Friday, September 1, 2000

प्रियंका गांधी का प्रसव


गर्भवती प्रियंका गांधी की देखभाल करने वाले, दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल के बड़े डाक्टरों ने पत्रकारों को बताया कि वे प्रियंका के प्रसव को लेकर किसी हड़बड़ी में नहीं हैं। वे इत्मीनान से उनकी स्वाभाविक प्रसव पीड़ा शुरू होने की प्रतिक्षा करेंगे क्योंकि वे उन्हें प्राकृतिक रूप से ही प्रसव करवाये जाने के पक्ष में हैं। यह खबर पढ़ते ही एक तरफ तो सन्तोष हुआ कि इतालवी मां की आधुनिक बेटी प्रियंका प्रसव के पारम्परिक तरीके में ही विश्वास करती हैं। दूसरी तरफ डाक्टरों के इस आत्मविश्वास भरे सहज वक्तव्य को पढ़कर दिमाग में वो तमाम चेहरे घूम गये जिन्हें पिछले वर्षों में, समान परिस्थितियों में, अकारण आपरेशन से बच्चा पैदा करने को मजबूर किया गया। आप भी यदि अपने सामाजिक दायरे का सर्वेक्षण करें तो पायेंगे कि पिछले 10 वर्षों में गर्भवती महिलाओं को आपरेशन से बच्चा पैदा करने के लिए मजबूर करने की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हुई है। रोचक बात यह है कि ऐसा प्रायः प्रायवेट अस्पतालों या नर्सिंग होम में ही ज्यादा होता है सरकारी अस्पतालों में नहीं। वह भी केवल सम्पन्न परिवारों की ही महिलाओं के साथ ही होता है। क्योंकि आपरेशन से बच्चा करवाने में डाक्टरों और अस्पताल दोनों का बिल तगड़ा बनता है। सुप्रसिद्ध स्वास्थ्य विशेषज्ञ डाॅ. सुश्री मीरा शिवा बताती हैं कि औसतन 8 से 10 फीसदी गर्भवती महिलाओं की स्थिति ही ऐसी होेती है जिसमें आपरेशन से प्रसव कराना जरूरी होता है। पर आज यह आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा बढ़ गया है। यह चिन्ता की बात है। सारा दोष डाक्टरों का ही नहीं सम्पन्न परिवारों की अनेक गर्भवती महिलाएँ भी कभी कभी नासमझी में आपरेशन से ही बच्चा पैदा करने की जिद करती हैं। शायद उन्हें या उनके घरवालों को ऐसा लगता हो कि जब तक कुछ दिन अस्पताल में रह कर मोटे पैसे खर्च करके बच्चा पैदा न किया जाए तब तक उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा सुरक्षित नहीं रह पायेगी। जबकि विशेषज्ञों का कहना है कि आपरेशन से बच्चा तभी पैदा करना चाहिए जब गर्भवती महिला से ऐसे आपरेशन की आवश्यकता के संकेत मिलने लगें। मसलन प्रसव पीड़ा हो ही न, गर्भधारण काल सामान्य से ज्यादा बढ़ जाए। मां के पेट में शिशु की स्थिति स्वाभाविक न होकर ऐसी हो कि प्रसव के समय उसकी जान खतरे में पढ़ जाए। ऐसे ही कुछ दूसरे संकेत मिलने पर ही आपरेशन किया जाना चाहिए। पर डाक्टर शिवा का सर्वेक्षण बताता है कि ज्यादातर मामलों में डाक्टर इन संकेतों के बिना ही आपरेशन कर डालते हैं। जिसका जच्चा और बच्चा दोनों स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। चिन्ता की बात यह है कि जहां एक तरफ शहर की साधन सम्पन्न महिलाओं को प्रसव काल में सभी स्वास्थ्य सुविधाऐं आसानी से उपलब्ध हैं जबकि दूसरी तरफ देश की बहुसंख्यक ग्रामीण और शहरी  गरीब महिलाओं के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों और सरकारी अस्पतालों में सही जांच करवाने की भी सुविधा उपलब्ध नहीं है। इसलिए देश में बहुत सारी गर्भवती महिलाऐं प्रसव के दौरान मर जाती हैं। अकेले उड़ीसा में हर वर्ष एक लाख गर्भवती महिलाओं में से सात सौ महिलाओं की मौत प्रसव के दौरान हो जाती है। यह बहुत खतरनाक स्थिति है। इतना ही नहीं कृत्रिम रूप से प्रसव पीड़ा पैदा कराने की जो आधुनिक दवाईयां और इंजेक्शन आजकल प्रचलन में हैं उनका गर्भवती महिला और उसके शिशु के जीवन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
