Friday, July 25, 2003

एक घोषणा से नहीं चलेगा काम


अभी हाल ही में सरकार ने फसल ऋणों की ब्याज दर में भारी कटौती करके किसानों को राहत देने की कोशिश की है। इसके तहत अपनी फसलों को लहलहाते देखने के लिए जो किसान अब तक 14 से 18 प्रतिशत की ब्याज दर पर कर्जा ले रहे थे, अब उन्हें पचास हजार रुपए तक के फसली ऋण के लिए नौ फीसदी ब्याज ही चुकानी होगी। एक तरह से देखा जाए तो सरकार का यह कदम प्राकृतिक आपदाओं के मकड़जाल में फंसकर तड़पते किसानों के माथे की सलवटों को कुछ हद तक दूर कर देगा, पर क्या सिर्फ इसी निर्णय के बलबूते किसानों की सारी समस्याओं का अंत हो जाएगा ? ऐसा नहीं होगा। भारत की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले किसान तब भी वैसे ही बदहाल रहेंगे, जैसे वे आज हैं। बड़े किसानों की बात छोड़ दें तो लघु और सीमांत किसानों की हालत पिछले कुछ सालों में बिगड़ी ही है। अन्न उत्पादन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले निचले स्तर के किसान तथा खेतिहर मजदूरों की आर्थिक स्थिति में गिरावट का दौर थम नहीं पा रहा है। बल्कि देखा जाए तो पिछले कुछ सालों से, जबसे सरकार ने कृषि उत्पादनों के आयात पर से मात्रात्मक प्रतिबंध हटाए हैं, तब से छोटे किसानों की कमर ही टूट गई है। 

ऐसा नहीं है कि छोटे किसानों की यह हालत उत्पादन में कमी के कारण आई है। अन्न उत्पादन तो हर साल रिकार्ड स्तर को पार कर जाता है। फिर किसानों की हालत क्यांे नहीं सुधर पा रही? यदि गहनता से विचार किया जाए तो पता चलेगा कि किसानों में भी दो वर्ग हैं। एक वे जो बड़ी जमीनों के मालिक हैं और घर बैठकर खेतिहर मजदूरों से अन्न उत्पादन कराते हैं। दूसरे वह हैं जो दिन-रात कड़ी मेहनत करके खेतों में अपना पसीना बहाते हैं। इनके पास या तो खुद की जमीन नहीं होती या फिर होती भी है तो वह इतनी कम कि वह उनकी गुजर बसर के लिए साधन नहीं जुटा पाती। बड़े किसान तो साधन सम्पन्न होने के कारण खेती में प्रयुक्त होने वाले खाद, बीज, उपकरण आदि चीजों की व्यवस्था कर लेते हैं। साथ ही वे बाजार की मांग के हिसाब से बोयी जाने वाली फसल में भी बदलाव कर लेते हैं। आजकल पारंपरिक अन्न की पैदावार के बजाए फल-फूल की खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। सरकार भी किसानों को तरह तरह के प्रशिक्षण तथा जानकारी देकर उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित कर रही है। बीज उपलब्ध कराने से लेकर फसल उगाने के तरीकों तक की जानकारी किसानों को दी जा रही है। इनसे होने वाले फायदे गिनाए जा रहे हैं। इन फसलों में मुनाफा ज्यादा होने के कारण किसानों का रुझान भी अब इस ओर बढ़ने लगा है। कई क्षेत्रों में गांव के गांव फल-फूल की खेती करने लगे हैं। इससे वहां के किसानों का जीवन स्तर में भी सुधार आया है। परंतु लघु एवं सीमांत किसान जिनके पास पांच एकड़ से ज्यादा जमीन नहीं होती, के लिए नई तकनीकों का प्रयोग करना इतना आसान नहीं होता। यह लोग तो खेती के आवश्यक खर्चों को भी वहन नहीं कर पाते। जैसे तैसे कर्जा लेकर खाद, बीज खरीदकर फसल उगाते हैं। भगवान से हर समय प्रार्थना करते रहते हैं कि कोई प्राकृतिक आपदा न आए। यदि फसल ठीक हो भी जाए तो भी इनके लिए लागत निकालना आसान नहीं होता। यह लोग ब्याज की रकम और मूल चुका भी नहीं पाते कि दूसरी फसल उगाने का समय आ जाता है। इस तरह यह कर्ज दर कर्ज के संजाल में फसंते जाते हैं। तब इनके सामने दो ही रास्ते बचते हैं या तो अपनी जमीन बेचकर कर्जा चुकाएं या फिर भूख और बेहाली से त्रस्त होकर जान गंवाएं। इसी वर्ग में खेतिहर मजदूर भी आते हैं जो रात दिन दूसरों के खेतों में फसल पैदा करते हैं। अपना पसीना बहाकर पैदा किया गया अन्न भी इनकी पहंुच से दूर होता है। उत्पादक, खेत मालिक और मंडी तीन स्तरों के बाद अनाज बाजार में बिकने आता है, उसे भी यह खेतिहर मजदूर खरीद पाने में सक्षम नहीं होते। अब ऐसी स्थिति में इन छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों का जीवन स्तर कैसे ऊपर उठ पाएगा, यह एक गंभीर चिंतन का विषय है।

