Friday, May 24, 2002

ऐसी धर्म निरपेक्षता किस काम की ?

कालूचक्क (जम्मू) में जो वीभत्स हत्या कांड हुआ उसे तो विदेशी साजिश कह कर पल्ला झाड़ लिया जाए और गुजरात में जो हो उसे सांप्रदायिकता कह कर तूफान मचाया जाए, यह बात गले नहीं उतरती। पिछले दिनों गुजरात की घटनाओं को लेकर देश की राजधानी में धर्म निरपेक्षतावादियों की कई बैठकें हुईं। इसी तरह एक सेमिनार में इंडिया इंटर नेशलन सेंटर में दिल्ली भर के तमाम नामी-गिरामी धर्म निरपेक्षतावादी जमा हुए। गुजरात में अल्प संख्यकों पर हुए सांप्रदायिक हमलों पर काफी चिंता जताई गई। सबकी राय थी कि कुछ ऐसा किया जाए जिससे जख़्म जल्दी भरे। सांप्रदायिकता से निपटने की लंबी रणनीति बनाने कीे बात भी कही गई। नरेंद्र मोदी सरकार की भर्तसना करते हुए एक प्रस्ताव पर सबने हस्ताक्षर किए। इस बैठक में भारत के पूर्व मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति अहमदी का कहना था कि सांप्रदायिकता दूर करने के लिए गुजरात के अल्प संख्यकों की माली हानि की भरपाई सरकार करे। इस सेमिनार में चूंकि मैं भी मौजूद था और इस बात से सहमत था कि सांप्रदायिकता से लड़ा जाना चाहिए इसलिए प्रस्ताव पर मैंनें भी दस्तखत किए लेकिन एक शर्त के साथ। वह शर्त मैंने अपने हस्ताक्षर के साथ ही दर्ज कर दी। अंग्रेजी में लिखी इस टिप्पणी का आशय यह था कि, ‘अगर देश में सांप्रदायिकता के जख्मों केा भरना है तो शुरूआत गुजरात से नहीं जम्मू-कश्मीर से होनी चाहिए।’ हर वो धर्म निरपेक्षवादी जो सांप्रदायिकता से लड़ना चाहता है उसे जम्मू-कश्मीर के हिंदुओं पर ढाए गए जुल्मों के विरूद्ध जोरदार आवाज उठानी चाहिए। उसे यह ठान लेना चाहिए कि जब तक कश्मीर की घाटी से मजबूर करके निकाल फेंके गए हिंदुओं को फिर से उनके पुश्तैनी घरों में बसा नहीं दिया जाता तब तक धर्म निरपेक्षता का राग अलापने का कोई मतलब नहीं है। मेरी इस टिप्पणी पर एक आधुनिक नवयुवती, जो इत्तफाकन मुस्लिम समुदाय से थीं, काफी उखड़ गईं। उनका तर्क था कि मैं दो असमान स्थितिओं की तुलना कर रहा हूं। उनके हिसाब से जम्मू-कश्मीर में हिंदुओं के विरूद्ध जो कुछ हो रहा है वह विदेशी शक्तियों की साजिश का परिणाम है। जबकि गुजरात में जो हुआ वो सरकारी आतंकवाद था। ऐसी दलील अक्सर धर्म निरपेक्षतावादी देते हैं।

