Friday, June 20, 2003

यूरोप के बाजारों से कीटनाशक बाहर जागों किसानों


आगामी 25 जुलाई तक यूरोप के बाजारों से 320 कीटनाशक उत्पादन हटा दिए जाएंगे। इस तरह यूरोप के बाजारों में बिकने वाले कीटनाशक उत्पादनों का 60 फीसदी उत्पादन और विक्रय बाजार से हटा दिया जाएगा। यह तो पहला चरण है दूसरे चरण में क्रमशः शेष कीटनाशक भी हटा दिए जाएंगे। इससे सिद्ध होता है कि अब पश्चिम के देशों को कीटनाशकों के घातक प्रभावों को लेकर चिंता हो गई है। जहां पश्चिमी देशों को अपनी ही वैज्ञानिक खोजों के बूरे परिणामों से घबड़ाहट होने लगी है वहीं हम भारत के किसान मूर्खतावश आज भी कीटनाशकों का प्रयोग अंधाधुन्ध किए जा रहे हैं। किए ही नहीं जा रहे हैं बल्कि उसकी मात्रा बढ़ाते जा रहे हैं। सारे देश के मंडियों में बिकने वाले फल और सब्जी कीटनाशकों के कूप्रभाव से इस कदर प्रभावित हो चूके हैं कि वे हमारी सेहत सुधारने की बजाए हमारी जीवन के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। ऐसे खतरे को जब पश्चिमी देशों के वैज्ञानिकों ने देखा तो उन्हें अपनी करनी पर पछतावा हुआ। इसलिए वे फिर वैदिक युग की कृषि प्रणाली की ओर लौटने लगे हैं। वो दिन दूर नहीं जब सारी दुनिया फिर से गाय की गोबर की खाद और प्राकृतिक जड़ी-बूटियों से बने कीटनाशकों पर आधारित कृषि व्यवस्था की ओर लौट आएगी। 

फिलहान बात यूरोप की है। यूरोपीयन यूनियन ने अपने सदस्य देशों के पौधों और वनस्पति की रक्षा के उद्देश्य से यह कठोर कदम उठाया है। ऐसा कड़ा कदम उठाने से पहले यूरोपीय कमिश्न ने इन कीटनाशकों के उत्पादकों को यह विकल्प दिया था कि अगर वे चाहें तो वैज्ञानिक परीक्षा से गुजर कर यह सिद्ध कर दें कि उनके उत्पादनों का वनस्पति, खेती और मानव स्वास्थ्य पर कोई गलत प्रभाव नहीं पड़ रहा। मजे की बात ये है कि एक भी उत्पादक इस वैज्ञानिक परीक्षा से गुजरने को राजी नहीं हुआ। उन्होंने इन उत्पादनों को बाजार से हटाने के आदेश को कोई चुनौती नहीं दी।  अब जरा भारत की स्थिति देखिए हर तरह का कीटनाशक भारतीय बाजारों में खुलेआम धड़ल्ले से बिक रहा है। किसान अंधे होकर इनका प्रयोग कर रहे हैं। कोई देखने-जांचने वाला नहीं है। जिस तरह यूरोपीय कमिश्न ने इन पर प्रतिबंध लगाया उस तरह भारत सरकार भी यह कड़ा कदम उठा सकती है इस तरफ कुछ प्रयास तो हुए भी हैं पर उनका असर अभी जमीन पर दिखाई नहीं दे रहा। भ्रष्टाचार से ग्रस्त सरकारी व्यवस्था के चलते ऐसे प्रतिबंधों का भारत में वैसे भी कोई खास महत्व नहीं होगा। जिन राज्यों में शराबबंदी की जाती है वहां धड़ल्ले से शराब बिकती है। बाकी देश की बात छोड़ भी दें तो अकेले राजधानी दिल्ली में सरकार की नाक के नीचे से धड़ल्ले से तमाम कानून तोड़े जाते हैं। ऐसे में अगर कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगाने वाली सरकारी एजेंसियां कितनी प्रभावी हो पाएंगी, यह कहना कठिन है। इस बारे में तो किसानांे को ही जागना होगा। किसान हमारे अन्यदाता हैं। अगर उनके हाथों जाने-अनजाने भारतवासी कीटनाशकों के रूप में जहर खाने को मजबूर कर दिए जाएं तो इस पाप के भागी किसान ही बनेंगे। पूरी की पूरी पीड़ी रोगग्रस्त, निर्बल और क्रांतिहीन हो जाएगी। फिर वो चाहे शहरी लोगों की हो या देहाती।

