Friday, May 30, 2003

दहेज लोभियों को सबक और टी वी चैनल


जबसे टी.वी. न्यूज चैनलों की बाढ़ आई है तब से नई-नई रिपोर्टों को खोजने की प्रतिस्पद्र्धा भी बढ़ गई है। छोटी सी घटना अगर कहीं हो जाए तो मिन्टों में वहां दर्जनों टी.वी. क्रू पहुंच जाते हैं। हर टीम खबर की तह तक जाना चाहती है। घटना से जुड़े हर वाकये और व्यक्ति को पर्दे पर दिखाना चाहती है। अनूठा करने की होड़ में लोगों के पीछे पड़ जाती है। ऐसे माहौल में अगर दहेज विरोधियों को सबक सिखाने वाली नोएडा की लड़की निशा को रातों रात देश भर में ख्याति मिल गई तो इसमें कोई अस्वाभाविक बात नहीं। इस घटना से दो बड़ी उपलब्धियां हुईं। एक तो यह कि अब निशा जैसी तमाम लड़कियों को यह पता चल गया कि अगर वे दहेज के लोभियों के विरुद्ध आवाज़ उठाती हैं तो मीडिया उनका साथ देगा। दूसरा यह कि नई कहानियों की तलाश में हमेशा प्यासे छटपटाने वाले मीडिया को कहानियों का खजाना मिल गया। 

इस देश में महिलाओं पर अत्याचार की घटनाएं रोज देश के हर हिस्से में होती हैं। पर अपने संस्कारों के कारण महिलाएं अक्सर सबकुछ चुपचाप सह लेती हैं। आर्थिक असुरक्षा के कारण भी विरोध नहीं कर पाती। उन्हें डर होता है कि अगर पति ने घर से निकाल दिया तो उन्हें बाप की देहरी पर लौटना पड़ेगा। जबकि मान्यता यह है कि लड़की विवाह के बाद बाप की देहरी से जब जाती है तो उसे यही कहा जाता है कि अब पूरे जीवन तुझे ससुराल की सेवा करनी है। माना यह जाता है कि उसकी अर्थी ही ससुराल से निकलेगी। भारतीय समाज में व्यवस्था बनाए रखने के ऐसे तमाम रस्मो रिवाज हैं। पर उनके मूल में है सहृदयता और पारस्परिक पे्रम। पर जब समय से पहले ही नववधु की अर्थी निकलने लगें तो यह चिन्ता की बात है। यह इस बात का परिचायक है कि अपनी महानता का गुण गाने वाला भारतीय समाज सम्वेदन शून्य ही नहीं पाशविक होता जा रहा है। दहेज के लोभी अगर किसी कन्या को सताएं या उसकी जान लेने पर उतारू हो जाएं तो चुप बैठना मूर्खता होगी। प्रताडि़त होने और अबोध बच्चों को अनाथ छोड़ कर जल कर मर जाने से कहीं अच्छी है विरोध का स्वर मुखर करना। एक तरफ तो हम यह कहते हैं कि सबका पालनहार भगवान है और दूसरी तरफ हम यह चिन्ता करें कि अगर हमारे पति या ससुराल वाले ने घर से निकाल दिया तो हमारा क्या होगा, यह ठीक नहीं। निशा ने विरोध किया तो उसे सारे देश ने पलकों पर बिठा लिया। यह पहली घटना थी इसलिए शायद इतना प्रचार उसे मिला उतना भविष्य में न मिले। क्योंकि एक ही तरह की घटना पर बार बार उतनी ही तीव्र प्रतिक्रिया नहीं हो सकती। पर इसमें शक नहीं कि खबरों की खोज की होड़ में लगे मीडिया को ऐसी घटनाओं में हमेशा रुचि रहती है इसलिए जब भी कोई लड़की अपने अत्याचार की शिकायत निशा की तरह मीडिया से करेगी उसे किसी न किसी टी.वी. चैनल या अखबार से मदद जरूर मिलेगी। 

वैसे भी समाज में दूसरे के फटे में पैर देने की आदत होती है। महानगरों की अति आधुनिक बस्तियों को छोड़ दें तो शेष भारत में यानी छोटे शहरों कस्बों और गांवों में किसी के व्यक्तिगत जीवन की घटनाएं या दुर्घटनाएं शेष समाज के लिए कौतुहल का विषय होती है। गावों में जरा ज्यादा शहरों में थोड़ा कम। पहाड़ों में तो छोटी सी घटना मिन्टों में जंगल की आग की तरह पूरे इलाके में फैल जाती है। लोग नमक-मिर्च लगाकर ऐसी घटनाओं का मजा लेते हैं। जब कभी किसी की बेटी अपने पे्रमी के साथ भाग जाए या पति-पत्नी में मार-पिटाई हो या पत्नी रूठ कर मायके चली जाए या कोई अनैतिक कर्म में लिप्त पाया जाए तो ये घटनाएं हफ्तों चर्चा में रहती हैं। इसलिए मीडिया वाले जानते हैं कि इस तरह की खबरों के दर्शक और पाठक बड़ी तादाद में होते हैं। इन्हें ह्यूमन इन्टेªस्ट स्टोरीज कहा जाता है। इसका मतलब ये नहीं कि किसी की कमजोरी को उछाल कर मजा लिया जाए। यहां इसका उल्लेख करने का आशय यही है कि यदि कोई महिला अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों की शिकायत खुलकर करना चाहती है और उसे मीडिया पर आने में कोई संकोच नहीं है तो उसे अपनी स्थिति से निपटने में मीडिया की खासी मदद मिल सकती है। ऐसा कदम उठाने से पहले उस महिला को खूब सोच विचार लेना चाहिए। अपने शुभचिन्तकों, मित्रों और परिवार की राय सलाह भी ले लनी चाहिए। जहां तक सम्भव हो बड़ी सावधानी से अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के प्रमाण जमा करते जाना चाहिए ताकि समय पर काम आ सकें। ये प्रमाण अपने पास न रखकर किसी मित्र के पास रखे जाएं तो बेहतर होगा। कहीं अत्याचारी ससुराल वालों को ये पता चल गया कि उनके विरुद्ध ऐसे प्रमाण इकट्ठा किए जा रहे हैं तो वे धोखे से उसकी जान भी ले सकते हैं। ऐसा कदम उठाने से पहले उस महिला को यह भी सोच लेना चाहिए कि मीडिया की ये चमक-दमक दो चार दिन ही रहती है। फिर बाकी लड़ाई उसे खुद ही लड़नी पड़ती है। 