दूसरी ओर उदारीकरण के नाम पर जो फैसले कुछ साल पहले लिए गए थे, अब उसके दुष्परिणाम  भारतीय उत्पादकों के सामने आ रहे हैं। आयात नीति में छूट देने के कारण जहां विदेशों से फलों की आवक के कारण हिमाचल प्रदेश और  कश्मीर के किसान परेशान हो गए हैं, वहीं गेहूं, चावल के खुले आयात से पंजाब एवं उत्तर भारतीय किसानों की पेशानी पर बल पड़ गए हैं। कपास के आयात से आन्ध्र प्रदेश, गुजरात एवं महाराष्ट्र के किसानों पर भी बुरा असर पड़ रहा है। यही हाल तिलहन की खेती करने वालों का है क्योंकि सस्ता होने के कारण विदेशी पाम आॅयल और सोयाबीन आॅयल को भारत मंगवाया जा रहा है। डब्लूटीओ का वरदहस्त प्राप्त बहुराष्ट्रीय कंपनियां महंगी खाद और बीज तथा कीटनाशकों को भारत में खपा रही हैं और यहां के भोले-भाले किसानों को भरमा रही हैं कि इनका प्रयोग करने से पैदावार में कई गुना बढ़ोत्तरी हो जाएगी। यह सही है कि इन्हें खेतों में डालने से उत्पादन बढ़ जाता है मगर वास्तविकता में इनसे लाभ कम, नुकसान ज्यादा होता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ये बीज सिर्फ एक बार ही बोए जा सकते हैं। इनसे दुबारा फसल नहीं हो सकती। इसी तरह रासायनिक खाद धीरे धीरे भूमि की उर्वरा शक्ति को खत्म कर देती है। कुछ ही सालों में जमीन बंजर हो जाती है। उस पर कोई भी फसल नहीं उग पाती। यह कंपनियां अपने नुकसानदेह उत्पादों को तो भारत मंे भेज रही हैं और खुद यहां के पारंपरिक तौर-तरीकों को आत्मसात कर सुकून का अनुभव कर रही हैं। भारतीय तरीके वास्तव में कारगर हैं परंतु पश्चिम की बयार ने भारतीयों के मन मस्तिष्क को कुंद कर दिया है। वह आधुनिक चकाचैंध के पीछे भागकर अपनी सदियों पुरानी विरासत को भूलते जा रहे हैं। 

