Friday, September 8, 2000

खेल बहुराष्ट्रीय कंपनियों का, पत्रकारिता कागजी घोड़ों की

केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री श्री धनंजय कुमार ने संसद के मानसून सत्र के आखिरी दिन श्री राम दास अठावले के अल्प सूचना प्रश्न के जवाब में सदन को बताया कि गुर्दे का आपरेशन कराने वाले मरीजों के काम आने वाली जीवन रक्षक दवाइयों के आयात पर लगाए गए 40 प्रतिशत के सीमा शुल्क को वापस लेने की मांग पर सरकार विचार कर रही है। यह अलग बात है कि इस सवाल का जवाब देते हुए मंत्री जी ने श्री अठावले को ”माननीय सदस्या“ कह दिया। सदन में इस पर जोरदार ठहाका लगा। अखबारों में इसी खबर को प्रमुखता से छापा गया। पर इस चक्कर में मूल प्रश्न के बारे में जनता को जानकारी नहीं दी गई कि जीवन रक्षक दवा पर सरकार ने सीमा शुल्क क्यों बढ़ाया और सदन में इस पर सवाल उठने के बाद मंत्री ने क्या आश्वासन दिया और क्यों ?

उल्लेखनीय है कि इस संबंध में हिन्दी के कुछ अखबारों और टेलीविजन पर प्रमुखता से खबरें आई थीं । जिनमें कहा गया था कि सीमा शुल्क में की गई इस भारी वृद्धि से मरीजों की जान पर बन आई है और हजारों मरीजों ने सरकार को अर्जी भेजकर शुल्क में वृद्धि वापस लेने की मांग की है। कहा तो यह भी गया था कि कुछ मरीजों ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का दरवाजा खटखटाया है। यह बहुत ही गंभीर मामला है। जनहितैषी सरकार किसी जीवन रक्षक दवाई पर बिना वजह, अचानक 40 प्रतिशत शुल्क लगा दे, यह बात गले उतरने वाली नहीं है। इस मामले में यह बात तो समझ में आती है कि इस समय देश में चल रहे आर्थिक उदारीकरण के कारण देसी कंपनियों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों से जबरदस्त प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। सरकार की यह आम नीति रही है कि जिन चीजों का उत्पादन देश में होता है उसके देसी उत्पादकों की सहायता की जाए । यह सहायता विदेशी उत्पादों पर लगाए जाने वाले सीमा शुल्क के जरिए दी जाती है। ऐसी अर्थ संगत नीति दुनिया के हर देश में मौजूद है। देसी उद्योग विदेशी प्रतिस्पर्धा में टिके रहने के लिए इस तरह के शुल्क लगाने की मांग हमेशा करते रहते हैं। पर ऐसी स्थिति में देसी उद्योग को पर्याप्त सुरक्षा मुहैया कराने की सरकार की भूमिका के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि उदारीकरण की नीति का लाभ आम जनता तक पहुंचे। फिलहाल उदारीकरण की नीतियों का लाभ देश के कुछ क्षेत्रों में विशेष रूप से देखा जा रहा है। इनमें सूचना तकनाॅलोजी और फार्मास्यूटिकल्स (दवाइयों) का क्षेत्र खासतौर से उल्लेखनीय है।

पर हाल की धटना से लगता है कि दवाइयों के मामले में देश के अखबार गच्चा खा गए । इस तरह जाने-अनजाने बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हित साधने का काम कर दिया । यह सही है कि जिन जीवन रक्षक दवाइयों का उत्पादन देश में नहींे होता है उन्हें आमतौर पर सीमा शुल्क आदि से मुक्त रखा गया है। साइक्लोस्पोरिन ऐसी ही एक दवा है। हाल के वर्षों तक इस दवा के बाजार में स्विटजरलैंड की कंपनी नोवार्टिस का लगभग एकछत्र राज था। इस कंपनी की यह दवा सैंडिमन न्यूरल के नाम से बिकती है। इस साल के बजट के पहले तक इस दवा के आयात पर कोई भी शुल्क नहीं लगता था। लेकिन इस वर्ष के बजट में साइक्लोस्पोरिन पर सीमा शुल्क की पूरी छूट हटा दी गई । इस पर 15 प्रतिशत की रियायती दर पर सीमा शुल्क लगा दिया गया है। इसका कारण यह है कि भारत में ही आरपीजी लाईफ साइंसेज़ ने इस दवा का निर्माण शुरू कर दिया है। आरपीजी से खरीदी हुई दवा की बिक्री सिपला और पनेशिया नामक कंपनियां भी भारतीय बाजार में करती हैं। आयात शुल्क में उठाये गये सरकार के इस कदम पर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं शुरू हो गई। अखबारो में खबरें छपने के बाद, लोकसभा में सवाल पूछा गया और सरकार दबाव में आ गई। उसने इस वृद्धि पर विचार करने का आश्वासन दिया है। जबकि वृद्धि सोच समझ कर एक मान्य नीति के तहत की गई थी। लेकिन अखबारों में प्रकाशित खबरों से ऐसा लगा मानो सरकार ने राजस्व की बढ़ोत्तरी के लिए इन मरीजों की जान खतरे में डाल दी है। इस मामले पर राज्य सभा में भी सवाल उठा था। अगस्त के महीने में ही राज्य सभा में एक लिखित उत्तर में सरकार ने बताया था कि वह साइक्लोस्पोरिन पर से सीमा शुल्क हटाने की अर्जियों पर विचार कर रही है। इसके बाद लोकसभा में भी वित्त राज्य मंत्री ने भी ऐसा ही आश्वासन दिया है। लेकिन उन्होंने जो तथ्य सदन को बताए हैं उसके बाद यह समझना मुश्किल है कि गुर्दे के इन मरीजों को परेशानी क्या है ? सरकार किस मजबूरी में संसद के दोनों सदनों को यह आश्वासन दे बैठी है कि वह मामले पर विचार कर रही है?