दूसरी तरफ मीडिया की खासकर टी.वी. मीडिया की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण है। निशा की कहानी को जिस तरह मीडिया ने उछाला और उसे जिस तरह जन समर्थन मिला उससे यह सिद्ध हो गया कि ऐसी कहानियों के दर्शक भारी मात्रा में हैं। इसलिए टी.वी. मीडिया को अब कुछ और कदम उठाने चाहिए। मसलन अपने चैनल पर वे एक फोन नम्बर प्रसारित कर सकते हैं जिस पर मुसीबत ज़दा महिलाओं को सम्पर्क करने की छूट हो। हो सकता है कि मीडिया वालों को ये काम बवाल का लगे। ऐसे प्रश्न उठाये जा सकते हैं कि हमारा काम खबर देना है महिला उत्थान करना नहीं। ये भी कहा जा सकता है कि इस तरह की सेवाएं प्रदान करने से न्यूज चैनल पर खर्चे का अतिरिक्त भार पड़ जायेगा। इसलिए जरूरी नहीं कि सब शहरों में ये फोन सुविधा दी जाए या चैबीस घन्टे दी जाए। कुछ खास शहरों में हफ्ते में दो घन्टे की अगर ये टेलीफोन सेवा दी जाए  तो यातना भोग रही लड़की टी.वी. पर फोन नम्बर देखकर अपनी सुविधा अनुसार सूचना टी.वी. चैनल तक भिजवा सकती हैं। इस तरह इतनी सारी रोचक खबरें टी.वी. चैनल तक आने लगेंगी कि उन्हें कवर करना भारी पड़ जायेगा। फिर आज की तरह नहीं होगा जबकि सभी न्यूज चैनल एक समय में लगभग एक सी खबर दिखाते हैं। और उन्हीं को बार बार दोहराकर खबरों को उबाऊ बना देते हैं। 

देश में जब पहली बार 1989 में मैंने हिन्दी में स्वतन्त्र टी.वी. समाचारों का निर्माण शुरू किया और उन्हें कालचक्र वीडियो कैसेट के नाम से देश की वीडियो लाइबे्ररियों में भेजा तो पूरे देश में हंगामा मच गया। कारण यह था कि दूरदर्शन सामाजिक मुद्दों पर केवल चर्चाएं करवाता था जो काफी उबाऊ होती थीं। हमने यह नया प्रयोग किया कि हम टी.वी. कैमरा लेकर बाहर निकले और लोगों के बीच जाकर घटनाओं को कैमरे में सजीव कैद किया। हमारी हर रिपोर्ट तथ्यात्मक होने के साथ ही काफी तीखी और धारदार होती थी। यही वजह है कि कालचक्र वीडियो के प्रचार प्रसार के लिए धेले पैसे का वजट न होने के बावजूद कालचक्र वीडियो मैगजीन पूरे देश में एक जाना हुआ नाम हो गई थी। महिलाओं के हक को लेकर जैसी सम्वेदनाील रिपोर्ट हमनें 1989 से 1992 के बीच दिखाईं वैसी रिपोर्ट आज भी टी.वी. चैनलों पर दिखाई नहीं दे रही हैं। जबकि आज हर चैनल के पास साधनों की कोई कमी नहीं है। हमारे पास आज के न्यूज चैनलों के मुकाबले एक फीसदी साधन नहीं थे। फिर भी हमारी रिपोर्ट पर देश में काफी बवाल मच गया। अखबारों और पत्रिकाओं के पन्ने भर जाते थे हमारी रिपोर्ट पर खबरे देने में। इसलिए मैं अनुभव और विश्वास से कह सकता हूं कि महिलाओं के हक में अगर टी.वी. मीडिया बहादुरी से और रचनात्मक मनोवृत्ति से सक्रिय हो जाए तो दोनों का लाभ होगा। न्यूज चैनल का भी, क्योंकि उसके पास खबरों का अकाल नहीं रहेगा और दर्शकों की संख्या बढ़ेगी। समाज का भी जिसकी सताई हुई महिलाओं को भारी नैतिक समर्थन और हिम्मत मिलेगी। इस तरह जो जनचेतना फैलेगी वह दूर तक समाज के हित में जायेगी। पर साथ ही कुछ सावधानियां बरतने की भी जरूरत है। 