पाठकों की जानकारी के लिए कुछ ऐसे कीटनाशकों की सूची यहां जारी की जा रही है जिन पर यूरोप में पूरी तरह प्रतिबंध लग चूका है जबकि भारत में इन खतरनाक कीटनाशकों का प्रयोग आज भी जारी है। ये है एथ्रीन, बूटाच्लोर, क्लोरोफेनविनफाॅस, डालापाॅन, डिक्लोरप्रोप, इथियोन, फेनोक्शाप्रोप, फेनप्रोपथ्रिन, फोरमोथियोन, इशोप्रोथिओथियोलन, मेटोचेच्लोर, फोरेट, आॅक्सीकाॅरबोसिन आदि इन कीटनाशकों के वैज्ञानिक नाम हैं। भारतीय बाजारों में इन्हें अलग-अलग व्यावसायिक नामों से बेचा जाता है। इसलिए किसानों को इनकी जांच संभाल कर करनी होगी। जैसे पीने के पानी को विसलरी या एक्वामिनरल के नाम से बेचा जाता है। जबकि है दोनों में पानी ही या कृतिम घी को डालडा या रथ जैसे नामों से बेचा जाता है। इसी तरह घातक कीटनाशकों को भी तरह-तरह के नामों से भारत के बाजार में खुलेआम बेचा जाता है और इस तरह हमारी जिंदगी में धिरे-धिरे जहर घोला जा रहा है। उधर 150 रासायनिक पदार्थ ऐसे हैं जिन्हें अगले कुछ दिनों में यूरोप से हटा दिया जाएगा। ये उन 320 प्रतिबंधित उत्पादनों के अलावा हांेगे। इस तरह कीटनाशक उद्योग को 28 सौ करोड़ रूपए का बाजार खोना पड़ेगा। दुनिया भर के विशेषज्ञों ने यूरोपीय समुदाय के इस मजबूत कदम की प्रशंसा की है और उम्मीद जताई है कि बाकी कीटनाशक जल्दी ही कब्रिस्तान में पहुंचा दिए जाएंगे। साथ ही उन्होंने कीटनाशकों के विकल्प को भी मुहैया कराने में फुर्ति दिखाने की सलाह दी है। भारत में इस मामले में काफी जानकरी हजारों साल से हमारे किसानों की चेतना में व्याप्त रही है। पर कीटनाशक उत्पादकों के विज्ञापनों और झूठे प्रचार ने पिछले 53 सालों में हमारे देश के किसानों को इस कदर मूर्ख बनाया कि वे अपना परंपरिक विवेक ही खो बैठे। ये भी सच है कि विपन्नता की मार झेलने वाले और मानसून पर निर्भर जीवन जीने वाले मेहनतकश छोटे किसान हों या बड़े किसान ज्यादा फसल उगाने और ज्यदा मुनाफा कमाने की ललक ने उन्हें कीटनाशकों की तरफ स्वाभाविक रूप से आकर्षित कर लिया था। अगर ईमानदारी से अध्ययन कराए जाएं तो पता चलेगा कि देश में तेजी से फैलते हुए कंसर और दूसरे रोगों के लिए ये कीटनाशक ही जिम्मेदार हैं। ये बहुत सरल सी बात है- अगर कीटनाशक हानिकारक हैं ही जैसा यूरोप के वैज्ञानिक परीक्षणों से सिद्ध हो गया है तो वे घातक असर डालेंगे ही। अपनी व्यवस्था भ्रष्ट है ही इसलिए न तो इन कीटनाशकों के घातक असर पर कोई सरकारी कार्यवाही होगी और न इनके विषय में जनता को आगाह किया जाएगा। इस तरह घातक कीटनाशकों का प्रयोग भारत में बदस्तूर चलता रहेगा। 

