Friday, November 29, 2002

राहुल सिरसा व न्यायपालिका

पिछले दिनों तीन प्रमुख घटनाएं हुई जिन्होंने देश को झकझोरा। एक तो मौलाना आजाद मेडिकल कालेज की छात्रा के साथ राहुल नाम के एक किशोर ने बलात्कार किया, जोकि झुग्गी-झोपड़ी का रहने वाला है। दूसरा, सिरसा में एक पत्रकार की हत्या की गई जो वहां के डेरा सच्चा सौदा नाम के आश्रममें हो रहे कथित व्यभिचार और भ्रष्टाचार की खबरें छापता रहा था। तीसरातहलका कांड की जांच कर रहे न्यायमूति श्री वेंकटस्वामी के मामले में उठे विवाद पर भाजपा के पूर्व कानून मंत्री अरूण जेटली का यह बयान कि न्यायपालिका से जुडे़ व्यक्तियों के बारे टिप्पणी करते समय विपक्ष संयम बरते। यूं तो देखने में ये तीनों ही घटनाएं अलग-अलग दिखाई देती है पर इनमें भारी समानता है। ये घटनाएं भारतीय समाज में तेजी से आ रहे नैतिक पतन और चारित्रिक दोहरेपन की परिचायक है। इन पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।

किसी भी महिला के साथ बलात्कार करना या उसकी अस्मिता पर हमला करना घृणित कार्य है। इसलिए मौलाना आजाद मेडिकल कालेज दिल्ली की छात्रा के साथ बलात्कार के सवाल पर राजधानी में जो बवंडर मचा वो जायज है। ऐसे बलात्कारियों को देश के कानून के मुताबिक सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए। पर यहां कई प्रश्न पैदा होते हैं। क्या देश का मीडिया, सांसद और बुद्धिजीवी देश में हर दिन हो रहे सैंकड़ों बलात्कारों के संदर्भ में इतनी ही तत्परता से शोर मचाते हैं, अगर नहीं तो क्यों नहीं ? अगर ऐसा ही शोर हर बलात्कार पर मचाते तो शायद ऐसे अपराधों की संख्या में कमी आ सकती थी। इस देश में करोड़ों आम महिलाओं की अस्मिता से हर रोज खिलवाड़ होता है। जिसकी खबर तक नहीं छपती, जब तक कि ऐसे हादसे की शिकार कोई महिला बागी बन कर बंदूक न उठा ले या फिर उस हादसे से किसी राजनैतिक दल को फायदा न होता हो। दूसरी तरफ देश का मीडिया उस पांच सितारा संस्कृति को करोड़ों देशवासियों को परोसने में जुटा है जिसमें अश्लीलता, व्यभिचार और उपभोक्तावादी जीवनशैली उच्च वर्ग का हिस्सा बन चुके हैं। जहां रइसों के फार्म हाउसों में आए दिन अश्लीलता का खुला नाॅच होता है और उसकी रंगीन फोटो राजधानी के बड़े अखबारों में प्रमुखता से छपती है या फिर कभी-कभी जेसिका लाल जैसे कांड भी हो जाते हैं।

राहुल को तो सजा मिलनी ही चाहिए पर जरा उस किशोर की मनःस्थिति के बारे में भी सोचिए जो अपनी 100 वर्ग फुट की झुग्गी में गंदगी  और बीमारियों के समुद्र के बीच अभावों में पल रहा है। जिसे न शिक्षा मिली न रोजगार। जो रोज वर्दीधारी पुलिस वालों के अनैतिक आचरण का साक्षी है। जिसके आगे सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा है। जो ये देखता है कि बड़े अपराध करने वाले सफेदपोश न तो कानून के गिरफ्त में आते हैं और न ही न्यायपालिका उन्हं सजा ही देती है। जो ये देखता है कि जितने बड़े अपराध उतना ज्यादा ऐशो-आराम। ऐसा किशोर बलात्कार तक ही सीमित नहीं रहेगा। वो चाकू भी मारेगा। डाके भी डालेगा और हत्या भी करेगा। इसमें नया क्या है ? अपराध विज्ञान के विशेषज्ञ ऐसे अपराधियों की मानसिकता पर सैकड़ों शोधग्रंथ लिख चुके हैं। झुग्गियों में रहने वाले भूखे-नंगे इन किशोरों की आपराधिक प्रवृत्ति पर पांच सितारा होटलों में आए दिन सेमिनार किए जाते है। पर उससे बदलता क्या हैबदल सकता भी नहीं, क्योंकि समस्या ये किशोर नहीं, समस्या वह व्यवस्था है जो इन्हें सामान्य जीवन जीने से वंचित कर रही है। जब तक हम रोग की जड़ में नहीं जाएंगे उसके लक्षणों के निदान से कुछ भी नहीं होने वाला है।