उधर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान की महिला रोग विशेषज्ञ डाॅ. दीपा डेका का कहना है कि गर्भ के जटिल मामलों में आपरेशन करना ही एकमात्र विकल्प होता है पर वे भी इस बात से सहमत हैं कि बालक को जन्म देना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है इसलिए जहां तक सम्भव हो इसे कुशल डाक्टरों की निगरानी में प्राकृतिक रूप से ही पूरा किया जाना चाहिए। अमरीकी मूल की श्रीमती जेनेट चावला पिछले 20-25 वर्षों से प्रसव की आधुनिक व पारम्परिक तकनीकीयों का अध्ययन कर रही हैं। उनका कहना है कि प्रसव के समय गर्भवती माता को चिकित्सा से ज्यादा प्यार, हिम्मत, तीमारदारी, पौष्टिक खुराक और प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। जबकि श्रीमती चावला के अनुसार हमारे ज्यादातर अस्पतालों के महिला रोग विशेषज्ञ डाक्टर इन जरूरतों से अनभिज्ञ हैं। बच्चे का जन्म जोकि परम्परा से एक पारिवारिक उत्सव के रूप में मनाया जाना चाहिए अस्पतालों में जाकर एक यातना शिविर की तरह हो जाता है। जहां डाक्टर और नर्स गर्भवती महिला और उसके तीमारदारों पर अनावश्यक रूप से रूखा व्यवहार करते हैं। जिससे गर्भवती महिला के मन में भी भय, तनाव और कुंठा पैदा हो जाती है जिसका जाहिरन उस पर और नवजात शिशु पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए श्रीमती चावला अमरीका से लेकर भारत के गांवों तक में प्राकृतिक रूप से बच्चा पैदा करने की वकालत करती रही हैं। प्रसव के दौरान अपनाऐ जाने वाली भारत की तमाम पारम्परिक प्रथाओं का वैज्ञानिक रूप से अध्ययन करने के बाद वे इस नतीजे पर पहुंची हैं कि ये प्रथाऐं गर्भवती महिलाओं व नवजात शिशुओं के लिए वरदान के समान हैं। मसलन भारत में ऐसे समय में गर्भवेती महिला को गर्म तासीरवाला भोजन ही दिया जाता है जो स्वाभाविक रूप से प्रसव पीड़ा को पैदा करता है और बढ़ाता है। इसी तरह गर्म पानी से पेट की सिकाई और कुछ खास तरह से की जाने वाली कसरतें करके भी गर्भवती महिला का प्रसव बिना किसी दिक्कत के आसानी से सम्पन्न कराया जा सकता है। दूसरी तरफ आधुनिक महिलाऐं व चिकित्सक इन बातों को हंसी में उड़ा कर गर्भवती महिलाओं को कुछ भी खाने पीने की इजाजत दे देते हैं। जिसका दुश्परिणाम इन महिलाओं को सारे जीवन भुगतना पड़ता है। श्रीमती चावला का 15 वर्ष का अध्ययन यह सिद्ध करता है कि प्रसव के काम में दाईयों की भूमिका आधुनिक डाक्टरों से कहीं ज्यादा अच्छी होती है। क्योंकि ये दाईयाँ अपने लम्बे अनुभव और पारम्परिक ज्ञान से गर्भवती महिला को जो राहत देती हैं वह अत्याधुनिक अस्पताल नहीं दे पाते। इसलिए गर्भधारण के जटिल मामलों को छोड़कर सामान्य केसों के लिए दाई की मदद से ही प्रसव करावाया जाना चाहिए। अमरीका में तो घर पर ही रहकर बच्चा पैदा करने का रिवाज तेजी से फैलता जा रहा है। जबकि भारत में आधुनीकरण के नाम पर प्राइवेट अस्पतालों में जाकर बच्चा पैदा करने की इच्छा तेजी से बढ़ती जा रही है। यह सही है कि किसी प्रशिक्षण के अभाव और सरकारी मान्यता के अभाव में अब दाईयों का स्तर और उनकी संख्या तेजी से घटती जा रही है। हाल ही में दिल्ली के बड़े अस्पतालों द्वारा निराश की दी गईं तीन महिलाओं को दाईयों की मदद से ही गर्भधारण भी हुआ और प्रसव भी सुगमता से हो गया। इसका अर्थ यह नहीं कि हर दाई एक जैसी कुशल होती हो। अक्सर कुछ दाईयाँ भी बिना बिचारे ऐसे इंजेक्शन लगा देती हैं जो घातक हो सकते हैं। इसलिए श्रीमती चावला परखी हुई दाईयों से सेवा लेने के पक्ष में हैं।