उत्साह के अतिरेक में कई बार टी.वी. रिपोर्टर बहुत बचकाना व्यवहार कर बैठते हैं। मसलन जिसके घर में मौत हुई है या और कोई दुखद हादसा हुआ है उसकी मनोदशा का विचार किए बिना सवालों की झड़ी लगा देना और जवाब देने के लिए पीछे पड़ जाना बहुत असम्वेदनशील लगता है। ऐसे टी.वी. रिपोर्टरों के ऊपर उस परिवारजनों को ही नहीं दर्शकों को भी खीझ आती है। अच्छी टी.वी. रिपोर्ट तैयार करने के लिए कुछ होमवर्क करना होता है। अगर रिपोर्टर में परिपक्वता है तो वह बड़ी शालीनता से सब कर सकता है। खबर दिखाने के उत्साह में ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे उस परिवार को क्षति पहुंचे। हां, अपराधियों के साथ कोई लिहाज करने की जरूरत नहीं। पर इसका फैसला कुछ मिनटों में घटनास्थल पर जाकर नहीं किया जा सकता कि कौन अपराधी है और कौन नहीं। इसलिए शक की गुंजाइश भी रखनी चाहिए। दूसरी सावधानी इस बात की भी बरतनी होगी कि लोकप्रियता हासिल करने की चाहत में कहीं कोई महिला गलत आरोप तो नहीं लगा रही है। इसलिए उसके आरोपों को लेकर उसके निकट के सामाजिक दायरे में पूछताछ करके तथ्यों की जानकारी हासिल की जाए तो इस सम्भावना से बचा जा सकता है। वैसे समय और अनुभव धीरे-धीरे सब सिखा देता है।

जिस देश में संसद महिलाओं को उनका राजनैतिक हक देने में संकोच कर रही है और महिला आरक्ष्ण बिल बार बार टाला जा रहा हो और देश की बड़ी बड़ी नामी-गिरामी योद्धा महिलाएं भी अपना हक लेने में नाकामयाब हो रही हैं वहां निशा जैसी महिलाएं टी.वी. चैनलों की मदद से समाज में क्रांति ला सकती हैं। पूरे समाज में महिलाओं के विरुद्ध काम करने वाली मानसिकता को झकझोर सकती हैं। महिला पर अत्याचार करने वालों के दिल में खौफ पैदा कर सकती हैं। यह टी.वी. न्यूज चैनलों की बड़ी उपलब्धि है। पर यह उपलब्धि उनके कन्धों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी भी डाल रही है। उम्मीद है भविष्य में इसमें और भी निखार आयेगा। हमें सभी टी.वी. सम्वाददाताओं को शुभकामना ओर आशिर्वाद देना चाहिए कि वे केवल खबर के ढिंढोरची न बन कर समाज के सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले निमित्त बन सकें।

Friday, May 23, 2003

आईएसओ प्रमाणन में धांधली


जैसे-जैसे दुनिया के बाजार का एकीकरण होता जा रहा है वैसे-वैसे सेवाओं और उत्पादनों की गुणवत्ता निर्धारित करने के अंतर्राष्ट्रीय मानक भी स्थापित होते जा रहे हैं। यह जरूरी है ताकि उपभोक्ता को इस बात की गारंटी हो कि दुनिया के एक हिस्से मेें बैठकर दूसरे हिस्से से जो वस्तु या सेवा वह खरीद रहा है, वह सही है और उसके साथ कोई धोखा नहीं हो रहा है। इस तरह के मानक देने वाली एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था आईएसओ है। जिसका मुख्यालय स्वीट्जरलैंड के शहर जिनेवा में है। दुनिया के सभी देश आईएसओ के सदस्य हैं। ज्यादातर देशों में राष्ट्रीय स्तर पर एक एक्रेडिटेशन काउंसिल होती है जो आईएसओ का प्रमाण पत्र देने वाली स्थानीय इकाइयों (सर्टिफाइंग बाॅडिज) को मान्यता देती है। एक्रेडिटेशन काउंसिल का फर्ज है कि वो हर साल सर्टिफाइंग बाॅडिज के काम की जांच करे और यह सुनिश्चित करे कि ये सर्टिफाइंग बाॅडिज अंतर्राष्ट्रीय मानकों के तहत ही काम कर रही हैं और जिन कंपनियों को ये प्रमाण पत्र प्रदान कर रहीं हैं वे वाकई इसके लायक हैं और सभी निर्धारित मापदंडों का पालन कर रही हैं। चिंता की बात ये है कि भारत में ऐसा नहीं हो रहा है।  

इस पूरी प्रक्रिया में काफी धांधली हो रही है। धांधली की शुरूआत वाणिज्य मंत्रालय से ही होती है। कायदे से भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय को चाहिए था कि वो एक्रेडिटेशन काउंसिल व सर्टिफाइंग बाॅडिज की कार्य प्रणाली पर नियंत्रण रखे। पर हाल ही में वाणिज्य मंत्री श्री राजीव प्रताप रूड़ी ने संसद में एक प्रश्न के उत्तर में कि, ‘‘आइएसओ 9000 और आईएसओ 14001 प्रमाण पत्र प्रदान करने वाले इन अभिकरणों पर सरकार द्वारा निगरानी नहीं रखी जा रही है क्योंकि प्रमाणन की प्रक्रिया स्वैच्छिक है न कि अनिवार्य।’’ जबकि दूसरी ओर सरकार के ही अनेक मंत्रालय अपनी संस्थाओं और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को आईएसओ 9001/14001 लेने का आदेश दे रहे हैं। इतना ही नहीं सरकार जो निविदाएं आमंत्रित करती है उसमें यह सर्टिफिकेट अनिर्वाय रूप से मांगा जा रहा है। 7 अप्रैल 2003 को संसद में दिए गए इस उत्तर में ही वाणिज्य मंत्री श्री रूड़ी ने यह भी स्वीकार किया कि इस तरह की व्यवस्था से आइएसओ सर्टिफिकेट की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिंह लग जाता है। 