उधर, सिरसा में पत्रकार की हत्या में पुलिस ने जिन लोगों को पकड़ा है, उनका कहना है कि इस हत्या के लिए हथियार उन्हें डेरा सच्चा सौदा के आदमियों ने मुहैया कराए थे। स्थानीय नागरिकों का कहना है कि यह पत्रकार लगातार डेरा सच्चा सौदा के खिलाफ खबरें छापता रहा था। उसकी हत्या किसने करवाई इसकी सच्चाई तो जांच के बाद ही सामने आएगी। इसलिए डेरा सच्चा सौदा के खिलाफ कोई भी आरोप लगाना अभी उचित नहीं होगा। इस घटना को फिलहाल भूल भी जाए तो भी एक अहम सवाल सामने आता है और वह यह कि ऐसा क्यों है कि भगवत भक्ति, सदाचार, सादगी, नैतिकता, त्याग, तप, सच का उपदेश देने वाले आत्मघोषित संत परम वैभव में जीवन यापन करते हैं ? उनका आचरण किसी राजा-महाराजा से कम नहीं होता। बिना आयकर दिए वे अकूत दौलत के स्वामी होते हैं। मर्सीडीज गाडि़यों के काफिले में चलते हैं। हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश, विधि हाथका उपदेश देने वाले ये संतअपने शिष्यों से  तो कहते हैं कि निर्भय बनों। ईश्वर की इच्छा के बिना कोई तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। पर खुद बंदूकधारी अंगरक्षकों के साए में चलते हैं। शायद उनके मन में डर होता है कोई ईष्यावश उनकी हत्या करके उनकी गद्दी और दौलत न हथिया ले। ऐसे मठांे में विशेष प्रयास करके करके बड़े नेताओंअफसरों व मशहूर लोगों को अमंत्रित किया जाता है, उनका  भारी सत्कार किया जाता है। ऐसे महंतोंकी इच्छा रहती है  कि वीवीआईपी उनके चरण छुएं। जिसकी फोटो खंींच कर चेले उनका प्रचार कर सकें ताकि उनका कारोबार फलफूल सके। नए-नए लोग उनके मोहजाल में फंसते जाएं। सच तो यह है कि आध्यात्मिकता की पहली शर्त है भौतिकता से विरक्ति। ज्यों-ज्यों मनुष्य आध्यात्मिकता की ओर बढ़ेगा त्यों-त्यों उसे नाम, पद, परिवार, वैभव और प्रतिष्ठा के प्रति अरूचि होती जाएगी। सच्चे संत की पहचान है जिसका मन केवल प्रभु चरणों में लीन हो। उसके लिए न तो संप्रदाय की दीवारें शेष रह जाती हैं न शिष्यों का आकर्षण। मान, वैभव और सुख-सुविधा तो उसे कांटों की शैया लगने लगता है। प्रभु भी ऐसे ही भक्त को अपनाते हैं। पर आज उल्टा हो रहा है। इसके लिए जनता भी जिम्मेदार है। वह सच्चे संतों की तलाश नहीं करती। जिसका होर्डिंग जितना बड़ा होता है। जो जितने ज्यादा पैसे खर्च करके अपने रंगीन पोस्टर शहर में चिपकवा लेता है। जो खुद पैसे खर्च करके धार्मिक टीवी चैनलों पर रोजाना अपने प्रवचन करवाता है। जो वैभव में डूबा रहता है। जो प्रभावशाली प्रवचन करके जनता को प्रभावित करने की कोशिश करता है। चाहे उसकी कथनी और करनी में कितना ही भेद क्यों न हो। जो महलनुमा भवनों मे सब ऐश्वर्यों से परिपूर्ण होकर रहता है। ऐसे ढोंगी संतोको ही आज समाज में मान, सम्मान मिल रहा है। सच्चे संत तो मीरा जैसे होते हैं जिन्हें जब प्रभु की लगन लगती है तो महलों का ऐश्वर्य भी रोक नहीं पाता। ध्रुव महाराज जैसे होते हैं। जो बचपन में ही महल छोड़कर जंगल में तप करने निकल जाते हैं। संत नानक, कबीर और रैदास जैसे होते हैं जो आम जनता के बीच उसकी तरह ही रह कर उत्पादन भी करते हैं और पूरे समाज का आध्यात्मिक उत्थान भी करते हैं। जिनके दिव्य वचनों की ज्योति सदियों तक लोगों के हृदय में प्रकाशित रहती है। ऐसे संत आज भी हैं पर उन्हें खोजना पड़ता है। उन्हें पाने के लिए अपना जीवन शुद्ध और सात्विक करना होता है। ऐसे संत चाहें तो हमारी भौतिक स्थिति को एक दृष्टिपात से कहीं का कहीं पहुंचा दें। पर वे हमारा आध्यात्मिक कल्याण चाहते हैं। इसलिए वे हमें पुत्र, धन, यश या पद की प्राप्ति का आशीर्वाद नहीं देते बल्कि हम पर कृपा करके हमारी कमजोरियों का शोधन करते हैं। कहते हैं जिसका जैसा स्तर होता है उसे वैसा ही गुरू मिलता है। जिसे भौतिक सुख-सुविधाओं की कामना है उसे महलों में रहने वाले आत्मघोषित गुरू मिलेंगे और जिसे प्रभु की प्राप्ति की कामना है उसे विरक्त संत मिलेंगे। यह भी कहते हैं जहां भी धन और शक्ति का केंद्रीयकरण होगा वहां अपराध और व्यभिचार होगा ही। दुर्भाग्य से आज देश में धर्म के नाम पर लोगों को मूर्ख बना कर व्यभिचार के अड्डे बड़ी तेजी से पनप रहे हैं पर जनता इनती भोली है कि जब तक खुद धोखा नहीं खाती उसकी समझ में नहीं आता।

तीसरी, घटना न्यायमूर्ति वेंकटस्वामी के इस्तीफे से जुड़ी है, जो उन्होंने विपक्ष के दबाव में दिया। न्यायमूर्ति वेंकटस्वामी की नियुक्ति सरकारी पद पर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश की संस्तुति पर हुई यह सही है। पर न्यायपालिका के आचरण पर टिप्पणी न करने की श्री जेटली के सलाह का कोई नैतिक आधार नहीं है। श्री जेटली ने कानून मंत्री के पद पर रहते हुए भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश के अनैतिक आचरण पर पर्दा डालने का काम किया था। खुद बाद के मुख्य न्यायघीश एसपी भरूचा ने माना कि उच्च न्यायपालिका में भी बीस फीसदी भ्रष्टाचार है यानी उच्च न्यायपालिका के भी कुछ सदस्यों का आचरण संदेह से परे नहीं है। ऐसे में न्यायपालिका पर टिप्पणी न करने की सलाह देकर श्री जेटली समाज में कौन से मूल्यों की स्थापना करना चाहते है ? सच्चाई तो यह है कि न्याय व्यवस्था के लचरपन के कारण आज समाज में हताशा बढ़ती जा रही है। न्याय पालिका के सदस्य कोई आध्यात्मिक जगत से अवतरित हुए देव पुरूष तो है नहीं, वे भी सामान्य मनुष्य हैं। उनका चयन किसी पारदर्शी परीक्षा प्रणाली से तो होता नहीं । उनसे पूरी तरह पारदर्शी आचरण की अपेक्षा करना मूर्खता होगा। इसलिए आज सबसे ज्यादा जरूरत न्यायपालिका की गुणवत्ता सुधारने की है। कहावत है, ‘एक के साधे सब सधे।अगर बीएमडब्ल्यू कार से सड़क पर आम लोगों को कुचलने वाला रईसजादा इस न्याय व्यवस्था में सजा पा लेगा, आतंकवादियों के आर्थिक स्रोतों को छिपाने वाले पुलिस अधिकारी अगर तरक्की की जगह दंड भोगेंगे, अपराधी राजनीति में सफल नहीं होंगे, राजनीति समाज और राष्ट्र के निर्माण के लिए समर्पित होगी और न्यायपालिका वास्तव में पंच परमेश्वर जैसा आचरण करेगी तभी इस बात की संभावना होगी कि राहुल बलात्कार करने की हिम्मत न करे। समाज की कुरीतियों पर प्रहार करने वाले पत्रकार की हत्या न हो। संसद का समय फालतू में बर्बाद न होकर असली मुद्दों पर केंद्रित हो और लोग न्यायपालिका पर टिप्पणी करने से बचें।