आमतौर पर देखने में आता है कि कामकाजी देहाती महिलाऐं प्रसव के अन्तिम क्षण के पहले तक काम करती रहती हैं। वहीं खेत में शिशु का जन्म हुआ और उसे टोकरी में डालकर घर ले आईं। जबकि आधुनिक महिलाऐं इतनी मजबूत नहीं होतीं क्योंकि आज के जीवन नें उनसे शारीरिक श्रम करने वाले काम धीरे धीरे खींच लिए हैं। इसी तरह     सीधा लिटा कर बच्चा पैदा करवाना गुरूत्वाकर्षण सिद्धांत के विरूद्ध है। इससे बच्चे के स्वाभाविक रूप से बाहर आने की प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है। जबकि एक विशेष मुद्रा में बैठकर अगर प्रसव किया जाए तो बालक और मां दोनों को ज्यादा सहूलियत होती है। इसलिए अति आधुनिक चिकित्सालयों के प्रसूति विभागों में अब ऐसी विशेष कुर्सीनुमा मशीनें भी आ गई हैं जिनमें बैठकर शिशु को जन्म दिया जा सकता है।
डाक्टर मीरा शिवा बताती हैं कि बच्चा पैदा करने की जो तकनीकी पूरी दुनिया में लैबियोर्स मैथडके नाम से मशहूर है वह तकनीकी डाक्टर लैबियोर भारत से ही सीख कर गये थे तो हम क्यों नहीं अपनी ही पारम्परिक प्रथाओं को अपनाते हैं ? उधर पश्चिमी देशों में भी फिर से घर पर ही रहकर बच्चे को जन्म देने का रिवाज फैलता जा रहा है। बालक का जन्म एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है इसमें आनन्द और उत्सव का भाव छिपा है। भारत में कोई भी उत्सव बिना परिवार, समुदाय और धर्म को जोड़े बिना पूरा नहीं हो सकता। इसलिए बालक के जन्म के समय दादी-नानी, मौसी-बुआ जैसी घर की महिलाओं का गर्भवती महिला के साथ जन्म की अन्तिम घड़ी तक जुड़े रहना उसके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक होता है। ऐसी अनुभवि महिलाऐं हर समय गर्भवती महिला या जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य की जरूरतों के अनुरूप ही उसकी देखभाल करती हैं। जबकि आधुनिक डाक्टर और नर्स यह सब नहीं कर पाते। संयुक्त परिवारों में तो आज भी ऐसा ही होता है पर जहां केवल पति-पत्नी और बच्चे ही रहते हों वहां गर्भवती महिला को यह सुविधा नहीं मिल पाती ।
देश के निर्बल वर्गों की गर्भवती महिलाओं या नवजात शिशुओं की सस्ती किन्तु सही तीमारदारी सुनिश्चित करने के लिए समर्पित दिल्ली की मातृका नाम की एक संस्था इस दिशा में कई वर्षों से ठोस काम कर रही है। संस्था के संचालकों का मानना है कि धनी लोग तो धन खर्च करके बड़े अस्पतालों में अपने परिवार की महिलाओं की देखभाल सुनिश्चित कर लेते हैं, किन्तु किसान मजदूर परिवार की महिलाओं को न तो परिवार से ही ऐसी मदद मिलती है, न उनके हालात ऐसे होते हैं कि वे शिशु जन्म के पहले या बाद में वे मजदूरी करने से बच सकें। दूसरी तरफ इनके लिए        उपलब्ध स्वास्थ्य सेवाऐं केवल कागजों पर ही चल रही हैं। ऐसी स्थिति में तो यह और भी जरूरी है कि सरकार व मीडिया देश के आम लोगों को प्रसव के बारे में सही व पारम्परिक सूचनाऐं देकर उनमें आत्म विश्वास और सुरक्षा की भावना पैदा करें। इसके दो लाभ होंगे एक तो सरकार के चरमराते स्वास्थ्य सेवा तंत्र पर सेे बोझ कम होगा और दूसरी ओर देश की आधी से अधिक साधनहीन आबादी को यह समझ में आ जायेगा कि जिस काम पर वे अपना पेट काट कर पैसा बर्बाद करते हैं वह काम पारम्परिक ज्ञान की मदद से कम खर्चे में बेहतर तरीके से हो सकता है। यहां यह ध्यान रखना भी जरूरी होगा कि हमारे देश में महिलाओं के स्वास्थ की तरफ पुरुषों का रवैया प्रशंसनीय नहीं होता, इसलिए यह सावधानी भी बरतनी होगी कि कहीं ऐसा न हो कि पुरुष अपने घर की गर्भवती महिलाओं को रामभरोसे छोड़कर निश्चिंत हो जाऐं। इस दिशा में आज भी देश में भारी अज्ञान फैला है। दुर्भाग्य से आधुनिक लोग इस मामले में पारम्परिक लोगो के मुकाबले कहीं कम समझदार हैं। प्रियंका गांधी के प्रसव के समाचार से ऐसे लोगों की भी आंखें खुलनी चाहिए।

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