दरअसल इस मामले में तथ्य यह है और मंत्री जी ने भी ऐसा ही कहा है कि देश मे चार कंपनियां अब ऐसी दवा का उत्पादन कर रही हैं। इन कंपनियों की उत्पादन क्षमता पूरे देश की आवश्यकता को पूरा करने के लिए काफी है। इसके अलावा, ताज्जुब की बात तो यह है कि सीमा शुल्क लगाए जाने के बाद न तो नोवाटिस की दवा सैंडिमन न्यूरल की कीमत में और ना ही ऐसी किसी अन्य दवा की कीमत में कोई बढ़ोत्तरी हुई है। जाहिर है, इन दवाइयों की कीमत पहले ही इतनी ज्यादा थी कि शुल्क बढ़ने के बावजूद भारतीय कंपनियों की प्रतिस्पर्धा में विदेशी कंपनी को अपने उत्पाद की कीमत में वृद्धि की गुंजाईश नहीं लगी। इससे यह भी साफ हो जाता है कि ये विदेशी कंपनियां कितने भारी मुनाफे पर इन दवाओं को भारतीय बाजार में बेच रही थीं। यहां यह उल्लेखनीय है कि देश में बनी दवाइयों की कीमतें आयातित सैंडिमन न्यूरल की तुलना में काफी कम हैं। एक ओर जहां सैंडिमन न्यूरल की एक खुराक की कीमत साठ रूपए से भी अधिक है वहीं भारतीय निर्माताओं की दवाइयां 38 से 45 रूपये के बीच उपलब्ध हैं। इसके साथ ही यह महत्वपूर्ण बात है कि सीमा शुल्क बढ़ाने के बावजूद इस दवा की कीमत बढ़ी ही नहीं । तो जाहिर है कि मरीजों को इलाज पर एक भी पैसा ज्यादा खर्च करने की नौबत फिलहाल तो नहीं आई है।

पर अखबारों ने अलग ही तरह की तस्वीर खींची। पता नहीं सरकार इस दबाव में या किसी अन्य ‘गोपनीय’ कारण से सीमा शुल्क में वृद्धि पर पुनः विचार करने का आश्वासन दे चुकी है। जब सच्चाई यह है तो जाहिरन यह जांच का विषय है कि हजारों की संख्या में मरीजों के नाम से भेजे गए आवेदन क्या वास्तव में मरीजों ने खुद ही भेजे थे या किसी ऐसी कंपनी ने भिजवाए थे जिसका हित इससे जुड़ा हुआ है। ऐसी शिकायतों के आधार पर ही पत्रकारों ने, तथ्यों की जांच किए बगैर, अखबारों और टेलीविजन पर लगातार ऐसी खबरें दीं जिससे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को ही फायदा होगा, देश को नहीं । यह शर्म, दुख और चिन्ता का विषय है। विशेषकर तब जबकि ऐसी खबरें देने वालों में वे पत्रकार भी शामिल थे जो जाहिराना बहुराष्ट्रीय कंपनियों की खिलाफत करते हैं।

पिछले कुछ दिनों से देश की चिन्ता करने वालों को यह देखकर हैरानी हो रही है कि गलत नीतियों का पारम्परिक रूप से विरोध करने वाले बुद्धिजीवी, समाजसुधारक व पत्रकार भी धीरे धीरे अपनी धार खोते जा रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे विदेशी कंपनियों की आंधी ने और टेलीविजन चैनलों की बाढ़ ने लोगों की स्वाभाविक प्रतिक्रियाओं, चिन्ताओं, आकांक्षाओं व मूल्यों को जड़ से उखाड़ना शुरू कर दिया है। टी.वी. मीडिया की पहुंच इतनी व्यापक है कि ज़रा-सी देर में सारे देश में हल्ला मच जाता है। लोगों तक सूचना पहुंचाने की यह व्यवस्था जितनी ज्यादा केन्द्रित होती जाएगी उतनी ही इसकी विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न लगते जाऐंगे। क्योंकि बार बार ऐसा देखने में आ रहा है कि यह मीडिया जो चाहता है सो दिखाता है और जिसे दिखाने से मीडिया के नियंत्रकों को परेशानी का सामना करना पड़े उसे यह मीडिया बड़ी आसानी से दबा देता है या तोड़मरोड़ कर पेश करता है। चाहें वह तथ्य कितने ही महत्वपूर्ण क्यों नहीं । ऐसे तमाम उदाहरण पेश किये जा सकते हैं। विदेशी कंपनियों की इस दवा पर सीमा शुल्क को लेकर मचाया गया शोर उसका एक बहुत छोटा नमूना है। जिसका हकीकत से कोई नाता नहीं ।

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