लोकतंत्र की संस्थाओं का जिस तेजी से नैतिक पतन हो रहा है उसके चलते जो कुछ सामने आ रहा है वह तो अभी ट्रेलर मात्र है। अगर हमारे गिरने की गति इतनी ही तीव्र रही तो घोर कलयुग के लक्षण हर गली मोहल्ले में दीखने लगेंगे। सब ओर अराजकता का साम्राज्य होगा और तब नक्सलियों व आतंकवादियों की बंदूके व्यवस्था को नियंत्रित करेंगी।

Friday, November 22, 2002

अमर सिंह की बयानबाजी

समाजवादी पार्टी (सपा) के वरिष्ठ नेता कहे जाने वाले श्री अमर सिंह बहुत नाराज हैं। पिछले दिनों उन्होंने उत्तर प्रदेश में विधान परिषद के उप चुनाव में कांग्रेस की भूमिका को लेकर कड़ी टिप्पणियां कीं। उन्होंने कांग्रेस और भाजपा पर मिलीभगत का भी आरोप लगाया और कांग्रेस को गुजरात में सबक सिखाने का ऐलान किया। जाहिर है कि इंका ने इस उप चुनाव में वोट न डालकर सत्तारूढ़ संगठन बसपा और भाजपा के प्रत्याशी को जीतने का मौका दिया। यदि इंका सत्तारूढ़ संगठन के प्रत्याशी के विरुद्ध मतदान करती तो न सिर्फ विपक्ष का प्रत्याशी विजयी होता बल्कि उत्तर प्रदेश सरकार के ऊपर भी संकट आ जाता क्योंकि इससे यह साफ सिद्ध हो जाता कि सरकार अल्पमत में है। पिछले दिनों जिस तरह के प्रयास सपा ने उत्तर प्रदेश की सरकार को गिराने के लिये किये उससे ऐसे संकेत दिये गये मानो सपा और इंका में निकटता बढ़ रही है। पर, दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है। लगता है इंका लोकसभा में 1999 में हुए अपने उस अपमान को भूली नहीं है जो उसे सपा के रुख के कारण झेलना पड़ा था। जब इसी तरह सपा ने विश्वास मत में हिस्सा न लेकर वाजपेई सरकार को बचा लिया। इस घटना के बाद अमर सिंह की निकटता प्रधानमंत्री कार्यालय से इतनी ज्यादा बढ़ गयी कि पिछले कुछ वर्षों में भाजपा तक के वरिष्ठ नेता यह कहते पाये जाते थे कि राजग की सरकार में श्री अमर सिंह के काम फौरन हो जाते हैं जबकि भाजपा के वरिष्ठ नेता भी महीनों धक्के खाते रहते हैं। यह दूसरी बात है कि वही अमर सिंह अब भाजपा और इंका पर मिलीभगत का आरोप लगा रहे हैं। सब समय की बात है। कभी नाव पानी में और कभी पानी नाव में।

पिछले विधानसभाई चुनाव में सपा ने उत्तर प्रदेश में अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। जानकार बताते हैं कि इस चुनाव में सपा को अपनी जीत का काफी भरोसा था। सपा के निकट के लोग कहते हैं कि शायद यही वजह थी जो श्री अमर सिंह ने मुम्बई के एक मशहूर औद्योगिक घराने से इस चुनाव में अच्छी खासी मदद जुटा ली। पर अपेक्षित कामयाबी फिर भी नहीं मिली और तब श्री अमर सिंह और श्री मुलायम सिंह यादव की समझ में आया कि उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने के लिये उन्हें इंका की मदद लेनी ही पड़ेगी। तब से ही अपनी गलती पर प्रायश्चित करते हुए दोनों ने श्रीमती सोनिया गांधी से सम्पर्क जोड़ने की भरसक कोशिश की और हर तरह की मध्यस्थता भी करवाई। बावजूद इसके इंका ने सपा को कोई ज्यादा घास नहीं डाली। ना भी नहीं किया और हां भी नहीं की। पशोपेश में रखा। पिछले दिनों जब श्री अमर सिंह ने लखनऊ में यह घोषणा की कि वे चैबीस घंटे में सरकार गिरा देंगे तो उन्हें विश्वास था कि इंका उनका साथ देगी। पर इंका ने सपा को फिर रास्ता दिखा दिया। यह कहकर कि पहले अंकगणित ठीक करो।

दरअसल इंका पूरे आत्मविश्वास में है। वह मानती है कि अगले लोकसभा चुनाव में उसे जनता का व्यापक समर्थन मिलेगा। इसलिये वह राजग सरकार को कहीं भी अस्थिर करके अपने सिर पाप नहीं लेना चाहती। वह मानती है कि सरकार की नीतियों से जनता खुश नहीं है और इसलिये उसे इंका की झोली में आना पड़ेगा। केन्द्र में सरकार बनाने के लिये उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में मजबूत हुए बिना ऐसा संभव नहीं होगा। जब तक सपा उत्तर प्रदेश में मजबूत रहेगी तब तक इंका का वोट बैंक उसे वापस नहीं मिलेगा। इसलिये उसकी नीति उत्तर प्रदेश में सपा को मदद न करने की ही रही है। इंका चाहती है कि सपा अपने विरोधाभासों के कारण उत्तर प्रदेश की राजनीति में खुद ही हाशिये पर चली जाए ताकि इंका का जनाधार बढ़ सके। ऐसे में लगता नहीं है कि किसी भी कीमत पर इंका सपा के साथ खड़ी होना पसंद करेगी। जहां तक श्री अमर सिंह का यह दावा है कि सपा इंका को गुजरात में चुनौती देगी तो इस धमकी में कोई खास दम नजर नहीं आता। गुजरात में सपा का आधार नगण्य है। पिछले दिनों सपा ने गुजरात में एक ऐसे व्यक्ति को खड़ा किया जिसका लगातार चार चुनाव जीतने का रिकार्ड था। जसपाल सिंह जो बड़ौदा के पुलिस कमिश्नर भी रह चुके थे, वे भाजपा के मंत्रिमंडल में मंत्री थे। अमर सिंह ने उन्हें बड़े मान सम्मान के साथ सपा में शामिल करवाया और गुजरात में चुनाव लड़वाया। पर सपा का बिल्ला लगते ही जसपाल सिंह की ऐसी दुर्गति हुई कि जमानत तक जब्त हो गयी।

अगर श्री अमर सिंह इंका पर भाजपा से मिलीभगत की राजनीति करने का आरोप लगा रहे हैं तो इससे बड़ा मजाक कोई नहीं हो सकता। इस समय देश में भाजपा को अगर किसी से चुनौती है तो वह सिर्फ इंका से है और उसकी भावी चुनावी रणनीति इंका और सोनिया गांधी को केन्द्र में रखकर बन रही है। इन दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दलों के निकट आने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

