Friday, February 23, 2001

राहत की रकम पर ऐश


ये बड़े शर्म की बात है कि देश की मशहूर संस्थाएं और कुछ नामी अखबार प्राकृतिक आपदाओं के मारे लोगों की लाश पर तिजारत कर रहे हैं। 14 फरवरी के अखबारों में खबर छपी कि दिल्ली विश्वविद्यालय ने लाटूर में आए भूकंप के बाद जो राहत कोश बनाया था उसमें पैसा आज तक पड़ा है। यह पैसा लाटूर के मुसीबतजदा लोगों तक नहीं पहुंचा। जबकि इस पैसे को शिक्षकों, छात्रों, कर्मचारियों व अभिभावकों से यह कह कर लिया गया था कि इसे लाटूर के लाचार लोगों तक भेजा जाएगा। दुख की बात तो यह है कि देश की एक मशहूर अंग्रेजी अखबार श्रृंखला ने भी लाटूर के भूकंप की राहत के नाम पर अपने पाठकों से 18 करोड़ रूपया जमा किया और उसे 7 वर्ष तक बैंक में जमा कर उस पर ब्याज खाया। इस ब्याज की रकम बाजार की दर से 25 करोड़ रूपया बैठती है। जब ब्याज की यह रकम कमा ली गई तब बडे बेमन से इस अखबार समूह ने 18 करोड़ रूपए को प्रधानमंत्री राहत कोश में जमा करवाया। इससे ज्यादा शर्म की बात और क्या हो सकती है कि जब लोग भूकंप के प्रकोप से तबाह हो चुके हों जब उनकी बदहाली के चित्र छापकर पाठकों के मन में करूणा पैदा की जाए और जब पाठक द्रवित होकर दान भेजें तो उस पर ब्याज कमाया जाए ? यह अत्यंत गंभीर मामला है। केवल घोटाला ही नहीं बल्कि संवेदनशून्यता और मानवीय बर्बरता का जीवंत उदाहरण है। कौन जाने कितने संगठन और कितनी कंपनियां इस धंधे में लगी हों ? कौन जाने कितने सफेदपोश लोग एैसे पाश्विक घोटालों के खलनायक हों ? कौन जाने उड़ीसा के चक्रवात के बाद भी ऐसा ही हुआ हो ? कौन जाने कारगिल के शहीदों के नाम पर जमा किए गए पैसे भी किसी ऐसे ही सफेदपोश  अपराधी की आमदनी का जरिया बने हों ? यह एक गहरी जांच का विषय है। यह कांड कई सवाल भी खड़े करता है।

गुजरात में जो विनाश हुआ उसकी भरपाई राहत की सामग्री कभी नहीं कर पाएगी। कितनी भी बड़ी राहत क्यों न हो वह अनाथ बच्चों को फिर से मां-बाप का प्यार भरा साया नहीं दे पाएगी। किसी नववधु के भूचाल में दब कर मर गए पति को कोई भी राहत सामग्री लौटा नहीं पाएगी। जिनके बुढ़ापे का सहारा उनका जवान बेटा इस हादसे का शिकार हो गया उनकी शेष जिंदगी आंसू बहाते ही बीतेगी। राहत इन जख्मों को भर नहीं पाएगी। राहत कच्छ के खंडहर हो चुके पुराने मकानों को फिर उन यादों के साथ लौटा नहीं पाएगी जो सदियों से इनके साथ जुड़ी थीं। फिर भी इसमें कोई शक नहीं कि 26 जनवरी के भूकंप के बाद चारो तरफ से राहत की बरसात हो रही है। जिस दरियादिली से देश और विदेश के लोगों ने राहत भेजी उससे गुजरात के घायल मन को मरहम जरूर लगा है। यह वक्त सेवा में जुटने का है। पर भूचाल से हुए विनाश के बाद जैसे गुजरात में जिंदगी फिर लौटने लगी है वैसे ही आपदा के इस दौर में कुछ बुनियादी सवालों पर चिंतन करना निरर्थक न होगा। क्योंकि उससे भविष्य की ऐसी स्थिति में निपटने और निर्णय लेने की बेहतर समझ पैदा होगी।

