इसके साथ ही एक बहुत अहम् मसला है श्री फारूख अब्दुल्ला का रवैया और उनके साथी विधायकों और नेताओं की इस पहल पर सोच। आज कश्मीर घाटी में शांति स्थापना का कोई भी प्रयास वहां की स्थानीय सरकार के सदर श्री फारूख अब्दुल्ला की उपेक्षा करके पूरा नहीं किया जा सकता। इसका एक नमूना पिछले दिनों देश देख चुका है। जब केंद्रिय गृहमंत्री श्री लालकुष्ण आडवाणी ने श्री अब्दुल्ला को बिना विश्वास में लिए हिजबुल मुजाहिद्दीन से शांति-वार्ता की एकतरफा घोषणा कर दी तो श्री फारूख इतना ज्यादा बौखलाए कि उन्होंने रातोरात कश्मीर की स्वयत्तता का प्रस्ताव अपनी विधानसभा में पारित करके बिना वजह देश में तूफान खड़ा कर दिया। ऐसा करना फारूख की राजनीतिक मजबूरी थी। उन्हें लगा कि अगर केंद्र सरकार हिजबुल मुजाहिद्दीन से सीधे बात करके घाटी में शांति स्थापना करने में कामयाब हो जाती है तो कहीं नेशन कांफ्रेंस पार्टी का भविष्य ही खतरे में न पड़ जाए। कहीं ऐसा न हो कि हिजबुल मुजाहिद्दीन संगठन शांति स्थापना के बाद चुनावी राजनीति में कूद पड़े और नेशनल कांफ्रेंस को दर-किनार कर कश्मीर की राजनीति में हावी हो जाए।

श्री फारूख अब्दुल्ला की राजनैतिक मजबूरियों और उनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को मद्देनजर रख कर अगर उनके इस कदम का मूल्यांकन किया जाए तो शायद श्री फारूख को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि जो भी उनकी जगह होता शायव वह भी इन परिस्थितियों में ऐसा ही करता। यह राजनैतिक भूल तो केंद्रिय गृहमंत्री श्री लालकृष्ण आडवानी की रही, जिन्होंने ऐसी बातचीत की पहल करने से पहले श्री फारूख अब्दुल्ला को विश्वास में नहीं लिया। यहां यह बात भी बहुत महत्वपूर्ण है कि श्री फारूख अब्दुल्ला कश्मीर की स्वायत्तता के मामले पर किसी अडि़यल घोड़े की तरह अपनी मांगों पर अड़े हुए नहीं हैं।

पिछले दिनों इस मुद्दे पर उनके कई विरोधाभासी बयान आए हैं। एक तरफ तो वे स्वायत्तता की बात करते हैं और दूसरी तरफ बार-बार जोर देकर कहते हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग हैं। कभी वो कहते हैं कि उन्हें 1953 की स्थिति के प्रति कोई दुराग्रह नहीं है यानी उस स्थिति से कम या ज्यादा पर भी फैसला हो सकता है और कभी कहते हैं कि उनसे गलती हुई जो उन्होंने जल्दीबाजी में यह विधेयक पास करवा दिया वरना उनकी इच्छा तो देश में सभी प्रांतों में इस सवाल पर खुली बहस करवाने की है ताकि प्रांतों की स्वायत्तता के लटके हुए सवाल का कोई स्थायी हल निकल सके। उनके इस वक्तव्यों से साफ हो जाता है कि वे कश्मीर के सवाल को लेकर किसी भी सीमा तक लोचशील हो सकते हैं। यह एक शुभ संकेत है और इसलिए उनकी उपेक्षा किए बिना प्राथमिकता के आधार पर श्री फारूख अब्दुल्ला और उनके लोगों की बात भी सुनी जानी चाहिए। वैसे भी कश्मीर में मौजूदा सरकार की उपेक्षा करके कुछ विशेष हासिल नहीं किया जा सकता।