श्री अमर सिंह ने इंका पर छद्म धर्मनिरपेक्षता का आरोप भी लगाया है। यूं राजनीति में एक दूसरे पर आरोप लगाना सामान्य बात है पर यह भी सच है कि कोई भी दल किसी विचारधारा पर ईमानदारी से नहीं चलता। इंका धर्मनिरपेक्ष है या छद्म धर्मनिरपेक्ष यह तो सारा देश जानता है। पर सपा का जो चरित्र परिवर्तन हुआ है उसे लेकर देश के प्रमुख समाजवादियों को तो तकलीफ है ही खुद सपा के तमाम छोटे नेता और कार्यकर्ता भी खुश नहीं हैं। चूंकि अब किसी भी दल ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन तो होता नहीं इसलिये कार्यकर्ताओं को अपनी बात शिखर तक पहंुचाने में बहुत तकलीफ होती है। अनुशासनहीनता का आरोप लगाकर पार्टी से निकाले जाने का भय हमेशा बना रहता है। यही बात सपा पर भी लागू होती है। पर निजी चर्चाओं में ऐसे तमाम सपाई मिलेंगे जो मानते हैं कि श्री अमर सिंह के आने से सपा ने अपनी पहचान खो दी है। अब वह औद्योगिक घरानों का एक मुखौटा बनकर रह गयी है। जिन श्री राम मनोहर लोहिया के विचारों पर चलने का सपा दावा करती आई थी उनके विचार और सपा के कृत्यों में अब उत्तर दक्षिण का रिश्ता बन चुका है। सपा के तमाम नेता इस बात को स्वीकार करते हैं कि श्री अमर सिंह के आने से सपा में धन और साधनों की आमद तो बढ़ी है पर पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं की हैसियत दरबारी कारिन्दों से ज्यादा नहीं बची। यहां तक कि श्री मुलायम सिंह यादव तक का व्यक्तित्व श्री अमर सिंह की मौजूदगी में बौना होता जा रहा है। यह छोटे नेता और कार्यकर्ता इस परिवर्तन को देखकर परेशान भी हैं और हैरान भी। परेशान इसलिये कि उनकी कोई सुनता नहीं और हैरान इसलिये कि श्री मुलायम सिंह यादव जैसा जमीन से उठा नेता कैसे अपने व्यक्तित्व पर इस तरह दूसरे को हावी होने दे रहा है। आखिर वजह क्या है ? इसमें शक नहीं कि श्री अमर सिंह सही मौके पर सही सम्पर्क साधने में कुशल हैं। दोस्तों के दोस्त हैं। जिसकी चाहते हैं जमकर मदद करते हैं। खासकर बड़े औद्योगिक घरानों की। पर उनके जीवन और व्यवहार में समाजवादी विचारधारा का कोई लक्षण दिखाई नहीं देता। ऐसे में श्री अमर सिंह का यह कहना कि इंका छद्म धर्मनिरपेक्षता कर रही है, कोई खास मायने नहीं रखता। पर जैसा सभी जानते हैं कि राजनीति में जो बयानबाजी की जाती है उसके पीछे प्रायः कोई गंभीरता नहीं होती। सपा वही करेगी जो उसके हित में हो। चाहे जनता का हित उसमें निहित हो या न हो। इंका भी वही करेगी जो उसके हित में होगा। इसलिये उत्तर प्रदेश में बार बार अपने सपने टूटते देख सपा की निराशा स्वाभाविक है। पर इससे इंका अपनी रणनीति बदलने नहीं जा रही। सपा इंका को गुजरात में कितनी चोट दे पाएगी यह तो विधानसभा चुनाव के बाद ही पता चलेगा। पर यह स्पष्ट है कि राजग के विरुद्ध धर्म निरपेक्षता के परचम तले एक होने की जो मुहिम बार बार छेड़ी जाती है वह परवान नहीं चढ़ पा रही। हर दल की अपनी क्षेत्रीय सीमायें और अपनी प्राथमिकतायें उसे दूसरे दलों के पास आने से रोकती हैं। अगर धर्म निरपेक्षता की ही बात होती तो फिर तेलगूदेशम, डीएमके व समता जैसे दल भाजपा के साथ न होकर इंका, साम्यवादियों व सपा जैसे दलों के साथ खड़े होते। पर सुविधा की राजनीति में विचारधारा तो मात्र एक हथियार है सत्ता हथियाने का। इसलिये श्री अमर सिंह इंका की ‘‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’’ से परेशान न हों और जो कुछ अपने दल को मजबूत बनाने के लिये करना है, करते जायें। कहते हैं समय से पहले और भाग्य से ज्यादा किसी को कुछ नहीं मिलता।

सपा के नेता श्री मुलायम सिंह यादव गुणी व्यक्ति हैं। बहुत छोटे स्तर से शुरू करके राष्ट्रीय स्तर तक अपने बलबूते पर पहंुचे हैं। अपने ही पुरुषार्थ से मुख्यमंत्री भी बन चुके हैं। उन्हें अपनी शक्ति, साधन और अनुभव का प्रयोग देहात के लोगों की समस्याओं को हल करने में लगाना चाहिये। इससे उनका जनाधार भी बढ़ेगा और उनकी जमीन से जुड़े होने की छवि भी फिर से उभर कर सामने आएगी। जिस पर फिलहाल कुछ बादल छाये हैं। राजनैतिक दल चलाने के लिये हर किस्म के गुण वाले लोगों की जरूरत पड़ती है। पर वे अकबर के दरबार में नवरत्न की तरह होते हैं। आज सपा का नाम सामने आते ही श्री मुलायम सिंह यादव का नहीं श्री अमर सिंह का चेहरा सामने आता है। इसमें कोई बुराई नहीं बशर्ते कि श्री मुलायम सिंह यादव श्री अमर सिंह को अपना उत्तराधिकारी बनाकर वानप्रस्थ आश्रम की सोच रहे हों तो। पर यदि उन्हें सक्रिय राजनीति में रहना है तो अपनी इस छवि से उबरना होगा। श्री अमर सिंह बहुत विश्वसनीय सहयोगी हैं। इसलिये उन पर श्री यादव की निर्भरता तो बनी ही रहेगी पर एक सहयोगी से अत्यधिक निकटता कहीं बाकी सहयोगियों का मन न तोड़ दे इसकी चिंता भी उन्हें करनी होगी। चाटुकारिता के दौर में ऐसी खरी बातें सुनना लोग पसंद नहीं करते। पर नीति कहती है कि ‘‘निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छबाय’’। बुद्धिमान लोग स्वस्थ आलोचना का स्वागत करते हैं। फिर वह चाहे श्री मुलायम सिंह यादव हों या श्री अमर सिंह। आखिर दोनों ही देश के महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। उनकी कार्यशैली पर जनता और मीडिया को अपनी बात कहने का हक है। सुनना या न सुनना ये उनकी मर्जी।

Friday, November 15, 2002

क्या सेना नागरिकों को सजा दे सकती है ?