सरकारी धांधली इतने पर ही खत्म नहीं होती। सरकार लघु उद्योगों को आईएसओ सर्टिफिकेट लेने के लिए प्रोत्साहित करती है और उन्हें इस प्रमाण पत्र को हासिल करने में हुए खर्चे का 75 फीसदी या 75 हजार रूपए तक की वित्तीय सहायता तक मुहैया कराती है। इस मामले में भी एक्रेडिटेशन काउंसिल व सर्टिफाइंग बाॅडिज की कार्य प्रणाली पर नियंत्रण न होने के कारण देश भर में खूब धांधली चल रही है। रातो-रात बनी सर्टिफाइंग बाॅडिज 10-15 हजार रूपया लेकर लघु उद्योग मालिकों को, बिना उनकी गुणवत्ता का परीक्षण किए, प्रमाण पत्र दे देती हैं। ये लघु उद्योग मालिक सरकार से 75 हजार रूपए वसूल लेते हैं। इस तरह 1994 से आज तक 3198 लघु उद्योग इकाइयां ये सर्टिफिकेट ले चुकी हैं। जिसके बदले में अनुमान है कि वे सरकार से लगभग 24 करोड़ रूपया वसूल चुकी हैं। 

वैसे सरकार ने यह योजना सद्इच्छा से चालू की थी। मकसद था अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारत के लघु उद्योगों को चीन, कोरिया, मलेशिया के समकक्ष खड़ा करना। पर इन धांधलियों को चलते यह मकसद पूरा नहीं हो पा रहा है। रातो-रात बनी फर्जी सर्टिफाइंग बाॅडिज और लघु उद्योग मालिकों की मिलीभगत से सरकार को चूना लग रहा है और उत्पादनों की गुणवत्ता सुधर नहीं रही है। जिसके लिए पूरी तरह भारत सरकार का वाणिज्य मंत्रालय और लघु उद्योग मंत्रालय जिम्मेदार है। जो सब कुछ जानते हुए भी कुम्भकरण की नींद सो रहा है। श्री रूड़ी का जवाब कितना विरोधाभासी है। एक तरफ तो वे मानते हैं कि सरकार का सर्टिफाइंग बाॅडिज पर कोई नियंत्रण नहीं है। और दूसरी ओर वे इनकी विश्वसनीयता को संदेहास्पद मानते हैं। यहां तक कि उन्हें ये भी नहीं मालूम की देश में ऐसी सर्टिफाइंग बाॅडिज की संख्या कितनी है । तो कोई उनसे पूछे कि मंत्री महोदय आप क्या कर रहे हैं ? अपना कारवां लुटते देख रहे हैं। 

इस संदर्भ में एक रोचक तथ्य यह भी है कि भारत सरकार की अपनी एजेंसियां भी किस तरह इस धांधली को होने दे रही है। इस तरह की एक सरकारी एजेंसी क्वालिटी काउंसिल आफ इंडिया एक भारतीय एक्रेडिटेशन काउंसिल है। इसका काम सर्टिफाइंग बाॅडिज को मान्यता देना है। इस पूरे घोटाले को लेकर चिंतित और सक्रिय प्रोफेशनल कैप्टन नवीन सिंहल ने जब इसके सेक्रेट्री जनरल से मार्च 2000 में इस पूरी धांधली की शिकायत की तो उन्होंने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि उनकी संस्था का इस मामले से कुछ लेना-देना नहीं है। हमारा काम पुलिस की तरह तहकीकात करना नहीं है। यह एक हास्यादपद जवाब था। क्योंकि एक सरकारी मानक संस्था के वरिष्ठ अधिकारी होने के नाते उनकी नैतिक जिम्मेदारी थी कि इस मामले की सूचना सरकार को देते और उन्हें सलाह देंने कि इस धांधली से कैसे निपटा जाए। पर वे खामोश रहे। पर कैप्टन सिंहल खामोश नहीं बैठ सके। उन्होंने क्वालिटी काउंसिल आफ इंडिया के सेक्रेट्री जनरल श्री मेहदीरत्ता सहित कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं को एक प्रश्नावली भेजी। जिसमें उन्होंने इस सारे मामले को उठाते हुए इस समस्या से निपटने के सुझाव मांगे। इस प्रश्नावली के उत्तर में नाॅर्वे की एक मानक संस्था डीएनवी के क्षेत्रीय अध्यक्ष ने कहा कि क्वालिटी काउंसिल आफ इंडिया के सेक्रेट्री जनरल ही इस समस्या से निपटने के लिए सही व्यक्ति हैं। इसलिए उन्होंने भी यह प्रश्नावली श्री मेहदीरत्ता को भेज दी। पर जब संसद में वाणिज्य मंत्री श्री अरूण जेटली से यह प्रश्न पूछा गया कि इस मामले में क्वालिटी काउंसिल आफ इंडिया के सेक्रेट्री जनरल श्री मेहदीरत्ता को क्या कोई प्रश्नावली समय रहते, आगाह करते हुए, भेजी गई थी या नहीं तो आश्चर्य की बात है कि श्री जेटली ने संसद में उत्तर दिया कि ऐसी कोई प्रश्नावली श्री मेहदीरत्ता को नहीं भेजी गई। 

कहते हैं, ‘बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले। जो बनी आवे सहज में, ताहि में चित दे।जो हो गया सो गया अब भी सुधरने का वक्त है। अगर वाणिज्य मंत्रालय चाहे तो इस धांधली को रोक सकता है। सबसे पहले तो वाणिज्य मंत्रालय को उन सर्टिफाइंग बाॅडिज का चयन करना चाहिए जो एक्रेडिटेड हैं और जिनका हर साल एक्रेडिटेशन काउंसिल से आॅडिट होता है। 