जैसे कि संकेत मिल रहे हैं कि पाकिस्तान इस शांति-वार्ता से कतई खुश नहीं है। पाकिस्तान की राजनीति पर हावी रहे सैन्य अधिकारी व कुछ कुलीन, ताकतवर स्वार्थी तत्व घाटी और भारत में आतंकवाद फैलाए रखने के पक्ष में हैं क्योंकि इससे उनके व्यावसायिक हित पूरे होते हैं। वे न तो कश्मीर में शांति बहाल करवाने के इच्छुक हैं और ना ही उनकी रूचि इस बात में है कि घाटी के लोगों की आर्थिक स्थिति मजबूत हो। उनका एक मात्र मकसद घाटी में आतंकवाद को जिंदा रखना है। इसलिए घाटी में सक्रिय कई आतंकवादी गुटों को पाकिस्तान का सीधा या परोक्ष समर्थन प्राप्त है। पाकिस्तान की राजनीति में सेना हमेशा से हावी रही है और पाकिस्तान की सेना का एकसूत्रीय ऐजेंडा है भारत द्वेष। जिसकी दुहाई देकर वे अपने हित साधते रहते हैं। इसीलिए यह माना जाता है कि जब नवाज शरीफ और अटल बिहारी वाजपेयी के सद्-प्रयासों से दोनों देशों के बीच शांति स्थापना का माहौल बनना शुरू हुआ तभी कारगिल में युद्ध छेड़ दिया गया। जाहिर है कि पाकिस्तानी सेना के उच्च अधिकारी हिजबुल मुजाहिद्दीन के उन नेताओं को लगातार इस शांति-वार्ता के विरूद्ध उकसाते रहेंगे जो पाकितान में रह कर इस संगठन को चला रहे हैं। जहां एक तरफ यह सच है वहां इस बात को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि बदले हालात में अब अमरीका पाकिस्तान को हर जा-बेजा बात पर संरक्षण देने को तैयार नहीं है। दूसरी तरफ चीन ने भी अपने रूख को कुछ बदला है। आज के अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में लगभग सभी देश अमरीका की दादागिरी के आगे नतमस्तक हैं। क्योंकि अब दुनियां में वही एक सुपर पावर बची है और कोई भी अमरीका से अपने रिश्ते बिगाड़ कर सद्दाम हुसैन की तरह अपनी दुगर्ति नहीं करवाना चाहता। अमरीका का व्यावसायिक हित इस उपमहाद्वीप में शांति स्थापित करने मेें ही है। इसलिए उसने पाकिस्तान पर कड़ा दबाव बना रखा है। वैसे भी अमरीका पास्तिान के सैन्य शासन से खुश नहीं है। वह पाकिस्तान में लोकशाही की बहाली चाहता है। इसलिए हिजबुल मुजाहिद्दीन जैसे संगठनों को कश्मीर में शांति का महत्व समझ में आने लगा हो तो कोई आश्चर्य नहीं।

कश्मीर के आतंकवादी संगठनों से बातचीत के ठोस नतीजे निकलें इसके लिए जरूरी है कि इन बातचीतों में केवल नौकरशाह ही नहीं, दूसरे भी कई तरह के अनुभव वाले लोग शामिल हों। मसलन, घाटी के आतंकवादियों से पिछले वर्षों में लगतार संपर्क में रहे पत्रकार, घाटी और उसके बाहर के वे सम्मानित लोग जिनकी बात वहां सुनी जाती है। ऐसे सैन्य अधिकारी और प्रशासक जिनकी सख्ती और नीयत के आतंकवादी संगठन भी कायल रहे हैं व ऐसी परिस्थितियों से निपटने के अनुभवी लोग। इसके साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि ये बातचीत जितने ज्यादा खुलेपन से होगी और जितनी लंबी चलेगी उतने ही परिणाम भी दूरगामी होंगे। कभी-कभी जल्दीबाजी में किए गए फैसले हालात सुधारने की बजाए बिगाड़ देते हैं। इसमें शक नहीं कि कश्मीर के घाटी के लोग न तो आतंकवादियों के मुरीद हैं न पाकिस्तान या हिंदुस्तान के हुक्मरानों के। वर्षों के अशांत वातावरण ने उनकी रोजी-रोटी छीन ली है। उन्हें बेरोजगारी की मार ने अधमरा बना दिया है। वे तो हर कीमत पर अमन, चैन और तरक्की चाहते हैं। अगर शांति-वार्ताओं के इस मंथन में से वाकई शांति का मक्खन निकल सके तो सबसे ज्यादा खुश जम्मू-कश्मीर के लोग होंगे जो आज या तो शरणार्थी शिविरों में पड़े हैं या घाटी में ही अपने घरों में बेगानों की सी जिंदगी जी रहे हैं और हर दिन शायद यही नगमा गाते हैं, ‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन-बीते हुए दिन वो मेरे प्यार पलछिन।’

Friday, August 4, 2000

कैसे बचाएं अपनी आजादी ?