अगर सैनिकों और नागरिकों के के बीच कोई अप्रिय घटना हो जाए तो किसका कानून चलेगा ? नागरिक प्रशासनिक व्यवस्था का या सेना का ? लोकतंत्र में कौन सर्वोच्च है ? जनता या प्रशासन या फिर सेना ? क्या सैनिक अधिकारी को यह हक है कि वे नागरिकों को अपने कार्यालय में तलब करे ? उनसे सवाल-जवाब करे ? उनसे सजा भुगतने को तैयार रहने की चेतावनी दे या उन्हें डराएं धमकाएं ? सेना की जहां-जहां छावनियां है वहां ऐसी घटनाएं अक्सर होती रहती है। जब सेना के जवान या अधिकारियों की स्थानीय नागरिकों से या स्थानीय प्रशासन से तकरार हो जाती हैै। प्रायः यह तकरार अतिमहत्वहीन कारणों से होती हैै। मसलन, सिनेमा या रेल के टिकट की लाइन में खड़े लोगों के बीच धक्का-मुक्की या महिलाओं पर फिकराकशी या सड़क पर वाहनों की भिडंत या पड़ौसियों की रोजमर्रा के मामलों पर कहासुनी। ऐसे सब मामलों में अक्सर देखने को आता है कि सेना के पृष्ठभूमि वाले लोग नागरिकों को आतंकित करते हैं या दबाते हैं, यह एक चिंतनीय स्थिति है।

ताजा घटनाक्रम के अनुसार आगरा में संभ्रांत परिवारों के सात किशोर एक रेस्टोरेंट से भोजन करके निकले। न ये शोहदे थे न शराबी-जुआरी। अच्छे स्कूल कालेजों में पढ़ने वाले नौजवान थे। उसी रेस्टोरेंट से उन्हीं की सी उम्र का एक और नौजवान अपने साथ एक महिला को लेकर निकला। चश्मदीद गवाह बताते हैं कि अनेक बार मोटरसाइकिल की किक मारने के बावजूद जब उस नौजवान की मोटर साइकिल स्टार्ट नहीं हुई तो ये सात किशोर ठहाका लगा कर हंस दिए और इनमें से एक दो ने फिकरा कशा, ‘लोग लड़की लेकर आते हैं और मोटर साइकिल स्टार्ट नहीं कर पाते।वह नौजवान इस फिकरे से तिलमिला गया। सौभाग्य से मोटरसाइकिल स्टार्ट हुई। कुछ ही गज गई होगी कि फिर फुस हो गई। सातो किशोर फिर ठहाका लगा कर हंसे और कुछ और फिकरे कशे। इस पर वह नौजवान नाराज हो गया और आवेश में इन सातों किशोर की तरफ आया और इन्हें धमका कर खामोश करना चाहा। कहासुनी हुई। नौजवान ने अपना परिचय पत्र दिखाते हुए बताया कि वह पैरा मिलिट्री फोर्स का कैप्टन है। पर कहासुनी इतनी हो चुकी थी कि इन सात में से दो नौजवानों ने सैयम खो दिया और उस कैप्टन से लड़े पड़े। उसके बाद कुछ मिनट गुथमगुथा हुई और फिर बाकी साथियों के रोकने पर मामला थम गया। ये सातों किशोर मामले की गंभीरता को समझते हुई वहां से खिसक गए। क्योंकि पैरा मिलिट्री फोर्स का आगरा में यह इतिहास रहा है कि जब कभी भी उनके किसी साथी की स्थानीय नागरिक या प्रशासन से तकरार हुई तो उन्होंने जम कर नागरिकों की पीटाई की। 10-15 वर्ष पहले तो कहते हैं कि पूरी बिग्रेड ही आगरा शहर पर निकल आई थी और उसने सारे शहर में ढूंढ-ढूंढ कर पुलिसवालों की धुनाई की। वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों तक को नहीं बक्शा, बहुत बड़ा विवाद खड़ा हुआ।

खैर ताजा घटना के बाद लड़ने वाले लड़के की कार का नंबर उस कैप्टन ने नोट कर लिया। बस उसके बाद शुरू हो गया आगरा में सेना के आतंक का एक लंबा सिलसिला। इन सातों बच्चों के मां-बाप को कई बार सेना ने अपने कार्यालय में तलब किया। बड़े अफसरों ने कूटनीति से और छोटे अफसरों ने बाकायदा धमका कर इन मां-बापों से कहा कि अपने बच्चे हमें सौप दो, हम उन्हें सजा देंगे। चूंकि फौज का आतंक नागरिकों में व्याप्त है इसलिए कोई भी मां-बाप अपने बच्चों को इस तरह खतरनाक परिस्थिति में फेंकने को तैयार नहीं था। वे जानना चाहते थे कि सजा का स्वरूप क्या होगा और उसके निर्धारत का मापदंड क्या होगा। साथ ही उनकी शर्त यह भी थी कि उनके बच्चों को जो भी सजा दी जाए वह उनकी मौजूदगी में दी जाए। जबकि बिग्रेडियर महोदय का कहना था कि सजा देने के लिए बच्चों को मां-बाप से दूर ले जाया जाएगा। सेना के अधिकारी कोई बात सुनने को तैयार नहीं। इन बच्चों के मां-बापों ने बार-बार अनुनय-विनय की कि आप जो भी आरोप लगाने हैं लगा कर थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दें और बच्चों कोे देश के कानून के अनुसार सजा मिलने दें। पर सैन्य अधिकारी टस से मस नहीं हुए। इन मां-बापों ने अपने-अपने उन संबंधियों को संपर्क किया जो फौज में उच्च पदों पर आसीन हैं। बिग्रेडिर से कहीं ऊंचे-ऊंचे बड़े अधिकारियों ने देश के कोने-कोने से फोन करके आगरा की इस बिग्रेड को समझाने की कोशिश की कि उन्हें इस छोटी सी गलती के लिए नागरिकों को इस तरह तेलब करने का या उनके बच्चों को सजा देने का कोई कानूनी हक नहीं है। पर इसके बावजूद बात नहीं बनी। भयभीत माता-पिता ने अपने बच्चे छिपा दिए। इतना ही नहीं वे खुद भी रात को अपने घरों से बाहर मित्रों के यहां जाकर सोने लगे क्योंकि उन्हें सेना के छोटे अधिकारियों ने काफी डराया-धकमकाया। उन्हें ऐसे संकेत दिए गए कि अगर उन्होंने अपने बच्चे नहीं सौपे तो सेना के जवान सादीवर्दी में, रात को आकर उनको घर से उठा ले जाएंगे। आखिर एक बच्चें के रिश्तेदार बिग्रेडियर खुद आगरा पहुंचे और उन्होंने यह प्रस्ताव रखा कि सजा के तौर पर बच्चों को मारा-पीटा नहीं जाएगा। उनके हाथ-पैर नहीं तोड़े जाएंगे। सजा मां-बाप की मौजूदगी में दी जाएगी और वे बिगे्रडियर मौके पर मौजूद रहेंगे। समझौता हुआ। सातों बच्चों के मां-बाप अपने बच्चों के साथ वहां पहुंचे बड़े आत्मीय वातावरण में उनका स्वागत हुआ और बच्चों को पचास गढ्ढे खोदने की सजा दी गई। जिसके बाद इस तनावपूर्ण स्थिति का सुखांत हुआ। पर यहां कई सवाल खड़े होते हैं। यह सही है कि कैप्टन का परिचय पत्र देखने के बावजूद जिन दो किशोरों ने लड़ाई की उन्होंने घोर निंदनीय कार्य किया और इसकी जो भी सजा कानून में हो उन्हें मिलनी चाहिए थी। पर जिस तरह सेना ने नागरिकों को तलब किया उन्हें दो हफ्ते तक भय और आतंक में जीने के लिए मजबूर किया और अंततः एक रचनात्मक सजा ही सही पर सजा तो दी। क्या यह सब कानूनी रूप से वैद्य है ? क्या सेना का नागरिकों के प्रति ऐसा व्यवहार एक लोकतांत्रिक देश में बर्दाश्त किया जा सकता है ? सेनावालों का सम्मान होना चाहिए, ये हर समझदार आदमी मानता है। सेना कठिन परिस्थितियों में जानजोखिम में डालकर, देश के लिए काम करती है। पर इसका मतलब यह तो नहीं कि उसका व्यवहार मानवीय मूल्यों से हटकर हो या देश के कानून के विरूद्ध हो।

