Friday, April 26, 2002

जरा सैनिकों की भी तो सोचो

सीमाओं पर सेना का इतने महीनों तक युद्ध की मानसिकता में, बिना युद्ध किए ही तैनात रहना क्या उचित है? यह प्रश्न राजधानी की बैठकों में बार-बार पूछे जा रहे हैं। रक्षा मंत्री का कहना है कि सेना अभी नहीं हटाई जा सकती। गुजरात से लौट कर भी रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडिज ने कहा कि गुजरात की सरकार ही यह तय करेगी कि वहां सेना कब तक तैनात रहे ? उनकी इस बयानबाजी से रक्षा मामलों के विशेषज्ञ खासे परेशान हैं। इनको चिंता इस बात की है कि रक्षामंत्री की इस नीति से सेना पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा। उनका मानना है कि उसकी कार्यकुशलता, मनोबल और मानसिकता तीनों पर इसका बुरा असर होगा।

आंतरिक स्थिति से निपटने के लिए सेना का बुलाया जाना कोई नई बात नहीं है। सैकड़ों बार ऐसा हो चुका है। प्राकृतिक आपदा आए या और कोई संकट तो सेना इसलिए लिए बुलाई जाती है कि उसकी कार्यकुशलता और अनुशासन पुलिस से बेहतर होता है। पर सामाजिक संघर्ष मसलन, जातिगत या सांप्रदायिक दंगों से निपटने के लिए सेना का बुलाया जाना बहुत खतरनाक प्रवृत्ति है। पर इसके लिए केवल रक्षा मंत्री या राजग सरकार दोषी नहीं। पूर्ववर्ती सरकारें भी ऐसा अक्सर करती आई है। सांप्रदायिक दंगे होते ही जनता भी सेना की बुलाने की मांग करती है। गोधरा के हत्या कांड के बाद गुजरात में भड़के सांप्रदायिक दंगों से निपटने के लिए सेना बुलाने में देर हुई या नहीं इसको लेकर देश का मीडिया और विपक्ष कई दिनों तक उत्तेजित रहे। दरअसल, जनता का यह विश्वास है, और यह सही भी है, कि जब सेना कमान संभाल लेगी तो किसी भी जाति या धर्म के लोग क्यों न हों उनकी रक्षा में कोई कोताही नहीं बतरती जाएगी। जबकि राज्यों की पुलिस और अर्धसैनिक बल जनता का विश्वास खो चुके हैं। जनता में यह विश्वास नहीं है कि पुलिस या ये बल न्यायपूर्ण ढंग से उसके साथ बर्ताव करेंगे। इस अविश्वास के ठोस कारण हैं। राज्यों की पुलिस का पिछले तीस-चालिस वर्षों में भारी राजनैतिकरण हो चुका है। इस बात के तमाम प्रमाण हैं कि मुख्यमंत्री का पद प्राप्त करते ही दलों के नेता राज्य की पुलिस में अपनी जाति या अपने दल के समर्थकों की भर्ती शुरू कर देते हैं। थाने पूरी तरह राज्य की राजनीति से नियंत्रित होते हैं। हालत इतनी बिगड़ चुकी है कि एफआईआर दर्ज करवाने में भी आम आदमी को दिक्कत आती है। जिस जाति के नेता का सरकार में दबदबा होता है उस जाति के अपराधियों के विरूद्ध आम जनता की शिकायतें थाने में आसानी से दर्ज नहीं की जातीं। चाहे अपराधी के विरूद्ध कितने ही प्रमाण क्यों न हों। इतना ही नहीं है राजनेता या उनके पाले माफिया गिरोह जब कोई संपत्ति हड़प करना चाहते हैं तो सबसे पहले स्थानीय थानेदार को अपनी तरफ करते हैं। पैसे देकर या राजनैतिक प्रभाव का इस्तेमाल करके। जब एक थानेदार और उसके मातहत पुलिस किसी अपराधी गिरोह या बिगड़े राजनेता को फायदा पहुंचाने के लिए अपराध में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल होगा तो वह प्रशासन करने का नैतिक अधिकार खो देगा। जाहिर है कि दंगों कि उत्तेजना के समय ऐसी पुलिस पर कौन विश्वास करेगा ? इसलिए दंगा होते ही सेना को बुलाने की मांग की जाती है। पर यह खतरनाक
प्रवृत्ति है।

गठिया के रोगी को ऐलोपैथी में दर्द से निजात दिलाने के लिए काॅटीजोन की गोली या इंजेक्शन दिया जाता है। कुछ दिनों बाद इस दवा का असर कम होने लगता है। फिर दवा की मात्रा बढ़ा कर दी जाती है। धीरे-धीरे गठिए का मरीज काॅटीजोन का आदि हो जाता है। अब उसे दूसरी कोई दवा असर नहीं करती। काॅटीजोन देने के बाद भी जब उसकी तकलीफ खत्म नहीं होती तो वह लाचार हो जाता है। शेष जीवन उसे भारी कष्ट में बिताना पड़ता है। सांप्रदायिक दंगों के लिए बार-बार सेना को तलब करना काॅटीजोन की दवा देने के समान है। आज समाज से कट कर रहने के कारण सेना में निष्पक्षता, अनुशासन और कार्यकुशलता बची है। पर जब उसका बार-बार इस तरह दुरूपयोग किया जाएगा तो जाहिर है कि खरबुजे को देख कर खरबुजा रंग बदलेगा ही। अगर सेना में वही बुराई आ गई जो राज्यों की पुलिस में है तो फिर सरकारें सांप्रदायिक दंगों से कैसे निपटेंगी ? तब क्या अहमदाबाद के दंगों को रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र की सेना को बुलाना पड़ेगा ? जिस देश में जातीय और सांप्रदायिक दंगों की स्थिति कभी भी कहीं भी भड़क जाती हो, वहां संयुक्त राष्ट्र की सेना भी आखिर कब तक आती रहेगी ? तब सिवाए अराजकता के और क्या शेष बचेगा ? स्थिति इतनी बुरी हो उसके पहले ही इस समस्या से निपटने का निदान खोजना होगा। यह कहना तो संभव नहीं होगा कि अपने समाज को हम रातो-रात इतना परिष्कृत बना लें कि दंगे हों ही न। पर यह तो संभव है कि राज्यों की पुलिस और अर्धसैनिक बलों को सुधारा जाए। उनके बीच अनुशासन, कार्यकुशलता और समाज के प्रति निष्पक्षता का भाव पैदा किया जाए। यह कोई नया विचार नहीं है। उत्तर प्रदेश में जब पीएससी ने बगावत की थी या जब भी प्रदेशों की पुलिस पर सांप्रदायिक या जातिवादी दंगों में किसी धर्म या जाति का पक्ष लेने का आरोप लगा तब-तब इस समस्या पर गहन चिंतन किया गया। पुलिस विशेषज्ञों ने अनेक समाधान सुझाएं। 1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन ही इसलिए किया था कि पुलिस में आई विकृतियों को दूर करने के उपाया सोचें जा सकें। इस आयोग में अनेक सद्इच्छा रखने वाले अनुभवी व योग्य लोग सदस्य थे। आयोग ने एक सारगभित रिपोर्ट सरकार को सौंपी। पर तब तक दिल्ली की सत्ता जनता पार्टी के हाथ से निकल चुकी थी। दुबारा सत्ता मिली भी पर किसी को इस रिपोर्ट पर अमल करने का ध्यान नहीं आया। यह रिपोर्ट गृह मंत्रालय के रिकार्ड रूम में आज भी धूल खा रही है। चूंकि वर्तमान प्रधानमंत्री, गृहमंत्री व रक्षा मंत्री तीनों ही उस सरकार के मंत्रिमंडल में थे इसलिए कम से कम उन्हें तो इस रिपोर्ट को लागू करने की तरफ कुछ सोचना और करना चाहिए था। पर पता नहीं किन कारणों से उन्होंने अभी तक ऐसा नहीं किया। अब भी क्या देर है? गुजरात में सेना कब तक तैनात रहे इसका फैसला भले ही श्री नरेंन्द्र मोदी व श्री जार्ज फर्नाडिज मिल कर करते रहेें पर यदि भविष्य में सेना को इस तरह के दुरूपयोग से बचाना है तो राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू करके पुलिस बल और अर्धसैनिक बलों की कार्यसंस्कृति को सुधारना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए।