जब से डा. मनमोहन सिंह देश में आर्थिक उदारतावाद लाए हंै हर शहर में लघु उद्योग क्रमशः बंद होते जा रहे हैं। बेरोजगारी बढ़ती जा रही है और विकास की बजाए जनता विनाश की ओर धकेली जा रही है। देश के अनेक जागरूक लोग और संगठन उदारतावाद से पैदा हुए खतरों की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करते रहे हैं। पर स्वेदेशी को डंका पीटने वाली भाजपा भी इंका के रास्ते पर ही चल रही है। उधर उदारतावाद के नाम पर देश की अर्थ व्यवस्था पर पड़ रहे डाके की तरफ इन संगठनों ने काफी रोशनी डाली है। ऐसे ही एक संगठन द्वारा जारी एक पर्चे में महत्वपूर्ण जानकारियों को एक जगह इकट्ठा करके रख दिया गया है ताकि इसे पढ़ने वाला कम समय में ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट का अनुमान लगा सके।
इस पर्चे में छापी गई शोध आधारित जानकारी के अनुसार देश की पांच प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत से मोटा मुनाफा कमा कर विदेश भेज रही हैं। हिंदुस्तान लीवर ने जब भारत में कारोबार शुरू किया था तो मात्र 24 लाख रूपए लगाए थे। आज यह कंपनी हर साल भारत से 775 करोड़ रुपए का मुनाफा कमा कर विदेश ले जाती है। कोलगेट पामोलिव इंडिया ने शुरू में मात्र 1.5 करोड़ रुपया लगाया था और अब यह कंपनी मुनाफा के रूप में भारत से 46 करोड़ रुपया हर साल कमा कर विदेश ले जाती है। बाटा इंडिया कंपनी ने 70 लाख रुपया लगाया था और अब यह कंपनी 24 करोड़ रुपया हर साल कमा कर भारत से विदेश ले जाती है। पेप्सी कोला इंडिया कंपनी ने शुरू में 40 लाख रुपया लगाया था और अब यह कंपनी 240 करोड़ रुपया कमा कर हर साल भारत से विदेश ले जाती है। कोका कोला इंडिया कंपनी ने शुरू में 70 करोड़ रुपया शुरू में लगाया था और अब यह कंपनी 300 करोड़ भारत से हर साल कमा कर विदेश ले जाती है।
दुनियां की अर्थव्यवस्था में सोने की चिडि़या माने जाने वाला भारत कभी विश्व का सबसे बड़ा निर्यातक देश था। आज सबसे बड़ा कंगाल देश बन गया है। भारत की हुकूमत पर अंग्रेजों का सिक्का जमने से पहले सन् 1830 में, विश्व व्यापार में भारत का हिस्सा 33 फीसदी था। इस दौरान भारत पर कोई विदेशी कर्ज नहीं था। अंग्रेज हुकूमत के काबिज हो जाने के बाद भारत का निर्यात घटता गया और 1947 के आने तक भारत की विश्व व्यापार में हिस्सेदारी घट कर रह गई मात्र ढाई फीसदी। पर पिछले दशक में आए आर्थिक उदारतावाद ने तो कमाल ही कर दिया। 1999 आते-आते तक विश्व व्यापार में हमारा हिस्सा घट कर रह गया मात्र 0.2 फीसदी। 1947 तक भारत सरकार पर न कोई विदेशी कर्ज था और ना ही कोई घरेलू कर्ज। पर उदारतावाद की कृपा से भारत पर आज 6.5 लाख करोड़ रुपए विदेशी कर्ज है। इसके अलावा घरेलू कर्ज है 8.5 लाख करोड़ रुपया।