आत्म प्रशंसा की बात नहीं है। पर एक उदाहारण के तौर पर कहना चाहता हूं कि जब मैंने देश के तमाम ताकतवर नेताओं और मंत्रियों के विरूद्ध जैन हवाला कांड का पर्दाफाश कर एक लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी तो मेरे जान पर बेहद खतरा था। कई बार मेरी हत्या के भी प्रयास हुए। सेना की तरह मेेरे पास लड़ने को हथियार नहीं थे। कोई सुरक्षा व्यवस्था भी नहीं थी और मेरे परिवार को जिन अभद्र गालियों और धमकियों को रात-दिन फोन पर झेलना पड़ता था उसकी शिकायत सुनने वाला भी देश में कोई नहीं। केवल प्रभु के नाम का सहारा था। पर इस संघर्ष के लिए जो जोखिम, जो तकलीफ और अपमान, मैंने या मेरे परिवार ने देशहीत में सहे क्या उसकी एवज मे अब मैं कानून हाथ में लेने का अधिकारी बन गया ? क्या मुझे यह हक है कि मैं ऐसी किसी भी दुर्घटना के लिए किसी को भी तलब कर धमकाऊं या सजा दूं और तुर्रा ये हो कि मैं तो जानजोखिम में डालकर देशहीत में पत्रकारिता करता हूं इसलिए हर नागरिक को मुझसे या मेरे परिवार से तमीज से पेश आना चाहिए ? यदि ऐसा करता हंू तो ये मेरी मूर्खता होगी। समाज सेना के कानूनों से नहीं चला करता। किशोर अवस्था में एक-दूसरे पर फिकरे कसना आम बात है। यह सारे देश में होता है। हां कोई अभद्रता करे, अशलीलता दिखाए, शारीरिक छेड़छाड़ करे या उसकी बद्दतमीजी हद से ज्यादा बढ़ रही हो तो उससे निपटने के लिए पुलिस और कानून का रास्ता है। आगरा के वह कैप्टन महोदय यह तर्क दे सकते हैं कि पुलिस और कानून व्यवस्था इतनी लचर है कि उससे उन्हें कोई उम्मीद नहीं इसलिए उन्होंने खुद ही सजा देना मुनासीब समझा। अगर उनका यह तर्क सही भी है तो सेना क्या संदेश देना चाहती है कि देश की 100 करोड़ जनता पुलिस और कानून पर विश्वास न करे और हर मामले का फैसला अपने बाहुबल के अनुसार खुद की हर लें। यदि ऐसा होने लगे तो देश में अराजकता फैल जाएगी। सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी। सेना की गोलियां भी फिर समाज में शांति स्थापित नहीं कर पाएंगी। आगरा के वे संभ्रांत परिवार के मां-बाप तो अपना अपमान सह कर, 15 दिन मानसिक आतंक और मानसिक तनाव में जी कर और अपने बच्चों को सजा दिलवाकर खामोेश हो गए। न शिकायत करना चाहते हैं न इस विषय में बात करना चाहते हैं पर उनकी ये खामोशी सेना के चेहरे पर एक बदनुमा दाग है। देश के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों और रक्षामंत्री श्री जार्ज फर्नाडिज का यह कर्तव्य है कि वे आगरा के इस कांड की निष्पक्ष जांच करवाएं और ऐसे कदम उठाएं जिससे नागरिकों के मन में सेना के प्रति सम्मान बढ़े। जिस प्रकार आगरा के सैन्य अधिकारियों ने अनाधिकृत रूप से कानून हाथ में लेकर नागरिकों को सजा देने का दुष्प्रयास किया है उसके लिए उन्हें सेना के कानून के अनुसार जो भी उचित सजा हो वह मिलनी ही चाहिए।