दूसरा काम ये करना चाहिए कि जितनी भी सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं ने आईएसओ सर्टिफिकेट ले रखा है उन सबकों सरकारी नोटिस भेज कर एक निर्धारित समय के भीतर अपने सर्टिफिकेशन के समर्थन में यह प्रमाण भेजना अनिवार्य हो कि उनकी सर्टिफाइंग बाॅडिज अपने भारतीय कामकाज के लिए एक्रेडिटेड है या नहीं है। अगर है तो प्रमाण दें और नहीं है तो निर्धारित समय के अंदर इसे उस सर्टिफाइंग बाॅडिज से प्राप्त कर लें जिन्हें सरकार ने मान्यता दी है। इस तरह फर्जी सर्टिफिकेट लेकर घूमने वाले खुद ही बेनकाब हो जाएंगे। 

इसके साथ ही जो सबसे जरूरी काम है वो ये कि सरकार एक स्वायत्त संस्था का गठन करे जिसकी जिम्मेदारी हो इस सब सर्टिफाइंग बाॅडिज पर निगाह रखना और उनके खिलाफ दंडात्मक कार्यवाही करना। जब तक सरकार ये करे तब तक कुछ उत्साही लोगों ने मिलकर जनहित में एक गैर मुनाफे वाली स्वयंसेवी संस्था ेंअमपेव/तमकपििउंपसण्बवउ का गठन कर लिया हैं। जो ऐसे सभी मामलों में शिकायतों की जांच करने का काम कर रही हैं। पर असली जिम्मेदारी तो सरकार की है। वाणिज्य मंत्री पलायनवादी उत्तर देकर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। एक तरफ तो हम भारत को अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक शक्ति बनाना चाहते हैं और दूसरी तरफ हमें अपनी गुणवत्ता में हो रही धांधलियों की भी चिंता नहीं है। यह चलने वाली बात नहीं है। अगर सरकार अब भी नहीं जागी तो भारत के उद्योगों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में काली सूची में डाल दिया जाएगा। क्योंकि इनके आईएसओ प्रमाण पत्रों की विश्वसनीयता संदेहास्पद होगी।

Friday, May 9, 2003

न्यायायिक आयोग से भी कुछ नहीं बदलेगा


जब से दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायधीश शमित मुखर्जी डीडीए घोटाले में गिरफ्तार हुए हैं तब से एक बार फिर न्यायधीशों के दुराचरण पर बहस छिड़ गई है। संसद में अनेक सांसदों ने उच्च न्यायपालिका के न्यायधीशों के दुराचरण पर लगाम कसने की जरूरत पर जोर दिया है। वकीलों के संगठनों ने भी इसका समर्थन किया है। इस पूरे माहौल में केन्द्रीय कानून मंत्री श्री अरूण जेटली और उनकी सरकार का मानना है कि न्यायधीशों की नियुक्ति, पदोन्नति व आचरण पर नियंत्रण रखने के लिए एक राष्ट्रीय न्यायायिक आयोग का गठन किया जाना चाहिए। श्री जेटली का दावा है कि ऐसा आयोग काफी हद तक उन समस्याओं का हल दे सकेगा जो न्यायपालिका में पनप रही बुराईयों के कारण उपजी है।

पर मुझे नहीं लगता कि इस तरह के आयोग से किसी भी समस्या का कोई हल निकलेगा। जिस समस्या का हल मौजूदा कानूनांे के तहत नहीं निकल सकता उसका हल नई व्यवस्थाएं बना कर भी नहीं निकलता। इसके तमाम उदाहारण हैं। जिस समय राजनीति में भ्रष्टाचार के सवाल को उठाकर मैं  जैन हवाला कांड का केस सर्वोच्च न्यायालय में लड़ रहा था उस समय भी पूरे देश में यह मांग उठी थी कि राजनीति में पारदर्शिता लाने की व्यवस्था की जानी चाहिए और उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार को रोकने के लिए पुख्ता इंतजाम होने चाहिए। इसी दौर में सीबीआई को स्वायतत्ता देने की मांग भी जोर-शोर से उठाई गई। मांग उठाने वालों में श्री राम जेठमलानी, श्री अरूण जेटली, श्री सोली सोराबजी सरीखे न्यायविद् सबसे आगे थे। यह दूसरी बात है कि ये प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हवाला कांड के कुछ प्रमुख आरोपियों को बचाने में जुटे थे और इसीलिए इनकी कोशिश थी कि केस के मूल बिन्दुओं से ध्यान हटाकर भविष्य के किसी ऐसी व्यवस्था का माहौल बनाया जाए। मैंने उसी वक्त इसका विरोध किया। यह विरोध बाकायदा लिख कर सर्वोच्च न्यायालय में दर्ज कराया गया, जो इस केस के ऐतिहासिक दस्तावेजों का हिस्सा है। मेरा विरोध इस बात पर था कि जैन हवाला केस के उपलब्ध प्रमाणों की उपेक्षा करके, उसकी जांच में सीबीआई द्वारा जानबूझ कर की गई कोताही को अनदेखा करके, अगर इतने महत्वपूर्ण मामले को इस तरह दबा दिया जाएगा तो आतंकवाद को प्रोत्साहन ही मिलेगा। साथ ही मेरा तर्क यह भी था कि सीबीआई को स्वायतत्ता देने की बात कहना, देश को झूठे सपने दिखाने जैसा है। क्योंकि कोई भी सरकार यह नहीं चाहेगी कि सीबीआई इतनी आजाद हो जाए कि वो खुद सरकार के ही गले में घंटी बांध दे। 

मेरा अंदेशा सही निकला। देश के मशहूर और बड़बोले वकील कानूनी योग्यता से नहीं, बल्कि अन्य तरीकों से जैन हवाला केस को एक बार फिर दबवाने में कामयाब हो गए और देश और मीडिया को केन्द्रीय सतर्कता आयोग के नए प्रारूप पर बहस में उलझा दिया। पर जब सीवीसी के अधिकारों को लेकर कानून बनाने की बात आई तो सरकार सहित सभी प्रमुख दल आनाकानी करने लगे। आखिरकार वही हुआ जिसका अंदेशा अगस्त 1997 में अपने शपथ पत्र के माध्यम से मैंने व्यक्त किया था। आज सीवीसी एक बिना नाखून और बिना दांत का आयोग हैं। जिसे उच्च पदासीन अधिकारियों और नेताओं के खिलाफ जांच करने की आजादी नहीं है। 