देश की अर्थव्यवस्था पर हो रहे इस लगातार हमले से चिंतित लोग याद दिलाते हैं कि एक ईस्ट इंडिया कंपनी को भारतवर्ष में व्यापार करने की अनुमति देने की भूल का हर्जाना मिला 200 साल से ज्यादा की गुलामी। आज 4000 से ज्यादा विदेशी कंपनियां व्यापार के नाम पर भारत को लूट कर हर साल करीब 80 हजार करोड़ रुपए की विदेशी मुद्रा मुनाफे के रूप में हमारे देश से बाहर ले जा रही हैं और इस तरह देश को धीरे-धीरे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की आर्थिक गुलामी की ओर धकेल रही हैं। आजादी बजाओ आंदोलन, इलहाबाद के प्रवक्ता का कहना है कि कारगिल में राजनैतिक घुसपैठ के खिलाफ तो पूरा देश एकजुट हो गया था पर कितने दुख की बात है कि इस आर्थिक घुसपैठ की ओर  किसी का ध्यान नहीं जा रहा। मध्यमवर्ग और उच्चवर्ग के हाथ में आधुनिकता और मनोरंजन के नाम पर तमाम तरह के झुनझुने थमा दिए गए हैं। ये लोग बर्गर, पिज्जा, डिस्को, सैटेलाइट टीवी और इनटरनेट में मस्त हो रहे हैं और पीछे से उनके घर में डाके डाले जा रहे हैं। जब उन्हें होश आएगा तब तक सब लुट चुका होगा।
सरकार में बैठे नौकरशाहों और राजनेताओं का फर्ज होता है कि वे जनता को सुशासन दें। चाणाक्य पंडित ने कहा है कि जिस देश का राजा महलों में रहता है उसकी प्रजा झौपडि़यों में रहती है और जिस देश का राजा झौपड़ी में रहता है उसकी प्रजा महलों में रहती है। भारत के विधायकों, सांसदों और नाकरशाहों ने अपने तो ऐशों-आराम के सब साधन जुटा लिए हैं और जनता को पानी और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाएं भी ठीक से नहीं मिलती। आधी से अधिक आबादी दयनीय हालत में जी रही है। 1999-2000 में भारत सरकार का कुल बजट था 2 लाख 83 हजार करोड़ रुपए। जिसमें से राजस्व की आमदनी 1 लाख 83 हजार करोड़ रुपया और नया कर्ज लिया गया 1 लाख करोड़ रुपया। इतने भारी कर्जे से जुटाई गई इस आमदनी में से 90 हजार करोड़ रुपया तो सिर्फ विदेशी कर्ज की किश्त और ब्याज देने में चला गया और 54 हजार करोड़ रुपया सरकारी मुलाजिमों की तनख्वाह, पेंशन आदि पर खर्च हुआ।  50 हजार करोड़ रुपया देश की रक्षा व्यवस्था पर खर्च हुआ। इस तरह विकास कार्यों और जनता की सेवा के लिए बचा मात्र 77 हजार करोड़ रुपया। इस तरह देश के बजट का 32 फीसदी कर्ज और ब्याज देने में, 19 फीसदी वेतन और पेंशन देने में, 18 फीसदी रक्षा मद में और कुल 27 फीसदी जनता के लिए खर्च होता है। यानी देश पुराने कर्जें चुकाने के लिए नए कर्जे लेता जा रहा है फिर भी सरकार अपनी फिजूलखर्ची में कमी नहीं करती। नतीजतन अपने ऐश के लिए जनता पर टैक्स बढ़ा-बढ़ा कर खर्चों की भरपाई करती है। फिर भी जनता खामोशी से सब देखती रहती है। कोई विरोध नहीं करती।
परंपरा से यह माना जाता है कि लोग मजबूरी में ही घर का जेवर, सामन या जायदाद बेचते हैं। आज भारत सरकार अपने देश की हीरे व सोने की खोने, तेल के भंडार और सार्वजनिक कारखाने कौडि़यों के दाम विदेशी कंपनियों को बेच रही है। वाजपेयी सरकार का तर्क है कि घाटा दे रहे इन सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को बेच कर सरकार अपनी जिम्मेदारी कम करना चाहती है। प्रश्न है कि ये घाटे हुए क्यों ? इन प्रतिष्ठानों में व्याप्त भारी भ्रष्टाचार के कारण। पर इन घोटालों के लिए जिम्मेदार नेताओं और अफसरों के खिलाफ जांच दबा दी गई। किसी को सजा नहीं मिली। तो सरकार का फर्ज है कि पहले इन कंपनियों में हुए घाटों के लिए जिम्मेदार अफसरों और नेताओं के खिलाफ ईमानदारी से जांच करवाए। देश का जो धन उन्होंने विदेशी बैंको में जमा कर दिया है उसे उनसे वसूले। तब कहीं जाकर सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के संबंध में पुनः विचार करें। 
