Friday, March 29, 2002

विहिप के कामों से दुखी हैं आडवाणी जी

एक तरफ धर्मनिरपेक्षतावादी लोग गुजरात की भाजपा सरकार को सांप्रदायिक दंगों के लिए दोषी ठहरा रहे हैं और दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी के राजनैतिक गुरू व केंद्रीय गष्हमंत्री लाल कष्ष्ण आडवाणी गुजरात में हुई हिंसा से काफी दुखी हैं। उन्हें लगता है कि यह उन्माद जानबूझ कर पाकिस्तान समर्थित एजेंसियों ने पैदा किया है ताकि भारत की तेजी से उभरती हुई अंतर्राष्ट्रीय छवि को खराब किया जा सके। एक निजी बातचीत में उन्होंने बताया कि गुजरात में हुई हिंसा की वारदातों ने देश का बहुत अहित किया है। ऐसे समय में जब दुनिया में पाकिस्तान और अफगानिस्तान दोनों ही देश आतंकवाद का गढ़ माने जाने लगे थे और दुनिया के देश भारत को एक धीर, गंभीर और जिम्मेदार देश मानने लगे थे, गुजरात में भड़की हिंसा ने उनके विश्वास को हिला दिया है। उनके अनुसार भारत को पिछले दो दशकों के प्रयास के बाद भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो सफलता नहीं मिली थी वह 11 सितंबर की दुर्घटना के बाद स्वतः ही मिल गई। यह समय इस उपलब्धि को राष्ट्रहित में भुनाने का था। देश के तमाम अंदरूनी सवाल जो वोटों की राजनीति ने वर्षों से उल्झा रखे थे, इस नए बदले माहौल में सुलझ सकते थे। भारत सरकार अपना काम करती चली जाती और विघटनकारी व देशद्रोही ताकतें चूं तक न करती। पर दुर्भाग्यवश ऐसा न हो सका। विहिप ने इस समय नाहक मंदिर का सवाल उठा कर सब किए कराए पर पानी फेर दिया। भाजपा की पिछले दशक में हुई आशातीत वष्द्धि के लिए जिम्मेदार आडवाणी जी को लगता है कि यह समय अयोध्या में राम मंदिर का सवाल उठाने का नहीं था। जब देश का बड़ा फायदा हो रहा हो तो किसी धर्म विशेष की बात को उठाने से देशद्रोही तत्वों को मौका मिलता है, देश में सांप्रदायिक तनाव पैदा करने का। पिछले दिनों हुए गुजरात में दंगों को भी वे इसी नजरिए से देखने की सलाह देते हैं।

इसके साथ ही वे यह भी महसूस करते हैं कि गुजरात की हिंसा को दुनिया के मीडिया ने बड़ी तत्परता से उछाला। नतीजतन अब सभी देश यह मानने लगे हैं कि साम्प्रदायिक ंिहंसा के मामले में भारत और पाकिस्तान में से कोई भी देश कम नहीं। मौका मिलने पर दोनों ही हिंसा में जुट जाते हैं। आडवाणी जी को दुख है कि देश पर लग रहा यह आरोप ठीक नहीं है। खासकर तब जबकि भाजपा के शासनकाल में देश में सांप्रदायिक ंिहंसा का माहौल न के बराबर रहा था। वे कहते हैं कि आतंकवाद की बात भारत पिछले 20 वर्षों से लगातार विश्व के अनेक मंचों पर करता आ रहा था पर उसे गंभीरता से नहीं लिया जाता था। लेकिन 11 सितंबर 2001 को हुए वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादियों के हमले के बाद दुनिया की समझ में आया कि आतंकवाद की जड़ में कौन है और यह भी कि आतंकवादी किस सीमा तक जा सकते हैं। इस हमले में विश्व के लगभग हर देश के नागरिकों की जान गई। इसलिए पूरा विश्व आतंकवाद के मुद्दे पर एकजुट हो कर आतंकवादियों के सफाए में जुटने लगा था। ऐसे माहौल में भारत का महत्व स्वीकारते हुए विश्व के तमाम शक्तिशाली देश भारत से गहन बातचीत करने को आगे बढ़े थे। अब भारत को नए सिरे से महौल बनाना होगा।