शमित मुखर्जी की गिरफ्तारी क्या भारतीय न्यायपालिका के इतिहास की पहली ऐसी घटना है? यह सही है कि सीबीआई की अकर्मण्यता और सरकार की मिलीभगत के कारण न्यायपालिका के सदस्यों को पहले कभी गिरफ्तार नहीं किया गया। पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों के भ्रष्टाचार और दुराचरण के कई मामले तो मैं ही प्रकाश में ला चुका हूं जिन पर देश में काफी बवेला मचा और फिर सब तरफ खामोशी छा गई। जो लोग आज बढ़ - चढ़ कर बयानबाजी कर रहे हैं वही भ्रष्ट न्यायधीशों के बचाव में खड़े हो गये थे। शमित मुखर्जी पर आरोप है कि वे डीडीए घोटाले के आरोपियों से संपर्क में थे। एक जज के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक बात और क्या हो सकती है ? पर इससे भी ज्यादा शर्मनाक बात इस देश में हुई है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश न्यायमूर्ति एस.सी. सेन हवाला कांड के आरोपी जैन बंधुओं के निकट सहयोगी डा. जाॅली बंसल से संपर्क में थे। जुलाई 1997 को ही उन पर यह आरोप लग चुका था। जुलाई 1999 और जनवरी 2000 में क्रमशः डा. बंसल व न्यायमूर्ति सेन अपना ये     अपराध लिख कर कबूल कर चुके हैं। इतना ही नहीं भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा ने 14 जुलाई 1997 को भरी अदालत में माना कि कोई व्यक्ति उनसे जैन हवाला कांड को दबाने के लिए लगातार मिलता रहा है। पर सारे देश की मांग के बावजूद न्यायमूर्ति वर्मा ने न तो उस व्यक्ति के नाम का खुलासा किया और न उसे सर्वोच्च न्यायालय की सबसे बड़ी अवमानना करने के आरोप में सजा ही दी। ऐसे दुराचरण के लिए न्यायमूर्ति सेन और न्यायमूर्ति वर्मा पर कार्यवाही होनी चाहिए थी, पर कुछ नहीं हुआ। 

यहां इस बात का उल्लेख करना इसलिए जरूरी है कि भारत के मुख्य न्यायधीश पद पर रहते हुए न्यायमूर्ति एसपी भरूचा साफतौर पर यह स्वीकार कर चुके हैं कि उच्च न्यायपालिका के 20 फीसदी सदस्य भ्रष्ट हैं। मतलब ये हुआ कि न्याय की उम्मीद में उच्च न्यायालयों या सर्वोच्च न्यायालय के दरवाजे खटखटाने वाला इस बात के लिए आश्वस्त नहीं है कि उसे न्याय मिलेगा ही। अगर उसका केस उन 20 फीसदी न्यायधीशों के सामने लग जाए जो भ्रष्ट हैं तो फैसला केस के गुणों के आधार पर नहीं बल्कि रिश्वत के आधार पर होगा। ऐसी भयावह परिस्थिति में सब कुछ देखकर भी कानून मंत्री, सरकार या विपक्षी दलों के नेता भी अगर खामोशा रहें, भ्रष्ट न्यायधीशों के विरूद्ध कुछ न करें, महाभियोग प्रस्ताव तक न पारित करें, तो यह मान लेना चाहिए कि व्यवस्था में आ रही मौजूदा गिरावट को रोकने के लिए कोई गंभीर नहीं है। जब कोई चाहता ही नहीं कि सीबीआई स्वायतत्त हो और उच्च न्यायपालिका के सदस्यों के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जाए तो यह कैसे माना जा सकता है कि भविष्य में बनने वाला राष्ट्रीय न्याययिक आयोग न्यायपालिका में से भ्रष्टाचार को दूर कर देगा? चाणाक्य पंडित का कहना था कि व्यवस्था कोई भी क्यों न हो जब तक उसमें काम करने वाले नहीं बदलेंगे वो व्यवस्था बदल नहीं सकती। आज इस देश के प्रशासन में जो भी कमी आईं हैं उसे मौजूदा कानूनों के तहत ही दूर किया जा सकता है। बशर्ते व्यवस्था को चलाने वालों की ऐसी प्रबल इच्छा शक्ति हो। 

चूंकि देश को ऐसी इच्छाशक्ति का कोई प्रमाण कहीं दिखाई नहीं दे रहा, इसलिए ये मानने का कोई आधार नहीं है राष्ट्रीय न्यायिक आयोग बन जाने के बाद सबसे योग्य, सबसे ईमानदार और सबसे ज्यादा निष्पक्ष लोगों का ही चयन न्यायपालिका के सदस्यों के रूप में होगा। आयोग क्या करेगा यह इस पर निर्भर करेगा कि आयोग के सदस्य कैसे हों और आयोग के सदस्यों का चयन उनकी ईमानदारी, राष्ट्र के प्रति निष्ठा व योग्यता को देख कर नहीं होगा बल्कि उनकी सत्ताधीशों से निकटता और सत्ताधीशों के इशारों पर नाॅचने की संभावना को देखकर होगा। 

