Friday, April 27, 2001

भारत बंग्लादेश सीमा काण्ड केवल मानसूनी देशभक्ति ही काफी नहीं


भारत के रहमोकरम पर आज़ादी हासिल करने वाला आमार सोनार बंग्लादेश आज वो कर रहा है जो दुश्मन भी नहीं करता। उसके अर्द्धसैनिक संगठन बंग्लादेश रायफल्स ने न सिर्फ मेघालय सीमा पर बसे गांव परडीवाह पर कब्ज़ा ही किया बल्कि सत्रह भारतीय सिपाहियों को अमानवीय यातनाएं देकर बड़ी क्रूरता से मार भी डाला। इतनी क्रूरता से कि उनके शव तक पहचानना मुश्किल था। नतीजतन बंग्लादेश की सीमा पर मारे गए सत्रह शहीदों के परिवारों को अपने सपूतों की अंतिम झलक भी नसीब नहीं हुई। उनके शरीरों की ज़जऱ्र हालत देखते हुए यही बेहतर समझा गया कि उन्हें अपने परिवारजनों और घर से दूर सीमा पर ही अग्नि को समर्पित कर दिया जाए। सेनानायकों की उपस्थिति में उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। सुहाग का सिन्दूर माथे पर सज़ाए कुछ पत्नियां अभी भी इन्तज़ार में हैं कि उने पति लौट आएंगे। मातम का माहौल और तमाम अंतिम रिवायतें पूरी होने के बावजूद वो अपना सिन्दूर मिटाने के लिए तैयार नहीं हैं। ताउम्र पति का साथ निभाने के लिए वचनबद्ध भारतीय नारी पति की लाश अपनी आंखों से देखे बिना माने भी तो कैसे माने कि अब वो विधवा हो गई है। उन सिपाहियों के नौनिहाल पिता को मुखाग्नि देने के अपने अधिकार से भी वंचित रह गये। कोई दुश्मन भी हमारे जवानों के साथ ऐसा घिनौना सलूक नहीं करता जैसा हमारे दोस्त बांग्लादेश ने किया।
आखिर ऐसा हुआ क्यों ? सत्ता के गलियारों में डोलने वाले अलग अलग बातें कह रहे हैं। कुछ लोग यह खबर फैला रहे हैं कि यह इंकाईयों की साजिश का परिणाम है। तहलका के बाद यह काण्ड करवाकर वे भारत सरकार की नेतृत्व क्षमता पर प्रश्न चिन्ह लगाना चाहते हैं। इन लोगों का दावा है कि अब से अगले संसदीय चुनाव तक इंकाई देश के सामने भाजपा सरकार की छवि बिगाड़ने में जुटे रहेंगे। ऐसा दावा करने वाले यह बताना चाहते हैं कि शेख हसीना पर इंदिरा गांधी परिवार के जो एहसानात हैं उनके चलते वे नेहरू खानदान के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहती हैं। इंकाई इसे कोरी बकवास बताते हैं। वे पलटकर आरोप लगाते हैं कि तहलका के बाद उठे विवाद से देश का ध्यान बटाने के लिए भाजपा सरकार ने ही यह चाल चली है। सच्चाई जो भी हो, जो कुछ हुआ वह बहुत दर्दनाक है। इसके सही कारणों की निष्पक्षता से खोज की जानी चाहिए। ताकि भविष्य में ऐसी दुर्घटनाएं न हों। फिलहाल इस घटना ने एकबार फिर देशभर में मानसूनी देशभक्तों को सक्रिय कर दिया है। वे देश के अलग-अलग हिस्सों में अपनी देशभक्ति का सबूत सड़कों पर प्रदर्शन करके दे रहे हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। पर सवाल है कि हमारी