Friday, February 9, 2001

आपद प्रबंधन प्रधानमंत्री की कागजी घोषणाएं


गुजरात के भूकंप की भयावहता व जान व माल की भारी हानि से आतंकित सरकार और अधिकारी एक बार फिर देश को सुहाने सपने दिखाकर गुमराह करने में जुटे हैं। दिल्ली जैसे दूसरे महानगरों में रहने वालों को  आश्वस्त किया जा रहा है कि उन्हें घबराने की कोई जरूरत नहीं है, सरकार और उसकी एजेंसियां यह सुनिश्चित करेंगी कि इन नगरों के भवन भूकंप से निपटने में कितने सक्षम हैं ? पर पिछले बीस साल का सरकारी इतिहास इस बात का गवाह है कि सरकार ने आपद स्थिति से निपटने के प्रबंधन के नाम पर केवल झूठे वायदे और नाटक किए हैं। यह कितने दुख की बात है कि जापान में कोबे नगर में 7.2 रिचर स्केल की तीव्रता के भूकंप के बावजूद केवल 5000 लोग मरे थे जबकि गुजरात में 6.9 रिचर स्केल की तीव्रता के भूकंप में मरने वालों की संख्या एक लाख के करीब बताई जा रही है। ऐसा जनसंख्या दबाव, खराब भवन निर्माण व राहत में समन्वय की कमी के कारण हुआ। पर फिर भी हम अपनी गलतियों से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं। हमारे नौकरशाह जानते सब हैं पर उसे लागू करने में केंचुए की गति से चलते हैं। क्या भारत नहीं जानता कि 1997 में डा. ए.एस. आर्या को संयुक्त राष्ट्र का प्रतिष्ठित पुरस्कार डीएचए ससकोवा एवार्ड दिया गया था क्योंकि उन्होंने स्कूलों को भूचाल से सुरक्षित रखने के उपायइस पुस्तक में सुझाए थे। पर उनके सुझावों की उपेक्षा कर दी गई। आज से बीस वर्ष पहले 1980 में ज्वाइंट असिस्टेंस सेंटर ने ए गाइड टू रिलिफ वकर््र्सनाम से एक पुस्तक तैयार की थी ताकि आपदा के समय राहतकर्मी सलीके से काम कर सकें। पर तत्कालीन केंद्रीय राहत आयुक्त श्री आर.एन मुखर्जी ने तीन महीने तक किताब रख कर बिना कुछ किए सेंटर को लौटा दिया। हमारी नौकरशाही 1980 से 90 के दशक तक इसी तरह उदासीनता बरतती रही।

1977 के आंध्र प्रदेश के समुद्री तूफान के बाद केंद्र सरकार ने एक डिस्ट्रेस मिटिगेशन कमेटीकी स्थापना की थी। विज्ञान व तकनीकी मंत्रालय के अधीन इसे काम करना था। पर कुछ नहीं हुआ। 1980 में शहरी विकास मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय भवन संगठन (एनबीओ) के अधीन एक टास्क फोर्सका भी गठन किया गया। ऐसी ही तमाम और भी समितियां और प्रयास कागजों पर किए जाते रहे। जिनकी रिपोर्ट धूल खा रहीं हैं। जबकि आए दिन देश किसी न किसी प्राकृतिक आपदा का शिकार होता रहता है।

भारत सरकार व स्वयंसेवी संगठनों के समन्वय के लिए भी एक समिति बहुत समय से बनी हुई है। पर इसे कभी सक्रिय नहीं किया गया, इस भूचाल में भी। यह समिति भी नौकरशाही की शिकार हो गई है, जो नौकशाही अपनी गलतियों से सबक सीखने को तैयार नहीं है। 1995 में भारी मशक्कत के बाद केयर इंडियाने सरकार को विस्तृत अध्ययन के बाद एक रिपोर्ट सौंपी जिसमें बाढ़, तूफान या भूचाल जैसी आपातस्थिति में तैयार रहने के लिए प्रशिक्षण का तरीका सुझाया गया था। इस सार्थक रिपोर्ट पर चर्चा करने के लिए पहली बैठक बुलाने में ही संबंधित नौकरशाहों ने एक वर्ष गंवा दिया। फिर भी जो फैसले लिए गए उन पर आज तक अमल नहीं किया गया।