सांप्रदायिक तो हम भी नहीं हैं। हकीकत यह है कि हिंदुस्तान की बहुसंख्यक गैर इस्लामी आबादी का बहुसंख्यक हिस्सा सांप्रदायिक नहीं है। पर सोचने वाली बात यह है कि कालूचक्क (जम्मू) व शेष कश्मीर में हिंदुओं के विरूद्ध वर्षों से हो रही आतंकवादी घटनाओं को क्या केवल विदेशी साजिश कह कर अनदेखा किया जा सकता है ? क्या यह सही नहीं है कि कश्मीर की स्थानीय मुस्लिम आबादी के एक महत्वपूर्ण हिस्से के गुपचुप समर्थन के बिना आतंकवादियों का कामयाब होना नामुमकिन था। बेगाने मुल्क में, पहाड़ों और घने जंगलों में और बर्फीली ठंढ में पाकिस्तानी घुसपैठिए कितने दिन जिंदा रह पाते ? खाना, पानी और सर छिपाने को जगह मिले बिना यह असंभव था। उनकी इस जरूरत को कौन पूरा कर रहा है ? क्या यह सच नहीं है कि कश्मीर के मदरसों में हिंदुओं और हिंदुस्तान के खिलाफ लगातार जहर उगला गया है ? क्या स्थानीय मुस्लिम आबादी ने अपने बच्चे इन मदरसों में भेजने में कोई हिचक दिखाई ? क्या ये सवाल उनके मन में उठा कि ऐसे मदरसों में जाकर उनका बच्चा सांप्रदायिक हो जाएगा ? कतई नहीं। हकीकत तो यह है कि इन मदरसों के फलने-फूलने में स्थानीय मुस्लिम आबादी का पूरा सहयोग रहा। यानी कश्मीर की घाटी में सांप्रदायिक फैलाने के लिए स्थानीय मुस्लिम आबादी कम जिम्मेदार नहीं है। जो आबादी सांप्रदायिकता भरी शिक्षा को बढ़ावा देगी वो क्या जेहादी जुनून वाले आतंकवादियों को मदद और संरक्षण नहीं देगी ? यह जानते हुए भी कि ये खुदाई खिदमतगार उसी मजहब की बढत के लिए काम कर रहे हैं जिस मजहब की तालीम लेने उनके बच्चे मदरसों में जाते हैं। कश्मीर में वर्षों से हो रही सांप्रदायिक हिंसा को अगर कोई महज विदेशी साजिश कह कर हल्का करना चाहे तो या तो वह मंद बुद्धि है जो इस गहरी चाल को नहीं समझता या फिर इतना कुशाग्र कि उसे पता है कि सच्चाई को कैसे तोड़ा-मरोड़ा जाता है।

इसलिए जो भी खुद को धर्म निरपेक्षता का ठेकेदार सिद्ध करना चाहता है उसे इस बात का जवाब देना होगा कि कश्मीर की हिंसा सांप्रदायिक क्यों नहीं है ? यह भी जवाब देना चाहिए कि धर्म निरपेक्षता के देश में समान नागरिक संहिता क्यों नहीं लागू की जा सकती ? अगर भारत के मुसलमान भारतीय संविधान के तहत प्रदत्त सभी नागरिक अधिकारों का बराबरी के साथ इस्तेमाल करना चाहते हैं तो फिर मुस्लिम पर्सनल लाॅ की क्या सार्थकता ? अगर भारत के धर्म निरपेक्षतावादी देश में वाकई अमन-चैन चाहते हैं तो उन्हें सामान नागरिक कानून की जरूरत पर शोर मचाना चाहिए। यदि ऐसा हो पाता है तो सांप्रदायिक खुद-ब-खुद कम होती चली जाएगी। हमने पहले भी कहा है और फिर इसे दोहराने की जरूरत महसूस करते हैं कि हिंदुओं की भावनाओं की उपेक्षा करके और मुसलमानों को वोटों के लालच में सिर पर चढ़ा कर कोई भी देश में अमन-चैन कायम नहीं कर सकता। तकलीफ यह देख कर होती है कि आत्मघोषित धर्म निरपेक्षवादियों को क्रोध भी तभी आता है जब मुस्लिम संप्रदाय के लोग पिट रहे होते हैं। दूसरी तरफ जब हिंदू पिटते और मार खाते हैं तो धर्म निरपेक्षतावादियों के मुंह में दही जम जाता है। उनकी इस दोहरी नीति के चलते ही देश में सांप्रदायिक बढ़ी है। हिंदुओं को लगाता है कि उनके साथ व्यवहार ठीक नहीं हो रहा है। पिछले दिनों टीवी पर एक टाॅक शो के दौरान मुस्लिम नेता मुख्तार अब्बास नकवी ने जब सैय्यद शाहबुद्दीन की तरफ इशारा करके कहा कि हिंदू धर्मांधता की बढत के लिए ऐसे लोग जिम्मेदार हैं तो शाहबुद्दीन साहब बौखला गए। काफी तू-तू मैं-मैं हुई पर नकवी साहब की इस बात में काफी दम है कि हिंदू धर्मांध संगठनों की पिछले एक दशक में हुई तीव्र वृद्धि का कारण मुस्लिम धर्मांधता का खुला प्रदर्शन भी है। जब हिंदुओं को लगा कि अपने ही मुल्क में उन्हें परायों की तरह रहना पड़ रहा है तो उन्होंने संगठित होकर लड़ने की ठानी।