जबसे देश में मीडिया का प्रसार तेजी से हुआ है तब से सूचनाएं आशातीत गति से एक कोने से दूसरे कोने में पहुंचने लगी हैं। कारगिल का युद्ध हो या गुजरात का विनाश लोग हर क्षण किसी न किसी टीवी चैनल पर मौकाए-वारदात की जीती जागती तस्वीर देखते रहते हैं। टीवी के सक्रिय कैमरों के सामने अब असलियत छिपाना स्थानीय प्रशासन के लिए भी संभव नहीं होता। इसलिए हर आपदा या दुर्घटना से पूरे देश के दर्शकों का प्रशिक्षण होता है। वे ऐसी अप्रत्याशित स्थितियों से निपटने के लिए मानसिक रूप से तैयार होते जाते हैं। मसलन, गुजरात के भूकंप के बाद दिल्ली और मुंबई जैसे नगरों के लोग अब बहुमंजिली इमारतों की मजबूती को लेकर काफी चिंतित हैं और इस दिशा में सुधार के प्रयास कर रहे हैं। तो यह तो हुआ मीडिया के प्रसार का सकारात्मक पक्ष। पर इसका एक दूसरा पक्ष भी है, वह यह कि मीडिया पर हर घटना और दुर्घटना का इतना ज्यादा चित्रण, वर्णन, मूल्यांकन व विवरण दिया जाने लगा है कि लोग उब जाते हैं। इस प्रक्रिया का पहला अनुभव तब हुआ था जब 31 अक्टूबर 1984 को प्रधानमंत्राी श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दूरदर्शन कई दिनों तक उनके शव और अंतिम क्रियाओं को विस्तार से दिखाता रहा था। कारिगल के दौरान भी ऐसा ही हुआ और अब गुजरात के भूकंप के बाद भी। लोगों में मीडिया की मार्फत उत्सुकता जगाना और उन्हें सूचना देना तो ठीक है पर उनकी भावनाओं को उभार कर उनकी जेब से पैसे निकलवाना और फिर उस पैसे को सही पात्रों तक न पहुंचाना धोखाधड़ी है, फर्रेब है, जघन्य अपराध है। चूंकि मीडिया का प्रसार तेजी से हो रहा है तो इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि मीडिया का इस तरह से दुरूपयोग भविष्य में बढ़ेगा नहीं। इससे पहले कि लोग इस कटु सत्य को जान कर हिल जाएं या उनकी संवेदनशीलता समाप्त हो जाए या वे विपदा की ऐसी स्थिति में भी मदद करने को आगे न बढ़े तो दोष किसका होगा  लोगों का या उन्हें मूर्ख बनाने वाली संस्थाओं का ? इसलिए जरूरी है कि इस नई उपजती परिस्थिति को इसके अंकुरण के समय ही नष्ट कर दिया जाए। इसके कई तरीके हो सकते हैं।

यह तय कर दिया जाए कि ऐसी असमान्य हालत में जो भी संस्थाएं धन संग्रह करेंगी वह सब प्रधानमंत्री राहत कोष के नाम पर ही लिया जाएगा और उसी खाते में जमा करा दिया जाएगा। यह भी किया जा सकता है कि धन संग्रह करने वालों पर कानूनी पाबंदी हो कि वे इस तरह से इकट्ठा किया गया धन तीस दिन से ज्यादा अपने खाते में नहीं रख पाएंगे। उन्हें हर तीस दिन बाद यह धन अपने खाते से प्रधानमंत्री राहत कोष या ऐसे ही दूसरे प्रतिष्ठित कोष में अनिवार्य रूप से जमा करवाना होगा। ऐसा न करने पर कड़े आर्थिक व आपराधिक दंड का प्रावधान भी बनाया जाए। इसके अलावा भी कई तरीके हो सकते हैं राहत के धन को संभाल कर रखने और बांटने के लिए।