देशभक्ति पिटने के बाद ही क्यों जागृत होती है ? भारत-चीन युद्ध हो या भारत-पाक युद्ध हम बरसाती मेंढकों की तरह अचानक एक ही रात में चारों तरफ से देशभक्ति की टर्र-टर्र शुरू कर देते हैं। तनाव के बादल छंटते ही हम या तो उदासीन होकर बैठ जाते हैं या खुद ही गद्दारी के कामों में जुट जाते हैं। एक बार फिर मानसूनी देशभक्तों का देशपे्रम उफान लेने लगा है। आज हर कोई बयानबाजी करने में जुटा है। कोई बंग्लादेश को मुंहतोड़ जवाब देने की बातें कर रहा है तो कोई भारत में घुसपैठ करके जीवनयापन करने वाले करोड़ों बंग्लादेशियों को उखाड़ फेंकने की मांग कर रहा है। पर सोचने वाली बात यह है कि ऐसी दुर्घटनाएं क्यों होती हैं ? कहीं ये हमारी ढुलमुल नीतियों और कमजोरी का नतीजा तो नहीं। 1999 में लद्दाख सीमा पर पाकिस्तानी सेना की बर्बरता का शिकार हुए छः जवानों के बाद हमारे कान खड़े हो जाने चाहिए थे। पर ऐसा नहीं हुआ और शायद इसीलिए हमें नीचा दिखाने की मंशा रखने वालों के हौसले इतने बढ़ गये कि उन्होंने फिर ऐसा कांड कर डाला। यह कांड अबकी बार हमारे पारम्परिक शत्रु देश पाक सीमा पर नहीं बल्कि मित्र देश बंग्लादेश की सीमा पर हुआ। मई 1999 में जम्मू-कश्मीर की लद्दाख सीमा पर हमारे छः जवानों को ऐसी ही क्रूर यातनाएं देकर मार डाला गया था। लोग प्रश्न पूछ रहे हैं कि देश के नेतृत्व में ऐसी दुखद घटनाओं को रोकने के लिए कौन से कड़े कदम उठाए ? वैसे कारगिल की घटनाओं को बीते अभी बहुत समय नहीं हुआ कि यह नया कांड हो गया।
ऐसी दुर्घटनाओं में सिपाहियों और स्थानीय जनता के मनोविज्ञान का अध्ययन करने वाले बताते हैं कि प्रायः सीमा पर तैनात जवानों के साथ ऐसी घटनाऐं स्थानीय आक्रोश का विस्फोट बन कर सामने आती हैं। अक्सर आरोप लगाया जाता है कि किसी भी देश की सीमाओं की रक्षा करने वाले सिपाही क्यों न हों वे सब अपने घरों से दूर रहते-रहते इतने उकता जाते हैं कि स्थानीय जनता से अपने व्यवहार में शालीनता की सीमाऐं लांघ जाते हैं। जिन देशों की सीमाओं पर बसने वाले नागरिक दब्बू किस्म के होते हैं वे अपने माल, अस्मिता और स्वाभिमान की कीमत पर भी सिपाहियों की अनुचित मांगों का शिकार बनते रहते हैं। पर जिन सीमाओं पर रहने वाले स्थानीय लोग स्वभाव से ही आक्रामक प्रवृत्ति के होते हैं वे सिपाहियों की अनुचित मांगों का डटकर विरोध करते हैं और कभी-कभी क्रोध के अतिरेक में वे सीमाओं पर तैनात सिपाहियों को अकेले में घेर कर उसके साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार करते हैं। ताजा घटना में परडीवाह गांव में हुई हिंसा के पीछे ऐसे कोई कारण नहीं हैं। पर प्रायः ऐसी दुर्घटनाओं के पीछे यह काफी महत्वपूर्ण कारण होता है। ताजा घटनाओं के तथ्य तो केवल निष्पक्ष जांच के बाद ही सामने आयेंगे।
