Friday, April 11, 2003

लाचार मानवता


आखिर अमरीका और इंग्लैंड की संयुक्त सेनाए बगदाद में पहुंच ही गई। इराक पर कब्जे के बाद अमरीका की प्राथमिकता होगी इराक में कठपुतली सरकार का गठन। इराक के तेल कुंओं पर कब्जा। इराक के पुनर्निर्माण के लिए निजी कंपनियों को ठेके देना और अमरीकी फौजों का जो गोला-बारूद इस युद्ध में नष्ट हुआ है उसे दुबारा खरीद कर अपनी सेना के भंडार भरना।
मजे कि बात ये है कि इराक पर फतह से पहले ही अमरीका ने कुवैत में इराक की नई सरकार का गठन कर लिया था और अमरीका की भवन निर्माण कंपनियों को इराक के पुनर्निर्माण के ठेके देना भी तय कर लिया था। साफ जाहिर है कि रासायनिक हथियारों का बहाना लेकर अमरीका इराक के तेल कुंओं पर कब्जा करना चाहता था इसीलिए उसने न तो संयुक्त राष्ट्र की परवाह की न दुनिया की विशाल जनमत की जो उसके विरूद्ध था और न ही अपने देश में उठे विरोध के स्वरों की। पर जिन लोगों ने टीवी चैनलों पर इराक का युद्ध देखा है वे हैरान हैं कि बगदाद तक मित्र सेनाए पहुंच गई और उन पर कहीं भी रासायनिक सशत्रों का हमला नहीं मिला। जबकि इसका काफी ढिंढोरा पीटा गया था कि इराक के पास भारी मात्रा में रासायनिक अस्त्र जमा हैं और हताशा की स्थिति में उसकी सेनाएं इनका प्रयोग करेंगी। दुश्मन घर में घुस आए इससे ज्यादा हताशा का क्षण और क्या हो सकता है ?इतना ही नहीं इस पूरे युद्ध में अमरीकी सेनाओं को कहीं भी पारंपरिक  या रासायनिक शस्तों का जखीरा नहीं मिला। है न आश्चर्य की बात ? इराक जैसा देश जो अमरीका से युद्ध के आतंक के साए में लगातार इतने वर्षों से जी रहा था क्या उसने इतने बड़े युद्ध के लिए हथियार तक नहीं जमा किए ? करता कैसे, 12 वर्ष से इराक की नाकाबंदी करके अमरीका ने उसकी आपूर्ति के सब रास्ते बंद कर दिए थे। सच तो यह है कि अगर भारत जैसे देश में भी तलाशी ली जाए तो हर शहर में हथियारों का भारी जखीरा बरामद होगा। तो फिर इराक में क्यों नहीं हुआ? साफ जाहिर है कि इराक पर युद्ध थोपने के लिए ही अमरीका ने उस पर तमाम तरह के झूठे-सच्चे आरोप मढे। इस प्रकरण में कई महत्वपूर्ण बातें उभर कर सामने आई हैं। सबसे पहली बात तो ये है कि अब अमरीका के चेहरे से मानवीय स्वतंत्रता, नागरिक अधिकार और लोकतंत्र का नकाब पूरी तरह से उतर गया है। पिछले 50 वर्षों से अमरीका ने इन शब्द जालों का आडंबर रच रखा था। लेकिन जिस तरह दुनिया के हर हिस्से पर  क्रमशः अमरीका अपना प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण जमाता जा रहा है उससे उसके असली इरादे अब साफ होते जा रहे हैं।

अमरीका दुनिया का एकछत्र मालिक बनना चाहता है। वो चाहता है कि पूरी दुनिया की अर्थ-व्यवस्था पर उसका नियंत्रण हो। सारी दुनिया में एक ही मुद्रा चले। दुनिया भर में शांति स्थापना के नाम पर हर देश को अमरीका अपने शिकंजे में रखना चाहता है। वो चाहता है कि दुनियाभर के लोग अपनी मेहनत से और अपने संसाधनों से जो भी वस्तु या सेवाएं दे सकते हैं, अमरीकी समाज को दें। मतलब साफ है कि सारी दुनिया अमरीकी समाज की खुशहाली के लिए अपना तन, मन व धन समर्पित कर दे।  इस तरह अमरीका नव-साम्राज्यवाद को पुख्ता कर लेना चाहता है। इन देशों को वह नाममात्र के लिए आजाद छोड़ देना चाहता है। देश यूं तो आजाद दिखाई देंगे पर इनकी सरकारें हर फैसला अमरीका से पूछ कर लेंगी। इससे अमरीका को कई लाभ हैं। एक तो इन देशों का आर्थिक दोहन करने में ये कठपुलती सरकारें बहुत मददगार साबित होंगी। दूसरा इन देशों की जनता की आकांक्षाओं को ये सरकारें पूरा नहीं कर पाएंगी। क्योंकि इन पर डब्ल्यूटीओ और विश्व बैंक जैसे दबाव होंगे, जिनके चलते ये अपने राष्ट्रहित में अपनी राष्ट्रीय नीतियां निर्धारित नहीं कर पाएंगे। अमरीका के हित साधने वाली इन नीतियों से व इन सरकारों के निकम्मेपन या भ्रष्टाचार से इन देशों में आर्थिक संकट और हताशा बढ़ेगी। जिसकी सीधी मार इन देशों की सरकारों पर पड़ेगी। क्योंकि जनता तो उन्हीं देशों की सरकारों को जवाबदेह मानेगी। ऐसे में अमरीका इन देशों पर दोहरा शासन करेगा। फायदे अमरीका के हिस्से में, भ्रष्टाचार, घाटे और जनविरोध उनकी सरकारों के हिस्से में। 