नई जरूरतों के हिसाब से व्यवस्थाओं में तब्दीली करने के कानून तो बना दिए जाते है मगर जंग खाई नौकरशाही जनहित में नए नियमों को लागू नहीं होने देती। स्वार्थसिद्धि की आदत उन्हें रोक देती है। हर साल अन्न की पैदावार रिकार्ड स्तर को पार कर जाती है। अन्न गोदामों में सड़ता रहता है। खाद्यान्न की अधिकता के कारण उसे रखने की जगह तक नहीं मिलती। सैकड़ों टन अनाज मौसम की मार से यूं ही बेकार हो जाता है। मगर फिर भी विदेशों से अनाज मंगवाया जाता है। जो पैसा अन्न के आयात में खर्च किया जाता है यदि उसे देश में पैदा होने वाली फसलों के रखरखाव पर खर्च किया जाए तो भारत में अनाज की कोई कमी नहीं रहेगी। सरकार को केवल कागजी घोड़े दौड़ाने की जगह अब वास्तविकता के धरातल पर उतरकर कुछ ठोस करना ही होगा। हर साल सरकार गेहूं खरीद के न्यूनतम मूल्य निर्धारित करती है। अनाज खरीदने के लिए खरीद केन्द्र बनाए जाते हैं। किसानों की सुविधाओं के लिए इन खरीद केन्द्रों पर सभी आवश्यक साधन भी मुहैया कराए जाते हैं, मगर फिर भी किसान इनके बजाए कम कीमत पर बाजारों में अपना अन्न बेचते हैं। कारण, नौकरशाही का वरदहस्त प्राप्त दलालों का इन जगहों पर कब्जा रहता है। सरकार के तमाम दावों को यह नौकरशाही पलीता लगा देती है। हर साल झगड़े होते हैं, फसाद होते हैं लेकिन कुछ समय बाद गाड़ी उसी पुराने ढर्रे पर आ जाती है। स्थिति जस की तस रहती है। नियम बनाने के साथ साथ सरकार को नौकरशाही के अवैधानिक कार्यों पर लगाम लगाने के भी उपायों पर विचार करना होगा तभी किसानों तक उनका लाभ पहंुच पाएगा।

फसली ऋण की ब्याज दरों में कटौती करके सरकार ने किसानों को वर्ष 2002-03 की ऋण राशि में ही करीब ढाई हजार करोड़ रुपए की राहत देने की कोशिश की है। साथ ही किसानों को सस्ती ब्याज दर और आसान शर्तों पर ट्रैक्टर तथा अन्य कृषि उपकरण दिलाने के बारे में सरकार प्रयासरत है। निश्चय ही सरकार का यह कदम बड़े किसानों के लिए स्वागतयोग्य है। पर छोटे किसानों की दशा कैसे सुधरे, इस प्रश्न का हल खोजा जाना चाहिए। एक तरफ उदारीकरण के कारण बंद होते कारखाने, दूसरी तरफ कृषि का व्यवसायीकरण, गरीब आखिर जाए तो कहां जाए?

Friday, July 18, 2003

पानी रे पानी तेरा रंग कैसा


लो मानसून भी आ गया और धड़ल्ले से आया। पहले ही दिन देश की राजधानी दिल्ली में नगर निगम की सारी व्यवस्थाएं ध्वस्त हो गईं। बाकी शहरों की बात ही क्या करें, जहां की नगर पालिकाएं न तो दिल्ली नगर निगम के मुकाबले आर्थिक रूप से मजबूत हैं और न ही अन्य संसाधनों में। इन शहरों में तो एक ही बारिश ने नारकीय स्थिति पैदा कर दी। प्लास्टिक और दूसरे कचरे के ढेर पानी में तैरकर इन छोटे शहरों की सूरत को और भी बिगाड़ रहे हैं। एक दिन की बारिश मंे दिल्ली मे ंबाढ़ आ गई। पर पिछले दो बरस से प्यासी तड़पती धरती मां ने ऐसी प्यास बुझाई कि कुछ ही घंटों में सारा पानी पी गई। बारिश का क्रम जारी है और जारी रहना चाहिए क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था के लिए बारिश का डटकर होना ही फायदेमंद है। पर सवाल है कि यह जो बेइंतहा पानी हमें अब मिल रहा है क्या इसे संचित करने की कोई व्यवस्था हमने की? जरा दो हफ्ते पहले का उत्तर भारत याद कीजिए। धरती सूखी पड़ी थी। कुंडों और सरोवरों में पानी नहीं था। राजस्थान और गुजरात के कुछ इलाकों में तो किसानों को पानी की तलाश में अपने गांव तक खाली कर देने पड़े और दो हफ्ते बाद हर ओर पानी ही पानी है।