उदाहारण के तौर जब प्रसार भारती बोर्ड बनाया गया तब भी यह दावा किया गया था कि प्रसारण में स्वायतत्ता लाई जाएगी। पर क्या ऐसा हो पाया ? प्रसार भारती बोर्ड के सदस्य वही करते हैं जो सत्तारूढ़ दल चाहता है। दूरदर्शन से कार्यक्रम बनाने का ठेका उन्हें ही मिलता है जो सत्ता के गलियारों में चाटुकारिता करते हैं या दलाली करते हैं। योग्यता के आधार पर दूरदर्शन के कार्यक्रमों के निर्माण का ठेका देना अभी सपना ही है और सपना ही रहेगा। इसलिए न्यायपालिका के आचरण को लेकर मौजूदा बहस बेमानी है। जनता को किसी न किसी मुद्दे में उलझाए रखने की जरूरत होती है ताकि वह भ्रम की स्थिति में बनी रहे। सपने देखती रहे और उम्मीद लगा कर बैठी रहे। राष्ट्रीय न्यायिक आयोग इसी कड़ी में एक और कदम होगा। उससे कुछ भी नहीं बदलेगा।

Friday, May 2, 2003

विहिप का धर्मसंकट


अयोध्या में जमा हुए विश्व हिन्दू परिषद् (विहिप) के नेताओं ने अब सांसदों का द्वार खटखटाने का निर्णय किया है। वे हर दल के सांसदों के घर जाकर उन्हें अयोध्या में राममंदिर बनाए जाने की आवश्यकता समझाएंगे। विहिप के संतों का यह भी दावा है कि राममंदिर निर्माण का भाजपा की राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। 

ये तो वही ढाक के तीन पात। सोचने वाली बात ये है कि अपने को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले दल विहिप के एजेंडा पर कैसे सहमत हो सकते हैं? भाजपा भगाओ की लाठी रैली करने वाले लालू यादव हों या माक्र्सवादी नेता सोमनाथ चटर्जी। मुलायम सिंह यादव हों या सोनिया गांधी। यहां तक कि राजग के सहयोगी दलों के नेता चन्द्रबाबू नायडु, जार्ज फर्नाडीज, ओम प्रकाश चैटाला, उमर अबदुल्लाह जैसे नेता भी विहिप से सहमत नहीं होंगे। क्योंकि इन सब क्षेत्रीय दलों की अपनी राजनैतिक मजबूरियां हैं। इनके वोट बैंक में मुसलमानों के वोटों का महत्व रहता है। अगर विहिप यह सोचती है कि वह इन सभी दलों को समझा-बुझा कर यह मनवा लेगी कि राममंदिर निर्माण का भाजपा की राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है तो यह उसकी भारी भूल है। ऐसा हो सकता था यदि यह आंदोलन शुरू से केवल हिंदूधर्माचार्यों के नेतृत्व में स्वतंत्र रूप से चला होता। जिसमें केवल हिंदू हित की बात को सर्वोपरि रख कर निरंतर जनजागरण किया जाता। व्यापक हिंदू समाज को इस मुद्दे के साथ भावनात्मक रूप से जोड़ा जाता। तब यह विहिप का आंदोलन न होकर हिंदू समाज का आंदोलन बन जाता। ऐसे में किसी भी दल के नेताओं के लिए बहुसंख्यक हिंदू समाज की भावनाओं की उपेक्षा करना आसान नहीं होता। पर सच्चाई तो यह है कि आंदोलन शुरू तो हुआ था इसी तरह के गैर राजनैतिक प्रयास से पर इसकी महत्ता को समझ भाजपा ने इसे तुरंत हड़प लिया और तब से यह लगातार भाजपा का मुद्दा रहा है। 

भारत छोड़ दुनिया में जो भी लोग भारत में रूचि रखते हैं वे सब जानते है कि राममंदिर निर्माण आंदोलन भाजपा का चुनावी एजेंडा है। जितना मीडिया कवरेज और राजनैतिक उथल-पुथल पिछले 14 वर्षों में इस मुद्दे को लेकर हुई है उतनी किसी दूसरे मुद्दे को लेकर नहीं। फिर विहिप कैसे सोचती है कि वह सब दलों के सांसदों के दिमाग से 14 साल का इतिहास भुला देगी ? हालांकि विहिप के नेताओं को यह अच्छा नहीं लगेगा पर सत्य यह है कि उनका आचरण भी संदेह से परे नहीं रहा। राममंदिर निर्माण के मामले पर विहिप ने तब-तब ही शोर मचाया है जब-जब प्रांतीय या केन्द्रीय चुनाव पास आए। इस तरह यह संदेश गया कि विहिप राममंदिर मुद्दे को भाजपा के चुनाव जीतने का सामान बनाए रखना चाहती है।

यह बात दूसरी है कि राममंदिर निर्माण के मामले भाजपा नेताओं के दोहरे वक्तव्यों और कृतित्व ने अब विहिप को भी काफी निराश कर दिया है। विहिप के खेमों में बड़ी घुटन महसूस की जा रही है। विहिप के नेताओं को लगता है कि भाजपा उन्हें केवल चुनाव में डुगडुगी पीटने के लिए प्रयोग करती है और फिर ठंडे बस्ते में डाल देती है। विहिप में ही दो खेमे बने हैं। एक खेमा गरम दल वालों का है जो भाजपा से संबंध विच्छेद कर हिन्दू हित के मामलों पर एक नए राजनैतिक विकल्प की संभावना तलाश रहा है। क्योंकि इस खेमे को लगता है कि भाजपा अपने मूल चरित्र से बहुत दूर चली गई है और अब उसकी प्राथमिकताएं येन-केन-प्रकारेण सत्ता में बने रहने की है। इसके लिए वह किसी भी हद तक हिंदू हित का बलिदान करने को तैयार है। इसीलिए भाजपा का हिंदू वोट बैंक भी तेजी से सिकुड़ रहा है। विहिप के इस गरम दल को उम्मीद है कि अगर आक्रामक तेवर वाला शुद्ध हिंदूवादी राजनैतिक विकल्प कोई हो तो उसे व्यापक जन समर्थन मिलेगा। 