दरअसल 1991 से ही यूरोप के देशों में इन कीटनाशकों के मूल्यांकन का काम शुरू हो गया था। कुल मिलाकर 850 उत्पादन थे जिन्हें 2008 तक जांच कर ये फैसला करना था कि इनका प्रयोग जारी रहे या बंद कर दिया जाए। अगर ऐसी ईमानदारी और तत्परता भारत में दिखाई जाए तो कीटनाशकों को भारतीय बाजारों से बाहर निकाला जा सकता है। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक हम यह काम किसानों को ही करना होगा। हर कीटनाशक को संशय की दृष्टि से देखें। संभव हो तो उनके दुष्प्रभावों का वैज्ञानिक परीक्षण करवाएं। न संभव हो तो तुगलकाबाद, दिल्ली स्थिति सेंटर फार साइंस एण्ड एनवायरनमेंट से संपर्क करके कीटनाशकों की असलियत को जाने और तब फैसला करें कि उन्हें इनका प्रयोग बंद करके वास्तव में समाज का अन्यदाता बने रहना है या अपनी आने वाली पीढि़यों को धीमा जहर देकर मारना है। इस पूरे मामले में देहात के नौजवानों को सबसे ज्यादा सक्रिय होना पड़ेगा। सूचनाएं इकट्ठी करना और उसे गांव के लोगों में बांटना ताकि जनजागृति फैलती जाए।

जिस तरह कीटनाशकों और रसायनिक खादों को निकाला जाना जरूरी है उसी तरह वैकल्पिक समाधान भी अपनाने में फुर्ति दिखानी चाहिए। पारंपरिक विधि से कृषि करने की जो जानकारी गांव के बुजुर्गों के पास है उनका सम्मान करना चाहिए और उसे यथाशीघ्र लागू करना चाहिए। इसके अलावा भी काफी संस्थाएं और संगठन है जो किसानों को वैकल्पिक कृषि के बारे में पूरी जानकारी और सलाह दे सकते हैं। अब समय आ गया है। कि हम जानबूझ कर जहर खाना छोड़े और अपने भविष्य को स्वस्थ्य और सुंदर बनाएं। कितने दुःख की बात है कि हमारी कृषि परंपराओं को नष्ट-भ्रष्ट करने के बाद अब यूरोपीय कमिश्न पूरे यूरोप में जैविकीय खाद, गाय के गोवर, नीम जैसी वस्तुओं के प्रयोग से पूर्णतः पारंपरिक कृषि व्यवस्था लागे करने जा रहा है। यूरोप के खेतों में फिर यूरिया, फास्फोरस जैसी घातक खादे नहीं डाली जाएंगी। वे तो जाग गए हम कब जागेंगे ?

Friday, June 13, 2003

मुंबई का एक अद्भुत अस्पताल


कुछ हफ्ते पहले टीवी समाचार चैनलों पर मुंबई के एक अद्भुत अस्पताल की खबर देखने को मिली। उसमें यह नहीं बताया गया था कि अस्पताल कहां स्थित हैं। पिछले हफ्ते मुंबई में इस अस्पताल के बारे में जब पता चला तो उत्सुकतावश इसे देखने गया। देखकर इतनी सुखद अनुभूति हुई कि उसे पाठकों से बांटने की इच्छा हुई। विश्व के तमाम देशों का मैंने भ्रमण किया है। पर ऐसा अस्पताल आज तक नहीं देखा। मुंबई की सीमा के बाहर थाणा जिले में मीरा रोड पर स्थित यह अस्पताल सारे देश के चिकित्सकों के लिए बहुत बड़ी प्रेरणा का केन्द्र है। हर डाक्टर को कम से कम एक बार इस अस्पताल को देखने जरूर जाना चाहिए। 

क्या आपने दुनिया में कोई ऐसा अस्पताल देखा है जहां अस्पताल की एक विशेष किस्म की गंध या दुर्गंध न आती हो ? पर इस अस्पताल में सबसे पहला अजूबा तो यही है कि अस्पताल की दवाइयों की दुर्गंध की बजाए पूरे अस्पताल में एक मनमोहक सुगंध आती है। इसका कारण यहां की बहुत उच्च कोटि की सफाई व्यवस्था तो है ही पर असली कारण ये है कि भाक्तिवेदांत नाम के इस अस्पताल की सारी संरचना और व्यवस्था एक मंदिर के रूप में की गई है। यूं यहां सवा सौ से ज्यादा डाक्टर और चार सौ के करीब नर्स और कंम्पाउंडर हैं और एलोपैथी, नैचुरोपैथी आदि से जुड़ी चिकित्सा पद्धतियों के अनुरूप तमाम आधुनिक यंत्र एवं उपकरण मौजूद हैं। अस्पताल के संस्थापक श्री राधानाथ गोस्वामी महाराज का अपने शिष्य डाक्टरों को यह स्पष्ट निर्देश रहा है कि मरीजों के तन के इलाज के साथ ही उनकी आत्मा का भी इलाज किया जाए। इसीलिए इस आधुनिक अस्पताल का निर्माण एक मंदिर जैसी आकृति का किया गया है। अस्पताल में घुसते ही सुंदर बाग-बगीचे के साथ स्वागत हाॅल के बीचों-बीच विराजी भक्तिवेदांत स्वामी की सजीव सी प्रतिमा आगंतुकों का मन मोह लेती है। हर सुबह अस्पताल के डाक्टर, कर्मचारी और नर्स आदि इस प्रतिमा के चारों ओर खड़े होकर सामुहिक प्रार्थना करते हैं। अस्पताल के किसी भी कोने में आप चले जाइए, चाहे मरीज का कमरा हो, चाहे आप्रेशन थिएटर, चाहे कैफिटेरिया हो या लिफ्ट, चाहे स्वागत कक्ष हो या दवा खरीदने वालों की लंबी कतार, हरेक के कानों में, हर समय हरे कृष्ण महामंत्र सुनाई देती है। पूरे अस्पताल में हर कोने में स्पीकर लगे हैं। मरीज या उसके तीमारदारों को दो विकल्प हैं- या तो वे भजन सुने या आध्यात्मिक प्रवचन।

