Friday, April 26, 2002

जरा सैनिकों की भी तो सोचो

सीमाओं पर सेना का इतने महीनों तक युद्ध की मानसिकता में, बिना युद्ध किए ही तैनात रहना क्या उचित है? यह प्रश्न राजधानी की बैठकों में बार-बार पूछे जा रहे हैं। रक्षा मंत्री का कहना है कि सेना अभी नहीं हटाई जा सकती। गुजरात से लौट कर भी रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडिज ने कहा कि गुजरात की सरकार ही यह तय करेगी कि वहां सेना कब तक तैनात रहे ? उनकी इस बयानबाजी से रक्षा मामलों के विशेषज्ञ खासे परेशान हैं। इनको चिंता इस बात की है कि रक्षामंत्री की इस नीति से सेना पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा। उनका मानना है कि उसकी कार्यकुशलता, मनोबल और मानसिकता तीनों पर इसका बुरा असर होगा।

आंतरिक स्थिति से निपटने के लिए सेना का बुलाया जाना कोई नई बात नहीं है। सैकड़ों बार ऐसा हो चुका है। प्राकृतिक आपदा आए या और कोई संकट तो सेना इसलिए लिए बुलाई जाती है कि उसकी कार्यकुशलता और अनुशासन पुलिस से बेहतर होता है। पर सामाजिक संघर्ष मसलन, जातिगत या सांप्रदायिक दंगों से निपटने के लिए सेना का बुलाया जाना बहुत खतरनाक प्रवृत्ति है। पर इसके लिए केवल रक्षा मंत्री या राजग सरकार दोषी नहीं। पूर्ववर्ती सरकारें भी ऐसा अक्सर करती आई है। सांप्रदायिक दंगे होते ही जनता भी सेना की बुलाने की मांग करती है। गोधरा के हत्या कांड के बाद गुजरात में भड़के सांप्रदायिक दंगों से निपटने के लिए सेना बुलाने में देर हुई या नहीं इसको लेकर देश का मीडिया और विपक्ष कई दिनों तक उत्तेजित रहे। दरअसल, जनता का यह विश्वास है, और यह सही भी है, कि जब सेना कमान संभाल लेगी तो किसी भी जाति या धर्म के लोग क्यों न हों उनकी रक्षा में कोई कोताही नहीं बतरती जाएगी। जबकि राज्यों की पुलिस और अर्धसैनिक बल जनता का विश्वास खो चुके हैं। जनता में यह विश्वास नहीं है कि पुलिस या ये बल न्यायपूर्ण ढंग से उसके साथ बर्ताव करेंगे। इस अविश्वास के ठोस कारण हैं। राज्यों की पुलिस का पिछले तीस-चालिस वर्षों में भारी राजनैतिकरण हो चुका है। इस बात के तमाम प्रमाण हैं कि मुख्यमंत्री का पद प्राप्त करते ही दलों के नेता राज्य की पुलिस में अपनी जाति या अपने दल के समर्थकों की भर्ती शुरू कर देते हैं। थाने पूरी तरह राज्य की राजनीति से नियंत्रित होते हैं। हालत इतनी बिगड़ चुकी है कि एफआईआर दर्ज करवाने में भी आम आदमी को दिक्कत आती है। जिस जाति के नेता का सरकार में दबदबा होता है उस जाति के अपराधियों के विरूद्ध आम जनता की शिकायतें थाने में आसानी से दर्ज नहीं की जातीं। चाहे अपराधी के विरूद्ध कितने ही प्रमाण क्यों न हों। इतना ही नहीं है राजनेता या उनके पाले माफिया गिरोह जब कोई संपत्ति हड़प करना चाहते हैं तो सबसे पहले स्थानीय थानेदार को अपनी तरफ करते हैं। पैसे देकर या राजनैतिक प्रभाव का इस्तेमाल करके। जब एक थानेदार और उसके मातहत पुलिस किसी अपराधी गिरोह या बिगड़े राजनेता को फायदा पहुंचाने के लिए अपराध में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल होगा तो वह प्रशासन करने का नैतिक अधिकार खो देगा। जाहिर है कि दंगों कि उत्तेजना के समय ऐसी पुलिस पर कौन विश्वास करेगा ? इसलिए दंगा होते ही सेना को बुलाने की मांग की जाती है। पर यह खतरनाक
प्रवृत्ति है।