दुनिया भर के विशेषज्ञ ये कहते आए हैं और इस स्तंभ में भी हम लिखते रहे हैं कि इराक पर यह युद्ध अमरीका के हथियार निर्माताओं के दबाव और तेल कुंओं के कब्जे की मंशा से थोपा गया।  आंकड़े बताते हैं कि अमरीका में हथियारों की बिक्री काफी गिर गई थी।  इस युद्ध के बाद उसमें भारी उछाल आएगा। मुनाफा होगा हथियार निर्माताओं का और करभार पड़ेगा अमरीका की जनता पर। दुनिया में जहां भी अमरीका शांति स्थापना के नाम पर दखलंदाजी करता हैं वहां उसका तरीका उसी बंदर जैसा होता है जो दो बिल्लियों का झगड़ा निपटाने में उनकी रोटी गटक गया। अमरीका का अब यही खेल भारत और पाकिस्तान के बीच जारी है। एक तरफ वह आतंकवाद के विरूद्ध विश्वव्यापी जंग छेड़ने का दावा करता है और दूसरी तरफ पाकिस्तान को हर तरह की मदद और संरक्षण देता है। पर अब दुनिया के हालात ऐसे हैं कि किसी भी देश की सरकार अमरीका से उलझने की कुव्वत नहीं रखती। सबने उसके आगे घुटने टेक दिए हैं।

इराक युद्ध का दूसरा परिणाम यह होगा कि मुस्लिम देशों की जनता अपने शासकों से, खासकर अरब देशों के उन शासकों से, खफा हो जाएगी जो अमरीका के पिट्ठू बन कर रहते हैं। बहुत से फिदायिन दुनिया भर में अब अमरीकियों को अपने गुस्से का शिकार बनाएंगे और अशांती पैदा करेंगे। इस युद्ध का तीसरा परिणाम यह होगा कि फ्रांस, जर्मनी और चीन जैसे देश अब अमरीका के खिलाफ गुप-चुप तरीके से लामबंद होना शुरू करेंगे और उसकी दादागिरी को चुनौती देने के रास्ते खोजे जाएंगे। एक परिणाम और होगा। लगता है कि इस युद्ध के बाद अमरीका शिखर से गिरना शुरू होगा । हालांकि दुनिया में उसकी दादागिरी अभी कम से कम 10 वर्ष और चलेगी पर अब उसकी निरंकुश सत्ता में कमी आएगी। बाकी वक्त बताएगा। 

पर इसमें नया कुछ नहीं है। पुरानी कहावत है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस। जो ताकतवर होता हैं वह अपनी जिद दूसरों पर थोपता है। अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में जो काम अमरीका कर रहा है, देश के स्तर पर वही काम सद्दाम हुसैन कर रहे थे। कुर्दों की लोकतांत्रिक भावनाओं को दबाना और उन पर अत्याचार करना। अपने और अपने कुनबे के ऐशो-आराम के लिए दुनिया के साजो सामान इकट्ठा करना और बड़े-बड़े महल बनवाना क्या सद्दाम हुसैन का महत्वाकांक्षी होना सिद्ध नहीं करता ? जहां भी सत्ता का केन्द्रीयकरण होता है वहीं आम जनता का शोषण होता है। भारत में भी तो यही स्थिति है। हमारे राजनेता क्या कर रहे हैं ? जनता तबाह होती जा रही है और इन्हें अपनी कमाई और ऐशों आराम के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं। फिर भी बढ़-चढ़ कर दावे किए जाते हैं। जनहित की दुहाई दी जाती है। पिछले दिनों राजग सरकार के पांच वर्ष पूरे होने पर प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ताल ठोक कर कहा कि उनकी सरकार भ्रष्टाचार विहीन सरकार है। पर हकीकत क्या है ? जनता जानती है। भ्रष्टाचार विहीन सरकार की पहली पहचान है कि उसके किसी भी विभाग में रिश्तबाजी न हो। आज केन्द्र सरकार का कौन सा विभाग और मंत्रालय है जिसमें बिना रिश्वत दिए एक कागज भी आगे सरकता है ? क्या वजह है कि वाजपेयी सरकार ने उच्च पदों पर बैठे लोगों का भ्रष्टाचार जांचने की केन्द्रीय सतर्कता आयोग को खुली छूट नहीं दी। जबकि 18 दिसंबर 1997 को सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार को ऐसा करने के स्पष्ट आदेश दिए थे। क्या वजह है कि वाजपेयी सरकार के नेताओं ने आज तक अपनी संपत्ति की सही और सार्वजनिक घोषणा नहीं की ? हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और। पर जनता को तो यही कह कर गुमराह किया जाता है कि हम जो भी कर रहे हैं तुम्हारी भलाई के लिए ही है। फिर वो चाहे अमरीका का इराक पर हमला हो या भारत-पाक युद्ध। जनता की भलाई के असली काम करने से सभी हुक्मरान बचते हैं। इसीलिए मानवता असहाय थी और आज भी है।

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