अस्पताल के ज्यादातर कर्मचारी माथे पर वैष्णव तिलक लगाकर रहते हैं और खाली समय में या तो जप करते हैं या गीता जैसे आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन। किसी भी मरीज को मांसाहार या अंडा आदि खाने की सलाह नहीं दी जाती। इसलिए अस्पताल की कैंटीन में बननेवाला सभी भोजन पहले भगवान को अर्पित किया जाता है और फिर उसे खाया जाता है। मरणासन्न लोगों को उनके अंत समय पर अस्पताल की स्प्रीचुअल केयर यूनिट के सुपूर्द कर दिया जाता है। इस यूनिट के सदस्य डाक्टर और नर्से उस मरणासन्न व्यक्ति को तुलसी और गंगाजल दे कर गीता पढ़कर सुनाते हैं।

चूंकि इस अस्पताल में आने वाले मरीजों की एक बहुत बड़ी संख्या मुसलमानों की है इसलिए ऐसा करने से पहले हर धर्म के तीमारदारों को अपने धर्मानुसार आचरण करने की छूट होतीे है। यानी मुसलमान चाहे तो अपने मरीज के पास बैठ कर कुरान पढ़ता रहे और ईसाई बाइबल।  आश्चर्य की बात ये है कि अस्पताल के डाक्टर, नर्सों की विनम्रता देखकर और भक्तिमय व्यवहार देखकर मुसलमान तीमारदार तक यही कहते हैं कि अगर उनके मरीज को तुलसी, गंगाजल दिया जाता है या उसे गीता सुनाई जाती है तो इसमें उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। 

पिछले दिनों उसी इलाके की एक मुसलमान लड़की रूबीना ने आत्महत्या का प्रयास किया। उसे 90 फीसदी जली हुई हालत में अस्पताल लाया गया। अस्पताल वालों ने उसके घर वालों को साफ बता दिया कि ये लड़की दो दिन से ज्यादा जिंदा नहीं रहेगी। आप इसके पास बैठकर कुरान शरीफ का पाठ करें। उन्हीं की अनुमति से अस्पताल वालों ने रूबीना के सिरहाने गीता का पाठ भी शुरू कर दिया। जब अट्ठारह अध्याय पढ़ लिए गए और कुरान का भी पाठ पूरा हो गया तो रूबीना को नींद आ गई। सुबह आंख खुलते ही उसने दुबारा गीता सुनने की इच्छा व्यक्ति की।  बड़े ध्यान से उसने फिर अट्ठारह      अध्याय सुने और इस तरह गीता सुनते-सुनते उसका देहांत हो गया। 