नागरिक क्षेत्र में सेना का दुरूपयोग तो ऐसे प्रयासों से रूक जाएगा पर सीमा पर सेना तैनात करके हमारे सैनिकों और अफसरों के साथ जो व्यवहार किया जा रहा है वह कहीं बड़ा नुकसान न कर बैठे। सेना में युद्ध के जो दस नियम बताए जाते हैं, उसमें पहला है, शत्रु की पहचान और उस पर हमले की मानसिकता। यह परिस्थिति बहुत समय तक बनी नहीं रह सकती। देश में युद्ध का माहौल बनते ही युद्ध करना होता है। अन्यथा न सिर्फ सैनिकों में हताशा फैलती है बल्कि युद्ध जीतने के लिए जैसी मानसिकता चाहिए वह भी नहीं रह पाती। बिना युद्ध के ही सीमा पर तैनात सेना जनता का नैतिक समर्थन भी खो देती है। इस वक्त जो सेना का जमाव सीमा पर है वह बड़ी ही विचित्र स्थिति है। भेजा तो उन्हें युद्ध की मानसिकता से गया था पर काम उनसे चैकीदारी का लिया जा रहा है। यही नहीं सियाचिन जैसी आक्रामक भौगोलिक परिस्थितियों में सेना का इस तरह सावधान की मुद्दा में महीनों खड़ा रहना जवानों की दिमागी और शारीरिक सेहत पर बुरा असर डाल सकता है। रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि यदि हमें पाकिस्तान से युद्ध नहीं लड़ना था तो सेना को यह कवायद कराने की क्या जरूरत थी ? ऐसी कौन सी नई स्थिति पैदा हो गई थी ? ऐसा क्या बदल गया कि युद्ध नहीं किया गया ? अब क्या खतरा है जो सेना को सीमा पर सावधान की मुद्रा में खड़ा कर रखा है ? जहां तक भारत-पाक सीमा से आतंवादियों के घुसने का सवाल है तो यह सर्वविदित है कि आईएसआई के एजेंट वायुवान से पहले नेपाल आते हैं फिर भेष बदल कर नेपाल-भारत सीमा से देश में प्रवेश कर जाते हैं। उनकी जरूरत का असला यहां पहले ही मौजूद होता है।

एक और ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत में सेना में भर्ती किसी अनिवार्यता के तहत नहीं होती। जैसाकि तमाम दूसरे देशों में होता है। मसलन, स्वीट्जरलैंड में हर नागरिक को सैनिक मान कर प्रशिक्षण दिया जाता है और यह प्रशिक्षण उसके जीवनकाल में बार-बार दोहराया जाता है। चाहे वह बैंक का अधिकारी हो, शिक्षक हो, व्यापारी हो या उद्योगपति। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि जरूरत पड़ने पर चाहे जितनी सेना खड़ी की जा सके। अमरीका में राष्ट्रपति के पद पर बैठने वाला व्यक्ति भी सामान्यतः सैनिक प्रशिक्षण ले चुका होता है। जब कि भारत में सेना में भर्ती होना लोगों की इच्छा और विवेक पर निर्भर करता है। देखा यह गया है कि कुछ जातियां या कुछ इलाके के लोग मसलन, गोरखा, जाट, सिक्ख, राजस्थानी आदि ऐसी जातियां समुदाय हैं जिनमें सेना में जाना गौरव की बात समझी जाती है। मर्दानगी की निशानी मानी जाती है। इनमें कई पीढि़यों की परंपरा होती है। पर दूसरी तरफ देश में फैली भारी गरीबी और बेराजगारी से आजिज आ चुके नौजवान सेना की तरफ भागते हैं क्योंकि यहां उन्हें जीवन की वो सभी आवश्यकताएं पूरी होती नजर आती हैं जिनकी उन्हें इच्छा होतीे है। इसलिए सेना में भर्ती का विज्ञापन निकलते ही हजारों नौजवान दौड़ पड़ते हैं। पिछले दिनों इस तरह की अभ्यार्थियों की भीड़ में से साठ नौजवानों का लखनऊ में हुई एक दुर्घटना में अकाल मृत्यु को पा लेना एक दुखद घटना। पर इस दुर्घटना की जांच से जो तथ्य उभर कर सामने आता है वह यह कि बेराजगारी के सताए नौजवान नौकरी पाने की लालच में किसी सीमा तक भी जा सकते हैं। उनकी इस मानसिकता का नाजायज फायदा भी उठाया जाता है। जिस पर हम भविष्य में एक तथ्यपरख लेख लिखेंगे। फिलहाल इतना ही मान लिया जाना चाहिए कि स्वयं सेवी रूप से सेना में भर्ती हुए समाज के इन सपूतों की चिंता करना केवल उनके परिवारों का ही नहीं पूरे देश का कर्तव्य है। क्यांेकि सेना में भर्ती होकर इन नौजवानों ने अपने जीवन को देश की सुरक्षा के लिए दांव पर लगा दिया है। शहादत कभी भी इनका वरण कर सकती है। इनके इस समपर्ण के भरोसे बैठ कर ही हम अपनी सुरक्षा के लिए आश्वस्त हो सकते हैं। इसलिए सेना से जुड़े विषयों पर युद्धकाल में ही नहीं शांतिकाल में भी देश में खुल कर चर्चा होनी चाहिए ताकि सेना अपना काम मुस्तैदी से कर सके।

Friday, April 19, 2002

अमरीकी भारतीयों के बीच आध्यात्मिक नवजागरण क्यों ?

