Friday, December 17, 2004

धरोहरों का विध्वंस क्यों ?


ताजमहल की दो मीनारें झुक रही हैं। इसकी चिन्ता भारत सरकार के पुरातत्व विभाग को अभी से सताने लगी है। मीडिया भी चैकन्ना हो गया है। ताज काॅरीडोर के निर्माण को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। यह शुभ लक्षण है कि हम अपनी 500 वर्ष पुरानी धरोहर के लिए कितने सतर्क हैं। पर क्या किसी को पता है कि हमारी 5000 वर्ष पुरानी धरोहर को डायनामाइट लगाकर तोड़ा जा रहा है और कोई कुछ नहीं कर रहा है। भगवान श्री राधा-कृष्ण की लीला स्थली ब्रज प्रदेश के कामां इलाके में खाट शिला अब नहीं रही। पिछले वर्ष तक लाखों दर्शनार्थी इसके दर्शन करने यहां आते थे। पर्वत श्रॅखला के मध्य में स्थित यह खाट शिला 5000 वर्षों से सभी हिन्दुओं की आस्था का केन्द्र थी। यह मान्यता थी कि गोचारण के समय भगवान श्रीकृष्ण गायों को चरने के लिए छोड़ कर इस बिस्तरनुमा शिला पर विश्राम करते थे। पर इसी वर्ष खान माफिया ने डायनामाइट लगाकर इसको उड़ा दिया। अब आने वाली पीढि़यां इस दिव्यस्थली के दर्शन कभी नहीं कर पायेंगी।