इस अस्पताल के मैनेजमेंट में वे डाक्टर जुटे हैं जो अपने स्कूली जीवन से ही निर्धन लोगों के बीच जाकर स्वास्थ्य चेतना का काम करते आए थे। इन्हीं के मुखिया डाक्टर विश्वरूप का कहना है कि हम शरीर का इलाज तो करते ही हैं- आत्मा का भी इलाज करते हैं, इसलिए हमारे यहां आने वाले मरीज न सिर्फ प्रसन्नचित्त रहते हैं बल्कि उनके स्वास्थ्य में भी तेजी से सुधार होता है। जिसकी आत्मा ही बीमार है यानी जो हरि से विमुख है और भोगों में लिप्त है वो कितना भी इलाज कर ले तब तक ठीक नहीं हो सकता जब तक उसे आध्यात्मिक खुराक न मिले। यूं तो अस्पताल के भीतर बलदेव, सुभद्रा और जगन्नाथ जी का सुंदर मंदिर है। पर जो मरीज पलंग से उठकर मंदिर नहीं जा सकते उन पर कृपा करने के लिए भगवान जगन्नाथ खुद हर रोज उनके पलंग तक आते हैं। यह अत्यंत रोचक दृश्य होता है। उड़ीसा में तो साल में एक बार ही जगन्नाथ जी की सवारी निकलती है।  जबकि यहां हर शाम 6 बजे जगन्नाथ जी की सवारी अस्पताल के भीतर निकली है। यह सवारी एक ट्रालीनुमा रथ पर सवार होती है और नर्सें इस छोटे से रथ को धकेलती हुई हर मरीज के विस्तर तक आती हैं। मरीज को एक फूल देती हैं जिसे वह जगन्नाथ जी पर चढ़ाता है और फिर उसे प्रसाद मिलता है। इसी तरह यह रथ अस्पताल के हर मरीज तक जाता है। इससे मरीजों को अत्यंत सुख की अनुभूति होती है। गुजरात का भूंकप हो या मुंबई की झुग्गी-झोपड़ी ऐसे सभी क्षेत्रों में जाकर भक्तिवेदांत अस्पताल के डाक्टर गरीबों की निस्वार्थ सेवा करते हैं। इस अस्पताल में मेडिकल साइंस से जुड़ी सभी आधुनिक मशीने और डाक्टर मौजूद हैं फिर भी यह अस्पताल नहीं मंदिर ही लगता है। एक ऐसा मंदिर जहां जाकर बीमारी अपने आप पीछा छोड़ देती है।

मेडिकल व्यवसाय में आजकल कमीशन की प्रथा काफी आम बात हो गई है। हर मरीज को डाक्टर तमाम तरह के टेस्ट करने के लिए भेज देते हैं। इससे जो बिल बनता है उसका एक मोटा कमीशन डाक्टरों को मिलता है। किंतु भक्तिवेदांत अस्पताल के सभी डाक्टर इस नीच कर्म से पूरी तरह मुक्त हैं। वे चिकित्सा व्यवसाय को पेशा नहीं सेवा का माध्यम मानते हैं। उनके चेहरों पर सदैव प्रसन्नता और संतोष का भाव झलकता है। इस अस्पताल में इलाज कराने वाला हर मरीज और उसका परिवार अस्पताल की व्यवस्था और सेवा से इतना अभिभूत हो जाता है कि ठीक होने के बाद भी अस्पताल से नियमित संपर्क बनाए रखता है। ऐसे सभी ठीक हुए मरीज अपने घर जाकर भी आध्यात्मिक कार्यक्रम चालू रखते हैं और हर महीने अस्पताल में अपना मिलन आयोजित करके खुद के और संसार के सुख के कामना के लिए भक्ति करते हैं। 

आज के युग में अनैतिकता, भ्रष्टाचार, संवेदनशून्यता आम बात हो गई है तो अस्पताल किसी कसाइखाने का स्मरण दिलाए तो अजीब बात नहीं। पर यह अस्पताल नहीं एक मंदिर है। जहां जाकर जन्म-जन्मांतर के रोगों से मुक्ति मिलती हैै। यह अस्पताल नहीं तीर्थ है। हिन्दुस्तान के हर डाक्टर को इस तीर्थ का दर्शन करने जरूर जाना चाहिए। इससे उन्हें सद्कार्य की प्रेरणा मिलेगी और समाज का अकल्पनीय लाभ होगा। आज जब यह माना जा रहा है कि शहरों में ज्यादातर लोग मानसिक तनाव का शिकार होते जा रहे हैं और यही तनाव बीमारियों को जन्म दे रहा है तो ऐसे में जब मेडिकल इलाज के साथ आध्यात्मिकता जुड़ जाती है तो मरीज का मन-मस्तिष्क दोनों स्वस्थ्य हो जाते है। इसलिए ऐसा अस्पताल अंधकार के बीच में एक दीए की तरह जगमगा रहा है।