इस घटनाक्रम से देश की जनता में काफी उत्तेजना है। उसे देश के नेतृत्व की क्षमता पर शक हो रहा है। वह सवाल पूछ रही है कि अखण्ड भारत की बात करने वाले विखंडित भारत की रक्षा तो कर नहीं पा रहे फिर अखंड राष्ट्र कैसे बनायेंगे। देश की जनता राजनेताओं की ढुलमुल नीतियों से नाखुश है। आज तिब्बत और चीन के मामले में पंडित नेहरू की तथाकथित उदारता के खामियाजे को भी याद किया जा रहा है। लोग अब वह भी घटना याद कर रहे हैं जब पंडित नेहरू ने 1963 में पड़ौस के देश बर्मा (म्यांमार) को सर्वदीप हथेली पर रखकर भेंट कर दिया था। 1972 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसी तरह विवाद के बाद श्रीलंका को कच्चटीब नाम का टापू उपहार स्वरूप दे दिया था। 1971 में पाकिस्तान को करारी शिकस्त देने के बाद जिस तरह श्रीमती गांधी ने जीता हुआ इलाका लौटाया उससे देश में कोई भी सहमत नहीं था, न तो नागरिक ही न ही रक्षा सेनाऐं। 1971 में ही बांग्लादेश में भारत का अरबों रूपया और हजारों शहादतें देने के बाद भी बंग्लादेश को आजाद छोड़ देने की बात किसी हिन्दुस्तानी के गले नहीं उतरी। 1974 में इन्हीं शेख हसीना के वालिद साहब शेख मुजीबुर्रहमान को बचाने के प्रयासों में 21 सेना नायकों और तीन हेलिकाप्टरों को भारत ने बलि चढ़ा दिया था। 1975 में शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या के बाद भारत ने शेख हसीना को वर्षों शाही मेहमान की तरह पलकों पर बिठा कर रखा। वही शेख हसीना आज बंग्लादेश की प्रधानमंत्री हैं और गृह मंत्रालय उनके ही अधीन है। यानी हमारे सिपाहियों के साथ ऐसा बर्बरतापूर्ण वीभत्स व्यवहार करने वाली बंग्लादेश रायफल्स सीधे बेगम शेख हसीना के अधीन है। फिर भी वे बड़ी मासूमियत से कह रही हैं कि जो कुछ हुआ उसकी उन्हें कोई जानकारी नहीं है। बंग्लादेश रायफल्स के महा निदेशक या अन्य उच्च अधिकारी अगर इतने उदण्ड हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय सीमा पर कूटनीतिज्ञ संवेदनशीलता को समझे बिना मनमाने आदेश दे देते हैं जिनकी जानकारी बेगम साहिबा को नहीं होती तो ऐसे अधिकारियों को एक क्षण भी अपने पद पर रहने का कोई अधिकार नहीं है। फिर क्या वजह है कि बेगम शेख हसीना सब कुछ देख सुनकर भी इतनी भोली बन रही हैं कि अभी भी वे मात्र जांच कराने की बात ही कर रही हैं, क्या वजह है कि वे बंग्लादेश रायफल्स के महानिदेशक को हटाने में संकोच कर रही हैं। वे इसे अपना अन्दरूनी मामला बताकर भारत को इस सबसे दूर रखना चाहती है। दूसरी तरफ हमारी गुप्तचर ऐजेंसियों का दावा है कि उल्फा और नागा आतंकवादियों को मदद बांग्लादेश से ही मिल रही है। जहां बाकायदा आतंकवादियों के प्रशिक्षण शिविर चलाये जा रहे हैं। फिर हमारा नेतृत्व इतना ढीला क्यों है ?