दूसरी तरफ विहिप के खेमे में राम जन्मभूमि आंदोलन को नए स्वरूप में चलाने और बढ़ाने की योजनाएं बन रही हैं। विहिप के नेतष्त्व में मंथन जारी है। विहिप के अंतर्राष्ट्रीय महासचिव डा. तोगडिया देश के 5.5 लाख गांवों में रामनाम की धूम मचा देना चाहते हैं। अयोध्या में संवाददाताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने अपने आगे की कार्यक्रम की विस्तष्त रूपरेखा बताई है। देश के कुछ औद्योगिक घराने जो भाजपा की आर्थिक नीतियों से नाराज है, विहिप के इस कार्यक्रम को हवा देने में जुटे हैं। उनका छिपा उद्देश्य भाजपा को ‘‘सत्ता से उखाड़ना’’ है। विहिप अगर उनके हाथ में औजार बनने को तैयार है तो उन्हें इससे कोई आपत्ति नहीं है। वैसे भी विहिप का गरमपंथी खेमा आडवाणी जी और वायपेयी जी के ताजा विचारों से सहमत नहीं है। इस खेमे के सिरमौर लोगों का प्रश्न है कि अगर अयोध्या मंदिर का सवाल उठाना देश के हित में नहीं है तो आडवाणी जी ने दस वर्ष पहले राम रथ यात्रा किस उद्देश्य से की थी ? वे पूछते हैं कि तब से अब तक ऐसा क्या हो गया जो हम अपनी दशाब्दियों से पोषित प्राथमिकताओं को भूल जाएं ? देश भर में संघ और भाजपा के समर्पित कार्यकर्ताओं ने जिन सवालों पर भाजपा का जनाधार बढ़ाया था उन सवालों को ही अगर भुला दिया गया तो ये कार्यकर्ता अपने शुभंिचतकों के घर क्या मुंह लेकर जाएंगे ? अगर ये सवाल राष्ट्रहित के नहीं है या बहुसंख्यक हिंदू समाज के हित के नहीं हैं तो फिर भाजपा और दूसरे दलों में अंतर ही क्या रह गया ? फिर कोई भाजपा को समर्थन क्यों दे ?

इन गरमपंथियों को यह तर्क भी स्वीकार्य नहीं कि भारत की विश्व में जो छवि सुधरी थी वह अब बिगड़ गई या अब भारत को अंतर्राष्ट्रीय समर्थन नहीं मिलेगा या भारत अब अपने पुराने एजेंडा पर सुधार का काम नहीं चला पाएगा। विहिप के इस खेमे का कहना है कि कोई भी देश भारत की समस्याएं सुलझाने में रूचि नहीं रखता, चाहे अमरीका ही क्यों न हो। सबके लिए विदेश नीति निर्माण का आधार स्वार्थ और अपने व्यापारिक हितों को पूरा करना होता है। अमरीका ने कुवैत को मदद इसलिए नहीं दी कि वह उसकी ईराक से रक्षा करना चाहता था बल्कि इसलिए दी कि वह इस युद्ध में अपने शस्त्र बेचना चाहता था, ईराक पर नकेल डालना चाहता था और कुवैत के तेल स्रोतों का दोहन करना चाहता था। अफगानिस्तान और पाकिस्तान को लेकर भी अमरीका की ऐसी स्वार्थी नीति है। इसलिए विहिप का यह खेमा भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व की परवाह किए बगैर नई रणनीति और नए कार्यक्रम लेकर हिंदू हित की लड़ाई को आगे बढ़ाना चाहता है। विहिप के इस खेमे को लगता है कि भाजपा ने राजग के साझा एजेंडा का पालन करते हुए अयोध्या में जो संवैधानिक रूप से करना चाहिए था वह कर दिया। अब उसका फर्ज है कि सहयोगी दलों से यह कहते हुए विदा ले कि हम इस सरकार में बने नहीं रह सकते क्योंकि हमारी प्रतिबंद्धता अपनी विचारधारा के प्रति है, कुर्सी के प्रति नहीं। अगर हम अपने चिर प्रतीक्षित उद्देश्यों को पूरा करने के लिए स्वतंत्र नहीं है तो हम इस सरकार से अलग हो जाते हैं। ऐसा करने से भाजपा जनता का खोया हुआ विश्वास पुनः जीत लेगी और तब वह जनता के बीच यह अपील लेकर जा सकती है कि यदि आप हिंदू धर्म का उत्थान चाहते हैं तो भाजपा को पूर्ण बहुमत देकर सरकार में भेजें। उन्हें विश्वास है कि जनता तब भाजपा के साथ खड़ी होगी।