हम बरसों से जल संकट की बात करते आए हैं और यह मानते हैं कि दुनिया में पानी का संकट बहुत तेजी से बढ़ता जा रहा है। कहा तो यह जाता है कि आने वाले वर्षों में लोगों, प्रांतों और राष्ट्रों के बीच झगड़े और युद्ध पानी की कमी को लेकर ही होंगे। पिछले 50 साल के सरकारी दस्तावेजों को देखें। जल संसाधन मंत्रालय की फाइलांे को अगर न देख सकें तो किसी भी पुस्तकालय में जाकर पिछले पचास सालों में बरसात के दिनों में दिए गए भारत सरकार और प्रांत सरकारों के बयानों को पढ़ें, जिनमें जल प्रबंधन करने के लिए तमाम बड़ी योजनाओं की घोषणाएं मिल जाएंगी। इन घोषणाओं में दावे किए गए थे कि देश को अतिवृष्टि और अनावृष्टि के संकट से उबारा जाएगा। वर्षा के पानी को जमा करके सूखे के समय में प्रयोग में लाया जाएगा। इसके लिए अरबों रुपये की तमाम योजनाएं बनीं और कागजों पर ही पूरी हो गईं। साठ से नब्बे फीसदी धन भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। नतीजा यह कि एक बारिश देश की राजधानी तक का हुलिया बिगाड़ देती है जबकि उसी राजधानी दिल्ली में एक महीने पहले पानी का संकट इतना बढ़ गया था कि मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित को आदेश जारी करने पड़े कि लोग अपने बगीचों में पानी न डालें। ऐसा करने वाले पर दंडात्मक कार्रवाई की जाएगी। ये है हमारी प्रशासनिक व्यवस्था का विरोधाभास। देश की जनता को बार बार बड़े-बड़े सपने दिखाकर नई योजनाओं के नाम पर मूर्ख बनाया जाता है। योजना के घोषित उद्देश्य गलत नहीं होते, पर उनके पीछे छिपी धनलोलुपता हर योजना का भट्टा बैठा देती है। 

अब ताजातरीन योजना को ही लें। पूरे देश को बताया जा रहा है कि नदियों को जोड़ने से देश का जलसंकट दूर हो जाएगा। दिखने में यह बात बहुत तार्किक लगती है। 40 से 50 सालों में पूरी होने वाली इस महती योजना के लिए लगभग पांच लाख साठ हजार करोड़ रुपये की फौरी तौर पर जरूरत पड़ने का अनुमान लगाया गया है। पिछले 16 सालों से सरकार इस महायोजना की रूपरेखा तैयार करने के लिए अध्ययन करवा रही है। जिन नदियों में बारिश का पानी कहर बनकर उमड़ता है, उन सभी को आपस में जोड़कर बाढ़ के पानी को सूखाग्रस्त इलाकों तक पहंुचाना ही इस योजना का उद्देश्य है। सरकारी अनुमान के मुताबिक इस परियोजना के पूरी होने के बाद लगभग 150 मिलियन हैक्टेअर जमीन को सींचा जा सकेगा। 35 हजार मेगावाट बिजली उत्पादित की जा सकेगी तथा सूखे से प्रभावित जगहों पर पानी पहंुचाया जा सकेगा। पर, वास्तव में ऐसा हो सकेगा, इसमें उम्मीद कम, संशय ज्यादा है। भ्रष्टाचार और स्वार्थपूर्ति के साथ साथ राज्यों के व्यक्तिगत हित भी इस परियोजना के पूरी होने में आड़े आएंगे जिनका निपटारा करना असंभव नहीं तो कठिन जरूर है। हालांकि इससे पहले भी इतनी बड़ी तो नहीं, परन्तु अच्छी-खासी योजनाएं बन चुकी हैं जिनमें देश का काफी पैसा लगा। उन पर काम भी हुआ। पर नतीजा ये कि अरबों रुपये खर्च करने के बाद भी हम बरसात का केवल दस फीसदी जल रोक पाते हैं, नब्बे फीसदी जल नदियों के रास्ते बहकर समुद्र में मिल जाता है और खारी हो जाता है।

