Friday, August 11, 2000

कश्मीर: चलो ये भी करके देख लें !

कश्मीर की घाटी में पिछले एक दशक से खून की होली खेलने वाला संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन अब अचानक अपने तेवर बदल रहा है। उसने भारत सरकार से शांति-वार्ता शुरू कर दी है। ये दूसरी बात है कि इस वार्ता के शुरू होते ही अमरनाथ के पवित्र दर्शनों को जा रहे 100 बेगुनाह तीर्थयात्रिओं को मौत के घाट उतार दिया गया। हिजबुल मुजाहिद्दीन ने इस हत्या कांड की निंदा की है। पर घाटी के ही आतंकवादी संगठन लश्करे-तोइवा और जैश-ए-मोहम्मद की तरफ उंगलिया उठ रही हैं। ये तो शुरूआत है अभी तो इस बात का पूरा भरोसा भी नहीं कि हिजबुल मुजाहिद्दीन इस बातचीत के बारे में कितना गंभीर है ? क्या उसके सभी नेता इस पहल पर एकमत हैं ? क्या वे वाकई कश्मीर में शांति चाहते हैं ? कहीं ये उनकी कोई नई चाल तो नहीं ? कहीं ये कदम अमरीका के पाकिस्तान पर पड़ रहे दबाव के कारण ही तो नहीं उठाया गया ? जो भी हो फिलहाल कुछ भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है। ये तो आने वाला वक्त बताएगा कि ये बातचीत किस दिशा में आगे बढ़ती है। फिलहाल इतना ही कहा जा सकता है कि ये एक अच्छी शुरूआत है। अगर दोनो पक्ष ईमानदारी से इस पहल को आगे बढ़ाते हैं तो भविष्य में कुछ रास्ता निकल सकता है। पर इसके लिए कई तरह की सावधानियां बरती होगी।

कश्मीर घाटी में फैले लगभग 9 आतंकवादी संगठनों में से केवल एक ही संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन से बातचीत करने से घाटी की समस्याओं से निजात नहीं मिल सकता। क्योंकि बाकी के आतंकवादी संगठनों के नेताओं व कार्यकताओं में इससे हताशा फैलेगी और वे अपने अस्तित्व को बचाने के लिए कश्मीर घाटी में आतंकवाद और तेजी से फैलाने में जुट जाएंगे। इसलिए यह जरूरी होगा कि जितनी ज्यादा समूहों से अगल-अलग स्तर पर बातचीत चलाना संभव हो उतनों से ये बातचीत चलाई जानी चाहिए। वैसे भी हिजबुल मुजाहिद्दीन कश्मीर घाटी में फैले बाकी आतंकवादी संगठनों का कोई अकेला सरपरस्त तो है नहीं। अलग-अलग गुटों के अलग-अलग निहित स्वार्थ हैं और उन्हें सहारा और बढ़ावा देने वाले लोग भी अलग-अलग हैं। चाहे वो कश्मीर की राजनीति में हाशिए पर बैठा दिए गए स्थानीय नेता हों या भारत की सरहदों के बाहर बैठी ताकतें।

इसके साथ ही एक बहुत अहम् मसला है श्री फारूख अब्दुल्ला का रवैया और उनके साथी विधायकों और नेताओं की इस पहल पर सोच। आज कश्मीर घाटी में शांति स्थापना का कोई भी प्रयास वहां की स्थानीय सरकार के सदर श्री फारूख अब्दुल्ला की उपेक्षा करके पूरा नहीं किया जा सकता। इसका एक नमूना पिछले दिनों देश देख चुका है। जब केंद्रिय गृहमंत्री श्री लालकुष्ण आडवाणी ने श्री अब्दुल्ला को बिना विश्वास में लिए हिजबुल मुजाहिद्दीन से शांति-वार्ता की एकतरफा घोषणा कर दी तो श्री फारूख इतना ज्यादा बौखलाए कि उन्होंने रातोरात कश्मीर की स्वयत्तता का प्रस्ताव अपनी विधानसभा में पारित करके बिना वजह देश में तूफान खड़ा कर दिया। ऐसा करना फारूख की राजनीतिक मजबूरी थी। उन्हें लगा कि अगर केंद्र सरकार हिजबुल मुजाहिद्दीन से सीधे बात करके घाटी में शांति स्थापना करने में कामयाब हो जाती है तो कहीं नेशन कांफ्रेंस पार्टी का भविष्य ही खतरे में न पड़ जाए। कहीं ऐसा न हो कि हिजबुल मुजाहिद्दीन संगठन शांति स्थापना के बाद चुनावी राजनीति में कूद पड़े और नेशनल कांफ्रेंस को दर-किनार कर कश्मीर की राजनीति में हावी हो जाए।