गठिया के रोगी को ऐलोपैथी में दर्द से निजात दिलाने के लिए काॅटीजोन की गोली या इंजेक्शन दिया जाता है। कुछ दिनों बाद इस दवा का असर कम होने लगता है। फिर दवा की मात्रा बढ़ा कर दी जाती है। धीरे-धीरे गठिए का मरीज काॅटीजोन का आदि हो जाता है। अब उसे दूसरी कोई दवा असर नहीं करती। काॅटीजोन देने के बाद भी जब उसकी तकलीफ खत्म नहीं होती तो वह लाचार हो जाता है। शेष जीवन उसे भारी कष्ट में बिताना पड़ता है। सांप्रदायिक दंगों के लिए बार-बार सेना को तलब करना काॅटीजोन की दवा देने के समान है। आज समाज से कट कर रहने के कारण सेना में निष्पक्षता, अनुशासन और कार्यकुशलता बची है। पर जब उसका बार-बार इस तरह दुरूपयोग किया जाएगा तो जाहिर है कि खरबुजे को देख कर खरबुजा रंग बदलेगा ही। अगर सेना में वही बुराई आ गई जो राज्यों की पुलिस में है तो फिर सरकारें सांप्रदायिक दंगों से कैसे निपटेंगी ? तब क्या अहमदाबाद के दंगों को रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र की सेना को बुलाना पड़ेगा ? जिस देश में जातीय और सांप्रदायिक दंगों की स्थिति कभी भी कहीं भी भड़क जाती हो, वहां संयुक्त राष्ट्र की सेना भी आखिर कब तक आती रहेगी ? तब सिवाए अराजकता के और क्या शेष बचेगा ? स्थिति इतनी बुरी हो उसके पहले ही इस समस्या से निपटने का निदान खोजना होगा। यह कहना तो संभव नहीं होगा कि अपने समाज को हम रातो-रात इतना परिष्कृत बना लें कि दंगे हों ही न। पर यह तो संभव है कि राज्यों की पुलिस और अर्धसैनिक बलों को सुधारा जाए। उनके बीच अनुशासन, कार्यकुशलता और समाज के प्रति निष्पक्षता का भाव पैदा किया जाए। यह कोई नया विचार नहीं है। उत्तर प्रदेश में जब पीएससी ने बगावत की थी या जब भी प्रदेशों की पुलिस पर सांप्रदायिक या जातिवादी दंगों में किसी धर्म या जाति का पक्ष लेने का आरोप लगा तब-तब इस समस्या पर गहन चिंतन किया गया। पुलिस विशेषज्ञों ने अनेक समाधान सुझाएं। 1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन ही इसलिए किया था कि पुलिस में आई विकृतियों को दूर करने के उपाया सोचें जा सकें। इस आयोग में अनेक सद्इच्छा रखने वाले अनुभवी व योग्य लोग सदस्य थे। आयोग ने एक सारगभित रिपोर्ट सरकार को सौंपी। पर तब तक दिल्ली की सत्ता जनता पार्टी के हाथ से निकल चुकी थी। दुबारा सत्ता मिली भी पर किसी को इस रिपोर्ट पर अमल करने का ध्यान नहीं आया। यह रिपोर्ट गृह मंत्रालय के रिकार्ड रूम में आज भी धूल खा रही है। चूंकि वर्तमान प्रधानमंत्री, गृहमंत्री व रक्षा मंत्री तीनों ही उस सरकार के मंत्रिमंडल में थे इसलिए कम से कम उन्हें तो इस रिपोर्ट को लागू करने की तरफ कुछ सोचना और करना चाहिए था। पर पता नहीं किन कारणों से उन्होंने अभी तक ऐसा नहीं किया। अब भी क्या देर है? गुजरात में सेना कब तक तैनात रहे इसका फैसला भले ही श्री नरेंन्द्र मोदी व श्री जार्ज फर्नाडिज मिल कर करते रहेें पर यदि भविष्य में सेना को इस तरह के दुरूपयोग से बचाना है तो राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू करके पुलिस बल और अर्धसैनिक बलों की कार्यसंस्कृति को सुधारना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए।