अमरीका में जा बसे भारतीयों की समस्याओं पर पिछले कुछ वर्षों में कई अंग्रेजी फिल्म आई है। जिन्होंने न सिर्फ अमरीका में बसे अप्रवासी भारतीयों को आकर्षित किया है बल्कि भारत में रहने वाले लोगों को भी। क्योंकि इन फिल्मों से उन्हें अपने नातेदारों के जीवन के उस पक्ष का पता चलता है जो वे बिना वहां जाए नहीं जान सकते थे। तब उन्हें समझ में आता है कि, ‘हर जो चीज चमकती है उसको सोना नहीं कहते।इस तरह की फिल्मों के क्रम में हाल ही में एक तमिल अप्रवासी परिवार पर केंद्रित अंग्रेजी फिल्म प्रदर्शन के लिए जारी हुई है। जिसका शीर्षक है, ‘मित्र।हर उस व्यक्ति को जो अमरीका जाना चाहता है यह फिल्म अवश्य देखनी चाहिए। उसे भी जिसके नातेदार अमरीका में रहते हैं। 


अमरीका में जाकर बसने की ललक मध्यम वर्गीय परिवारों के हर आधुनिक युवा या युवती के मन में रहती हैं। जिसको जहां भी, जरा भी संभावना दीखती है वही अमरीका पहुंच जाता है। आम भारतीय परिवारों में अक्सर यह धारणा रहती हैं कि ये  युवा डाॅलर कमाने के लालच में अमरीका जाते हैं। इसमें शक नहीं कि भौतिक उन्नति के शिखर पर बैठे अमरीका में आम आदमी का भी जीवन-स्तर इतना ऊंचा है कि भारत के मध्यमवर्गीय परिवार उसके सामने निर्धन नजर आते हैं। पर ऐसा नहीं है कि अमरीका जाते ही सबकी लाॅटरी खुल जाती हो। अमरीका जाकर बसने वाले युवक युवतियों को शुरू के वर्षों में कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। रात-दिन काम करना पड़ता है। कड़ी मेहनत का यह सिलसिला वर्षों चलता है। यूं कार, किराए का फ्लैट और आधुनिक जीवन की सुख-सुविधाएं तो इन युवाओं को जाते ही मुहैया हो जाती हैं। पर उसकी कीमत भारतीय जीवन स्तर के चाहे कितनी भी ज्यादा क्यों न हो, अमरीकी जीवन स्तर के मुकाबले कुछ नहीं होती है। वहां इस बात का महत्व नहीं है कि आपके पास एअरकंडिशन कार और फ्लैट है। वहां तो यह देखा जाता है कि आपका फ्लैट या घर किस क्षेत्र में है। आपकी कार का माॅडल कौन सा है। आपके कपड़े किस मशहूर स्टोर के हैं। जब अमरीका के ऐसे उपभोक्तावादी समाज से इन युवाओं का सामना होता है तब अचानक इन्हें  लगता है कि जिन चीजों को पाने की हसरत लेकर वे अमरीका आए थे, उन्हें इतनी जल्दी पाकर भी वे निर्धन ही रहे। 


यहीं से शुरू होता है एक अंधी दौड़ का सिलसिला। जिसमें इतने वर्ष गुजर जाते हैं कि जब तक अमरीकी समाज में सफल माने जाने वाले जीवन स्तर की संपन्नता हासिल होती है तब तक उनकी जवानी 15-20 वर्ष पीछे छूट चुकी होती है। अब उनके पास रहने को खासा बड़ा घर तो होता है। नई आलिशान कारें भी होती हैं। व्यवसाय में उनकी अच्छी प्रतिष्ठा होती है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रोजाना भाग-दौड़ की जिंदगी भी होती है। बैंको में करोड़ों रूपया जमा होता है। उनके बच्चे बढि़या और महंगे विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे होते हैं। यह सब होता है पर मन फिर भी रीता रहता है। पैसा कमाने की धुन में एकदूसरे के लिए समय ही नहीं बचता। बच्चे अमरीकी संस्कृति के प्रभाव में आजाद ख्यालों के हो जाते हैं। अपने दैनिक जीवन में माता-पिता की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं करते। उनके भारतीय संस्कारों और जीवनमूल्यों की उपेक्षा करते हुए तथाकथित आधुनिक व स्वच्छंद जीवन जीने लगते हैं। जिससे घर में तनाव पैदा होता है। तब इस पहली पीढ़ी के दंपत्ति को अपने वतन की याद आती है। मातृ भूमि के प्रति प्रेम उमड़ता है। घर-गांव में छूट गए भाई-बहन, नातेदार व मोहल्ले व स्कूल के दोस्तों की याद सताती है। घर लौट जाने को मन करता है। उनकी प्रबल इच्छा होती है कि अपने वतन की सांस्कृतिक धरोहर इन बच्चों को दिखाई जाए। इसलिए उन्हें जबरदस्ती तीर्थाटन कराने भारत लाया जाता है। इस उम्मीद में कि पश्चिमी समाज के जो अवांछित तत्व उनके परिवारों में घुस आए हैं उन्हें बाहर निकाला जा सके। इस प्रयास में किसी को सफलता मिलती है तो ज्यादातर को विफलता। 