इस पहाड़ी के दूसरी तरफ एक फिसलनी शिला है। जिसका स्वरूप किसी भी पार्क में लगे स्लाइडर जैसा है। जिसपर एक तरफ से ऊंचा चढ़कर दूसरी तरफ से फिसलते हुए बच्चे नीचे आते हैं। यह वही शिला है जिसपर भगवान श्रीकृष्ण अपने सखाओं के संग फिसला करते थे। अभी कुछ महीनों पहले तक यह शिला चमचमाती यथावत थी। ब्रज 84 कोस की यात्रा को आने वाले लाखों तीर्थयात्री पिछले 5000 वर्षों से इस शिला पर फिसलने का आनन्द लेते थे। अनेक महान संत और आचार्य भी शिला पर फिसलकर भगवत् लीला का स्मरण करते थे। पर पड़ोस के पहाड़ पर होने वाले डायनामाइट के धमाकों से यह शिला कई जगह से फट गई है। इसका रहा-सहा स्वरूप भी कुछ दिनों में नष्ट हो जायेगा। हमारे शास्त्रों में कृष्ण लीला की जिन हजारों स्थलियों का जिक्र है वे सब ब्रज में यथावत मौजूद हैं। इन स्थलियों के दर्शन करने हर वर्ष हजारों तीर्थयात्री पूरी दुनिया से ब्रज में आते हैं। पर संरक्षण के अभाव और खान-माफियों की कुदृष्टि के कारण तेजी से इन दर्शन स्थलियों का लोप होता जा रहा है। कायदे से इन लीलास्थलियों को समेटे ब्रज को पहले ही संरक्षित धरोहर क्षेत्र घोषित कर देना चाहिए था। पर किसी सरकार ने इसकी चिन्ता नहीं की। ब्रज का जो हिस्सा राजस्थान में आता है वहीं ये दिव्य पहाडि़यां हैं, जिन पर रात-दिन    अवैध खनन जारी है। खनन के पट्टे कांग्रेस के शासनकाल में दिए गए थे। पर अब हिन्दूवादी भाजपा सरकार भी इन्हें रद्द नहीं कर रही है। नतीजतन हर दिन एक-एक करके सभी लीलास्थलियों के चिन्ह नष्ट होते जा रहे हैं। हम मुसलमानों पर हिन्दू मन्दिर तोड़ने का दोष मढ़ते आए हैं पर दुःख की बात है कि ब्रज में आज जो विनाश का तांडव हो रहा है उसे हिन्दू सेठ और नेता ही कर रहे हैं। ये वही लोग हैं जो बड़े-बड़े भण्डारे और जागरण करवाते हैं और रात-दिन ठाकुरजी की नित्य विहार स्थली को नष्ट करने पर तुले हैं।
राजस्थान उच्च न्यायालय के आदेश पर 2 वरिष्ठ अधिवक्ताओं की एक समिति ने कामां में जांच करने पर हृदय विदारक सच्चाई का पता लगाया। इस समिति के एक सदस्य श्री अजय रस्तोगी  जी तो अब राजस्थान उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति बन चुके हैं और दूसरे जगमोहन सक्सेना अभी  भी ब्रज बचाने की लड़ाई में जुटे हैं। इन दोनों की रिपोर्ट बताती है कि भरतपुर के इलाके में 24 अधिकृत खानें हैं जिन्हें 20 वर्ष की लीज दी गई है। इन्हें औसतन 5 हेक्टेयर भूमि दी गई है।
20 मार्च 2004 को अचानक किए गए सर्वेक्षण से पता चला कि इन्हें पहले ही सूचना भिजवा दी गई थी, सो वे स्वागत के लिए तैयार थे। पर फिर भी टीम ने जांच की और पाया कि कोई भी खान पर्यावरण के हितों को ध्यान में रखकर काम नहीं कर रही थी जबकि ऐसा करना उनकी शर्तों में शामिल था। खानवालों द्वारा अपेक्षित वृक्षारोपण बिलकुल नहीं किया गया था। नियम विरुद्ध होने के बावजूद भूजल स्तर तक खनन किया जा रहा था। जिससे भूजल प्रदूषित हो रहा था। किसी भी खानवाले ने अपनी खान की सीमा पर अपेक्षित खम्भे या दीवार नहीं चिनी थी। साफ जाहिर था कि अधिकार से कहीं ज्यादा बड़े क्षेत्र में अवैध खनन जारी थी और खान विभाग के अधिकारी आंख मींचे बैठे थे। इस खनन से आसपास के पशुधन व कृषि को भारी नुकसान हो रहा था। सांस्कृतिक धरोहरों की रक्षा का कोई प्रयास नहीं किया जा रहा था।
इस तरह लूट का नंगा नाच हो रहा था। राजस्थान सरकार का खान विभाग अपनी जेब गर्म होने के कारण इनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं कर रहा था। यह सभी हिन्दुओं के लिए शर्म की बात है कि उनके आराध्य भगवान श्रीकृष्ण की नित्य विहार स्थली ब्रज प्रदेश का ऐसा खुला विध्वंस किया जा रहा हो और हम भगवत् सप्ताह करवाने और छप्पन भोग करवाने में गौरवान्वित हो रहे हों। भजन संध्या में झूमने से क्या लाभ जब भजन के नायक ठाकुरजी की लीलास्थलियों को हम बचा नहीं पा रहे।
ब्रज के कुछ सन्त, अमरीका सेे आई कुछ हिन्दू महिलाएं और हम लोग 8 दिसम्बर 2004 को राजस्थान के खान मंत्री, सचिव व अतिरिक्त मुख्य सचिव से मिले। उनका कहना था कि हम एकदम से खान बन्द नहीं करवा सकते। यानी इस लूट को रोक नहीं सकते। जिनकी लीज 2010 में खत्म होगी उन्हें अभी से कैसे रद्द किया जा सकता है। फिर 5 करोड़ रूपये सालाना की राजस्व की भी क्षति होगी। हमारा उत्तर था कि 2010 तक तो कामां के पहाड़ बचेंगे ही नहीं। जहां तक राजस्व की बात है तो इस पूरे क्षेत्र को गोचर भूमि बना कर गाय, भेड़, बकरी से जुड़े उद्योगों को विकसित किया जा सकता है। इसके साथ ही तीर्थाटन का ताना-बाना बेहतर बनाकर काफी आमदनी की जा सकती है। इंग्लैड में शेक्सपियर के बाल को कांच के डिब्बे में बन्द करके रखा है। उसे दिखाने की टिकट 350 रूपये की लगती है फिर भी मीलों कतार लगी रहती है। ब्रज में 5000 साल की संस्कृति के हजारों अद्भत् चिन्ह मौजूद हैं जिन पर सूर और मीरा जैसे सन्तों ने अपना जीवन न्यौछावर कर दिया। 
इतनी महान सांस्कृतिक विरासत को नष्ट करना आत्महत्या जैसा होगा। फिर भाजपा शासित राज्य में ऐसा हो यह तो बड़े शर्म की बात है। जबकि ताजमहल को बचाने के लिए आसपास के सारे उद्योग बन्द करवा दिए गए थे। दिल्ली में प्रदूषण कम करने के लिए सारी फैक्टरियां भी बन्द करवा दी गईं। तब संकोच नहीं हुआ। फिर गीता का ज्ञान देने वाले श्रीकृष्ण की लीलास्थलियों की ऐसी उपेक्षा क्यों ? हर हिन्दू और भारत के पे्रमी को एक-एक पत्र भारत के प्रधानमंत्री, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश व राजस्थान की मुख्यमंत्री को लिखना चाहिए। ब्रज क्षेत्र में खनन कार्य तुरन्त रुकना चाहिए वर्ना भविष्य में कुछ नहीं बचेगा। हम भविष्य में 500 करोड़ रूपया खर्च करके नए मन्दिर तो बनवा सकते हैं पर क्या भगवान के पदचिन्हों को संजोए हुए इन पर्वतों को दुबारा बनवा पायेंगे ? हाथ पर हाथ धरकर बैठने का नहीं उठ खड़े होकर विरोध करने का समय है। वर्ना केवल पछताना ही पड़ेगा।

