Friday, April 27, 2001

भारत बंग्लादेश सीमा काण्ड केवल मानसूनी देशभक्ति ही काफी नहीं


भारत के रहमोकरम पर आज़ादी हासिल करने वाला आमार सोनार बंग्लादेश आज वो कर रहा है जो दुश्मन भी नहीं करता। उसके अर्द्धसैनिक संगठन बंग्लादेश रायफल्स ने न सिर्फ मेघालय सीमा पर बसे गांव परडीवाह पर कब्ज़ा ही किया बल्कि सत्रह भारतीय सिपाहियों को अमानवीय यातनाएं देकर बड़ी क्रूरता से मार भी डाला। इतनी क्रूरता से कि उनके शव तक पहचानना मुश्किल था। नतीजतन बंग्लादेश की सीमा पर मारे गए सत्रह शहीदों के परिवारों को अपने सपूतों की अंतिम झलक भी नसीब नहीं हुई। उनके शरीरों की ज़जऱ्र हालत देखते हुए यही बेहतर समझा गया कि उन्हें अपने परिवारजनों और घर से दूर सीमा पर ही अग्नि को समर्पित कर दिया जाए। सेनानायकों की उपस्थिति में उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। सुहाग का सिन्दूर माथे पर सज़ाए कुछ पत्नियां अभी भी इन्तज़ार में हैं कि उने पति लौट आएंगे। मातम का माहौल और तमाम अंतिम रिवायतें पूरी होने के बावजूद वो अपना सिन्दूर मिटाने के लिए तैयार नहीं हैं। ताउम्र पति का साथ निभाने के लिए वचनबद्ध भारतीय नारी पति की लाश अपनी आंखों से देखे बिना माने भी तो कैसे माने कि अब वो विधवा हो गई है। उन सिपाहियों के नौनिहाल पिता को मुखाग्नि देने के अपने अधिकार से भी वंचित रह गये। कोई दुश्मन भी हमारे जवानों के साथ ऐसा घिनौना सलूक नहीं करता जैसा हमारे दोस्त बांग्लादेश ने किया।
आखिर ऐसा हुआ क्यों ? सत्ता के गलियारों में डोलने वाले अलग अलग बातें कह रहे हैं। कुछ लोग यह खबर फैला रहे हैं कि यह इंकाईयों की साजिश का परिणाम है। तहलका के बाद यह काण्ड करवाकर वे भारत सरकार की नेतृत्व क्षमता पर प्रश्न चिन्ह लगाना चाहते हैं। इन लोगों का दावा है कि अब से अगले संसदीय चुनाव तक इंकाई देश के सामने भाजपा सरकार की छवि बिगाड़ने में जुटे रहेंगे। ऐसा दावा करने वाले यह बताना चाहते हैं कि शेख हसीना पर इंदिरा गांधी परिवार के जो एहसानात हैं उनके चलते वे नेहरू खानदान के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहती हैं। इंकाई इसे कोरी बकवास बताते हैं। वे पलटकर आरोप लगाते हैं कि तहलका के बाद उठे विवाद से देश का ध्यान बटाने के लिए भाजपा सरकार ने ही यह चाल चली है। सच्चाई जो भी हो, जो कुछ हुआ वह बहुत दर्दनाक है। इसके सही कारणों की निष्पक्षता से खोज की जानी चाहिए। ताकि भविष्य में ऐसी दुर्घटनाएं न हों। फिलहाल इस घटना ने एकबार फिर देशभर में मानसूनी देशभक्तों को सक्रिय कर दिया है। वे देश के अलग-अलग हिस्सों में अपनी देशभक्ति का सबूत सड़कों पर प्रदर्शन करके दे रहे हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। पर सवाल है कि हमारी देशभक्ति पिटने के बाद ही क्यों जागृत होती है ? भारत-चीन युद्ध हो या भारत-पाक युद्ध हम बरसाती मेंढकों की तरह अचानक एक ही रात में चारों तरफ से देशभक्ति की टर्र-टर्र शुरू कर देते हैं। तनाव के बादल छंटते ही हम या तो उदासीन होकर बैठ जाते हैं या खुद ही गद्दारी के कामों में जुट जाते हैं। एक बार फिर मानसूनी देशभक्तों का देशपे्रम उफान लेने लगा है। आज हर कोई बयानबाजी करने में जुटा है। कोई बंग्लादेश को मुंहतोड़ जवाब देने की बातें कर रहा है तो कोई भारत में घुसपैठ करके जीवनयापन करने वाले करोड़ों बंग्लादेशियों को उखाड़ फेंकने की मांग कर रहा है। पर सोचने वाली बात यह है कि ऐसी दुर्घटनाएं क्यों होती हैं ? कहीं ये हमारी ढुलमुल नीतियों और कमजोरी का नतीजा तो नहीं। 1999 में लद्दाख सीमा पर पाकिस्तानी सेना की बर्बरता का शिकार हुए छः जवानों के बाद हमारे कान खड़े हो जाने चाहिए थे। पर ऐसा नहीं हुआ और शायद इसीलिए हमें नीचा दिखाने की मंशा रखने वालों के हौसले इतने बढ़ गये कि उन्होंने फिर ऐसा कांड कर डाला। यह कांड अबकी बार हमारे पारम्परिक शत्रु देश पाक सीमा पर नहीं बल्कि मित्र देश बंग्लादेश की सीमा पर हुआ। मई 1999 में जम्मू-कश्मीर की लद्दाख सीमा पर हमारे छः जवानों को ऐसी ही क्रूर यातनाएं देकर मार डाला गया था। लोग प्रश्न पूछ रहे हैं कि देश के नेतृत्व में ऐसी दुखद घटनाओं को रोकने के लिए कौन से कड़े कदम उठाए ? वैसे कारगिल की घटनाओं को बीते अभी बहुत समय नहीं हुआ कि यह नया कांड हो गया।