ऐसा नहीं है कि अमरीका में बसे सभी भारतीय परिवार इस समस्या से जूझ रहे हैं। प्रायः ऐसे परिवार, जिनकी अमरीका आकर बसने वाली पहली पीढ़ी कम शिक्षित थी उन्हें ही इस समस्या से ज्यादा जूझना पड़ रहा है। क्योंकि इस पीढ़ी ने अपनी सारी ऊर्जा काराबोर जमाने और धन कमाने में लगा दी। परिवार के सदस्यों की भावनाओं का कोई ख्याल ही नहीं रखा। जबकि वे परिवार जिनकी पहली पीढ़ी प्रोफेशनल्स की थी उन्होंने इस समस्या का हल खोज लिया। उन्होंने अमरीकी समाज के तनावों से निपटने के लिए भारतीय अध्यात्म की शरण ली । भारत से अमरीका घूमने जाने वाले उन लोगों को जो यहां आधुनिकरण के नाम पर अमरीकी संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं, यह सब देख कर बहुत अचंभा होता है। उनकी समझ में नहीं आता कि भौतिक संपन्नता की इस ऊंचाई पर पहंुच कर इन लोगों को अध्यात्म की शरण लेने की क्या मजबूरी आ पड़ी


दरअसल अमरीका आकर पहले 10-15 वर्षों में, संघर्ष तो इन प्रोफेशनल्स ने भी वैसा ही किया जैसा कम पढ़े-लिखे दूसरे भारतीय परिवारों ने किया। पर इन्होंने धन कमाने के साथ ही ज्ञान अर्जन पर भी बहुत ध्यान दिया। अपने बच्चों को अमरीकी संस्कृति में डूबने से पहले ही उन्हें भारतीय संस्कृति और अध्यात्म के सबक सिखाने शुरू कर दिए। जहां भारत में धर्म की शिक्षा का, धर्मनिरपेक्षता के नाम पर, मखौल उड़ाया जा रहा है, वहीं विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में सबसे आगे बढ़े देश अमरीका में बसे भारत के मेधावी वैज्ञानिक और प्रोफेशनल्स गीता, उपनिषद, वेद, पुराण और दूसरे धर्म ग्रंथों का अध्ययन बड़ी गंभीरता से कर रहे हैं। ये लोग अपने बच्चों को वैदिक मंत्रों के उच्चारण और संस्कृत की शिक्षा दे रहे हैं। इन बच्चों के लिए आध्यात्मिक ज्ञान के अल्पकालिक कोर्स चला रहे हैं। हार्वड और एमआईटी जैसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त विश्वविद्यालयों में शिक्षा पाने वाले अनेक भारतीय छात्र नियमित ध्यान और जप करते हैं और धर्मग्रंथों का अध्ययन करते हैं। उनका कहना है कि ऐसा करने से उन्हें बहुत शक्ति मिलती है। वे अपने काम में मन को एकाग्रता से लगा पाते हैं। उनमें सही और गलत को तोलने की समझ पैदा होती है। उन्हें अपने अतीत पर गर्व होता है। उन्हें अमरीकी समाज की सारहीन बातें आकर्षित नहीं कर पाती। इसके साथ ही वे जानते हैं कि इससे उनके माता-पिता को भी बहुत सुख की अनुभूति होती है। ये युवा बहुत संजीदगी के साथ भारतीय संस्कृति को समझने की ईमानदार कोशिश करते हैं। मौका मिलते ही भारत घूमने आते हैं। यहां आकर इनका ध्यान प्रशासनिक अव्यवस्था, गंदगी या दूसरी बुराईयों की तरफ नहीं जाता। जाता भी है तो उसे ये महत्व नहीं देते। ये तो भारतीय समाज के गुणों का अध्ययन करते है और उनसे लाभांवित होते हैं। वहां जाकर ये सब युवा भारत के सांस्कृतिक राजदूत बन जाते हैं। वे साम्प्रदायिक और पोंगापंथी नहीं बनते, बल्कि विवेकपूर्ण और ज्यादा समझदार हो जाते हैं। 


दूसरी तरफ हम भारत में रह कर भी अपने सांस्कृतिक मूल्यों को भूलते जा रहे हैं। आधुनिक बनने और दीखने की ललक ने हमारी बुद्धि पर पर्दा डाल दिया है। हम बिना विचारे पश्चिम के कचड़े को गले लगाते जा रहे हैं। इससे और निराशा फैल रही है। परिवार टूटने लगे हैं। परिवारों के बीच मन-मुटाव , तनाव और विघटन बढ़ रहा है। संजीव नंन्दा, जेसिका लाल, नताशा सिंह, विकास यादव जैसे दुखद कांड हो रहे हैं। पर फिर भी तथाकथित आधुनिकतावादी जागने को तैयार नहीं हैं। यह देश का दुर्भाग्य ही है कि भारत के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक नवजागरण का एजंडा लेकर सत्ता में आई भाजपा अनेक कारणों से इस दिशा में कुछ विशेष योगदान नहीं दे पाई। ऐसा नहीं है कि इस काम को करने का एकाधिकार भाजपा का ही हो। जब भाजपा सत्ता में नहीं थी तब भी भारत के ऋषियों और मनीषियों ने अपनी सांस्कृतिक धरोहर को सदियों से सहेज कर रखा था। पर राज व्यवस्था के संरक्षण के अभाव में इसका क्रमशः लोप होता गया। आयातित धर्मों और संस्कृतियों ने यहां अपने पैर जमा लिए। बुद्धिमानी इसी बात में है कि अपने समाज और देश की चिंता करने वाले किसी राजनैतिक दल की परवाह किए बगैर जो कुछ राष्ट्रहित में हो उसे करते जाएं। इससे राजनैतिक लाभ या घाटा किसे होता है, यह हमारी चिंता का विषय नहीं होना चाहिए।




Friday, April 12, 2002

भाजपा मीडिया से नाराज क्यों है ?