विहिप के दूसरे खेमे के वयोवृद्ध नेता श्री अशोक सिंहल जैसे लोगों का मानना है कि सत्ता में रहने की अपनी सीमाएं होती हैं। इन सीमाओं के भीतर भाजपा हिंदूधर्म के लिए जो कुछ कर सकती है, कर रही है। इससे ज्यादा करने से सत्ता खतरे में पड़ सकती है। इसलिए वे गरमपंथी विचार से असहमत हैं। साथ ही विहिप के एक बहुत बड़े हिस्से का मानना है कि चाहे गरमपंथियों की बात में कितना ही वजन हो, चाहे भाजपा नेतृृत्व ने देश के हिंदुओं को कितना ही नाराज क्यों न किया हो, पर संघ परिवार आज भी भाजपा के पीछे खड़ा है और बिना संघ परिवार के सहयोग के विहिप कोई राजनैतिक विकल्प खड़ा नहीं कर सकती। 

इन हालातों में विहिप के सामने एक तीसरा विकल्प हो सकता था और वो था शिव सेना के साथ सहयोग करना। अपने वक्तव्यों से बाला साहब ठाकरे हमेशा ही उग्र हिंदूवाद का समर्थन करते आए हैं। इसलिए यह बहुत स्वाभाविक संबंध हो सकता है। पर शिव सेना के व्यक्ति केन्द्रित ढांचे को विहिप पचा नहीं पाएगी। साथ ही शिव सैनिकों की हुड़दंगी कार्यवाहियां भी विहिप के गले नहीं उतरती। योग, ध्यान, आयुर्वेद और भारतनाट्यम जैसी महान वैदिक सांस्कृतिक विरासत की तुलना में भोंडी पाश्चात्य संस्कृति के प्रतीक माइकल जैक्सन के शो करवा कर शिव सेना ने अपने दिमागी दिवालियापन का परिचय दिया है। इसलिए शिव सेना के सुप्रीमो पर निर्भर नहीं रहा जा सकता कि वे कब क्या कर बैठें। हालांकि उधव ठाकरे के सामने आने से कुछ उम्मीद बंधी है। क्योंकि वे अपेक्षाकृत ज्यादा संयत व्यक्तित्व के धनी हैं। पर इसके लिए पहल उधव ठाकरे को ही करनी होगी। 

इन हालातों में विहिप की स्थिति सांप-छछुन्दर की हो रही है। उसे न तो भाजपा को निगलते बन रहा है और न उगलते। ऐसे में राममंदिर निर्माण के आंदोलन का भविष्य क्या होगा, कहा नहीं जा सकता। ये बड़े दुर्भाग्य की बात है कि हिंदू नवजागरण का जो आंदोलन इतने उत्साह से देशभर में उठा था वो कुर्सी की राजनीति में उलझ कर कांतिविहीन हो गया है। समय-समय पर आए परस्पर विरोधी बयानों के कारण नेतृत्व की विश्वसनीयता पर जनता को संदेह हो गया है। समय की मांग है कि विहिप अपनी प्राथमिकताओं का पुर्ननिर्धारण करे। अगर उसे लगता है कि भाजपा ने वाकई उसके साथ छल किया है तो वह खुलकर भाजपा का दोहरा चरित्र जनता के सामने रखे। अगर उसे लगता है कि भाजपा जो कर सकती थी किया पर इससे आगे उसके बस की बात नहीं है और उन्हें बाकी दलों का सहयोग लेना ही पड़ेगा तो विहिप को यह पता होना चाहिए कि बाकी दल तब तक उसका साथ नहीं देंगे जब तक विहिप इस मुद्दे पर व्यापक जनादोलन न खड़ा करे। उस स्थिति में उसे भाजपा से उतनी दूरी बना कर रखनी होगी जितनी दूरी से यह संदेश मिले कि उसका यह आंदोलन भाजपा की चुनावी रणनीति का हिस्सा नहीं है। 

यह कोई असंभव कार्य नहीं है। जैसे-जैसे पश्चिमी बाजारू संस्कृति का हमला देश पर बढ़ रहा है वैसे-वैसे हमारे समाज में असुरक्षा, मानसिक तनाव और घुटन भी बढ़ रही है। इसीलिए देश में चारो तरफ हिंदूधार्मिक कार्यक्रमों की बाढ़ सी आ गई है। भागवत सप्ताह हो या भजन संध्या। गीता पर प्रवचन हो या रामकथा, कोई अछूता नहीं है। साफ जाहिर है कि हिंदू समाज अपनी मान्यताओं को पल्लवित होते देखना चाहता है। उसके लिए वह तन, मन, धन से सहयोग करने को तैयार है। बशर्ते  उनकी भावनाओं से खिलवाड़ न किया जाए और उस पर राजनैतिक रोटियां न सेकी जाए। हम पहले भी कहते आए हैं कि हिंदू तीर्थ स्थलों की व्यवस्था, तीर्थ यात्रियों के लिए सुविधाओं में वृद्धि, मंदिरों में अराजकता और कुव्यवस्था का निराकरण और चढ़ावे के करोड़ों रूपए का धर्मस्थानों के विकास के लिए सदुपयोग, कुछ ऐसे कार्य हैं जिनमें विहिप को तन, मन, धन से जुट जाना चाहिए पर ऐसा हो नहीं रहा। इसके अनेक उदाहारण दिए जा सकते है। वैसे तो विहिप के नेता खुद ही अनुभवी हैं और ज्ञानी भी। समय के अनुसार अपनी रणनीति बदलना उनके और हिंदू धर्म के हित में रहेगा। आगे हरि इच्छा।