Friday, October 11, 2002

साधन सम्पन्न महिलाएं क्या करें ?

माक्र्सवादियों की मान्यता है कि पूंजीपति लोग समाज का शोषण करते हैं। जबकि साम्यवादी व्यवस्थाओं में गरीब और अमीर के बीच की खाई पाट दी जाती है। पर सच्चाई यह है कि साम्यवादी व्यवस्था में भी सत्ताधीश लोग आम जनता से कहीं बेहतर जिंदगी जीते हैं। देश की राजधानी दिल्ली में ही ऐसे तमाम मशहूर माक्र्सवादी चेहरे हैं जो श्रमिकों की रैलियों में गाढे का कुर्ता पहन कर बड़े भावावेश में पूंजीपतियों के विरूद्ध गर्जना करते हैं पर पर्दे के पीछे उन्हीं पूंजीपतियों या भ्रष्ट सत्ताधीशों की पांच सितारा पार्टियों में विदेशी शराब पीते और मुर्गे उड़ाते पाए जाते हैं। हृदय में करूणा और दुखीजनो की सेवा का भाव जरूरी नहीं है कि माक्र्सवाद का लबादा ओढ कर ही पैदा हो। यह सही है कि देश की जो व्यवस्था आज चल रही है उसमें बेइंतहा धन रातोरात कमा लेने वाले कोई सीधे रास्ते नहीं चलते। सरकारी नीतियों को प्रभावित करके, बैंकों के ऋण को हजम करके, पर्यावरण का विनाश करके और भारी मात्रा में कर वंचना करके मोटे मुनाफे कमाए जाते हैं।

धन सीधे रास्ते कमाया जाए या टेढ़े रास्ते, धन-धन ही होता है। एक संत कहते हैं कि लक्ष्मी का रंग गोरा या काला नहीं होता, उसका प्रयोग उसे काला या सफेद बनाता है। अगर धन का प्रयोग सद्कार्यों में किया जाए तो वह राष्ट्र के निर्माण और समाज की भलाई में काम आता है और यदि धन का प्रयोग व्यसनों में किया जाए तो वह विनाश की ओर ले जाता है। आमतौर पर देखा यह गया है कि खानदानी धनी परिवारों में कोई न कोई व्यक्ति ऐसा जरूर होता है जिसे अपने धन और वैभव से विरक्ति हो जाती है और उसकी रूचि समाज के कार्यों में लग जाती है। ऐसे अनेक उदाहारण है। मशहूर बजाज खानदान के श्री गौतम बजाज को कौन नहीं जानता। वे चाहते तो उद्योग और व्यापार में लगे रह कर करोड़ो रूपया कमाते। पर जवानी में ही वे आचार्य विनोबा भावे के पवनार स्थित आश्रम में आ गए और तब से आज तक बाबा के दिखाए रास्ते पर समाज की सेवा में जुटे है। बेहद सादगी का जीवन जीते हैं। ऐसे अनेक उदाहारण देश में हैं। राजस्थान के किसान और मजदूरों के बीच पिछले दो दशक से भी ज्यादा से समर्पित भाव से काम करने वाली श्रीमती अरूणा राय भी एक मजदूरिन की जिंदगी जीती हैं। ये जीवन उन्होंने जिंदगी में असफल होकर नहीं अपनाया, बल्कि भरी जवानी में भारतीय प्रशासनिक सेवा की नौकरी से इस्तिफा देकर अपनाया। क्योंकि उन्हें लगा कि सरकार में रह कर वे आम आदमी के लिए वह सब नहीं कर पाएंगी जो उनके बीच रह कर कर सकती हैं। अपनी-अपनी रूचि और अपनी प्राथमिकताओं के अनुरूप सद्विचार रखने वाले लोग अपना कार्यक्षेत्र चुन ही लेते हैं। इसमें उन्हें आनंद की प्राप्ति होती है। जीवन की पूर्णता का अनुभव होता है और जिंदगी सार्थक लगने लगती है।