भाजपा वाले मीडिया से बहुत नाराज हैं। उनकी नाराजगी का कारण है गुजरात की सांप्रदायिक हिंसा पर किया गया मीडिया कवरेज। उन्हें शिकायत है कि यह कवरेज पक्षपातपूर्ण था। इससे देश में भ्रामक सूचना फैली और उन्माद भड़का। भाजपा के मीडियाकारों ने 94 पेज की एक विस्तृत रिपोर्ट छपवा कर बंटवाई है। जिसमें विशेषकर स्टार न्यूज चैनल व अंग्रजी अखबारों पर असंतुलित कवरेज करने का आरोप लगाया गया है। अनेक उदाहरणों से यह सिद्ध करने की कोशिश की गई है कि मीडिया ने श्री नरेंद्र मोदी की सरकार को नाहक कटघरे में खड़ा किया। गोधरा के बाद की घटनाओं को सरकारी आतंकवाद बताया। श्री मोदी सरकार पर गुजरात से मुसलमानों की सफाई करवाने का आरोप लगाया। पूरे मामले को इस तरह पेश किया मानो गोधरा के हत्याकांड के बाद जो लोग भी मरे वे सब मुसलमान थे। जबकि आंकड़े देकर यह सिद्ध किया गया कि मरने वालों में दोनों समुदायों के लोग थे। मुसलमान कुछ ज्यादा थे। इस रिपोर्ट को जारी करने के लिए भाजपा के दो राज्य सभा सांसदों श्री बलवीर पुंज व श्री दीनानाथ मिश्रा ने दिल्ली में अखबारों और टीवी वालों की एक गोष्ठी बुलाई। जिसमें राजधानी के कई प्रमुख पत्रकारों ने हिस्सा लिया। इस बहस में कई रोचक बातें सामने आईं।
यह सही है कि अंग्रेेजी मीडिया धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अल्पसंख्यकों का पक्ष लेता आया है। जब कभी किसी ईसाई या मुसलमान के साथ कोई दुर्घटना हुई तो अंग्रेजी मीडिया ने उसे बढ़ा-चढ़ा कर उछाला। पर जब वैसी ही दुर्घटना हिंदुओं के साथ हुई तो उसे सामान्य घटना की तरह पेश किया। इसके तमाम उदाहरण इस बहस के दौरान प्रस्तुत किए गए। इसीलिए हिंदू समुदाय को लगता है कि अंग्रेजी मीडिया उनके साथ न्याय नहीं करता। पर टाइम्स आफ इंडिया के संपादक श्री दिलीप पडगांवकर का जवाब था कि उनके अखबार के 90 फीसदी पाठक हिंदू हैं। अगर उन्हें भी ऐसा लगता तो वे ये अखबार न पढ़ते। चूंकि उन्होंने ऐसा नहीं किया इसलिए उनका मानना था कि यह आरोप बेबुनियाद है। अलबत्ता दूसरे कई पत्रकार इससे सहमत नहीं थे।

भाजपा से जुड़े रहने के कारण पत्रकार से सांसद बना दिए गए श्री बलबीर पुंज ने पत्रकारों को हिदायत दी कि वे निष्पक्ष पत्रकारिता करें किंतु तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश न करें। उन्होंने गुजरात की कवरेज में हिंसा दिखाए जाने की भी आलोचना की। उनका तर्क था कि ऐसी टीवी पत्रकारिता से हिंसा और उन्माद भड़कता है।

उनकी इस टिप्पणी पर ऐतराज करते हुए इस काॅलम के लेखक ने यह बात रखी कि 1990 में जब देश में टीवी चैनल नहीं आए थे। केवल सरकारी नियंत्रण में दूरदर्शन ही था। उस समय हमने कालचक्र वीडियो मैंगजीन के तीसरे अंक में अयोध्या में कार सेवकों पर हुए गोली कांड की जो रिपोर्ट तैयार की थी उसका भाजपा ने खूब लाभ उठाया था। कालचक्र के इस अंक की वीडियो प्रतियां पूरे भारत में दिखा कर अपने पक्ष में जनमत तैयार किया। तब भाजपा के विचारकों को इस कैसेट में कार सेवकों पर चली गोलियां और बहता खून दिखाना नहीं खला था। पर जब गुजरात में हो रही हिंसा का टीवी चैनलों पर प्रसारण हुआ तो अचानक भाजपा को लगने लगा कि यह ठीक नहीं है। दरअसल भाजपा ही नहीं हर राजनैतिक दल यह चाहता है कि मीडिया उसका भोंपू बन कर रहे। पत्रकार उसका प्रशस्तिगान करते रहें। जो पत्रकार ऐसा करते हैं उन्हें राज्य सभा में भेजा जाता है। उन्हें दूरदर्शन पर भौंड़े कार्यक्रम प्रस्तुत करने के ठेके देकर या दूसरे चैनलों पर काम दिलवाकर करोड़ों रूपए साल की आमदनी कराई जाती है। चाहे दूरदर्शन का भट्टा ही क्यों न बैठ जाए। ऐसे पत्रकारों को तमाम तरह के फायदे पहुंचा कर उपकृत किया जाता है। जो पत्रकार सरकार की गलत नीतियों की आलोचना करते हैं उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है। पर्दे के पीछे से दबाव डलवा कर उन्हें मीडिया की मुख्यधारा से अलग करवा दिया जाता है। उनके काम के रास्ते में रोड़े अटकाए जाते हैं। ऐसा पहले भी होता आया है। मसलन, आपातकाल के दौरान जो हुआ उसकी आज तक आलोचना की जाती है। पर महत्वपूर्ण बात यह है कि पत्रकारों को भ्रष्ट करने में या उनकी आवाज नियंत्रित करने में भाजपा ने पिछले सब रिकार्ड तोड़ दिए हैं।

पिछले चार वर्षों के अपने शासन के दौरान भाजपा ने तमाम फायदे पहुंचा कर कुछ बडे़ मीडिया मालिकों को इस तरह मैनेज कर रखा था कि विरोध के स्वर स्वतः ही दबा दिए जाते थे। यह स्थिति आपातकाल से भी भयंकर थी। पर अब ऐसा नहीं हो पा रहा है। मीडिया का रूख वाकई बदल गया है। हाल में हुए विधानसभा चुनावों और दिल्ली नगर-निगम के चुनावों के बाद भाजपा का पतन होता सबको साफ दिखाई दे रहा है। वैसे भी उगते सूरज को सलाम और डूबते को लात मारने की प्रथा रही है। भाजपा से मीडिया का हनीमून पूरा हुआ। इसीलिए भाजपा के मीडिया मैनेजर हैरान हैं। पर यह कोई नई बात नहीं। हर नई सरकार के कार्यकाल का पूर्वाद्ध मीडिया से जुगलबंदी का होता है और उत्तरार्द्ध तकरार का। अभी तो यह आगाज है, जैसे-जैसे भाजपा के शासन का अंत निकट आता जाएगा वे सभी लोग जो अब तक भाजपा के शासन में मलाई खाते रहे, बढ़-चढ़ कर भाजपाईयों के घोटाले छापेंगे। अपनी विश्वसनीयता को बचाने के लिए ऐसा करना उनके लिए मजबूरी होगा। तब भाजपा और भी छटपटाएगी। जरूरत इस बात की थी कि बजाए चाटुकार और भोंपू किस्म के लोगों को रेवड़ी बांटने के भाजपा अपने शासनकाल में कम से कम दूरदर्शन पर तो ऐसे सवालों पर बहस शुरू करवाती जिनका इस राष्ट्र के निर्माण में भारी महत्व है। देश के सैकड़ों उन लोगों को अपनी बात कहने का मौका देती जिन्होंने अपने आचरण से राष्ट्र और समाज के प्रति अपने समर्पण के झंडे गाड़े हैं। माना कि साझी सरकार होने के नाते भाजपा कई मामलों में कड़े कदम नहीं उठा सकती थी। पर तकलीफ तो इस बाती की है कि जो कर सकती थी वह भी नहीं किया। इसीलिए आज पिट रही है और हर गांव-गली में आलोचना का शिकार बन रही है। यह बोध हमें आज उसके पतन के दौर में अचानक नहीं हुआ। हमने तो इस काॅलम में ही पिछले चार वर्षों में बार-बार भाजपा के कई अच्छे कामों का समर्थन और गलत नीतियों की आलोचना करते हुए इस तरह के तमाम सुझाव रखे थे जिनसे उसकी छवि बन सकती थी। पर सत्ता के मद में बैठे लोग ’निंदक नियरे’ नहीं रखना चाहते।