Friday, December 3, 2004

दाल हो तो खेसारी


हर जो चीज़ चमकती है उसको सोना नहीं कहते। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चमक-दमक और प्रचार के पीछे यही सच्चाई छिपी है। कभी बच्चों के लिए पाउडर का दूध बढि़या खुराक है, कह कर मूर्ख बनाते हैं। कभी कहते हें रासायनिक उर्वरक अच्छे हैं। कभी इन्हें खराब बनाते हैं। हम मूर्ख बनकर लुटते रहते हैं। यही किस्सा खेसारी दाल की भी है। देश में मिलने वाले ज्यादातर नमकीन इसी दाल से बनते हैं जो बेसन के बने जैसे लगते हैं पर ज्यादा खस्ता होते हैं।

खेसारी, विज्ञान के अनुसार एक दाल की फसल है परन्तु सामान्य लोगों का सूखा एवं आकाल के समय इसका उपयोग करके असंख्य लोगों ने अपना अच्छा स्वास्थ्य बनाए रखा एवं प्राणों की रक्षा भी की है। अन्य प्रचलित दालों से इसमें सबसे ज्यादा मात्रा में अर्थात 32 से 34 प्रतिशत आसानी से पचने वाला उच्च कोटि के प्रोटीन होते हैं तथा सबसे कम कीमत पर मिलने तथा स्वादिष्ट एवं कुरकुरे पदार्थोंं के बनने से यह बहुसंख्यक लोगों की पहली पसंद की दाल है। दुधारू जानवरों का दूध एवं बैलों की शारीरिक स्फूर्ति एवं कार्यक्षमता को बढ़ाने तथा कम कीमत में मिलने वाला उत्तम क्वालिटी का राशन एवं चारे का काम करती है। जमीन में नाइट्रोजन जमा कर उर्वरा शक्ति को बढ़ाने में मदद करने से धान का उत्पादन भी ज्यादा होता है।
खेसारी के पौष्टिक एवं औद्योगिक गुण, शून्य उत्पादन खर्च व आकाल के समय में भी खेतों में लहराते हुए ज्यादा उत्पादन देने तथा संकट के समय खाद्यानों की तरह मनुष्यों एवं जानवरों के प्राणों की रक्षा करने की क्षमता से प्रभावित होकर, ’’फसलों पर आधिपत्य जमाने वाले विकसित राष्ट्रों के वैज्ञानिकों’’ ने सूखे एवं आकाल के समय पर अन्य कारणों से इक्का-दुक्का पाए जाने वाले लेथारिज्म के रोगियों को मनगढ़ंत तरीकों से इसके रोगी बताकर उपयोगिता के प्रति गुमराह किया एवं लक्ष्य प्राप्त नहीं होने से आज भी कर रहे हैं। केन्द्रीय स्वास्थ्य विभाग ने भी बिना किसी वैज्ञानिक अध्ययन, शोधकार्यों के नतीजों अथवा लोगों के अनुभवों को देख, 1961 में राज्य सरकारों को बिक्री पर प्रतिबंध लगाने की सलाह दे दी। ज्यादा उत्पादन करने वाले राज्यों जैसे मध्य प्रदेश, बिहार, बंगाल इत्यादि ने अपने किसानों के अनुभवों के आधार पर प्रतिबंध लगाने से इन्कार कर दिया।
खेसारी दाल की बिक्री पर प्रतिंबध लगा देने तथा पाठ्य पुस्तकों में जहरीली दाल बताकर पढ़ाने से संपूर्ण देश की युवा पीढ़ी एवं शिक्षित नागरिक उपयोग के प्रति गुमराह हो गए। अन्य दालों का उत्पादन मांग के अनुरूप नहीं होने से देश दालों का आयात करने के लिए बाध्य हुआ। किसान लाभदायक फसल का उत्पादन नहीं कर पाने से आर्थिक रूप से पिछड़ा  एवं आत्महत्या करने के लिए मजबूर हुआ। सामान्य जनता में खेसारी जैसी कम कीमत (क्रय शक्ति) पर आसानी से पचने एवं ज्यादा प्रोटीन वाली दाल के नहीं मिलने से कुपोषण बढ़ा एवं माताओं, बच्चों एवं युवाओं में तो उसने उग्र रूप धारण कर लिया। इस तरह राज्य सरकारों द्वारा बंदी लगाने से आम जनता एवं किसानों में असंतोष पनपा एवं फैला।