देश की राजधानी दिल्ली में रहने वाले भारत के सुप्रसिद्ध औद्योगिक डालमिया परिवार में बहू बन कर आई श्रीमती अरूणा डालमिया का बचपन भी कानपुर के सुप्रसिद्ध औद्योगिक सिंघानिया परिवार में बीता, जिसकी वे बेटी हैं। समाज के लिए कुछ करने की कसक ने उन्हें सामान्य मारवाड़ी परिवारों से भिन्न जीवन जीने की प्रेरणा दी। उन्होंने ऐसे लोगों की सेवा का बीड़ा उठाया जिन्हें समाज अपंग कहता है। वे उन्हें ‘ चुनौती झेलने वाला ‘ कह कर संबोधित करती हैं। दक्षिण दिल्ली में ‘अक्षय प्रतिष्ठान ‘ के नाम से चलने वाली उनकी संस्था में आज सैकड़ों विक्लांग बच्चे न सिर्फ सामान्य शिक्षा पा रहे हैं बल्कि प्रकृति प्रदत्त अपनी शारीरिक अपूर्णता से भी डट कर मुकाबला कर रहे हैं। पिछले 14 वर्ष से अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा इस संस्थान में समर्पित कर देने वाली 61 वर्षीय अरूणा जी इन सभी बच्चों के लिए फ्लोरेंस नाइटिंगेल की तरह ममत्व और करूणा की मूर्ति बन कर अवतरित हुई हैं। अपने संस्थान में उन्हें दिन भर बड़ी निष्ठा, धैर्य और समर्पण के साथ विभिन्न सेवा कार्यों में लीन देखा जा सकता है। एक तरफ तो महात्मा गांधी की समाधि पर हर 2 अक्टूबर को राजघाट जाकर फूल चढ़ाने वाले देश के नेता आज प्रशासनिक व्यवस्था में फिजूलखर्ची बढ़ाते जा रहे हैं। अब सरकारी कार्यालयों में नेता और अफसर ही नहीं क्लर्क और चपरासी तक वातानुकूलित कमरों में बैठते हैं। यह जानते हुए भी कि देश में बिजली की कमी है और वातानुकूलित कमरों में बैठना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। पर आज यह प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। समाज सेवा के क्षेत्र मंच काम करने वाले लोग तक विदेशी शराब और सिगरेट फूंकते हैं और काॅरपोरेट आफिस जैसी तड़क-भड़क वाले दफ्तरों में बैठना पसंद करते हैं। तुर्रा ये कि वे समाज के अति दीन-हीन लोगों की सेवा का कार्य कर रहे हैं। इनमें से ज्यादातर वो लोग होते हैं जिन्होंने अपने जीवन में या इनके बाप-दादाओं ने कभी ऐसी शान-शौकत की जिंदगी नहीं देखी होगी। दूसरी तरफ हैं श्रीमती अरूणा डालमिया जिनका जन्म ही समस्त ऐश्वर्यों के बीच हुआ और आज भी उन्हें किसी चीज की कमी नहीं है फिर भी उनके कार्यालय में गर्मियों में भी एक पंखा ही टुकर-टुकर कर चलता रहता है। उनके कार्यालय की खिड़कियों से आने वाली जाड़े की तीखी ठंडी हवा और दिल्ली की तपती दोपहरी की लू उन पर वैसे ही थपेड़े मारती है जैसे किसी भी सामान्य जन को। इस सादगी और वैराग्य के पीछे केवल सद्विचार ही नहीं भगवत् भक्ति का भी प्रभाव है। श्री राधा कृष्ण भगवान और श्री चैतन्य महाप्रभु की अनन्य भक्तिन अरूणा जी को इस सेवा कार्य में भक्तिरस की प्राप्ति होती है। श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपनी शिक्षाष्टक में कहा है, ‘स्वयं को तिनके से भी अधिक विनम्र बनाओ, एक वृक्ष से भी ज्यादा सहिष्णु बनों, उस व्यक्ति को भी सम्मान दो जिसे कोई मान नहीं देता और सदा हरि का कीर्तन करते रहो’, महाप्रभु की इस शिक्षा को अपने जीवन में उतारा है अरूणा जी ने। अक्षय प्रतिष्ठान के सभी कर्मचारी, चिकित्सक, शिक्षक और छात्र उनके प्रति अगाध प्रेम रखते हैं। यूं तो उन्हें डालमिया परिवार के अलावा कई राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से भी इस सेवा कार्य के लिए वित्तीय सहायता मिलती रही है, पर अपने दान और सेवा को उन्होंने इस दोहे में समाहित कर लिया है। दोहा है:-