जैसाकि हमने पिछले दिनों इसी स्तंभ में चर्चा की थी कि सरकार के बस का ही नहीं है राहत को ठीक से अंजाम देना। क्यों न राष्ट्रीय स्तर पर योग्य, अनुभवी और विशेषज्ञ लोगों का एक आपदा प्रबंधन बोर्ड बनाया जाए। इस तरह की व्यवस्था की जाए कि किसी भी आपदा की स्थिति में राहत लेने और उसे बांटने का काम यही बोर्ड करे। इसके कई लाभ होंगे। एक तो अनुभवी लोगों के नेतृत्व में राहत सामग्री को लेकर दुर्घटनाग्रस्त क्षेत्र में अफरा-तफरी नहीं फैलेगी। दूसरा हर आपदा के समय देशवासियों को और विदेशों में रहने वाले लोगों को यह पता होगा कि राहत कहां और किसे भेजी जानी है। अनेक किस्म की समस्याओं से घिरे प्रधानमंत्री कार्यालय के राजनैतिक माहौल से भिन्न यह आपदा प्रबंधन बोर्ड ठंडे दिमाग से सोच-समझ कर राहत कार्यों को अंजाम देगा। चूंकि राहत कार्य का इस बोर्ड को लगातार अनुभव होगा इसलिए इसे पता होगा कि कहां, कितनी, कैसी राहत भेजी जानी है, न ज्यादा न कम। इससे आपातकालिक स्थितियां नियंत्रण में रह सकेंगी और राहत सामग्री की बर्बादी और लूट भी नहीं होगी। इतना ही नहीं एक आपदा के लिए इकट्ठा हुए राहत धन में से जो राशि बच जाएगी वह बोर्ड के अधीन सुरक्षित रहेगी और अगली आपदा के समय तेजी से उपलब्ध होगी।

ऐसा नहीं है कि राजनेता और अफसर यह सब जानते समझते नहीं हैं। पर सत्ता को अपने हाथों में रखकर उसमें से अपने फायदे ढूंढना इनके खून में इतना रच-बस गया है कि इन्हें स्वार्थ के आगे  जनहित सूझता ही नहीं। इसीलिए भारत संपन्नता के बावजूद विपन्नता का देश है। इसलिए यह उम्मीद करना कि हुक्मरानों की यह जमात ऐसे व्यवहारिक निर्णय लेगी ख्याली पुलाव पकाने से ज्यादा कुछ नहीं होगा। अगर ऐसा कोई बोर्ड बनाने का सरकार ने निर्णय लिया भी तो उसके सदस्य बनने के लिए एक से एक बढ़कर भ्रष्ट राजनेता और अफसर लाबिंग करेंगे, पैरवी करेंगे और अपने मकसद में कामयाब भी हो जाएंगे। देश में खेलों की दुर्दशा हो या सार्वजनिक प्रतिष्ठानों की बद्दइंतजामी, उसकी जड़ में है यही  दूषित प्रवृत्ति। इससे पार पाए बिना जनता का भला नहीं हो सकता।

देश में सेवानिवृत्त लोगों की एक लंबी फौज खाली बैठी है। यह उनका फर्ज है कि वे हर स्तर पर संगठित होकर सरकार पर दबाव बनाएं ताकि सरकार अपने कामकाज के तरीके में बुनियादी बदलाव लाए। सत्ता में बैठने वाले राजनैतिक दलों के बदलने से समस्याओं के हल नहीं निकल रहे यह हमने पिछले दो दशकों में खूब देखा है। क्रांति की भारत में कोई संभावना नजर नहीं आती। ऐसे में समस्याओं का हल निकले तो कैसे निकले ? इसलिए जरूरी है कि जो लोग देश और जनता के हित में सोचते हैं वे ये मान कर चलें कि सत्ता में जो भी होगा ऐसा ही करेगा। अगर हमें उनसे कुछ अच्छा करवाना है तो उसके लिए हमें अपनी साझी ताकत लगा कर उन्हें मजबूर करना होगा। एक बार करने से काम नहीं चलेगा हर बार उसी तरह से दबाव बनाना होगा क्योंकि नकारात्मक शक्यिां आसानी से निर्मूल नहीं होतीं। रावण के सिर की तरह बार बार उभर कर आती हैं। राहत के धन को पचा जाने की यह दुष्प्रवृत्त् िभी आसानी से मरेगी नहीं। इसका जितना खुलासा होगा और जितनी ज्यादा इसकी सार्वजनिक चर्चा व भत्र्सना होगी उतना ही इस पर अंकुश लगेगा।

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