जल प्रबंधन का तो ये हाल है। अब यमुना को प्रदूषण मुक्त करने वाली योजना को ही लीजिए। यमुना एक गंदे नाले में तब्दील हो चुकी है। कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं की पहल पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस ओर ध्यान दिया और सरकार को उसके दायित्व का अहसास कराया। हाईकोर्ट के निर्देश पर सरकार ने यमुना को साफ करने की भारी भरकम योजना बनाई। अरबों रुपये की धनराशि अवमुक्त की गई। जोर-शोर से काम चला। यमुना में गिरने वाले गंदे नालों को टेप कर दिया गया। शहर की गंदगी यमुना में न जाए, इसके लिए सीवेज टैंक और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाए गए। लोगों को जागरुक करने पर भी लाखों रुपये फूंक दिए गए। पर, लोगों में न जागरूकता आनी थी और न ही आई। आज भी यमुना में गंदगी की वही स्थिति है जो परियोजना शुरू होने से पहले थी। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) द्वारा यमुना नदी के किनारे बसे शहरों में बनाए गए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट सफेद हाथी की तरह खड़े होकर लोगों को मुंह चिढ़ा रहे हैं। प्रोजेक्ट बनाने वाले नीति निर्धारकों ने आपस में तय किया था कि इन सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों को बनाकर स्थानीय नगर पालिकाओं के सुपुर्द कर दिया जाएगा। बन जाने के बाद जब सीपीसीबी ने इन्हें नगर पालिकाओं से लेने के लिए कहा तो उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। अपनी सीमित संसाधनों से जैसे तैसे काम चला रहीं बदहाल नगर पालिकाएं इन सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों का खर्च कैसे उठाएंगी, यह किसी ने नहीं सोचा था। अब स्थिति यह है कि रखरखाव के अभाव में यह ट्रीटमेंट प्लांट अपनी गंदगी ही साफ नहीं कर पा रहे हैं, शहर की गंदगी को यमुना में जाने से रोकने की बात तो छोड़ दीजिए। गंगा मुक्ति अभियान की कहानी भी इससे फर्क नहीं है।

झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में बहने वाली भारत की एक प्रमुख नदी दामोदर की स्थिति तो और भी ज्यादा भयावह है। छोटा नागपुर पठार के खरमरपेट पहाडि़यों से निकली 563 किमी लम्बी दामोदर नदी का पानी पीने की तो छोडि़ए, अन्य उपयोग के लायक भी नहीं है। नदी के आसपास के इलाके में करीब 183 कोयले की, 28 लौह अयस्क की, 33 चूने की, 5 काॅपर की तथा 84 माइका की खदानें हैं। इसके अलावा देश के जानी-मानी जल विद्युत परियोजनाएं भी इसी क्षेत्र में हैं। बड़ी-बड़ी इन खदानों तथा विद्युत परियोजनाओं में दामोदर नदी का पानी ही इस्तेमाल किया जाता है। अपना काम निकलने के बाद गंदे पानी को नदी में ही छोड़ दिया जाता है। हालत यह है कि कुछ स्थानों पर नदी पूरी तरह कोयले से भरी पड़ी है। नदी में हाथ डालो तो पानी नहीं कोयला निकलता है। नदी संरक्षण के लिए बनाई गई दामोदर वैली कारपोरेशन भी उपाय करते-करते थक गई है, परन्तु नतीजा कुछ नहीं निकल पा रहा है। नदी में प्रदूषण कम होने के बजाए बढ़ता जा रहा है। दामोदर तथा इसकी सहायक नदियों साफी और कोनार के किनारे अकेले झारखंड राज्य में ही करीब दस लाख लोग रहते है। पानी का कोई और सहारा न होने के कारण यह दामोदर नदी के प्रदूषित पानी पर ही निर्भर हैं। मजबूरी में लोग अयस्कों से भरा यह पानी पीते हैं और डायरिया, गेस्ट्रोएंटराइटिस, हैपेटाइटिस तथा गंभीर त्वचा रोगों के चंगुल में फंसे रहते हैं।