श्री फारूख अब्दुल्ला की राजनैतिक मजबूरियों और उनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को मद्देनजर रख कर अगर उनके इस कदम का मूल्यांकन किया जाए तो शायद श्री फारूख को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि जो भी उनकी जगह होता शायव वह भी इन परिस्थितियों में ऐसा ही करता। यह राजनैतिक भूल तो केंद्रिय गृहमंत्री श्री लालकृष्ण आडवानी की रही, जिन्होंने ऐसी बातचीत की पहल करने से पहले श्री फारूख अब्दुल्ला को विश्वास में नहीं लिया। यहां यह बात भी बहुत महत्वपूर्ण है कि श्री फारूख अब्दुल्ला कश्मीर की स्वायत्तता के मामले पर किसी अडि़यल घोड़े की तरह अपनी मांगों पर अड़े हुए नहीं हैं।

पिछले दिनों इस मुद्दे पर उनके कई विरोधाभासी बयान आए हैं। एक तरफ तो वे स्वायत्तता की बात करते हैं और दूसरी तरफ बार-बार जोर देकर कहते हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग हैं। कभी वो कहते हैं कि उन्हें 1953 की स्थिति के प्रति कोई दुराग्रह नहीं है यानी उस स्थिति से कम या ज्यादा पर भी फैसला हो सकता है और कभी कहते हैं कि उनसे गलती हुई जो उन्होंने जल्दीबाजी में यह विधेयक पास करवा दिया वरना उनकी इच्छा तो देश में सभी प्रांतों में इस सवाल पर खुली बहस करवाने की है ताकि प्रांतों की स्वायत्तता के लटके हुए सवाल का कोई स्थायी हल निकल सके। उनके इस वक्तव्यों से साफ हो जाता है कि वे कश्मीर के सवाल को लेकर किसी भी सीमा तक लोचशील हो सकते हैं। यह एक शुभ संकेत है और इसलिए उनकी उपेक्षा किए बिना प्राथमिकता के आधार पर श्री फारूख अब्दुल्ला और उनके लोगों की बात भी सुनी जानी चाहिए। वैसे भी कश्मीर में मौजूदा सरकार की उपेक्षा करके कुछ विशेष हासिल नहीं किया जा सकता।