देश और समाज के लिए लड़ने वाले लोग हर क्षेत्र में होते हैं। समाज के लिए जान जोखिम में डालने वाले लोग भी हर क्षेत्र में होते हैं। जो सफाई कर्मचारी सीवर के मेनहोल में उतर कर उसकी सफाई करते हैं वे भी अक्सर जहरीली गैस में घुट कर मर जाते हैं। जो बिजली कर्मचारी खम्भों पर चढ़कर बिजली के तार ठीक करते हैं वे भी अक्सर चिपक कर मर जाते हैं। जो पुलिस के सिपाही अपराधियों को पकड़ते हैं वे भी कई बार मुठभेड़ में मारे जाते हैं। समाज के लिए जानजोखिम में डालने का मतलब ये कतई नहीं कि हम अपनी नागरिक दायित्वों को भूल कर तानाशाहीपूर्ण व्यवहार करने लगे। मेरे मन में सेना के प्रति बहुत आदर रहा है। खोजी पत्रकार होने के नाते सेना में व्याप्त भ्रष्टाचार और बुराइयों से मैं अनभिग्य नहीं हूं। पर मैं मानता हूं कि सेना के जाबांज सिपाही जिन दुष्कर परिस्थतियों में देश की रक्षा करते हैं उसके लिए वे सम्मान के पात्र हैं। कुछ समय पहले इसी कालम में जब मैंने एक लेख लिखा था, ‘वीआईपीयोंके साहबजादे सेना में क्यों नहीं जाते ?‘ तो उसकी काफी प्रतिक्रिया हुई थी। उस दौरान देश में जहां भी मैं व्याख्यान देने गया लोगों ने इस लेख की चर्चा की। तब मैंने सेना के गौरव में प्रशस्तीगान किया था और धिक्कारा था उन लोगों को जो सेना की वाहवाही तो करते हैं पर खुद जानजोखिम में नहीं डालना चाहते। आज इस लेख में सेना के एक ऐसे कृत्य का वर्णन करते हुए दुख भी हो रहा है और चिंता भी। क्योंकि हर देशभक्त अपनी सेना का मस्तक गर्व से उठा देखना चाहता है। उसके दामन में किचड़ के दाग कोई नहीं देखना चाहता। आगरा जैसी इन घटनाओं से सबक सीखकर देश की सैन्य अधिकारी और रक्षा मंत्री क्या कुछ ऐसा ठोस करेंगे जिससे इन घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो ?

Friday, November 1, 2002

पुलिस सुधार क्यों लागू नहीं होते ?

हाल ही में पुलिस सुधारों को लेकर हुई एक उच्च स्तरीय बहस में केंद्रीय गृहमंत्री व उप प्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी यह सुनकर चैक गए कि भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 संविधान की मूल भावना के विरूद्ध है। भारत का संविधान, भारत की जनता को सर्वोच्च मानता है। उसको ही समर्पित है। भारतीय गणराज्य की समस्त संस्थाएं जनता की सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। किंतु भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 में कहीं भी जनता शब्द का उल्लेख नहीं आता है। जाहिर है कि यह अधिनियम उस समय बनाया गया था जब भारत पर ब्रितानी हुकूमत कायम थी। इस कानून का उद्देश्य ब्रिटिश हितो को साधना था। पुलिस का काम जनता पर नियंत्रण रखना था ताकि कानून और व्यवस्था इस तरह बनी रही कि अंग्रेज हुक्मरानों को भारत का दोहन करने में कोई दिक्कत पेश न आए। स्पष्ट है कि इस कानून से नियंत्रित होने वाली भारतीय पुलिस की मानसिकता इस तरह विकसित की गई है कि वह हुक्मरानों के प्रति ही खुद को जवाबदेह मानती है, जनता के प्रति नहीं। इसलिए जनता की सेवा करना या उसे राहत पहुंचाना भारतीय पुलिस की जहनियत में नहीं है। जनता को रियाया मान कर उस पर रौबदारी के साथ हुक्म चलाना और अगर वह न माने तो डंडे के जोर पर उसे नियंत्रित करना।

दरअसल, 1897 के गदर के बाद जब इंग्लैंड की हुकूमत ने जब ईस्ट इंडिया कंपनी से हिन्दुस्तान की बागडोर ली तब उसे ऐसी ही पुलिस की जरूरत थी। इसलिए ऐसे कानून बनाए गए। पर आश्चर्य की बात है कि 1947 में जब भारत आजाद हुआ या 1950 में जब हमने अपना संविधान लागू किया तब क्यों नहीं इस भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 में बुनियादी परिवर्तन किया गया ? क्यांे औपनिवेशिक मानसिकता वाले कानून को एक स्वतंत्र, सार्वभौमिक, लोकतांत्रिक जनता के ऊपर थोपा गया ? जब कानून पुराना ही रहा तो भारतीय पुलिस से ये कैसे उम्मीद की जाती है कि वह सत्ताधीशों को छोड़कर जनता की सेवा करना अपना धर्म माने ? नतीजतन, आजतक भारतीय पुलिस की जो छवि है वो जनसेवी की नहीं अत्याचारी की है। लुटे, पीटे, शोषित लोग अपनी फरियाद लेकर थाने नहीं जाते क्योंकि उन्हें पुलिस से न्याय मिलने की उम्मद ही नहीं होती। आश्चर्य की बात है कि पिछले 55 वर्षों से हम इस दकियानुसी कानून को ढोते चले आ रहे हैं। आज भी पुलिस जनता का विश्वास नहीं जीत पाई है। ऐसा नहीं कि इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया। 1977 में बनी जनता पार्टी की पहली सरकार ने एक राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया जिसमें तमाम अनुभवी पुलिस अधिकारियों व अन्य लोगों को मनोनीत कर उनसे पुलिस व्यवस्था में वांछित सुधरों की रिपोर्ट तैयार करने को कहा गया। आयोग ने काफी मेहनत करके अपनी रिपोर्ट तैयार की पर बड़े दुख की बात है कि 20 बरस बीतने के बाद भी आज तक इस रिपोर्ट को लागू नहीं किया गया। इसके बाद भी कई अन्य समितियां बनी जिन्हें यही काम फिर-फिर सौंपा गया।

1997 में तत्कालीन गृहमंत्री श्री इंद्रजीत गुप्ता ने सभी मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों व संघ शासित प्रदेशों के प्रशासकों को एक पत्र लिख कर पुलिस व्यवस्था में सुधार के कुछ सुझाव भेजे। जिनकी उपेक्षा कर दी गई। 1998 में पुलिस सुधारों का अध्ययन करने के लिए महाराष्ट्र के पुलिस अधिकारी श्री जेएफ रिबैरो की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया जिसने मार्च 1999 तक अपनी अंतिम रिपोर्ट दे दी। पर इसकी सिफारिशें भी आज तक धूल खा रही हैं। इसके बाद पदमनाभइया की अध्यक्षता में एक और समिति का गठन किया गया। जिसने सुधारों की एक लंबी फेहरिश्त केन्द्र सरकार को भेजी, पर रहे वही ढाक के तीन पात।

यह बड़े दुख और चिंता की बात है कि कोई भी राजनैतिक दल पुलिस व्यवस्था के मौजूदा स्वरूप में बदलाव नहीं करना चाहता। इसलिए न सिर्फ इन आयोगों और समितियों की सिफारिशों की उपेक्षा कर दी जाती है बल्कि आजादी के 55 साल बाद भी आज देश औपनिवेशिक मानसिकता वाले संविधान विरोधी पुलिस कानून को ढो रहा है। इसलिए इस कानून में आमूलचूल परिवर्तन होना परम आवश्यक है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की पुलिस को जनोन्मुख होना ही पड़ेगा। पर राजनेता ऐसा होने दें तब न।