इंका से लेकर भाजपा तक देश के उदारवादी नेता भले ही अपने पड़ौसी देशों को उपहार स्वरूप दिए गए इलाकों को भूल जाएं पर बंग्लादेश वाले इतनी जल्दी कैसे भूल गए कि भारत ने उन्हें कितनी कुर्बानी करके आजाद करवाया था ? लम्बे विवाद के बाद 1998 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल ने बंग्लादेश को गंगा के पानी और पेट्रोलियम उत्पादों की नियामतें भी बख्शी थीं। कल अगर भारत में नौकरी का अधिकार प्राप्त नैपाली लोग भी ऐसा करने लगें तो हम क्या करेंगे ? श्रीलंका की मदद करने गये राजीव गांधी खुद लिट्टे के बम का शिकार हो गये। यही सिलसिला चला आ रहा है। हम पिटते भी जाते हैं और गुर्राते तक नहीं। एक तरफ ऐसा ढीलापन है तो दूसरी तरफ देश में मानसूनी देशभक्ति का बुखार चढ़ना शुरू हो गया है। बहुत अर्सा नहीं बीता जब कारगिल घटनाक्रम के बाद देश में तमाम तरह की देशभक्ति का सैलाब उमड़ पड़ा था। छोटे-बड़े नेता ही नहीं अभिनेता तक भी खुद को दूसरे से ज्यादा बड़ा देशभक्त साबित करने में जुट गये थे। चूहा देखकर भी डर जाने वाले लोग दावा करने लगे थे कि अगर सरकार उन्हें शस्त्र मुहैया कराए तो वे सीमा पर जाकर लड़ने को तैयार हैं। यही नहीं दाल में कंकड़, गर्म मसाले में लीद, आटे में गन्ने की खोई का बुरादा और पेट्रोल में सस्ता केमिकल मिलाने वाले भी शहीदों के परिवारों को लाख-लाख रूपये देने की घोषणा करने लगे। भले ही युद्ध के बाद अपने धंधों कों और ज्यादा दो नम्बरी बनाना पड़े पर किसी भी तरह मुनाफा कमाने के लिए तत्पर रहने वाले बहुत से लोग भी देशभक्ति का दावा करने से नहीं चूकते।
दरअसल भारतीय राजनेताओं की सहृदयता और लोगों की मानसूनी देशभक्ति ही ऐसी समस्याओं का मूल कारण है। भारत के लोगों में देशभक्ति भी मानसून की तरह युद्ध के मौसम में ही फूटती है। देशभक्ति एक ज़ज़्बा है, एक जुनून है जिसे हर दिन, हर पल जिन्दा रखना होता है। वैसे ही जैसे जापान के लोग जिन्दा रखते हैं। कारगिल के घुसपैठिये लौट गये तो देशभक्तों के बरसाती बादल भी लौट गये। बंग्लादेशी भी लौट गये हैं। कुछ दिन में फिलहाल पनपी देशभक्ति भी ठंडी पड़ जायेगी। पर देश की आन्तरिक और बाह्य सुरक्षा से जुड़े तमाम प्रश्न अनसुलझे ही रह जाऐंगे। आज मुल्क जिस चैराहे पर खड़ा है उस पर से उसे आगे ले जाने के लिए हिम्मत वाले जांबाज़ देशभक्तों की हर स्तर और हर क्षेत्र में जरूरत है। ऐसे देशभक्त जो केवल भावावेष में बन्द मुट्ठियां ही हवा में न लहरायें बल्कि कुर्बानी की हद तक जाने को तत्पर हों। तभी देश मौजूदा मकड़जाल से निकल पायेगा। वर्ना देश की राजनीति पर विभिन्न रंगों और नामों के बैनर लेकर छाये रहने वाले लोग ही ताश के पत्तों की तरह आपस में फिटते रहेंगे। कुछ नहीं बदलेगा। क्योंकि अन्धे अपनों को ही रेवड़ी बांटते रहेंगे और मुल्क बेइन्तहा समस्याओं की आग में झुलसता रहेगा।

Friday, April 13, 2001

तहलका के बाद संघ परिवार और इंका में आत्मनिरीक्षण