यह दुख की बात है कि भारत सरकार प्रशिक्षण व शिक्षा को प्राथमिकता की सूची मे काफी नीचे रखती है। 1980 के दशक में योजना आयोग ने आपातस्थिति में राहत के लिए स्वयं सेवी संस्थाओं की भूमिका के महत्व को स्वीकार किया था। उसी दौरान विश्व युवक केंद्र, दिल्ली में जेएसीने एक सेमिनार करके आपद प्रबंधन के विभिन्न आयामों पर रोशनी डाली थी। ऐसे ही संस्थान की प्रयासों के बाद योजना आयोग ने छठी पंचवर्षीय योजना में आपद प्रबंधन संस्थान की स्थापना के लिए 15 करोड़ रूपए का प्रावधान रखा था। इस संस्थान की स्थापना की तैयार के दिशा में काफी काम किया गया। 1986 में इस संबंध में एक नोट कैबिनेट कमेटी को भेजा गया। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस पर विचार तो किया पर कोई फैसला नहीं लिया। जबकि 1986 में बंग्लौर में इस संस्थान की स्थापना की घोषणा भी कर दी गई थी, पर कुछ नहीं हुआ। इसकी स्थापना सातवीं योजना में करने की बात कह कर टाल दी गई। बाद में तो इसके लिए योजना में प्रावधान ही नहीं छोड़ा गया। मानो आपद प्रबंधन की इस देश को जरूरत ही न हो। फिर अचानक क्या हुआ कि मार्च 1994 में नौकशाही ने भारतीय जनप्रबंधन संस्थानदिल्ली के झंडे तले एक सेंटर फार डिजास्टर मैंनेजमेंटखोल दिया। मजाक देखिए कि अफसरों को प्रशासनिक प्रशिक्षण देने वाले संस्थान में ही आपद प्रबंधन जैसे अतिविशिष्ट क्षेत्र के प्रशिक्षण का इंतजाम कर दिया गया। यह सब खानापूर्ति से ज्यादा कुछ नहीं था। भोपाल गैस कांड के बाद भी दो वर्ष के भीतर दस करोड़ रूपए की लागत से एक संस्थान खोलने की बात की गई थी जिसे बाद में राज्य अकादमी का हिस्सा बना कर ठंडा कर दिया गया। ये नए केंद्र स्वयंसेवी संगठनों से जानकारी लेकर अपना काम चलाते रहे हैं फिर भी सरकार इस विशिष्ट क्षेत्र में अनुभवी लोगों की मदद लेने से हिचक रही है।
उत्तर काशी का भूचाल हो या बिहार की बाढ़, राजस्थान का सूखा हो या उड़ीसा का समुद्री तूफान बार-बार लगातार सरकार को आपद प्रबंधन के जरूरी कदम उठाने की मांग करने वाले शोध पत्र, रिपोर्ट व प्रस्ताव दिए जाते रहे हैं। पर अपने को तीसमारखां समझने वाली नौकशाही ने एक न चलने दी। आज राहत के नाम पर गुजरात में जो अफरा-तफरी मची है उसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार वे नौकरशाह हैं जिन्होंने पिछले बीस वर्ष में ऐसे सभी प्रयासों के रास्ते में रोड़े अटकाने का काम किया है। इसलिए आपद प्रबंधन के लिए प्रधानमंत्री ने जो हाल ही में स्पेशल सेलगठित की है उससे बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती। क्योंकि यह सेल भी भारत सरकार की परंपरा अनुरूप नाटकीय घोषणाएं करके और तात्कालिक तत्परता दिखा कर जल्दी ही ठंडी पड़ जाएगी। तब तक कोई हरकत नहीं होगी जब तक कोई दूसरी विपदा न आन पड़े।

