Friday, March 15, 2002

धर्मनिरपेक्षता की नई परिभाषा की जरूरत

हर ओर धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता पर बहस छिड़ी है। टीवी चैनल भी इसी बहस में उलझे हैं। जहां इंकाई, साम्यवादी, समाजवादी व दूसरे दल भाजपा को सांप्रदायिक सिद्ध करने पर तुले हैं वहीं भाजपा के प्रतिनिधि अपनी रक्षा में जुटे हैं। हालात की मार कहिए या फिर इन टीवी बहसों में आ रहे हिंदुवादियों की वाक्पटुता की कमी, वे इन बहसों में लगातार पिट रहे हैं। आश्चर्य की बात है कि भाजपा, विहिप व संघ इन बहसों में अपने सर्वश्रेष्ठ प्रवक्ताओं को नहीं भेज पा रहे हैं। ऐसे में गांेविंदाचार्य जैसे लोगों की कमी सभी भाजपाइयों को खल रही है। वे इन बहसों के माकूल उत्तर देने में सक्षम होते। पर उनके जैसे लोगों को तो भाजपा के नेतष्त्व ने कब का दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया। उन्हें ही क्यों तमाम ऐसे लोग जो राम लहर से आकृष्ट होकर भाजपा में आए थे, निराश होकर घर बैठ गए। कोई उनसे पूछने भी नहीं गया कि उनकी नाराजगी की वजह क्या है ? ये भाजपा में सत्ता सुख भोगने नहीं आए थे। ये तो वो लोग थे जो वर्षों से यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि जब वैदिक धर्म और मातष्भूमि के प्रति समर्पित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से निकले लोगों की सरकार बनेगी तो देश की शासन व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन आएगा। जनहित में दिए गए उनके उपयोगी सुझावों को माना जाएगा। शासन व्यवस्था आत्मकेंद्रित न होकर जनोन्मुख होगी। भारत की गौरवमयी सांस्कष्तिक विरासत का संरक्षण व संवर्धन होगा। पर उन्हें यह देख कर भारी पीड़ा हुई कि भाजपा की सरकारें न सिर्फ नाकारा और अकुशल सिद्ध हुईं बल्कि उसके नेताओं ने अपने अहंकारी और स्वार्थी आचरण से यह सिद्ध कर दिया कि भाजपाई शासन चलाने के योग्य नहीं हैं। इन लोगों को ही नहीं बल्कि करोड़ों उन लोगों को भी भाजपा के शासन और व्यवहार से बहुत चोट पहुंची जो भाजपा को मन ही मन पसंद करते थे। पिछले 50 वर्ष में संघ के स्वयंसेवकों ने व रामरथ यात्रा के दौरान आडवाणी जी ने, हिंदू समाज की अपेक्षाओं को बहुत बढ़ा दिया था। पर ये अपेक्षाएं ज्यों की त्यों धरी रह गई। अब लोग आसानी से न तो भाजपा पर यकीन करेंगे और न ही धर्म आधारित किसी और नए राजनैतिक दल पर।

पर सोचने वाली बात है कि पारंपरिक रूप से अपने दृष्टिकोण में धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत मानने वाले भारतीय समाज का धर्म आधारित ऐसा ध्रुविकरण पहले कभी नहीं हुआ था। इसलिए धर्मनिरपेक्षता की बात करते वक्त हमें इस ध्रुविकरण की तह में जाना होगा। आखिर क्या वजह थी जो लोग धर्मनिरपेक्षतावादियों से इतने नाराज हो गए ? दरअसल पिछले बीस वर्षों से हिंदुओं को यह लगने लगा था कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों का तुष्टिकरण किया जा रहा है। वोटों के लालच में उन्हें बिना वजह अहमियत दी जा रही है और इस प्रक्रिया में बहुसंख्यक हिंदू समाज के साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा है। जबकि सच्चाई तो यह है कि अपनी अशिक्षा और कठमुल्लेपन के कारण मुसलमान वैसे ही समाज में पिछड़े हुए हैं और ऊपर से उन्हें नौकरियों में बराबरी का व्यवहार नहीं मिलता। फिर मुस्लिम तुष्टिकरण का क्या प्रमाण हैं ? हिंदुवादियों की शिकायत रही है कि शाहबानों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को न मानना। बनारस में जबरन कब्जाए गए कब्रिस्तान को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद खाली न करना। परिवार नियोजन कार्यक्रम का डट कर विरोध करना व समान नागरिक संहिता की जरूरत को न मानना। क्रिकेट मैचो में पाकिस्तान की जीत पर खुशी और भारत की जीत पर गम प्रकट करना। मस्जिदों के आगे से जाने वाले दशहरा के जुलूसों पर पथराव करना व उनके भजन-कीर्तनों पर पाबंदी लगाना। हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं का सम्मान न करते हुए गौ-मांस खाना। ऐसी तमाम बातों से हिंदू नाराज थे। उन्हें इस बात पर भी क्रोध आता था कि अपने ही देश में हिंदुओं को अपने   सर्वाधिक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थालों पर पूजा-अर्चना नहीं करने दी जाती या वहां मस्जिदें बना दी गई है। ऐसे तमाम कारणों से हिंदू समाज के मन में धर्मनिरपेक्षतावादियों और मुसलमानों के प्रति आक्रोश बढ़ता जा रहा था। जिसे भाजपा ने भुना लिया। पर काठ की हांडी रोज-रोज नहीं चढ़ा करती। भाजपा की सरकार ऐसा कुछ भी नहीं कर पाई जिससे वह हिंदुओं की दबी हुए आकांक्षाओं को पूरा कर पाती। कई दलों की मिलीजुली सरकार होने के कारण भाजपा के लिए सभी को खुश रखना सरल नहीं था। इसलिए उसे अपने धार्मिक मुद्दे छोड़ देने पड़े। धर्मनिरपेक्षता दिखाने चक्कर में भाजपा न तो मुसलमानों को आकर्षित कर पाई और न ही उसका अपना वोट बैंक ही सलामत रहा।