पिछले दिनांे तहलका हमले से निपटने की रणनीति के तहत भाजपा ने देश भर में जनसभाएं आयोजित करने का फैसला किया। कुछ नगरों में यह जनसभाऐं आयोजित की भी गईं। पर अपने ही कार्यकत्र्ताओं में जोश की कमी और जनता की तरफ से उदासीनता के कारण फिलहाल इन रैलियों का कार्यक्रम रद्द कर दिया गया है। जनसभाओं की जगह अब अपने कार्यकत्र्ताओं का मन टोहने के लिये राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा स्थानीय स्तरों पर अनेक गोष्ठियां गोपनीय रूप से आयोजित की जा रही हैं। इन गोष्ठियों में कई नई बातें देखने में आई हैं। मसलन अब इन गोष्ठियों में कार्यकत्र्ताओं को खुलकर बोलने और अपने मन की बात बिना संकोच कहने की छूट दी जा रही है। इतना ही नहीं वर्षों बाद संघ के उन कार्यकत्र्ताओं को भी बुलावा भेजा गया जिनकी लम्बे समय से ऐसी गोष्ठियों में उपेक्षा की जा रही थी। उनकी उपेक्षा का कारण था उनकी स्पष्टवादिता। सत्ता प्राप्ति के उत्साह में लगे संघ के प्रचारकों को ऐसी आलोचनात्मक शैली झेलने की फुर्सत नहीं थी। उन्हें सत्ता जितनी निकट आती दिख रही थी उतनी ही अपने पारम्परिक मूल्यों से उनकी दूरी बढ़ती जा रही थी। तर्क यह था कि लक्ष्य की प्राप्ति के लिये छोटे-मोटे समझौते तो करने ही पड़ते हैं। एक बार सत्ता मिल जाये और दूसरों से बेहतर काम करके दिखा दिया जाए फिर जनता हमेशा हमारा ही वरण करेगी। इस प्रक्रिया में नतीजा यह हुआ कि जिस तरह आजादी के बाद समर्पित और त्यागी प्रवृत्ति के कांगे्रस जनों को दरकिनार करके सत्तालोलुप लोग कांगे्रस पर हावी हो गये थे, ठीक उसी तरह सत्ता प्राप्ति के इस दौर में भाजपा के उन कार्यकत्र्ताओं और नेताओं को दरकिनार कर दिया गया जिनका पूरा जीवन डा. हेडगेवार के विचारों और उद्देश्यों के प्रति समर्पित रहा था। जिन्होंने न सिर्फ त्यागमय जीवन से बल्कि अपने आचरण से अपने वोट बैंक को स्वर्णिम भविष्य के लिये आश्वस्त किया था। पर जिन हालातों में राजग की सरकार बनी उसमें संघ की विचारधारा को पीछे हट जाना पड़ा। पीछे हटने का यह क्रम इस कदर आगे बढ़ गया कि भाजपा के ज्यादातर नेताओं के आचरण में ऐसा कुछ भी शेष न रहा जिसके सपने लोगों को दिखाये गये थे। सत्ता का भी जो रूप सामने आया वह वही था जो देश की जनता पिछले पचास वर्षों से देखती आ रही है। सरकारी धन की बर्बादी, सामन्ती ठाटबाट, भाई-भतीजावाद, आपसी कलह और गुटबन्दियां, किराये की भीड़, नारे, झूठे आश्वासन, कड़वी सच्चाई पर पर्दा डालना, राग-रंग और उत्सवों में जनता का ध्यान बंटाकर असली मुद्दों की अपेक्षा कर देना, गरीब के हक के लिए काम करने का नाटक करके केवल अति सम्पन्न वर्ग के हितों में नीतियों का निर्धारण करना, हर स्तर पर बुरी तरह फैल चुके भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के कोई ठोस और क्रांतिकारी कदम न उठाना, चुनाव घोषणा-पत्र के मुद्दों को पूर्ववर्ती दलों की तरह ही भूल जाना, कुछ ऐसे काम हैं जो यह भाजपा के कार्यकत्ताओं को यह बताते हैं कि