Friday, May 9, 2003

न्यायायिक आयोग से भी कुछ नहीं बदलेगा


जब से दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायधीश शमित मुखर्जी डीडीए घोटाले में गिरफ्तार हुए हैं तब से एक बार फिर न्यायधीशों के दुराचरण पर बहस छिड़ गई है। संसद में अनेक सांसदों ने उच्च न्यायपालिका के न्यायधीशों के दुराचरण पर लगाम कसने की जरूरत पर जोर दिया है। वकीलों के संगठनों ने भी इसका समर्थन किया है। इस पूरे माहौल में केन्द्रीय कानून मंत्री श्री अरूण जेटली और उनकी सरकार का मानना है कि न्यायधीशों की नियुक्ति, पदोन्नति व आचरण पर नियंत्रण रखने के लिए एक राष्ट्रीय न्यायायिक आयोग का गठन किया जाना चाहिए। श्री जेटली का दावा है कि ऐसा आयोग काफी हद तक उन समस्याओं का हल दे सकेगा जो न्यायपालिका में पनप रही बुराईयों के कारण उपजी है।

पर मुझे नहीं लगता कि इस तरह के आयोग से किसी भी समस्या का कोई हल निकलेगा। जिस समस्या का हल मौजूदा कानूनांे के तहत नहीं निकल सकता उसका हल नई व्यवस्थाएं बना कर भी नहीं निकलता। इसके तमाम उदाहारण हैं। जिस समय राजनीति में भ्रष्टाचार के सवाल को उठाकर मैं  जैन हवाला कांड का केस सर्वोच्च न्यायालय में लड़ रहा था उस समय भी पूरे देश में यह मांग उठी थी कि राजनीति में पारदर्शिता लाने की व्यवस्था की जानी चाहिए और उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार को रोकने के लिए पुख्ता इंतजाम होने चाहिए। इसी दौर में सीबीआई को स्वायतत्ता देने की मांग भी जोर-शोर से उठाई गई। मांग उठाने वालों में श्री राम जेठमलानी, श्री अरूण जेटली, श्री सोली सोराबजी सरीखे न्यायविद् सबसे आगे थे। यह दूसरी बात है कि ये प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हवाला कांड के कुछ प्रमुख आरोपियों को बचाने में जुटे थे और इसीलिए इनकी कोशिश थी कि केस के मूल बिन्दुओं से ध्यान हटाकर भविष्य के किसी ऐसी व्यवस्था का माहौल बनाया जाए। मैंने उसी वक्त इसका विरोध किया। यह विरोध बाकायदा लिख कर सर्वोच्च न्यायालय में दर्ज कराया गया, जो इस केस के ऐतिहासिक दस्तावेजों का हिस्सा है। मेरा विरोध इस बात पर था कि जैन हवाला केस के उपलब्ध प्रमाणों की उपेक्षा करके, उसकी जांच में सीबीआई द्वारा जानबूझ कर की गई कोताही को अनदेखा करके, अगर इतने महत्वपूर्ण मामले को इस तरह दबा दिया जाएगा तो आतंकवाद को प्रोत्साहन ही मिलेगा। साथ ही मेरा तर्क यह भी था कि सीबीआई को स्वायतत्ता देने की बात कहना, देश को झूठे सपने दिखाने जैसा है। क्योंकि कोई भी सरकार यह नहीं चाहेगी कि सीबीआई इतनी आजाद हो जाए कि वो खुद सरकार के ही गले में घंटी बांध दे। 

मेरा अंदेशा सही निकला। देश के मशहूर और बड़बोले वकील कानूनी योग्यता से नहीं, बल्कि अन्य तरीकों से जैन हवाला केस को एक बार फिर दबवाने में कामयाब हो गए और देश और मीडिया को केन्द्रीय सतर्कता आयोग के नए प्रारूप पर बहस में उलझा दिया। पर जब सीवीसी के अधिकारों को लेकर कानून बनाने की बात आई तो सरकार सहित सभी प्रमुख दल आनाकानी करने लगे। आखिरकार वही हुआ जिसका अंदेशा अगस्त 1997 में अपने शपथ पत्र के माध्यम से मैंने व्यक्त किया था। आज सीवीसी एक बिना नाखून और बिना दांत का आयोग हैं। जिसे उच्च पदासीन अधिकारियों और नेताओं के खिलाफ जांच करने की आजादी नहीं है। 