भारत मंे प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 1,869 क्यूबिक मीटर है। सन् 1951 में जहां यह 5,177 थी वहीं सन् 2050 में इसके 1,140 क्यूबिक मीटर रह जाने की आशंका जताई जा रही है। यह साबित करता है कि हमारे देश में पानी की स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं है। यदि समय रहते पृथ्वी पर अमृत समान मौजूद पानी को बचाने की सकारात्मक और प्रभावी पहल नहीं की गई, तो हम सभी गंदा जहरीला जल पीने पर मजबूर होंगे। इसलिए जरूरत है कि पानी के मामले में हम सब जागें और सरकार पर दबाव डालें ताकि पानी के प्रबंध को लेकर योजनाएं बनाने वाले गैर जिम्मेदाराना तरीके से काम करना बंद कर दें। देश में जल की कमी नहीं है पर भ्रष्टाचार के चलते उसका प्रबंध नाकारा है। नदियों को जोड़ने की योजना की सफलता उसे लागू करने वालों की ईमानदारी पर निर्भर करेगी।

Friday, July 4, 2003

जार्ज फर्नांडीज के गुण भी देखो


तहलका के बाद से विपक्ष और मीडिया के एक बड़े हिस्से का रवैया केन्द्रीय रक्षामंत्री जार्ज फर्नांडीज की उपेक्षा करने का या उनकी तरफ हिकारत से देखने का रहा है। तहलका कांड के तथ्य क्या हैं और रक्षा मंत्रालय में भ्रष्टाचार है या नहीं, यह एक महत्वपूर्ण विषय है किन्तु जब तक सब तथ्य सामने न आ जाएं, कुछ भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। कहने वाले तो यह खुलेआम कहते हैं कि रक्षा मंत्रालय में अंग्रेजों के जमाने से लेकर आज तक बिना भ्रष्टाचार के कुछ होता ही नहीं। अगर यह सच है तो बड़ी अजीब बात है कि जार्ज फर्नांडीज का विरोध करने वालों में वे लोग भी हैं जो खुद कभी रक्षा मंत्री रह चुके हैं। पर इसमें नया कुछ भी नहीं है। राजनीति में यह कहावत पूरी तरह चरितार्थ होती है कि सूप बोले तो बोले छलनी भी बोले जिसमें बहत्तर छेद। अक्सर भ्रष्टाचार के मामले में शोर मचाने वाले राजनेता वही होते हैं जिनका खुद का दामन कीचड़ में सना होता है। जब हमाम में सभी नंगे हैं तो फिर शोर केवल शोर मचाने के लिए ही मचाया जाता है, किसी को सजा दिलवाने के लिए नहीं। तहलका के विवाद के कारण रक्षा मंत्री के रूप में जार्ज फर्नांडीज के अच्छे कामों को भी अनदेखा किया जा रहा है। 