देश की मौजूदा सरकार पूर्ववर्ती सरकारों से किसी भी मायने मे भिन्न नहीं है। इतना ही नहीं हिन्दू धर्म और संस्कृति से जुड़े जिन मुद्दों के लिए भाजपा का एक समर्पित वोट बैंक था, उन मुद्दों को भी फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। इसलिए भाजपा के समर्थकों को यह समझ में नहीं आ रहा कि आखिर इस सरकार में ऐसा क्या नया है जो पहले की सरकारों में नहीं था। शायद यही कारण है कि तहलका के प्रकरण से सबसे ज्यादा आहत और क्रोधित भाजपा का कार्यकत्र्ता ही हुआ है। जब उससे कहा गया कि वह जनता को यह बताए कि कांगे्रस की सरकारें इससे कहीं ज्यादा भ्रष्ट थीं तो उसके मन में कोई उत्साह पैदा नहीं हुआ। इसीलिए भाजपा की रैलियां फ्लाप हो गईं। कार्यकत्र्ता ये सोच रहा है कि कहां तो हमने पारदर्शी और दूसरों से कहीं बेहतर सरकार देने का वायदा किया था और कहां अब हमें ये कहना पड़ रहा है कि हम भ्रष्ट तो हैं पर दूसरों से कम। यह बात किसी के गले नहीं उतर रही। इसीलिए संघ को कार्यकत्र्ताओं का मन टोहने की जिम्मेदारी सौंपी गई। इन बैठकों में जो बात उभर कर आई वह इस प्रकार थी। स्वयंसेवकों का कहना था कि बंगारू लक्ष्मण कोई अपवाद नहीं है। हर जिले में संघ और भाजपा के वरिष्ठ लोगों के बीच यही बंगारू संस्कृति पनप चुकी है। सत्ता की दलाली करने वालों, चाटुकारों या पदलोलुपों को ही प्रोसाहन मिल रहा है। संघ के पारम्परिक कार्यक्रमों और नीतियों की मात्र रस्म अदायगी की जा रही है। देश के ज्यादातर हिस्सों में शाखाएं प्रतीकात्मक रूप में चल रही है। कहने को तो संघ का राजग सरकार में काफी दखल है पर इस दखल का कोई लाभ संघ के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये नहीं मिल रहा है। बल्कि इसका लाभ निहित स्वार्थों के आगे बढ़ने में ही दिखाई दे रहा है। स्वयंसेवकों का यह भी कहना था कि भाजपा के सत्ताधारी लोग अब संघ के असली कार्यकत्र्ताओं से कन्नी काटने लगे हैं और उनके इर्दगिर्द वही लोग देखे जाते हैं जो किसी भी दल की सरकार के समय सत्ताधीशों के चारों तरफ नज़र आते हैं। प्रान्तीय प्रचारकों की मौजूदगी में चल रही इन बैठकों में इस किस्म के तमाम तीखे हमले किये गये। जिनका संतुष्टिजनक उत्तर किसी के पास नहीं है। हां यह जरूर है कि देश भर में जब इन बैठकों का चक्र पूरा हो जाएगा तब संघ और भाजपा में शायद आत्मविश्लेषण हो।

राजनीति में छवि का महत्त्व बहुत ज्यादा होता है। एक बार जो छवि बन जाये उसे बदलना सरल नहीं होता। अब भाजपा की छवि वो नहीं रही जो सत्ता में आने से पहले थी। इससे निपटने का एक ही तरीका हो सकता है और वह है कि भाजपा के वे सदस्य जो सत्ता में हैं अपनी कार्यशैली और आचरण मे ऐतिहासिक रूप से क्रान्तिकारी परिवर्तन लायें। तब कहीं कार्यकत्र्ताओं में यह विश्वास जगेगा कि अभी भी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। ऐसा हो पायेगा, कहना मुश्किल है। दूसरी तरफ यह विडम्बना ही है कि तीन बार सत्ता में