जहां तक भाजपा से जुड़े पत्रकारों का यह आरोप है कि गुजरात का कवरेज करने वाले कुछ पत्रकारों ने तथ्यों को दबाया या तोड़-मरोड़ कर पेश किया तो उन भाजपाई पत्रकारों से कोई यह प्रश्न भी पूछ सकता है कि क्या उन्होंने अतीत में ऐसा ही नहीं किया ? हवाला कांड के दौरान भाजपा से जुड़े पत्रकारों ने जिस तरह महत्वपूर्ण खबरों को दबाया या तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत किया उसके तमाम उदाहरण हमारे पास सुरक्षित हैं। इसलिए उनके मुख से यह सुनना कि पत्रकारों को किसी राजनैतिक दल का पक्ष लिए बिना निष्पक्ष पत्रकारिता करनी चाहिए और तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना नहीं चाहिए, कुछ अटपटा लगता है।

इसी गोष्ठी में बोलते हुए संघ से जुड़े विचारक श्री देवेन्द्र स्वरूप अग्रवाल ने पत्रकारों से अभियान न चलाने की अपील की। उनकी सलाह थी कि पत्रकार तथ्यों को प्रस्तुत करें पर किसी राजनैतिक दल के हाथ में हथियार बन कर उसका अभियान न चलाएं। इस पर टीवी से जुड़े एक युवा पत्रकार ने ध्यान दिलाया कि रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान उत्तर प्रदेश के एक प्रमुख दैनिक ने बढ़चढ़ कर श्री मुलायम सिंह यादव की सरकार के खिलाफ भाजपा का अभियान चलाया था। श्री अग्रवाल की सलाह सराहनीय है। पर क्या यह सच नहीं है कि भाजपा के मौजूदा केंद्रीय मंत्री श्री अरूण शौरी ने इंडियन एक्सप्रेस के संपादन के दौरान लगातार ढाई वर्ष तक बोफोर्स का अभियान चलाया था ? समाज या राष्ट्रहित के किसी मुद्दे पर अभियान चलाना कोई गलत बात नहीं है। पर तकलीफ तब होती है जब अभियान चलाने वाले, मुद्दे का चयन भी अपने राजनैतिक समीकरण तय करने के बाद करते हैं। जिस सवाल पर वे एक दल का विरोध करने में आसमान सिर पर उठा लेते हैं वैसा ही सवाल जब उनके रहनुमा राजनैतिक दल के बारे में उठता है तो चुप्पी साध लेते हैं। राजनीति में जाकर अगर श्री शौरी ऐसा करते तो स्वीकार्य था क्यांेकि दल के भीतर रहने पर स्वतंत्रता की सीमाएं बंध जाती है। पर उन्होंने तो पत्रकार रहते हुए ऐसा किया। विडंबना ये कि श्रेष्ठ पत्रकारिता के एवार्ड या भारत के सर्वोच्च अलंकरण भी उन्हीं पत्रकारों को दिए जाते हैं जो किसी दल विशेष के हित में काम करते हों। निष्पक्ष पत्रकारिता करने का उपदेश तो सब देते हैं, पर ऐसे पत्रकार किसी को भी फूटी आंख नहीं सुहाते।

यदि भाजपा से जुड़े पत्रकार और विचारक वास्तव में मीडिया की भूमिका को लेकर चिंतित हैं तो यह स्वस्थ संकेत हैं। आवश्यकता इस बात की है कि इस सवाल पर दूरदर्शन पर व सार्वजनिक मंचों पर खुली बहस आयोजित की जाएं। सबको अपनी बात कहने का अवसर मिले। वरना यह प्रयास भी केवल चारण और भाट परंपरा में सिमट कर रह जाएंगा। मीडिया ही क्यों देश के सामने दूसरे भी कई बड़े सवाल यक्ष प्रश्न बन कर खड़े हैं। अगर भाजपा का नेतृत्व वाकई देश की ंिचंता करता है तो उसे इन प्रश्नों का हल सार्वजनिक मंचों पर खोजना चाहिए। चाटुकारों की गोपनीय समितियों में नहीं, जहां सुझाव भी निहित स्वार्थ मन में रख कर दिए जाते हैं। अगर भाजपा को लगने लगा है कि एक बार सत्ता हाथ से चली गई तो धर्मनिरपेक्षवादी उसके लिए कोई मंच खाली नहीं छोड़ेंगे, तब तो यह और भी जरूरी है कि जो मुद्दे भाजपा को शुरू से प्रिय रहे हैं उन पर वह जनसंचार माध्यमों पर मुक्त बहस करवा ले। इसका उसे बेहद लाभ मिलेगा, अब न सही तो भविष्य में, बशर्ते भाजपाई अब भी तंद्रा से जागने को तैयार हों।