उधर राष्ट्रीय स्वयं संघ में भी इस सवाल पर खेमे बंट गए हैं। एक खेमा कट्टर हिंदुवादी मुद्दे को लेकर आक्रामक राजनीति करना चाहता है ताकि भाजपा का समर्पित वोट बैंक बना रहे जबकि दूसरा खेमा सरकार के साथ मिल कर चलना चाहता है ताकि सरकार के संरक्षण में, संघ की बनाई हुई योजनाओं पर क्रमशः काम चलता रहे और संघ की मानसिकता के लोगों को व्यवस्था के अंदर जमाया जा सके। जिसके दीर्घकालिक लाभ मिलेंगे। दूसरी तरफ संघ से मोहभंग होकर निकल चुके पुराने लोग मानते हैं कि दोहरी बात करना संघ का चरित्र रहा है। वे याद दिलाते हैं कि गौ-रक्षा आंदोलन भी संघ के ऐसे ही दोहरपन के चलते अकाल मष्त्यु को प्राप्त हो गया। उसके बाद देश के साधु समाज में संघ को लेकर बहुत दुख अनुभव किया गया। नतीजतन हिंदू मानसिकता की राजनीति को फिर से सिरे चढ़ने में दो-दशक लग गए। ये लोग यह भी याद दिलाते हैं कि रामजन्मभूमि आंदोलन में संतों का आह्वाहन करने वाले स्वामी वामदेव भाजपा और संघ नेतष्त्व से कितने व्यथित हो गए थे। सब जानते हैं कि स्वामी वामदेव ने अपने सन्यास आश्रम की मर्यादा की परवाह न करते हुए हिंदू हित के लिए रामजन्म भूमि आंदोलन को उठाने में कितनी बड़ी भूमिका निभाई। अपने अंतिम समय में वे कहा करते थे कि भगवान् के साथ जो व्यवहार इन लोगों ने किया है उसका परिणाम अच्छा नहीं होगा।

कुछ भी हो इस राजनीतिक माहौल में सिर्फ भाजपा के ऊपर दोष मढ देने से समस्याओं का हल नहीं निकाला जा सकता। अयोध्या हो या राजनीति का अपराधिकरण, सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार पर नियंत्रण की बात हो या चुनाव प्रक्रिया में सुधार की, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बढ़ते प्रभाव का सवाल हो या ग्रामीण बेरोजगारी दूर करने का, ऐसे सब सवालों पर देश में व्यापक बहस चलनी चाहिए। टीवी चैनलों पर होने वाली सतही बहसों से काम नहीं बनेगा। हर पांच मिनट में कामर्शियल बे्रक लेने वाली ये बहस जनता का मनोरंजन तो कर सकती हैं पर गंभीर समस्याओं के हल नहीं निकाल सकतीं। जरूरत इस बात की है कि देश के बारे में गंभीरता से सोचने वाले नेता ऐसे बहसों में समय निकाल कर शिरकत करें। फिर वो चाहे आडवाणी जी हो या दूसरे दलों के राजनेता। सही और गलत का निर्णय जनता स्वयं कर लेगी। पारस्परिक दोषारोपण की रणनीति से किसी को कुछ नहीं मिलने वाला।

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