आने का मौका मिलने के बावजूद इंका सरकार बनाने की दावेदारी नहीं कर पा रही है। तहलका को लेकर इंकाइयों ने देश भर में माहौल तो खूब बनाया पर उसका राजनैतिक लाभ वे फिर भी नहीं ले पाये। कारण स्पष्ट है कि इंका में आज संगठनात्मक शक्ति क्षीण पड़ चुकी है। उत्तर प्रदेश को ही लें आज भाजपा की जो छवि है उसके चलते इंका के लिए उत्तर प्रदेश में अपना वोट बैंक बढ़ाना कतई असंभव नहीं है। बशर्ते कि इंका का संगठन और प्रादेशिक नेतृत्व कार्यकत्र्ताओं को विश्वास दिला सकें। आज सब बिखरा पड़ा है। हर जिले में नेतृत्व विहीन इंकाई हताश हैं। वे नहीं समझ पा रहे कि किन कारणों से उनका राष्ट्रीय नेतृत्व उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य को ठीक से नहीं संभाल पा रहा है। क्या वजह है कि इतनी आसान परिस्थितियों में भी इंका उत्तर प्रदेश में अपना वजूद कायम नहीं कर पा रही है। क्या पूरे प्रदेश में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो इंका को सही नेतृत्व और दिशा दे सके। उत्तर प्रदेश ही क्यों जिन राज्यों में भी गैर इंकाई सरकारें हैं उन राज्यों में इंकाइयों के जो तेवर होने चाहिए वे नहीं हैं। पार्टी के भीतर इस बात की जरूरत महसूस की जा रही है कि मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों का लाभ उठाने के लिए इंका के संगठन में जिला और प्रान्तीय स्तरों पर क्रान्तिकारी परिवर्तन किये जाएं। हर जिले में उन कांगे्रसियों को ढूंढ कर सामने लाया जाए जिन्होंने पिछले पचास वर्षों में अपने आचरण से अपने नाम को बट्टा नहीं लगने दिया। ऐसे कांगे्रसी जिलों में ही नहीं कस्बों और गांवों तक फैले हैं। पूरे देश में कार्यकत्र्ताओं का इतना बड़ा जाल किसी भी राजनैतिक दल के पास नहीं है। फिर भी इंका की हालत इतनी खस्ता है। दरअसल इन समर्पित बुजुर्गों को पिछले बीस वर्षों में दरकिनार कर प्रापर्टी डीलरों, ठेकेदारों, गुण्डों और दलालों ने इंका पर कब्जा कर लिया है। जिनके लिए राजनीति समाज के हित साधने का नहीं बकि अवैध लाभ कमाने का जरिया है। इसलिए कांगे्रस अपना गांभीर्य खो चुकी है। सत्ता से बाहर कर दिए जाने से पहले कांगे्रस कितनी गिर चुकी थी, इसकी स्वीकारोक्ति मुम्बई अधिवेशन के दौरान खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने की थी। जब उन्होंने कांगे्रस को दलालों की पार्टी बताया था। भाजपा के सत्ता में आने से पहले लोगों में आशा की एक किरण थी कि शायद भाजपा औरों से बेहतर राजनैतिक दल सिद्ध होगी। पर आज यह आशा धूमिल हो चुकी है। इसलिए जनता में सभी राजनैतिक दलों को लेकर चिन्तन चल रहा है। पर आम आदमी तब तक कांगे्रस से नहीं जुड़ेगा जब तक कि वह इसके स्थानीय नेतृत्व में जुझारूपन न देखे। राजनैतिक विश्लेषकों के बीच आजकल एक मजाक प्रचलित है कि इंकाई सत्ता का सुख भोगकर इतने आलसी हो चुके हैं कि अब उनके सड़कों का संघर्ष नहीं किया जाता। लोकतंत्र में सत्ता प्राप्ति के लिये सड़क का संघर्ष