ऐसा लगता है कि धर्म निरपेक्ष दिखने के लालच में हमारे समाज के बहुत से महत्वपूर्ण लोग हिंदू धर्म पर जरूरत से ज्यादा हमला करते हैं। ये हमला करते वक्त इतने वाचाल हो जाते हैं कि सही और गलत का भेद भी भूल जाते हैं। आज पूरी दुनिया में योग, ध्यान, आयुर्वेद आदि जैसे तमाम ज्ञान के भंडारों को पाने की होड़ लगी है। पर भारत के धर्म निरपेक्षतावादियों ने कभी भी वैदिक ज्ञान के इस अमूल्य भंडार के संवर्धन और वितरण मेंु रूचि नहीं ली। अगर ली होती तो वे सच्चाई से इतना दूर नहीं होते। वातानुकूलित जीवन जीने वाले भला एक आम आदमी के दिल की बात कैसे जान सकते हैं ? जिन बातों को वे दकियानुसी या पोंगापंथी कह कर हंसी में उड़ा देते हैं उन्हीं बातों को अपना कर आज विकसित देश अपनी समस्याओं के हल ढूंढने में लगे हैं।

ये कितने आश्चर्य की बात है कि इस देश की धरती में उपजे धर्म, संप्रदायों और दर्शन को छोड़ कर वो आयातित धर्मा और संस्कृतियों की तरफ भाग रहे हैं। जो न तो हमारी भावनाओं से जुड़ी है और ना ही हमें वांछित सुख दे पाती है, फिर भी वे वैदिक धर्म के विरूद्ध अपना अनर्गल प्रलाप बंद नहीं करते। उनके इन कारनामों से ही हिंदू धर्मावलंवियों के मन में इन आत्मघोषित धर्म निरपेक्षतावादियों के प्रति आक्रोश बढ़ता जाता है। वैदिक संस्कृति को समझे और अपनाए बिना भारत की जनता का उद्धार नहीं हो सकता। वेद किसी एक समुदाय की नहीं पूरे मानव समाज की भलाई की बात करते हैं। इतनी सी बात अगर धर्म निरपेक्षतावादी समझ लें तो उनकी दृष्टि भी हंस जैसी हो जाएगी जो ज्ञान के इस भंडार में से मोती तो चुग लेगी और दाना-तिनका छोड़ देगी। तब वे हिंदुओं का भी विश्वास जीत पाएंगे। तभी उनकी आवाज में वह नैतिक बल होगी जिसके आधार पर वे समाज को सही दिशा दे पाएंगे। तभी उनकी वाणी में असर होगा। वरना वे पहले की तरह धर्म निरपेक्षता का राग अलापते रह जाएंगे और सांप्रदायिकता की अग्नि पूरे देश को अपनी चपेट में ले लेगी। ऐसी धर्म निरपेक्षता किस काम की ?

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