Friday, April 5, 2002

हैदराबाद में हुआ रंग में भंग


होली के रंगों के कारण हैदराबाद के 50 लोगों की आंखों की रोशनी चली गई। इनमें से कुछ के स्थायी रूप से अंधा हो जाने की संभावना है। होली के रंग खेलने के 24 घंटे के भीतर ये लोग स्थानीय अस्पतालों की ओर दौड़ने लगे। आंखों के डाक्टरों का कहना है कि रंगों में मिले रासायन इन लोगों की आंखों के भीतर रेटिना तक पहुंच गए और उसे भारी नुकसान पहुंचा दिया। चूंकि इस रसायन का असर फौरन नहीं होता, धीरे-धीरे होता है इसलिए होली खेलते वक्त इसका पता नहीं चला। रात को सो कर जब ये लोग अगली सुबह उठे तो इनकी जिंदगी में अंधेरा छा गया। इन विपत्ती के मारों में कुछ बच्चे भी हैं। जो अब शायद सारी जिंदगी दुनिया नहीं देख पाएंगे। इस तरह इन बेचारों के रंग में भंग पड़ गई। ये कोई अकेला हादसा नहीं है। कृत्रिम जीवन की ओर तेजी की ओर बढ़ते हमारे कदम हमें हर रोज इसी तरह मौत की खाई में धकेलते जा रहे हैं। इसके अनेक उदाहरण सामने हैं।
पिछले दिनों दिल्ली के मशहूर नया बजार के एक अनाज के बहुत बड़े आढ़ती अपने कृषि फार्म पर ले गए। दिल्ली-सोनीपत राजमार्ग के पास, जमुना के किनारे, 400 एकड़ का यह हरा-भरा कृषि फार्म है। सेठ जी ने बड़े उत्साह से अपना फार्म घुमाया और वहां हो रही विभिन्न किस्म की खेती की जानकारी दी। जब वे लौटने लगे तो अपने फार्म मैनेजर को हिदायत दी कि बिना फर्टिलाइजर वाले खेत से पैदा हुआ एक बोरी चना उनकी गाड़ी में लदवा दे क्योंकि उनके घर पर चने का स्टाॅक समाप्त हो गया था। चैंक कर जब उनसे तहकीकात की तो पता चला कि ज्यादा ऊपज के लालच में सभी बड़े किसान फर्टिलाइजर और कीटनाशक दवाओं का खुलकर प्रयोग करते हैं किंतु निजी इस्तेमाल के लिए बिना इन रासायनों की खेती की ऊपज का ही प्रयोग करते है। यानी अपने घर के इस्तेमाल के लिए जो अनाज, दालें या सब्जियां उगवाते हैं उसमें सिर्फ गोबर की खाद ही डालते हैं।
वृंदावन के मशहूर श्रीबांके बिहारी मंदिर की गली के सामने भल्ले, पेड़े और लस्सी की कई दुकानें हैं। जिनमें देश भर से आए दर्शनार्थियों की भीड़ लगी रहती है। इन दुकानों पर पेड़े और लस्सी का स्वाद चख चुके लोगों में देश के मौजूदा प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर फिल्मी सितारे शम्मी कपूर तक शामिल हैं। वृंदावनवासी कहते हैं कि लोग बिहारी जी के दर्शन करने कम, लस्सी पीने और पेड़े खाने ज्यादा आते हैं। पर पिछले दिनों दुकानों की इसी लाइन  में काफी समय से चल रही पेड़े की एक बड़ी दुकान बंद हो गई। उसकी जगह दुकान मालिक ने भगवान के पोशाक और श्रंृगार की दुकान खोल ली। कारण पूछने पर संकोच के साथ बताया कि पिछले काफी महीनों से रासायनिक रूप से तैयार नकली दूध और मावा बाजार में आ रहा है। जिसमें डिटरजेंट पाउडर, यूरिया, तेल व इनफेंट मिल्क पाउडर मिला होता है। वह नहीं चाहता था कि तीर्थ यात्रियों को ऐसी जहरीली चीजें पिलवाकर पाप कमाए, लिहाजा उसने धंध बदल दिया। उधर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शहर मुजफ्फर नगर से एक परिचित का लगातार फोन आ रहा है कि हम किसी टीवी चैनल की न्यूज टीम को मुजफ्फर नगर भेज दें तो वे इस तरह के रासायनिक दूध की तमाम फैक्ट्रियों की फिल्मिंग करवा देंगे। इनका कहना है कि दिल्ली को भेजे जा रहे दूध के टंैकरों में बड़ी मात्रा में इस तरह का नकली दूध भेजा जा रहा है। इस दूध को तैयार करने में लागत कम आती है और मुनाफा ज्यादा होता है। सबसे बड़ी बात यह कि बिना गाय-भैस की परवरिश किए ही यह दूध तैयार हो जाता है। हर्र लगे न फिटकरी और रंग चोखा ही चोखा। जनता जाए भाड़ में या मरे अस्पताल में। प्रशासन को सब पता है पर जेब अगर गर्म होती रहे तो इंसानी जिंदगियों को ठंडा होने दो, किसी को क्या फर्क पड़ता है ?
पिछले दिनों बैंडमिंटन के विश्व चैम्पियन फुलैला गोपीनाथ ने ठंडे शीतल पेयों के विज्ञापन में हिस्सा न लेने का फैसला करके एक उदाहरण प्रस्तुत किया था। इस नौजवान ने करोड़ों रूपए के मुनाफे और टीवी चैनलों पर मिलने वाली लोकप्रियता को ठोकर मार कर जनहित में यह कदम उठाया था। श्री गोपीनाथ का कहना था कि ये शीतल पेय स्वास्थ के लिए हानिकारक हैं क्योंकि ये सिर्फ रासायनिक पदार्थों से बने होते हैं। श्री गोपीनाथ को इस बात से बेहद तकलीफ है किइन शीतल पेयों की आक्रामक मार्केटिंग ने स्वास्थ्यवद्धक पेय जैसे नारियल का पानी, नींबू की शिकंजी, छाछ, फलों का रस और ऐसे दूसरे प्राकृतिक पेयों को पीछे धकेल दिया है। दुर्भाग्य की बात यह है कि न तो सुश्री सुषमा स्वराज को यह सूझा कि फुलैला गोपीनाथ को लेकर इन प्राकृतिक पेयों पर आधारित एक विज्ञापन जनहित में तैयार करवाएं और उसे दूरदर्शन पर प्रसारित करें और न ही शीतल पेयों के विज्ञापनों की दौड़ में जुटे फिल्मी सितारे अमिताभ बच्चन, सलमान खान, शाहरूख खान व ऋत्विक रोशन ने ही ठिठक कर कुछ सोचना गवारा किया और न हीं क्रिकेट सम्राट सचिन तेन्दुलकर ने। ये सब धन के लालच में देश की जनता के हितों की उपेक्षा कर रहे हैं।