पिछले दिनों एक खबर छपी कि जार्ज फर्नांडीज ने फ्लाइट पायलट की यूनीफार्म पहन एक लड़ाकू विमान के काॅकपिट में बैठकर आसमान की खतरनाक ऊंचाइयों पर उड़ान भरी। जार्ज देखना चाहते थे कि इस तरह की सेवा करने वाले लड़ाकू पायलटों की जिंदगी कितने जोखिम से भरी होती है। ऐसा उन्होंने पहली बार नहीं किया। पिछले चार वर्षों में सेना के जवानों के प्रति अपनी सहृदयता का परिचय देते हुए श्री फर्नांडीज ने कई काम ऐसे किए हैं जो किसी रक्षामंत्री ने आज तक नहीं किए। मसलन, सियाचिन ग्लेशियर पर जाने वाले वे पहले रक्षामंत्री हैं। एक बार नहीं कई बार उन्होंने सियाचिन ग्लेशियर की यात्रा की। बर्फ से ढकी इन पहाडि़यों पर आॅक्सीजन की कमी के कारण हट्टे कट्टे नौजवान तक वहां नहीं टिक पाते। भारतीय सेना के जाबांज सिपाहियों की सबसे कठिन परीक्षा सियाचिन ग्लेशियर की तैनाती पर ही होती है। स्नो व्हाइट के कारण उनकी उंगलियों का मांस गल जाता है। खाल फट जाती है। नाक से खून बहता है। दमे और दिल की बीमारी हो जाती है। चिड़चिड़ापन और पागलपन तक हो जाता है और दिमाग की नस भी फट सकती है। इतनी विषम परिस्थितियों में रहने वाले जवानों की सुविधा के लिए सेना जब जब अतिरिक्त सहूलियतों की मांग करती थी, तो दिल्ली स्थित रक्षा मंत्रालय के वातानुकूलित कमरों में बैठने वाली अफसरशाही उस पर रोक लगा देती थी। महीनों निर्णय नहीं लेती थी। श्री फर्नांडीज को भी नौकरशाही ने ऐसे मामलों में जल्दबाजी न करने की सलाह दी। पर, लीक से हटकर चलने वाले जार्ज केवल नौकरशाहों की बात पर चुप बैठने वाले नहीं थे। वे खुद मौके पर जाकर पड़ताल करना चाहते थे। सो, सियाचिन गए और वहां से लौटकर रक्षा मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों को कड़ी झाड़ पिलाई। आनन-फानन में निर्णय लिया और सेना के जवानों के लिए आवश्यक सामग्री पहंुचाने में काफी तेजी दिखाई। 

इतना हीं नहीं, वे जब भी सेना के दौरे पर जाते हैं तो पूर्व रक्षा मंत्रियों की तरह किसी पांच सितारा होटल जैसे माहौल में आला अफसरों के साथ मिलकर जाम से जाम नहीं टकराते बल्कि छोटे स्तर के सैनिकों के साथ पंगत में बैठकर खाना खाते हुए उनकी हौसला अफजाई करते हैं। उनका मकसद पहाड़ों की खूबसूरती का लुत्फ लेना नहीं होता, वे अपनी जान जोखिम में डालकर इसलिए वहां जाते हैं ताकि कठिन परिस्थितियों में रहते हुए देश की सीमाओं की रक्षा करने वाले सैनिकों का मनोबल बढ़ सके और वे जोशोखरोश के साथ दुश्मनों के नापाक मंसूबों को विफल कर सकें।

रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज देश की रक्षा करने वाली सेनाओं को और मजबूत बनाना चाहते हैं। इसके लिए वे जितना कर सकते हैं, करने की कोशिश में जुटे हैं। पिछले दस-पन्द्रह सालों से सेना में आधुनिकीकरण के नाम पर कुछ ज्यादा नहीं था, परंतु राजग सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा के इस महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर ध्यान दिया और पिछले दस सालों की सम्मिलित राशि से ज्यादा धन आवंटित किया। सेना को हर तरह से सक्षम बनाने के लिए वर्ष 2003-04 में 65,300 करोड़ रुपये की व्यवस्था की गई। सेना की मारक क्षमता बढ़ाने के लिए कई नए हथियार और मिसाइलें तैयार की गईं। इनमें से कुछ सेना में शामिल होने के लिए तैयार हैं जबकि कुछ अभी परीक्षण के दौर में हैं। दो हजार किलोमीटर तक मार करने वाली मिसाइल अग्नि-2, रूस के सहयोग से तैयार की जा रही मिसाइल ब्रह्मोस, अत्याधुनिक हल्के हेलीकाॅप्टर (एएलएच), हल्के लड़ाकू विमान (एलसीए), मल्टी बैरल राॅकेट सिस्टम पिनाक, एंटी टैंक मिसाइल नाग, मानव रहित विमान निशांत तथा सुखोई विमान देश के लिए बड़ी उपलब्धि साबित हांेगे, इसमें कोई शक नहीं है। इसके अलावा नए हथियारों का परीक्षण तथा उनके निर्माण के लिए रूस तथा अमेरिका के साथ समझौते किए गए हैं। 