ऐसी दुर्घटनाओं में सिपाहियों और स्थानीय जनता के मनोविज्ञान का अध्ययन करने वाले बताते हैं कि प्रायः सीमा पर तैनात जवानों के साथ ऐसी घटनाऐं स्थानीय आक्रोश का विस्फोट बन कर सामने आती हैं। अक्सर आरोप लगाया जाता है कि किसी भी देश की सीमाओं की रक्षा करने वाले सिपाही क्यों न हों वे सब अपने घरों से दूर रहते-रहते इतने उकता जाते हैं कि स्थानीय जनता से अपने व्यवहार में शालीनता की सीमाऐं लांघ जाते हैं। जिन देशों की सीमाओं पर बसने वाले नागरिक दब्बू किस्म के होते हैं वे अपने माल, अस्मिता और स्वाभिमान की कीमत पर भी सिपाहियों की अनुचित मांगों का शिकार बनते रहते हैं। पर जिन सीमाओं पर रहने वाले स्थानीय लोग स्वभाव से ही आक्रामक प्रवृत्ति के होते हैं वे सिपाहियों की अनुचित मांगों का डटकर विरोध करते हैं और कभी-कभी क्रोध के अतिरेक में वे सीमाओं पर तैनात सिपाहियों को अकेले में घेर कर उसके साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार करते हैं। ताजा घटना में परडीवाह गांव में हुई हिंसा के पीछे ऐसे कोई कारण नहीं हैं। पर प्रायः ऐसी दुर्घटनाओं के पीछे यह काफी महत्वपूर्ण कारण होता है। ताजा घटनाओं के तथ्य तो केवल निष्पक्ष जांच के बाद ही सामने आयेंगे।
इस घटनाक्रम से देश की जनता में काफी उत्तेजना है। उसे देश के नेतृत्व की क्षमता पर शक हो रहा है। वह सवाल पूछ रही है कि अखण्ड भारत की बात करने वाले विखंडित भारत की रक्षा तो कर नहीं पा रहे फिर अखंड राष्ट्र कैसे बनायेंगे। देश की जनता राजनेताओं की ढुलमुल नीतियों से नाखुश है। आज तिब्बत और चीन के मामले में पंडित नेहरू की तथाकथित उदारता के खामियाजे को भी याद किया जा रहा है। लोग अब वह भी घटना याद कर रहे हैं जब पंडित नेहरू ने 1963 में पड़ौस के देश बर्मा (म्यांमार) को सर्वदीप हथेली पर रखकर भेंट कर दिया था। 1972 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसी तरह विवाद के बाद श्रीलंका को कच्चटीब नाम का टापू उपहार स्वरूप दे दिया था। 1971 में पाकिस्तान को करारी शिकस्त देने के बाद जिस तरह श्रीमती गांधी ने जीता हुआ इलाका लौटाया उससे देश में कोई भी सहमत नहीं था, न तो नागरिक ही न ही रक्षा सेनाऐं। 1971 में ही बांग्लादेश में भारत का अरबों रूपया और हजारों शहादतें देने के बाद भी बंग्लादेश को आजाद छोड़ देने की बात किसी हिन्दुस्तानी के गले नहीं उतरी। 1974 में इन्हीं शेख हसीना के वालिद साहब शेख मुजीबुर्रहमान को बचाने के प्रयासों में 21 सेना नायकों और तीन हेलिकाप्टरों को भारत ने बलि चढ़ा दिया था। 1975 में शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या के बाद भारत ने शेख हसीना को वर्षों शाही मेहमान की तरह पलकों पर बिठा कर रखा। वही शेख हसीना आज बंग्लादेश की प्रधानमंत्री हैं और गृह मंत्रालय उनके ही अधीन है। यानी हमारे सिपाहियों के साथ ऐसा बर्बरतापूर्ण वीभत्स व्यवहार करने वाली बंग्लादेश रायफल्स सीधे बेगम शेख हसीना के अधीन है। फिर भी वे बड़ी मासूमियत से कह रही हैं कि जो कुछ हुआ उसकी उन्हें कोई जानकारी नहीं है। बंग्लादेश रायफल्स के महा निदेशक या अन्य उच्च अधिकारी अगर इतने उदण्ड हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय सीमा पर कूटनीतिज्ञ संवेदनशीलता को समझे बिना मनमाने आदेश दे देते हैं जिनकी जानकारी बेगम साहिबा को नहीं होती तो ऐसे अधिकारियों को एक क्षण भी अपने पद पर रहने का कोई अधिकार नहीं है। फिर क्या वजह है कि बेगम शेख हसीना सब कुछ देख सुनकर भी इतनी भोली बन रही हैं कि अभी भी वे मात्र जांच कराने की बात ही कर रही हैं, क्या वजह है कि वे बंग्लादेश रायफल्स के महानिदेशक को हटाने में संकोच कर रही हैं। वे इसे अपना अन्दरूनी मामला बताकर भारत को इस सबसे दूर रखना चाहती है। दूसरी तरफ हमारी गुप्तचर ऐजेंसियों का दावा है कि उल्फा और नागा आतंकवादियों को मदद बांग्लादेश से ही मिल रही है। जहां बाकायदा आतंकवादियों के प्रशिक्षण शिविर चलाये जा रहे हैं। फिर हमारा नेतृत्व इतना ढीला क्यों है ?