इस उदारीकरण के नाम पर देशवासियों को आर्थिक विकास के बड़े-बड़े सपने दिखाए गए थे। पर जिस तरह उदारीकरण हो रहा है उस तरह केवल मुट्ठी भर धनी लोग और देश के हुक्मरान ही इन सपनों को पूरा होते देख पाए हैं। सरकार की उदारीकरण की नीतियों के कारण देश में तीन लाख कारखाने पिछले आठ वर्षों के दौरान बंद हो चुके हैं और शेष भारी आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहे हैं। जिससे देश के व्यापारियों व मध्यम वर्गीय कारखानेदारों में भारी हताशा फैल रही है। फिर भी सरकार सपने दिखाने से बाज नहीं आ रही है। जागरूक लोगों को चिंता है कि देश की बहुसंख्यक जनता कभी भी इन सपनों को पूरा होते नहीं देख पाएगी। आजादी के वक्त भारत की जनता थी 34 करोड़ आज है 100 करोड़। उस वक्त ेश में दो करोड़ लोग बेरोजगार थे और आज 20 करोड़ लोग पूरी तरह बेरोजगार हैं। तब गरीबी की रेखा के नीचे कुल चार करोड़ लोग रहते थे। आज तमाम पंचवर्षीय योजनाओं में अरबों-खरबों रूपया विकास के नाम पर खर्च करने के बाद देश के 40 करोड़ नागरिक गरीबी की रेखा के नीचे जीवन बसर करने पर मजबूर हैं। ये तो तब है जबकि गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों की परिभाषा बहुत छद्म किस्म की है। जिन्हें सरकार गरीबी की रेखा के ऊपर मानती है उनमें भी करोड़ों लोग काफी दयनीय जीवन जी रहे हैं। दूसरी तरफ देश के बड़े नेता और अफसरों ने देश को लूट कर 14 लाख करोड़ रुपया अवैध रूप से विदेशी बैंकों में जमा करा दिया हैं ताकि उनकी आने वाली सात पीढि़यां भी राजाओं का सा जिंदगी जीती रहे। देश की जनता जाए भाड़ में। सरकारी अव्यवस्था का यह आलम है कि की सरकार गोदामों में हर साल दो करोड़ टन अनाज सड़ जाता है। अगर इसका रख-रखाव ठीक से हो तो 12 करोड़ गरीब लोगोें की भूख मिट सकती है। ऐसे ही तमाम उदाहरण दूसरे सरकारी विभागों में भी मिल जाएंगे। इसलिए जरूरत इनकी व्यवस्था सुधारने की है ना कि विदेशी कंपनियों को बुलाने की।
दरअसल आज के दौर में कोई भी ताकतवर देश किसी कमजोर देश को राजनैतिक रूप से जीत कर गुलाम बनाने का इच्छुक नहीं है। उनका तो मकसद होता है कि इन देशों को आर्थिक रूप से गुलाम बना लो और फिर इनका जम कर दोहन करो। यही भारत में आज हो रहा है। इसलिए समाज और राष्ट्र के प्रति जागरूक लोगों को भारी चिंता है। वे देश में घूम-घूम कर बैठकें कर रहे हैं और जनजागरण कर रहे हैं। उन्हें दुख है जनता आज उनकी बात को पूरी गंभीरता से नहीं ले रही है। फिर पछताए होत क्या जब चिडि़या चुग गई खेत। इन लोगों की आम जनता से अपील है कि वह विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करें और स्वदेशी को अपनाएं ताकि देश का पैसा देश मंे ही रहे। जब ऐसा होगा, तभी भारत का आर्थिक विकास होगा।