नागरिक क्षेत्र में सेना का दुरूपयोग तो ऐसे प्रयासों से रूक जाएगा पर सीमा पर सेना तैनात करके हमारे सैनिकों और अफसरों के साथ जो व्यवहार किया जा रहा है वह कहीं बड़ा नुकसान न कर बैठे। सेना में युद्ध के जो दस नियम बताए जाते हैं, उसमें पहला है, शत्रु की पहचान और उस पर हमले की मानसिकता। यह परिस्थिति बहुत समय तक बनी नहीं रह सकती। देश में युद्ध का माहौल बनते ही युद्ध करना होता है। अन्यथा न सिर्फ सैनिकों में हताशा फैलती है बल्कि युद्ध जीतने के लिए जैसी मानसिकता चाहिए वह भी नहीं रह पाती। बिना युद्ध के ही सीमा पर तैनात सेना जनता का नैतिक समर्थन भी खो देती है। इस वक्त जो सेना का जमाव सीमा पर है वह बड़ी ही विचित्र स्थिति है। भेजा तो उन्हें युद्ध की मानसिकता से गया था पर काम उनसे चैकीदारी का लिया जा रहा है। यही नहीं सियाचिन जैसी आक्रामक भौगोलिक परिस्थितियों में सेना का इस तरह सावधान की मुद्दा में महीनों खड़ा रहना जवानों की दिमागी और शारीरिक सेहत पर बुरा असर डाल सकता है। रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि यदि हमें पाकिस्तान से युद्ध नहीं लड़ना था तो सेना को यह कवायद कराने की क्या जरूरत थी ? ऐसी कौन सी नई स्थिति पैदा हो गई थी ? ऐसा क्या बदल गया कि युद्ध नहीं किया गया ? अब क्या खतरा है जो सेना को सीमा पर सावधान की मुद्रा में खड़ा कर रखा है ? जहां तक भारत-पाक सीमा से आतंवादियों के घुसने का सवाल है तो यह सर्वविदित है कि आईएसआई के एजेंट वायुवान से पहले नेपाल आते हैं फिर भेष बदल कर नेपाल-भारत सीमा से देश में प्रवेश कर जाते हैं। उनकी जरूरत का असला यहां पहले ही मौजूद होता है।

एक और ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत में सेना में भर्ती किसी अनिवार्यता के तहत नहीं होती। जैसाकि तमाम दूसरे देशों में होता है। मसलन, स्वीट्जरलैंड में हर नागरिक को सैनिक मान कर प्रशिक्षण दिया जाता है और यह प्रशिक्षण उसके जीवनकाल में बार-बार दोहराया जाता है। चाहे वह बैंक का अधिकारी हो, शिक्षक हो, व्यापारी हो या उद्योगपति। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि जरूरत पड़ने पर चाहे जितनी सेना खड़ी की जा सके। अमरीका में राष्ट्रपति के पद पर बैठने वाला व्यक्ति भी सामान्यतः सैनिक प्रशिक्षण ले चुका होता है। जब कि भारत में सेना में भर्ती होना लोगों की इच्छा और विवेक पर निर्भर करता है। देखा यह गया है कि कुछ जातियां या कुछ इलाके के लोग मसलन, गोरखा, जाट, सिक्ख, राजस्थानी आदि ऐसी जातियां समुदाय हैं जिनमें सेना में जाना गौरव की बात समझी जाती है। मर्दानगी की निशानी मानी जाती है। इनमें कई पीढि़यों की परंपरा होती है। पर दूसरी तरफ देश में फैली भारी गरीबी और बेराजगारी से आजिज आ चुके नौजवान सेना की तरफ भागते हैं क्योंकि यहां उन्हें जीवन की वो सभी आवश्यकताएं पूरी होती नजर आती हैं जिनकी उन्हें इच्छा होतीे है। इसलिए सेना में भर्ती का विज्ञापन निकलते ही हजारों नौजवान दौड़ पड़ते हैं। पिछले दिनों इस तरह की अभ्यार्थियों की भीड़ में से साठ नौजवानों का लखनऊ में हुई एक दुर्घटना में अकाल मृत्यु को पा लेना एक दुखद घटना। पर इस दुर्घटना की जांच से जो तथ्य उभर कर सामने आता है वह यह कि बेराजगारी के सताए नौजवान नौकरी पाने की लालच में किसी सीमा तक भी जा सकते हैं। उनकी इस मानसिकता का नाजायज फायदा भी उठाया जाता है। जिस पर हम भविष्य में एक तथ्यपरख लेख लिखेंगे। फिलहाल इतना ही मान लिया जाना चाहिए कि स्वयं सेवी रूप से सेना में भर्ती हुए समाज के इन सपूतों की चिंता करना केवल उनके परिवारों का ही नहीं पूरे देश का कर्तव्य है। क्यांेकि सेना में भर्ती होकर इन नौजवानों ने अपने जीवन को देश की सुरक्षा के लिए दांव पर लगा दिया है। शहादत कभी भी इनका वरण कर सकती है। इनके इस समपर्ण के भरोसे बैठ कर ही हम अपनी सुरक्षा के लिए आश्वस्त हो सकते हैं। इसलिए सेना से जुड़े विषयों पर युद्धकाल में ही नहीं शांतिकाल में भी देश में खुल कर चर्चा होनी चाहिए ताकि सेना अपना काम मुस्तैदी से कर सके।

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