जैसे कि संकेत मिल रहे हैं कि पाकिस्तान इस शांति-वार्ता से कतई खुश नहीं है। पाकिस्तान की राजनीति पर हावी रहे सैन्य अधिकारी व कुछ कुलीन, ताकतवर स्वार्थी तत्व घाटी और भारत में आतंकवाद फैलाए रखने के पक्ष में हैं क्योंकि इससे उनके व्यावसायिक हित पूरे होते हैं। वे न तो कश्मीर में शांति बहाल करवाने के इच्छुक हैं और ना ही उनकी रूचि इस बात में है कि घाटी के लोगों की आर्थिक स्थिति मजबूत हो। उनका एक मात्र मकसद घाटी में आतंकवाद को जिंदा रखना है। इसलिए घाटी में सक्रिय कई आतंकवादी गुटों को पाकिस्तान का सीधा या परोक्ष समर्थन प्राप्त है। पाकिस्तान की राजनीति में सेना हमेशा से हावी रही है और पाकिस्तान की सेना का एकसूत्रीय ऐजेंडा है भारत द्वेष। जिसकी दुहाई देकर वे अपने हित साधते रहते हैं। इसीलिए यह माना जाता है कि जब नवाज शरीफ और अटल बिहारी वाजपेयी के सद्-प्रयासों से दोनों देशों के बीच शांति स्थापना का माहौल बनना शुरू हुआ तभी कारगिल में युद्ध छेड़ दिया गया। जाहिर है कि पाकिस्तानी सेना के उच्च अधिकारी हिजबुल मुजाहिद्दीन के उन नेताओं को लगातार इस शांति-वार्ता के विरूद्ध उकसाते रहेंगे जो पाकितान में रह कर इस संगठन को चला रहे हैं। जहां एक तरफ यह सच है वहां इस बात को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि बदले हालात में अब अमरीका पाकिस्तान को हर जा-बेजा बात पर संरक्षण देने को तैयार नहीं है। दूसरी तरफ चीन ने भी अपने रूख को कुछ बदला है। आज के अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में लगभग सभी देश अमरीका की दादागिरी के आगे नतमस्तक हैं। क्योंकि अब दुनियां में वही एक सुपर पावर बची है और कोई भी अमरीका से अपने रिश्ते बिगाड़ कर सद्दाम हुसैन की तरह अपनी दुगर्ति नहीं करवाना चाहता। अमरीका का व्यावसायिक हित इस उपमहाद्वीप में शांति स्थापित करने मेें ही है। इसलिए उसने पाकिस्तान पर कड़ा दबाव बना रखा है। वैसे भी अमरीका पास्तिान के सैन्य शासन से खुश नहीं है। वह पाकिस्तान में लोकशाही की बहाली चाहता है। इसलिए हिजबुल मुजाहिद्दीन जैसे संगठनों को कश्मीर में शांति का महत्व समझ में आने लगा हो तो कोई आश्चर्य नहीं।

कश्मीर के आतंकवादी संगठनों से बातचीत के ठोस नतीजे निकलें इसके लिए जरूरी है कि इन बातचीतों में केवल नौकरशाह ही नहीं, दूसरे भी कई तरह के अनुभव वाले लोग शामिल हों। मसलन, घाटी के आतंकवादियों से पिछले वर्षों में लगतार संपर्क में रहे पत्रकार, घाटी और उसके बाहर के वे सम्मानित लोग जिनकी बात वहां सुनी जाती है। ऐसे सैन्य अधिकारी और प्रशासक जिनकी सख्ती और नीयत के आतंकवादी संगठन भी कायल रहे हैं व ऐसी परिस्थितियों से निपटने के अनुभवी लोग। इसके साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि ये बातचीत जितने ज्यादा खुलेपन से होगी और जितनी लंबी चलेगी उतने ही परिणाम भी दूरगामी होंगे। कभी-कभी जल्दीबाजी में किए गए फैसले हालात सुधारने की बजाए बिगाड़ देते हैं। इसमें शक नहीं कि कश्मीर के घाटी के लोग न तो आतंकवादियों के मुरीद हैं न पाकिस्तान या हिंदुस्तान के हुक्मरानों के। वर्षों के अशांत वातावरण ने उनकी रोजी-रोटी छीन ली है। उन्हें बेरोजगारी की मार ने अधमरा बना दिया है। वे तो हर कीमत पर अमन, चैन और तरक्की चाहते हैं। अगर शांति-वार्ताओं के इस मंथन में से वाकई शांति का मक्खन निकल सके तो सबसे ज्यादा खुश जम्मू-कश्मीर के लोग होंगे जो आज या तो शरणार्थी शिविरों में पड़े हैं या घाटी में ही अपने घरों में बेगानों की सी जिंदगी जी रहे हैं और हर दिन शायद यही नगमा गाते हैं, ‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन-बीते हुए दिन वो मेरे प्यार पलछिन।’

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