अनिवार्य शर्त होती है। चूंकि इंका का स्थानीय और प्रांतीय स्तर पर पारम्परिक नेतृत्व उन लोगों के हाथ में है जिनका सड़क के संघर्ष से पिछले बीस-तीस वर्षों में कोई अनुभव नहीं रहा। इसलिए इंका राजनैतिक रूप में पकी फसल काटने का साहस नहीं बटोर पा रही है। इन हालातों में इंका के राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए यह जरूरी होगा कि वह लीक से हटकर निर्णय लें और हर जिले और प्रान्त स्तर पर उन लोगों को सामने लाये जो न सिर्फ इंका से भावनात्मक रूप से जुड़े हैं बल्कि जो आम जनता के हक के लिए सड़कों पर लड़ने में विश्वास रखते हैं। इस क्रम में सबसे ज्यादा जरूरी होगा युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करना। बढ़ती बेरोजगारी और भाजपा से हुए मोहभंग के कारण देश की युवा आबादी दिशाहीन है और उसे नेतृत्व की तलाश है। इंका के कार्यकर्ता मानते हैं कि उसके खजाने में एक तुरूप का पत्ता है। जिसका नाम है प्रियंका गांधी। इंकाइयों को यह पूरा विश्वास है कि यदि प्रियंका गांधी को भारतीय युवक कांगे्रस का अध्यक्ष बना कर हर जिले स्तर पर युवाओं को जोड़ने के काम में लगा दिया जाए तो कुछ महीनों के भीतर ही इंका का एक बहुत मजबूत संगठन देश में खड़ा हो जाएगा। यह संगठन हिंसक, विध्वंसक और मूल्यहीन न बने इसके लिए इंका को कुछ ऐसे चेहरों की तलाश होगी जिनकी विश्वसनीयता पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं लगा सकता। ऐसे दस-बीस मशहूर चेहरों को प्रियंका गांधी के साथ जोड़कर कार्यक्रम बनाए जायें और युवाओं को साथ जोड़ने का अभियान चलाया जाए तो इंका को आशातीत सफलता मिलेगी। सावधानी यह बरतनी होगी कि इस अभियान में इंका के घिसेपिटे चेहरे जनता के सामने न आयें। वरना नुकसान ही होगा फायदा नहीं। अगर इंका कुछ मशहूर और साफ लोगों को जिले से राष्ट्रीय स्तर तक नई पीढ़ी का नया नेतृत्व बताकर पेश करती है तो उसके लिये सत्ता हासिल करना असंभव नहीं होगा। ऐसा उसके कार्यकर्ताओं का विश्वास है।

इन लोगों का यह भी कहना है कि जिस तरह दत्तात्रेय के 24 गुरू थे। सबसे उन्होंने शिक्षा ली। ठीक उसी तरह इंका को भी चाहिए कि वह नरसिंह राव से लेकर अर्जुन सिंह तक हर उस वरिष्ठ इंकाई नेता को समुचित आदर और महत्व दे जिससे आंतरिक कलह न हो। अपने संगठन में वे पात्र हैं। इन सब दिग्गजों को युवा अभियान को समय-समय पर अनुभव जन्य सलाह देने का काम सौंपे। इससे दो लाभ होंगे। एक तो नई पीढ़ी का पुरानी पीढ़ी से टकराव नहीं होगा बल्कि दोनों के बीच सेतुबन्धन होगा। दूसरा पुरानी पीढ़ी उपेक्षित और अपमानित महसूस नहीं करेगी। साथ ही नई पीढ़ी को नई परिस्थितियों, नये मूल्यों के साथ, नये कार्यक्रमों को लेकर आगे बढ़ने की छूट हो तो इंका भारतीय लोकतंत्र में अपनी ज्यादा सार्थक भूमिका निभा पायेगी। देखना यह है कि मौजूदा परिस्थितियों में भाजपा या इंका में से कौन-सा राष्ट्रीय दल अपने संगठन में पहले क्रांतिकारी बदलाव लाता है।