देनहार कोई और है, देत रहे दिन रैन।
लोग भरम हम पर करें, यासौ नीचे नैन।।

यह दोहा प्रसिद्ध मुस्लिम कृष्ण भक्त अब्दुल रहीम खानखाना ने कहा था। अकबर के राजदरबार से मंत्री रहे श्री रहीम सारा दिन अपना खजाना गरीबों में लुटाते रहते थे। लेकिन दान देते वक्त अपना सिर और निगाहे झुका लेते थे। तब किसी ने उनसे पूछा कि आप दान तो इतना देते हैं पर आॅखें नीचे क्यों कर लेते हैं ? श्री रहीम ने तब उक्त दोहे के माध्यम से यह उत्तर दिया कि दरअसल दान देने वाला तो कोई और है (भगवान) पर लोग ये समझते हैं कि मैं दान दे रहा हूं। यही सोच-सोच कर मैं शर्म से गड़ा जाता हूं। श्रीमती डालमिया ने इस दोहे को अक्षय प्रतिष्ठान के प्रतीक चिन्ह ;लोगोद्ध का अंग बनाया है।

अक्षय प्रतिष्ठान में निर्बल वर्ग के अपंग छात्रों को न सिर्फ आधुनिक शिक्षा दी जाती है बल्कि उनको विशिष्ट परिस्थितियों से जूझने का प्रशिक्षण भी दिया जाता है ताकि वे समाज में अपनी जगह बना सकें। हर तरह की आधुनिक सुविधाओं से युक्त अक्षय प्रतिष्ठान को अनेक विशेषज्ञों की सलाह और सहयोग मिलता रहता है। यहां तक कि इन बच्चों को अक्सर अपने चहेते सितारों को भी देखने का मौका मिल जाता है। पिछले दिनो इन बच्चों की व्यवसायिक प्रक्षिशण कार्यशाला का उद्घाटन करने सचिन तेंदुलकर जब प्रतिष्ठान में आए तो ये बच्चे फूले न समाए।

श्रीमती डालमिया के इस प्रतिष्ठान में विशिष्ट शारीरिक स्थिति के इन बच्चों के साथ ही शारीरिक रूप से सामान्य बच्चे भी पढ़ते हैं ताकि सामान्य बच्चों में अपंग बच्चों के प्रति संवेदनशीलता उत्पन्न हो और वे उनका उपहास न बनाएं। दूसरी तरफ इस प्रयोग से विकलांग बच्चों को जीवन में सामान्य शारीरिक स्थिति वाले लोगों से प्रतिस्पर्धा करने का मौका मिलता है। श्रीमती डालमिया इस अद्भुत विचार के लिए डा. उमा तुली का आभार मानती हैं। डाः तुली इस क्षेत्र की विशेषज्ञ हैं और उनके ही सुझाव पर अक्षय प्रतिष्ठान में यह प्रयोग किया गया। जिसके नतीजे उत्साहजनक रहे। अक्षय प्रतिष्ठान की कोशिश रहती है कि इन बच्चों को इस लायक बना दिया जाए कि वे भविष्य में अपने पैरों पर खड़े हो सकें। संस्थान में अनेक कर्मचारी आज ऐसे हैं जो स्वयं विकलांग हैं। अनेक किस्म की गतिविधियां संस्थान में निरंतर चलती रहती हैं। योग, प्राकृतिक चिकित्सा, फिजियोथेरेपी जैसी सुविधाएं तो हैं ही कला, संगीत, और पाक शास्त्र का भी विधिवत प्रशिक्षण दिया जाता है। संस्थान की बेकरी में बनने वालीे ब्राउन बे्रड और कूकिज़ काउंटर पर आते ही हाथो-हाथ बिक जाते हैं।

ऐसी तमाम संस्थाएं देश में चल रही हैं जहां समाज के उपेक्षित लोगों को सम्माननीय जीवन जीने का मौका मिलता है। अक्सर इन संस्थाओं में ऐसे लोगों की कमी होतीे है जिनमें बिना किसी लाभ के समर्पित होकर सेवा करने की भावना भरी हो। दूसरी तरफ प्रायः संपन्न परिवारों की महिलाओं के पास इतना ज्यादा खाली समय होता है कि वे उसे किटी पार्टियों, ताश खेलने या बेकार की गप-शप में बिता देती हैं। यदि वे अपने समय का सदुपयोग करें और अरूणा डालमिया जी की तरह हर रोज जीवन के कुछ घंटे समाज का दुख दूर करने में लगाएं तो उनका मन तो प्रसन्न होगा ही लोक और परलोक दोनों सुधर जाएंगे।

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