इंका से लेकर भाजपा तक देश के उदारवादी नेता भले ही अपने पड़ौसी देशों को उपहार स्वरूप दिए गए इलाकों को भूल जाएं पर बंग्लादेश वाले इतनी जल्दी कैसे भूल गए कि भारत ने उन्हें कितनी कुर्बानी करके आजाद करवाया था ? लम्बे विवाद के बाद 1998 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल ने बंग्लादेश को गंगा के पानी और पेट्रोलियम उत्पादों की नियामतें भी बख्शी थीं। कल अगर भारत में नौकरी का अधिकार प्राप्त नैपाली लोग भी ऐसा करने लगें तो हम क्या करेंगे ? श्रीलंका की मदद करने गये राजीव गांधी खुद लिट्टे के बम का शिकार हो गये। यही सिलसिला चला आ रहा है। हम पिटते भी जाते हैं और गुर्राते तक नहीं। एक तरफ ऐसा ढीलापन है तो दूसरी तरफ देश में मानसूनी देशभक्ति का बुखार चढ़ना शुरू हो गया है। बहुत अर्सा नहीं बीता जब कारगिल घटनाक्रम के बाद देश में तमाम तरह की देशभक्ति का सैलाब उमड़ पड़ा था। छोटे-बड़े नेता ही नहीं अभिनेता तक भी खुद को दूसरे से ज्यादा बड़ा देशभक्त साबित करने में जुट गये थे। चूहा देखकर भी डर जाने वाले लोग दावा करने लगे थे कि अगर सरकार उन्हें शस्त्र मुहैया कराए तो वे सीमा पर जाकर लड़ने को तैयार हैं। यही नहीं दाल में कंकड़, गर्म मसाले में लीद, आटे में गन्ने की खोई का बुरादा और पेट्रोल में सस्ता केमिकल मिलाने वाले भी शहीदों के परिवारों को लाख-लाख रूपये देने की घोषणा करने लगे। भले ही युद्ध के बाद अपने धंधों कों और ज्यादा दो नम्बरी बनाना पड़े पर किसी भी तरह मुनाफा कमाने के लिए तत्पर रहने वाले बहुत से लोग भी देशभक्ति का दावा करने से नहीं चूकते।
दरअसल भारतीय राजनेताओं की सहृदयता और लोगों की मानसूनी देशभक्ति ही ऐसी समस्याओं का मूल कारण है। भारत के लोगों में देशभक्ति भी मानसून की तरह युद्ध के मौसम में ही फूटती है। देशभक्ति एक ज़ज़्बा है, एक जुनून है जिसे हर दिन, हर पल जिन्दा रखना होता है। वैसे ही जैसे जापान के लोग जिन्दा रखते हैं। कारगिल के घुसपैठिये लौट गये तो देशभक्तों के बरसाती बादल भी लौट गये। बंग्लादेशी भी लौट गये हैं। कुछ दिन में फिलहाल पनपी देशभक्ति भी ठंडी पड़ जायेगी। पर देश की आन्तरिक और बाह्य सुरक्षा से जुड़े तमाम प्रश्न अनसुलझे ही रह जाऐंगे। आज मुल्क जिस चैराहे पर खड़ा है उस पर से उसे आगे ले जाने के लिए हिम्मत वाले जांबाज़ देशभक्तों की हर स्तर और हर क्षेत्र में जरूरत है। ऐसे देशभक्त जो केवल भावावेष में बन्द मुट्ठियां ही हवा में न लहरायें बल्कि कुर्बानी की हद तक जाने को तत्पर हों। तभी देश मौजूदा मकड़जाल से निकल पायेगा। वर्ना देश की राजनीति पर विभिन्न रंगों और नामों के बैनर लेकर छाये रहने वाले लोग ही ताश के पत्तों की तरह आपस में फिटते रहेंगे। कुछ नहीं बदलेगा। क्योंकि अन्धे अपनों को ही रेवड़ी बांटते रहेंगे और मुल्क बेइन्तहा समस्याओं की आग में झुलसता रहेगा।

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