अब जब भाजपा से हिंदू समाज का मोहभंग हो चुका है तो लोगांे सामने सवाल है कि वे किस दल की शरण में जाएं ? ऐसे में इंका सहज ही जांचे-परखे और आसानी से उपलब्ध विकल्प के रूप में एक बार फिर सामने आई है। अपनी  इस नई उपलब्धि से प्रसन्न होने की बजाए इंका को धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर पुनः विचार करना चाहिए। वरना रास्ता इतना सरल नहीं होगा। उसे अपना स्वरूप और आचरण ऐसा करना चाहिए जिससे यह संकेत जाए कि उसकी धर्मनिरपेक्षता मुसलमानों के तुष्टिकरण का आवरण नहीं है। बल्कि इंका की धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है सभी धर्मों को समान आदर देना और साथ ही धर्महीनता की बात नहीं करना। इंका को यह मानना चाहिए कि धर्मनिरपेक्ष दिखने के उत्साह में इंका ने हिंदू समाज को नाराज किया था। अगर वह चाहती है कि उसका पारंपरिक वोट बैंक भी लौट आए और उसका धर्मनिरपेक्ष स्वरूप भी बना रहे तो उसे अपने रवैए में बदलाव करना ही होगा। उसे समान नागरिक कानून, परिवार नियोजन, मुसलमान बच्चों के लिए भी अनिवार्य रूप से आधुनिक शिक्षा की व्यवस्था जैसे मुद्दे भी उठाने होंगे। उसे यह संदेश देना होना होगा कि वह धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम तुष्टिकरण नहीं करेगी। साथ ही उसे हिंदुओं के पारंपरिक धार्मिक विश्वासों का सम्मान करना भी सीखना होगा। उसे मुसलमानों को यह समझाना होगा कि उनके कठमुल्लेपन  के कारण ही हिंदू सांप्रदायिकता फैलती है। जब हिंदुओं को लगेगा कि इंका के शासन में हिंदू और मुसलमान दोनों को ही समान व्यवहार व न्याय मिलता है तो वे स्वयं ही शांत हो जाएंगे। फिर वे भावना से नहीं विवेक से काम लेंगे। यदि ऐसे हालात पैदा किए गए तो फिर इंका को टक्कर देने की स्थिति में कोई नहीं होगा। अगर इंका वर्तमान नाजुक दौर की मांग को नहीं समझती और अपनी पारंपरिक समझ के अनुसार धर्मनिरपेक्षता का राग तो अलापती है पर करती है उल्टा ही, तो उसे भारी नुकसान हो सकता है। आज स्वतः उसकी तरफ खिंचे आ रहे वोट ठिठक सकते हैं।

समय आ गया है कि धर्मनिरपेक्षतावादी हर धर्म को सम्मान देते हुए किसी एक धर्म के प्रति विशेष झुकाव न रखें। इससे समाज में तेजी से बढ़ता हुआ विघटन रूक जाएगा। तब लोगों को लगेगा कि इंका जैसे दल पुनः भारत पर शासन करने के योग्य हैं। मुसलमानों को भी लगेगा कि अगर उन्होंने अपना कठमुल्लापन नहीं छोड़ा तो फिर विहिप जैसे संगठन मजबूत बनेंगे और देश में शांति नहीं रह पाएगी। नाहक खून-खराबा होगा। देश में शांति और सौहार्द बढ़ सके इसके लिए प्रमुख धर्मों के धार्मिक नेताओं को भी अपना रवैया बदलना होगा। आज देश में किसी भी सड़क पर बीचोबीच में कोई कब्र मिल जाती है या फुटपातों पर अवैध रूप से बने मंदिर। यहां तक की हवाई अड्डे और रेलवे स्टेशनों की पटरियों के बीच भी अक्सर मस्जिद या मंदिर खड़े पाए जाते हैं। यह न तो व्यवस्था चलाने के लिए उचित है और न ही इन प्रतिष्ठानों की सुरक्षा के हित में। धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाले दलों को यह हिम्मत दिखानी चाहिए कि वे सार्वजनिक स्थानों पर इस तरह बने मस्जिदों, कब्रों, मंदिरों, चर्चों और गुरूद्वारा को हटाने का कानून पास करें और उन्हें सख्ती से हटाएं। कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि जो कोई भी धर्मनिरपेक्षता का दावा करे उसे अपने आचरण और नीतियों में इसका प्रदर्शन करना होगा। तभी वह दोनों पक्षों का विश्वास जीत सकेगा। पहले जो हो गया अब नहीं हो सकता। धर्मनिरपेक्षता के बारे में नई सोच और नई दृष्टि होना आज समय की मांग हैं।

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