11वंे वित्त आयोग ने एक नेशनल सेंटर फार केलेमिटी मैंनेजमेंटकी सिफारिश की है और यह भी कि केंद्रीय कृषि मंत्रालय को हर साल 31 दिसंबर तक प्राकृतिक विपदाओं पर सालाना रिपोर्ट तैयार करके जनता के बीच जारी करनी चाहिए। वित्त आयोग की ये सिफारिशें जुलाई 2000 में संसदीय के सामने पेश की गई थीं। क्या नौकरशाही बताएगी कि उसने इस दिशा में आज तक क्या किया ? होना तो यह चाहिए था कि रेलवे बोर्ड की तरह आपद प्रबंधन के विशेषज्ञों का एक राष्ट्रीय संगठन या बोर्ड गठित कर दिया जाता जिसे इस दिशा में काम करने की छूट, अधिकार व साधन मुहैया करा दिए जाते। पर भारत की निखट्ठू नौकरशाही ऐसा कभी नहीं होने देगी। दरअसल, पर्दे के पीछे सक्रिय रह कर, राजनेताओं की आलोचना करवाने में माहिर नौकरशाही, इस देश में काहिली, बदहाली और बदइंतजामी के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है। जब तक आम लोग, पत्रकार, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता व बुद्धिजीवी नौकरशाही को उसका फर्ज याद दिलाने के लिए ललकारेंगे नहीं, ये जमात देश में कुछ नहीं होने देगी। पिछले दस वर्षों में सरकार ने आपद प्रबंधन के बारे में जनजागृति पैदा करने के लिए दस करोड़ रूपया तो केवल अखबारों में विज्ञापन पर ही खर्च कर दिया है। पर जब गुजरात जैसी आपदा आती है तब सरकार के इन चोचलों की कलई खुलती है। 1944 में संयुक्त राष्ट्र ने आपद प्रबंधन पर एक विश्व सम्मेलन किया था। केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने 1990 में इस विषय पर सेमिनार किया था। महाराष्ट्र सरकार ने 1980 में इस संबंध में कदम उठाने की घोषणा की थी। पर 1993 के लाटूर के भूकंप में सब कागजी सिर्फ हुआ। दिल्ली के उप राज्यपाल ने दिल्ली के लिए एक ऐसा मास्टर प्लान बनाने की घोषणा की थी जो सिद्ध कागजों पर रही। कर्नाटक ने भी अपने हर जिले के लिए आपद प्रबंधन योजना तैयार कने की घोषणा की थी, उसका क्या हुआ, नहीं पता ?

इसलिए यह बात निसंकोच कही जा सकती है कि आपद प्रबंधन के नाम पर प्रधानमंत्री ने जो कुछ घोषणाएं की हैं उनसे धरातल पर कुछ होने नहीं जा रहा है। देश के करोड़ों लोगों की जिंदगी पर मंडराने वाले अप्रत्याशित खतरे को देखते हुए इस गंभीर मुद्दे पर एक राष्ट्र व्यापी बहस की जरूरत है। जिसके बाद एक राष्ट्रीय नीति की घोषणा की जाए और आपद प्रबंधन के काम को एक अलग मंत्रालय या राष्ट्रीय बोर्ड बना कर युद्ध स्तर पर खड़ा किया जाए। इसका काम सरकार और निजी क्षेत्र के बीच समन्वय स्थापित कर आपद प्रबंधन की समुचित व्यवस्था करना हो। इसमें नौकरशाही का दखल जितना कम होगा उतने ही सार्थक नतीजे सामने आएंगे। संसद का अधिवेशन 19 फरवरी को शुरू होने जा रहा है। हर संसदीय क्षेत्र के नागरिकों को अपने सांसद पर यह दबाव डालना चाहिए कि वे आगामी सत्र में पारस्परिक दोषारोपणों से ऊपर उठकर इस मुद्दे पर गंभीर चिंतन करें ताकि इस दिशा में वांछित कदम उठाने की  जमीन तैयार हो सके।

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