शमित मुखर्जी की गिरफ्तारी क्या भारतीय न्यायपालिका के इतिहास की पहली ऐसी घटना है? यह सही है कि सीबीआई की अकर्मण्यता और सरकार की मिलीभगत के कारण न्यायपालिका के सदस्यों को पहले कभी गिरफ्तार नहीं किया गया। पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों के भ्रष्टाचार और दुराचरण के कई मामले तो मैं ही प्रकाश में ला चुका हूं जिन पर देश में काफी बवेला मचा और फिर सब तरफ खामोशी छा गई। जो लोग आज बढ़ - चढ़ कर बयानबाजी कर रहे हैं वही भ्रष्ट न्यायधीशों के बचाव में खड़े हो गये थे। शमित मुखर्जी पर आरोप है कि वे डीडीए घोटाले के आरोपियों से संपर्क में थे। एक जज के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक बात और क्या हो सकती है ? पर इससे भी ज्यादा शर्मनाक बात इस देश में हुई है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश न्यायमूर्ति एस.सी. सेन हवाला कांड के आरोपी जैन बंधुओं के निकट सहयोगी डा. जाॅली बंसल से संपर्क में थे। जुलाई 1997 को ही उन पर यह आरोप लग चुका था। जुलाई 1999 और जनवरी 2000 में क्रमशः डा. बंसल व न्यायमूर्ति सेन अपना ये     अपराध लिख कर कबूल कर चुके हैं। इतना ही नहीं भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा ने 14 जुलाई 1997 को भरी अदालत में माना कि कोई व्यक्ति उनसे जैन हवाला कांड को दबाने के लिए लगातार मिलता रहा है। पर सारे देश की मांग के बावजूद न्यायमूर्ति वर्मा ने न तो उस व्यक्ति के नाम का खुलासा किया और न उसे सर्वोच्च न्यायालय की सबसे बड़ी अवमानना करने के आरोप में सजा ही दी। ऐसे दुराचरण के लिए न्यायमूर्ति सेन और न्यायमूर्ति वर्मा पर कार्यवाही होनी चाहिए थी, पर कुछ नहीं हुआ। 

यहां इस बात का उल्लेख करना इसलिए जरूरी है कि भारत के मुख्य न्यायधीश पद पर रहते हुए न्यायमूर्ति एसपी भरूचा साफतौर पर यह स्वीकार कर चुके हैं कि उच्च न्यायपालिका के 20 फीसदी सदस्य भ्रष्ट हैं। मतलब ये हुआ कि न्याय की उम्मीद में उच्च न्यायालयों या सर्वोच्च न्यायालय के दरवाजे खटखटाने वाला इस बात के लिए आश्वस्त नहीं है कि उसे न्याय मिलेगा ही। अगर उसका केस उन 20 फीसदी न्यायधीशों के सामने लग जाए जो भ्रष्ट हैं तो फैसला केस के गुणों के आधार पर नहीं बल्कि रिश्वत के आधार पर होगा। ऐसी भयावह परिस्थिति में सब कुछ देखकर भी कानून मंत्री, सरकार या विपक्षी दलों के नेता भी अगर खामोशा रहें, भ्रष्ट न्यायधीशों के विरूद्ध कुछ न करें, महाभियोग प्रस्ताव तक न पारित करें, तो यह मान लेना चाहिए कि व्यवस्था में आ रही मौजूदा गिरावट को रोकने के लिए कोई गंभीर नहीं है। जब कोई चाहता ही नहीं कि सीबीआई स्वायतत्त हो और उच्च न्यायपालिका के सदस्यों के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जाए तो यह कैसे माना जा सकता है कि भविष्य में बनने वाला राष्ट्रीय न्याययिक आयोग न्यायपालिका में से भ्रष्टाचार को दूर कर देगा? चाणाक्य पंडित का कहना था कि व्यवस्था कोई भी क्यों न हो जब तक उसमें काम करने वाले नहीं बदलेंगे वो व्यवस्था बदल नहीं सकती। आज इस देश के प्रशासन में जो भी कमी आईं हैं उसे मौजूदा कानूनों के तहत ही दूर किया जा सकता है। बशर्ते व्यवस्था को चलाने वालों की ऐसी प्रबल इच्छा शक्ति हो। 

चूंकि देश को ऐसी इच्छाशक्ति का कोई प्रमाण कहीं दिखाई नहीं दे रहा, इसलिए ये मानने का कोई आधार नहीं है राष्ट्रीय न्यायिक आयोग बन जाने के बाद सबसे योग्य, सबसे ईमानदार और सबसे ज्यादा निष्पक्ष लोगों का ही चयन न्यायपालिका के सदस्यों के रूप में होगा। आयोग क्या करेगा यह इस पर निर्भर करेगा कि आयोग के सदस्य कैसे हों और आयोग के सदस्यों का चयन उनकी ईमानदारी, राष्ट्र के प्रति निष्ठा व योग्यता को देख कर नहीं होगा बल्कि उनकी सत्ताधीशों से निकटता और सत्ताधीशों के इशारों पर नाॅचने की संभावना को देखकर होगा। 

उदाहारण के तौर जब प्रसार भारती बोर्ड बनाया गया तब भी यह दावा किया गया था कि प्रसारण में स्वायतत्ता लाई जाएगी। पर क्या ऐसा हो पाया ? प्रसार भारती बोर्ड के सदस्य वही करते हैं जो सत्तारूढ़ दल चाहता है। दूरदर्शन से कार्यक्रम बनाने का ठेका उन्हें ही मिलता है जो सत्ता के गलियारों में चाटुकारिता करते हैं या दलाली करते हैं। योग्यता के आधार पर दूरदर्शन के कार्यक्रमों के निर्माण का ठेका देना अभी सपना ही है और सपना ही रहेगा। इसलिए न्यायपालिका के आचरण को लेकर मौजूदा बहस बेमानी है। जनता को किसी न किसी मुद्दे में उलझाए रखने की जरूरत होती है ताकि वह भ्रम की स्थिति में बनी रहे। सपने देखती रहे और उम्मीद लगा कर बैठी रहे। राष्ट्रीय न्यायिक आयोग इसी कड़ी में एक और कदम होगा। उससे कुछ भी नहीं बदलेगा।

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