यही नहीं, सेना में कार्यरत और सेवानिवृत्त हो चुके लोगों के लिए भी विभिन्न योजनाएं चालू की गई हैं। सरकार ने सैनिकों के लिए 18 हजार करोड़ रुपये की लागत से नए घर बनाने का फैसला किया है। योजना के तहत चार साल में पूरी होने वाली इस योजना के पहले चरण में 61,658 घर बनाए जाएंगे। इसके अलावा 15 लाख रिटायर्ड सैनिकों के लिए स्वास्थ्य योजना शुरू की गई है। विश्व के सबसे ऊंचे युद्ध स्थल सियाचिन में तैनात जवानों के वेतन-भत्ते में भी बढ़ोत्तरी कर सरकार ने यह संकेत दिया है कि वह देश की रक्षा पंक्ति को मजबूत बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहती।

रक्षामंत्री जार्ज फर्नांडीज को ऐसे काम करने में ज्यादा दिलचस्पी है, जो औरों से अलग हों। इसीलिए वह कभी सुखोई में उड़ान भरते हैं, तो कभी सियाचिन की हाड़ कंपा देने वाली सरदी में सैनिकों से रूबरू होने जाते हैं। व्यक्तिगत जीवन में भी जार्ज फर्नांडीज पर आज तक लोहियावाद का असर है। वे साधारण कुर्ता पायजामा पहनते हैं जिसे रोजाना खुद धोते हैं। उनका घर सबके लिए खुला रहता है। वहां गोपनीय कुछ भी नहीं। हां, तहलका के बाद मिली धमकियों के कारण सुरक्षा व्यवस्था जरूर की गई है। पर आज भी बिना ज्यादा जांच पड़ताल के अंदर जाया जा सकता हैै। देश के अनेक सामाजिक कार्यकर्ता अक्सर श्री फर्नांडीज के घर में इस तरह फैैले पसरे मिलेंगेे मानो किसी नेता का नहीं, सामाजिक कार्यकर्ता का घर हो। यह दूसरी बात है कि घोर लोहियावादी, श्री फर्नांडीज के समझौतावाद से नाखुश हैं। उन्हें लगता है कि भाजपा के संग सरकार बनाकर श्री फर्नांडीज ने धर्मनिरपेक्षत ताकतों के साथ ठीक नहीं किया। पर श्री फर्नांडीज के अपने कारण हैं।  सेना के जवानों के लिए जो कुछ ठोस काम वो आज कर पा रहे हैं, वो एक साधारण सांसद रहकर कभी नहीं कर सकते थे। वैसे भी यह जरूरी नहीं कि जो जवानी में आग उगलने वाला वक्ता या क्रातिकारी रहा हो, वो बुढ़ापे तक उसी तेवर के साथ जी सके। समय और अनुभव व्यक्ति को बहुत कुछ सिखा देता है। उसकी दृष्टि ज्यादा परिपक्व और व्यवहारिक हो जाती है। हो सकता है कि श्री फर्नांडीज को लगा हो कि मात्र धर्मनिरपेक्षता का बैनर उठाकर चलने से कहीं बेहतर होगा कि वे सरकार का हिस्सा बनें। वैसे भी धर्मनिरपेक्षता का बैनर उठाने वाले बहुत से लोग राष्ट्रहित के अन्य दूसरे मामलों पर जिस तरह की खतरनाक खामोशी साध लेते हैं, उससे उनकी नैतिकता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। जर्मनी की एक कहावत है कि जब आप मुट्ठी भींचकर एक उंगली उठाकर सामने वाले पर दोषारोपण करते हैं तो तीन उंगलियों आपकी तरफ स्वतः ही उठ जाती हैं और वे वैसे ही सवाल आपसे भी पूछती हैं। वे पूछती हैं कि जो आरोप तुम सामने वाले पर लगा रहे हो क्या तुम खुद उस दोष से मुक्त हो? अक्सर जवाब होगा, नहीं। अगर यह बात है तो फिर जार्ज फर्नांडीज पर उंगली उठाने वालों को उनके सद्गुणों को भी सराहना चाहिए। इसका अर्थ ये नहीं कि उनके किसी गलत काम पर टिप्पणी न की जाए, पर यह भी ठीक नहीं कि एक ही बात को लेकर व्यक्ति के पूरे कृतित्व को अनदेखा कर दिया जाए।