Friday, June 6, 2003

सिक्खों से पे्ररणा ‘ब्रज रक्षक दल’ करेगा ब्रज की रक्षा


सिक्ख समुदाय से हर धर्मावलम्बी को बहुत कुछ सीखना चाहिए। सेवा करने का जो भाव सिक्ख स्त्री और पुरुषों में देखने को मिलता है वैसा दूसरे किसी समुदाय में नहीं। 1997 की बात है मैं छत्तीसगढ़ इलाके के कांकेड़ नाम के शहर से एक जनसभा सम्बोधित करके लौट रहा था। आधी रात से भी बाद का समय था। घने जंगल, ऊंचे-ऊंचे वृक्ष और सुनसान सड़क पर हमारी टाटा सफारी तेजी से दौड़ रही थी। मैं और मेरे साथ चल रहे मध्य प्रदेश पुलिस के सुरक्षाकर्मी व कुछ सामाजिक कार्यकर्ता भूख से बेहाल थे। उस दिन सुबह से रात तक पूरे छत्तीसगढ़ में मैंने लगभग आठ जनसभाओं को सम्बोधित किया। एक शहर से दूसरे शहर का सफर कई घंटे का था। इसलिए समय का पालन करना जरूरी था। वर्ना आगे की सब जनसभाओं में इन्तजार करती भीड़ को नाहक कष्ट होता। इसलिए खाने का भी समय नहीं मिला। ऐसे घने जंगल में अचानक एक सरदार जी का जगमगाता हुआ विशाल ढाबा देखकर सबकी जान में जान आई। सब खाने की तरफ लपक पड़े पर मैं ये देखकर ठिठक गया कि उस ढाबे में मांस और मुर्गे भी परोसे जा रहे थे। मैं लौट कर गाड़ी में बैठ गया। दूर से ढाबा मालिक सरदार जी ने यह देख लिया और दौड़ कर मेरे पास आए। पूछा कि मैं खाना क्यों नहीं खा रहा। मैंने कहा कि जहां मास पकता है वहां मैं अन्न नहीं लेता। उन्होंने बिना एक क्षण सोचे कहा कि आप मेरे घर चल कर भोजन कीजिए। मुझे लगा कि घर पर ही जाने से क्या अन्तर पड़ेगा। वहां भी तो मांस पकता होगा। सरदार जी बोले, ”जी नहीं। हमने अमृत छका है। हमारे घर मांस अण्डा नहीं पकता।सरदार जी मुझे ही नहीं मेरे साथ आए छः-सात लोंगों को भी बड़े उत्साह से अपने घर ले गये। ढाबे से कई किलोमीटर दूर जंगल में उनका बंगला था। उन्होंने घर की बहू बेटियों को रात के डेढ बजे सोते से जगाया और आधे धण्टे में गर्मागर्म खाना परोस कर हमें अभिभूत कर दिया। इस पे्रम की कीमत पैसे देकर तो चुकाई नहीं जा सकती थी। पर चलते वक्त मेरी आंखें नम थीं। आज भी जब उन सरदार जी की याद आती है तो यही सोचता हूं कि उनका मेरा क्या लेना देना था। उन्हें तो यह भी नहीं पता था कि मैं कौन था और कहां से आया था। उन्होंने तो अतिथि देवो भव का धर्म निभाया। द्वार से कोई भूखा न लौटे ये सब धर्मों में सिखाया जाता है। पर इसका जीता जागता रूप उस दिन देखने को मिला।