आज हर सत्ताधीश राजनेता पुलिस को अपनी निजी जायदाद समझता है। नेताजी की सुरक्षा, उनके चारो ओर कमांडो फौज का घेरा, उनके पारिपारिक उत्सवों में मेहमानों की गाडि़यों का नियंत्रण, तो ऐसे वाहियात काम है ही जिनमें इस देश की ज्यादातर पुलिस का, ज्यादातर समय जाया होता है। इतना ही नहीं अपने मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए या उन्हंे नियंत्रित करने के लिए पुलिस का दुरूपयोग अपने कार्यकर्ताओं और चमचों के अपराधों को छिपाने में भी किया जाता है। स्थानीय पुलिस को स्थानीय नेताओं से इसलिए भय लगाता है क्योंकि वे जरा सी बात पर नाराज होकर उस पुलिस अधिकारी या पुलिसकर्मी का तबादला करवाने की धमकी देते हैं और इस पर भी सहयोग न करने वाले पुलिस अधिकारी का तबादला करवा देते हैं। इसका नतीजा ये हुआ है कि अब निचले स्तर के पुलिसकर्मियों के बीच तेजी से जातिवाद फैलता जा रहा है। अपनी जाति के लोगों को संरक्षण देना और अपनी जाति के नेताओं के जा-बेजा हुक्मों को मानते जाना आज प्रांतीय पुलिस के लिए आम बात हो गई है। खामियाजा भुगत रही है वह जनता जिसके वोटों से ये राजनेता चुने जाते हैं। किसी शहर के बुजुर्ग और प्रतिष्ठित आदमी को भी इस बात का भरोसा नहीं होता कि अगर नौबत आ जाए तो पुलिस से उनका सामना सम्माननीय स्थिति में हो पाएगा। एक तरफ तो हम आधुनिककरण की बात करते हैं और जरा-जरा बात पर सलाह लेने पश्चिमी देशों की तरफ भागते हैं और दूसरी तरफ हम उनकी पुलिस व्यवस्था से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं। वहां पुलिस जनता की रक्षक होती है, भक्षक नहीं। लंदन की भीड़ भरी सड़क पर अक्सर पुलिसकर्मियों को बूढ़े लोगों को सड़क पार करवाते हुए देखा जा सकता है। पश्चिम की पुलिस ने तमाम मानवीय क्रिया कलापो से वहां की जनता का विश्वास जीत रखा है। जबकि हमारे यहां यह स्वप्न जैसा लगेगा।

पुलिस आयोग की सिफारिश से लेकर आज तक बनी समितियों की सिफारिशों को इस तरह समझा जा सकता है; पुलिस जनता के प्रति जवाबदेह हो। पुलिस की कार्यप्रणाली पर लगातार निगाह रखी जाए। उनके प्रशिक्षण और काम की दशा पर गंभीरता से ध्यान दिया जाए। उनका दुरूपयोग रोका जाए। उनका राजनीतिकरण रोका जाए। उन पर राजनीतिक नियंत्रण समाप्त किया जाए। उनकी जवाबदेही निर्धारित करने के कड़े मापदंड हों। पुलिस महानिदेशकों का चुनाव केवल राजनैतिक निर्णयों से प्रभावित न हों बल्कि उसमें न्यायपालिका और समाज के प्रतिष्ठित लोगों का भी प्रतिनिधित्व हो। इस बात की आवश्यकता महसूस की गई कि पुलिस में तबादलों कीे व्यवस्था पारदर्शी हो। उसके कामकाज पर नजर रखने के लिए निष्पक्ष लोगों की अलग समितियां हों। पुलिस में भर्ती की प्रक्रिया में व्यापक सुधार किया जाए ताकि योग्य और अनुभवी लोग इसमें आ सकें। आज की तरह नहीं जब सिफारिश करवा कर या रिश्वत देकर अयोग्य लोग भी पुलिस में भर्ती हो जाते हैं। जो सिपाही या इन्सपेक्टर मोटी घुस देकर पुलिस की नौकरी प्राप्त करेगा उससे ईमानदार रहने की उम्मीद कैसे की जा सकती है ? पुलिस जनता का विश्वास जीते। उसकी मददगार बनें। अपराधों की जांच बिना राजनैतिक दखलंदाज़ी के और बिना पक्षपात के फुर्ती से करे। लगभग ऐसा कहना हर समिति की रिपोर्ट का रहा है।
पर लाख टके का सवाल यह है कि क्या हो यह तो सब जानते हैं, पर हो कैसे ये कोई नहीं जानता। राजनैतिक इच्छाशक्ति के बिना कोई भी सुधार सफल नहीं हो सकता। अनुभव बताता है कि हर राजनैतिक दल पुलिस की मौजूदा व्यवस्था से पूरी तरह संतुष्ट है। क्योंकि पूरा पुलिस महकमा राजनेताओं की जागीर की तरह काम कर रहा है। जनता की सेवा को प्राथमिकता मानते हुए नहीं। फिर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ? जब श्री आडवाणी से यह पूछा गया कि पुलिस आयोग की सिफारिशें क्यों नहीं मानी जा रहीं, तो उनका उत्तर था कि उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक श्री प्रकाश सिंह की एक जनहित याचिका सर्वोच्च अदालत में लंबित पड़ी है। उसके परिणाम देखकर ही कोई सुधार लागू किया जा सकता है। जब उन्हें याद दिलाया गया कि ऐसे अनेक मामले हैं जिनमें सर्वोच्च न्यायालय के वाजिब सुझावों को भी संसद में समर्थन नहीं मिलता, मसलन, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के अधिकारों का मामला, आज तक लटका हुआ है। बिना दांत का सीवीसी भ्रष्टाचार कैसे रोक सकता है ? फिर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से क्या फर्क पड़ेगा ? ऐसे माहौल में पुलिस सुधार कैसे लागू हो सकते हैं ? भारत के मौजूदा उप राष्ट्रपति श्री भैरोसिंह शेखावत ने इस बहस में ठीक ही कहा कि पुलिस सुधार कोई अकेले लागू नहीं हो सकते जब तक ऐसे दूसरे सुधारों को एक समग्र दृष्टि के साथ लागू न किया जाए। नतीजा ये कि पुलिस सुधार लागू होंगे नहीं। पुलिस महानिदेशकों की सालाना बैठकों में बड़बोले ऐलान किए जाते रहेंगे और जनता यूं ही पुलिस से प्रताडि़त होती रहेगी। अगर जनता चाहती है कि पुलिस का रवैया बदले तो उसे अपने क्षेत्र के सांसद को इस बात के लिए तैयार करना होगा कि वह संसद में पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू करने का अभियान चलाए। क्या हम यह करेंगे ?