उत्तर भारत में आजकल मौसम बदल रहा है। खाल सूखने लगी है और जगह-जगह से फट भी जाती है। यह स्वभाविक प्रक्रिया है। इसका इलाज भी प्रकृति ने दे रखा है। सरसों, नारियल, तिल या जैतून के तेल से मालिश करने पर अपनी त्वचा की रक्षा की जा सकती है। इस तरह पूरे परिवार की आवश्यकता का तेल जितने पैसे में आएगा उतने पैसे में कोल्ड क्रीम की एक छोटी सी शीशी आती है जो दो हफ्ते भी नहीं चलती। पूरे शरीर पर लेपो तो एक दिन भी नहीं चलेगी। इस क्रीम से चेहरे पर कुछ देर चमक भले ही आ जाती हो, पर त्वचा को स्थायी खुराक नहीं मिलती। इतना ही नहीं विभिन्न रासायनिक पदार्थों से बनी ये क्रीम अक्सर त्वचा को नुकसान पहुंचा देती हैं। लाल चकत्ते उभर आते हैं या दाने या फिर त्वचा का रंग ही काला पड़ जाता है। पर इन क्रीमों का विज्ञापन यही दिखाता है कि ये आपको गोरा और तरोताजा बना देती है। हम रोज छलेे जाते हैं पर फिर भी सचेत नहीं होते। बाजार की शक्तियों के प्रवाह में बहे चले जाते हैं। किसी भी अस्पताल के चर्मरोग विभाग में चले जाइए, आप पाएंगे कि ज्यादातर लोग सौंदर्य प्रसाधनों या सिंथैटिक कपड़ों के कारण चर्मरोग के शिकार हुए। पर कोई भी टीवी चैनल इस पर चर्चा नहीं करना चाहता। हम परंपराओं से बिना समझे ही घृणा करते हैं। अंधे होकर नए के पीछे भागते हैं। विज्ञापनों से दिग्भ्रमित हो जाते हैं। जब इस अंधी दौड़ से होने वाले नुकसान का पता चलता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
आजकल देश के महानगरों की बड़ी किताबों की दुकानों पर अंग्रजी की नई एक किताब आई है। जिसका शीर्षक कुछ इस तरह है,‘आधुनिक औषधी का उत्थान व पतनइस पुस्तक में दुनियां भर में ऐलोपैथी की दवाओं के इस सदी में हुए भारी उत्थान और सदी के अंत तक आए पतन की दास्तान है। पर भारत में हर गांव और कस्बे तक में ये दवाएं धड़ल्ले से डाक्टरों द्वारा दी और मरीजों द्वारा ली जा रही है। इन दवाओं का कारोबार अरबों रूपए का है। विडंबना देखिए कि जिन देशों ने इन दवाओं को ईजाद किया उन्हीं पश्चिमी देशों में इनकी लोकप्रियता धरातल पर आ चुकी है। आयुर्वेद, होम्योपैथी, नेचुरोपैथी, एक्यूपंचर व योग और ध्यान से अमरीका और यूरोप के देशों में ज्यादातर बीमारियों का इलाज किया जा रहा है। इन पारंपरिक दवा पद्धतियों की लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही है। जबकि हम अपनी दादी और नानी के ज्ञान और अनुभव की उपेक्षा कर आधुनिक बनने की फिराक में लगातार आधुनिक दवा कंपनियों के मकड़जाल में फंसते जा रहे हैं। इस देश में 70 फीसदी बीमारियां पीने का शुद्ध जल न मिलने के कारण होती है। यदि पीने का साफ जल हरेक को मुहैया हो जाए तो 70 फीसदी भारतीय बीमार ही नहीं पड़ेंगे। न तो बड़े-बड़े अस्पतालों और मशीनों की जरूरत पड़ेगी और न ही बड़ी दवा कंपनियों को आम आदमी की जेब पर डाका डालने का मौका ही मिलेगा। बशर्ते देश के हुक्मरान सदियों पुराने इस ज्ञान को आगे बढ़ाने में दिलचस्पी लें।
उधर जापान स्थित संयुक्त राष्ट्र विश्विद्यालय ने शोध करके यह सिद्ध कर दिया है कि भारत और दूसरे एशियाई देशों के घरों में रोज पकने वाली साधारण रोटी दुनिया की सर्वाधिक पौष्टिक रोटी है। जबकि अनेक रासायनिक पदार्थों के मिश्रण से व मैदा से बनी डबलरोटी हमारे पेट के लिए बहुत नुकसानदेह है। पर विडंबना देखिए कि अब संपन्न ही नहीं गरीब आदमी भी डबलरोटी या पाव खाकर जी रहा है। जी ही नहीं रहा बल्कि अपने अबोध बच्चों को भी अज्ञानतावश यही बेतुकी खुराक दे रहा है।
आज पूरी दुनिया में यह बात स्थापित हो चुकी है कि खान-पान और जीवनचर्या में जीतना ज्यादा प्राकृतिक और पारंपरिक रहेंगे उतने ही स्वस्थ और सुंदर बनेंगे। इसलिए हर देश के हुक्मारान, धनी लोग और जागरूक लोग अब तेजी से प्राकृतिक और पारंपरिक जीवन शैली  अपनाते जा रहे हैं जबकि शेष दुनिया को आधुनिकता के नाम पर रासायनिक और कृत्रिम जीवन शैली की ओर धकेलते जा रहे हैं। दूसरे देशों की बात छोड़ दंे पर हमारे देश में तो हर आम आदमी स्वस्थ रहने का यह ज्ञान अपनी जन्मघुट्टी के साथ पीता आया है। पर आज हम सब भी बाजार की शक्तियों के चंगुल में फंस कर अपनी जड़ों से उखड़ते जा रहे हैं। लुट रहे हैं, बीमार पड़ रहे हैं और दुख पा रहे हैं। हैदराबाद में होली के रंगों में मिले रासायनिक पदार्थों से लोगों का अंधा होना खतरे की घंटी है। टेसू के रंग और प्राकृतिक वस्तुओं से बने अबीर की जगह नए रंगों ने ले ली है। अगर हम जानबूझकर इन घंटियों की आवाज न सुने या बहरे बनने का नाटक करें तो दोष बाजार की शक्तियों या हुक्मरानों का नहीं, खुद हमारा है। इन सवालों को बार-बार उठाते रहने की जरूरत है। कुछ लोगों का तो दिमाग अवश्य पलटेगा। तभी सबके हित की बात आगे बढ़ेगी।