वाहे गुरू जी की वाकई सिक्ख भाई-बहनों पर बड़ी कृपा है। आप भारत के गांवों में तो अतिथि देवों का भाव पायेंगे पर हम शहर वाले बड़े शुष्क और आत्मकेद्रित हो गये हैं। अनजाने को भोजन कराना तो दूर हम तो अपनों को भी भोजन कराने में भार महसूस करते हैं। दूसरी तरफ सिक्ख समुदाय के लोग जहां भी रहें शहर में, गांव में, देश में या विदेश में अतिथि की सेवा करने में पीछे नहीं हटते। कहने को तो भारत धर्म प्रधान देश है। पर केवल गुरूद्वारा ही वह स्थान है जहां आने वाले हर व्यक्ति को भरपेट मुफ्त भोजन मिलता हैं। गरीब और अमीर का भेद नहीं किया जाता। एक साथ पंगत में भोजन होता है। खिलाने वाले उत्साह और पे्रम से खिलाते हैं। इतना ही नहीं तीर्थयात्रियों के जूते साफ करना, उनके रहने खाने की उत्तम व्यवस्था करना और गुरूद्वारों और अपने तीर्थ स्थलों को अपने हाथों से साफ करना, संजाना और संवारना। सिक्खों के इस गुण को सीखने की जरूरत है। आज हमारे लगभग सभी तीर्थस्थल तीर्थयात्रियों के आकर्षण का केन्द्र बने हुए हैं। यातायात और संचार की बेहतर व्यवस्थाओं और मध्यमवर्ग की समृद्धि ने तीर्थाटन को पहले की तुलना में कई गुना बढ़ा दिया है। इस हद तक भीड़ होने लगी है कि अक्सर तीर्थस्थलों की व्यवस्था चरमरा जाती है। सब तीर्थयात्री यही चाहते हैं कि उन्हें अपनी आस्था का केन्द्र साफ सुथरा और सुन्दर मिले। हराभरा हो और बुनियादी सुविधाओं की कमी न रहे। पर उनको अक्सर निराशा हाथ लगती है। तीर्थस्थलों की दुर्दशा देखकर आस्थावान लोग रो देते हैं। पर रोने से और सरकार की आलोचना करने से कोई व्यवस्था सुधर तो नहीं सकती। उसके लिए सामूहिक प्रयास की जरूरत होती है। कुछ त्याग और तपस्या की जरूरत होती है। जिसकी जिस धर्म में आस्था हो उसे अपनी आस्था के केन्द्र की सेवा अपने हाथों से करनी चाहिए। जिस आमतौर पर पंजाबी में कार सेवाकहा जाता है, उसका सही हिन्दी शब्द है कर सेवा। कर यानी हाथ से सेवा। धन का दान तो हर साधन सम्पन्न व्यक्ति कर सकता है पर श्रम का दान करने से जो पुण्य प्राप्त होता है वह धन दान करने से नहीं। कर सेवा करके हम अपने प्रभू का मन आकर्षित करते हैं। इसलिए जरूरत इस बात की है कि देश के हर तीर्थ स्थल की सेवा और सुरक्षा के लिए आस्थावान लोग संगठन बनाऐं। उस तीर्थस्थल की जो समस्याएं हैं उनकी सूची बनाएं। फिर एक एक समस्या का क्रमशः निदान करते जाएं। यह काम सामूहिक भावना से किया जाए, यश प्राप्ति की भी कामना न हो तो कोई कारण नहीं कि सफलता न मिले। लोग भी जुटेंगे और साधन भी। 

अजमेर शरीफ की दरगाह में या नाथद्वारे के श्रीनाथ मन्दिर में जिस समय भीड़ का रेला घुसता है उस समय बूढ़ों, बच्चों और महिलाओं को अपनी जान बचाना भारी पड़ जाता है। दर्शनार्थी इस तरह कुचल जाते हैं कि अच्छे भले आदमी की भीड़ में घुसने की हिम्मत न पड़े। जरा सोचिए कितने अरमान लेकर कितनी तकलीफ उठाकर आपकी बूढ़ी मां या दादी अपने इष्ट को देखने आईं और उन्हें इस तरह की भयावह स्थिति का सामना करना पड़ा। ये कैसी धार्मिकता है ? ज़रा उन बच्चों की तो सोचिये जिन्हें धर्म के नाम पर ऐसी अराजकता, लूटखसोट या गन्दगी के साम्राज्य का सामना करना पड़ता है। बालमन पर पड़ी ये छाप उनके मन में अपने धर्म के प्रति अरूचि पैदा कर देगी। इसलिए सभी धर्मावम्बियों को अपने अपने धर्म क्षेत्र की रक्षा के लिए सेवाभाव से आगे आना चाहिए और सिक्ख समुदाय से पे्ररणा लेकर कुछ ऐसा करना चाहिए कि आने वाली सदियां भी उनके कामों को याद रखें।

इस मामले में एक अच्छी पहल ब्रज में शुरू हुई है। भगवान श्री राधाकृष्ण की सैकड़ों लीला स्थलियों को स्वयं में धारण किए श्री ब्रजधाम इस भूमण्डल से भिन्न गोलोक वृन्दावन का ही अभिन्न अंग माना जाता है। पांच हजार साल से साधु सन्तों और भक्तजनों ने अपने पे्रमाश्रुओं और जप-तप से इसके कण-कण को पोषित किया है। इसके अद्भुत सौंदर्य की प्रशस्ति में हजारों पद और श्लोक रचे गये हैं। बृन्दावन या ब्रजमण्डल का नाम लेते ही कृष्णभक्तों के हृदय में जो चित्र उभरता है वह है हरेभरे लता कुंजों का, शीतल जल से भरे मनोरम कुंडों का, यमुना के दिव्य घाटों का और फलों से आच्छादित वनों और पर्वतों का। पर वहां आकर जो कुछ देखने को मिलता है उससे नए-नऐ भक्तों का कलेजा धक्क रह जाता है। वे समझ ही नहीं पाते कि ब्रज का इतना विनाश कैसे हो गया। दरअसल पिछले एक हजार वर्ष से ब्रज का विनाश किया जा रहा है। आजादी के बाद विनाश की यह गति घटने के बजाय बढ़ी है। पिछले दस वर्षों में ब्रज का और भी तेजी से विनाश हुआ है। बिना रोके यह रुकने वाला नहीं है। इसलिए ब्रज के विरक्त सन्तों की पे्ररणा से अनेक ब्रजवासी नौजवानों, देश के अन्य भागों में रहने वाले कृष्ण भक्तों और कुछ अत्यन्त मशहूर लोगों नें साझे प्रयास से ब्रज रक्षक दल नाम का स्वयंसेवी संगठन बनाकर ब्रज की सेवा एवं संरक्षण का काम शुरू किया है। कुछ ही दिनों में इस संगठन को जो चमत्कारिक उपलब्धियां हुई हैं उससे यह विश्वास दृढ़ होता है कि अब ब्रज की दुर्दशा के दिन थोड़े से ही बचे हैं। निःस्वार्थ भाव से ब्रज की सेवा को तत्पर हजारों लोग ब्रज रक्षक दल से जुड़ते जा रहे हैं। ब्रज रक्षक दल प्रचार से बच कर ठोस काम में विश्वास रखता है। इसमें शामिल होने वाला हर कृष्ण भक्त ब्रज रक्षक कहलाता है। कोई पदों के बंटवारे का झगड़ा नहीं है। कोई पे्रस विज्ञप्ति और नाम छपवाने की होड़ नहीं है। कोई पैसे का लालच नहीं है। सब अपनी क्षमता अनुसार तन मन धन से सेवा में जुटे हैं। ब्रज रक्षक दल का पहला बड़ा अभियान ब्रज के सैकड़ों कुण्डों और सरोवरों का जीर्णोद्धार करना है। इनमें जमीं मिट्टी बाहर निकालना। जल के स्रोत खोलना। इनके चारों तरफ बने ऐतिहासिक घाटों की मरम्मत करना और इनके चारों ओर सुन्दर वृक्ष लगाकर घाटों को इनका खोया हुआ स्वरूप पुनः प्रदान करना। काम बड़ी तेजी से चल रहा है। कई कुण्डों का उद्धार हो चुका है। आजकल बरसाना स्थित श्री वृषभानु कुण्ड की खुदाई का काम चल रहा है। खुदाई की बड़ी मशीनें और टैªक्टरों के साथ ही विरक्त सन्त और भक्त खुद भी जुट कर इस काम को करवा रहे हैं। 

चूंकि आजकल गर्मियों की छुट्टियां हैं और नौजवनों के पास करने को कुछ खास नहीं। ऐसे में कृष्ण भक्तों को एक अवसर मिला है कि वे श्रीमती राधारानी के गांव इस पवित्र सरोवर और इसमें स्थापित जल महल की सेवा के लिए बरसाना पहुंचें और ब्रज रक्षक दल से जुड़ कर ब्रज की सेवा के कार्यक्रमों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लें। कुण्डों के उद्धार के साथ ही ब्रज रक्षक दल कई अन्य मोर्चों पर भी महत्वपूर्ण काम कर रहा हैं जिसकी जानकारी आनेवाले दिनों में देशवासियों को मिलनी शुरू हो जायेगी। फिलहाल ऐसे सिविल इंजीनियरों की जरूरत है जो सेवामुक्त हो चुके हों या बिना पैसा लिए सेवा-भावना से कुण्डों के जीर्णोद्धार के इस महायज्ञ में बढ़चढ़ कर हिस्सा लें। इससे सेवा में लगे साधुओं को दूसरे क्षेत्रों में भी काम शुरू करने का मौका मिलेगा। ब्रज रक्षक दल की सदस्यता के लिए कोई औपचारिकता नहीं है। जो भी ब्रज की सेवा करना चाहता है वही ब्रज रक्षक दल का सदस्य है। उसे ब्रज रक्षक दल के संयोजकों से मार्गनिर्देशन लेकर ब्रज की सेवा में जुट जाना चाहिए। इस तरह एक ऐसी शुरुआत होगी जो कि ब्रज का कायाकल्प करके ही रुकेगी।