खेसारी दाल पर आधिपत्य जमाने वाले अमेरिका एवं इंग्लैन्ड के वैज्ञानिकों तथा वहां की सामाजिक संगठनों ने 1984 में ‘‘थर्ड वर्लड मेडिकल रिसर्च फाऊंडेशन’’ की स्थापना न्यूयार्क एवं लन्दन में कर के ‘‘लाईक माईन्डेड वैज्ञानिकों’’ की गोष्ठियों का आयोजन करने लगे। इन गोष्ठियों में भारत, बंगलादेश, नेपाल, पाकिस्तान, इन्डोनेशिया, इथोपिया, इत्यादि राष्ट्रों के साथ कनाडा, आॅस्ट्रेलिया, फ्रांस, स्पेन इत्यादि राष्ट्रों के वैज्ञानिकों को आमंत्रित किया जाने लगा। गोष्ठियों में सबने यह मान लिय कि खेसारी के टाॅक्सीन रहीत अथवा कम टाॅक्सीन के बीजों से उत्पादित खेसारी स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित हैं तथा एशिया एवं अफ्रीका के लोगों के लिए यह उत्तम खाद्यान तथा पशुओं के उत्तम चारे की फसल है।
कम टाॅक्सीन के बीजों के खोज कार्यों को गति देने की दृष्टि से थर्ड वर्लड मेडिकल रिसर्च फाउंडेशन ने 1985 में ‘‘इन्टरनेशनल नेटवर्क फाॅर दी इम्पु्रव्हमेंट आॅफ लेथाइज्म सेटाईवस एवं इरेडीकेशन आॅफ लेथारिज्म’’ नामक संस्थ की न्यूयार्क में स्थापना की कृषि अनुसंधान संस्थाओं एवं विश्वविद्यालयों में कम टाॅक्सीन के बीजों को खोजने का शोध कार्य प्रारंभ करने वालों को आथर््िाक मदद दी। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है की इन ‘‘लाईक माइन्डेड वैज्ञानिकों’’ ने कम टाॅक्सीन के मतलब को समझने एवं बीजों के गुणों की आर्थात उससे उत्पादित होने वाली दाल के गुणों की पहचान करने के पूर्व ही स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित एवं लाभदायक बताया, इससे शोध कार्यों को प्राथमिकता के उद्देश्यों के प्रति शंका निर्माण होना स्वभाविक है। खेसारी दाल में बी.ओ.ए.ए. नामक टाॅक्सीन होता है तथा उससे ही लेथारिज्म रोग होता है, यह बात सिद्ध हो जाने के पूर्व ही दुष्प्रचार प्रारंभ कर देना एवं प्रतिबंध लगा देना गलत है। खेसारी दाल में कितना टाॅक्सीन होने पर तथा उस दाल का कितनी मात्रा में कितने दिन तक उपयोग करने से लेथारिज्म रोग होता है, यह तथ्य वैज्ञानिक धरातल पर आज तक सिद्ध नहीं हुआ है। इसी तरह ‘‘कम टाॅक्सीन वाले बीजों’’ के उत्पादन की आवश्यकता को प्रतिपादित करना एवं जन्म के पूर्व गुणों बाबत् शोर मचाकर गुमराह करने का यह दूसरा उदाहारण है। इसे विज्ञान की खोज समाज के उत्थान के लिए बतलाना गलत है। टाॅक्सीन की मात्रा कितनी होने पर बीज कम टाॅक्सीन का कहलाएगा, यह अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है। किसी भी देश में अथवा प्रान्त में कम टाॅक्सीन के बीजों से खेसारी का उत्पादन एवं उपयोग नहीं हो रहा है। लम्बे समय तक खेतों में उत्पादन एवं खाद्यानों अथवा पशु खाद्य के रूप में उपयोग करने के पूर्व ही स्वास्थ्य के लिए लाभदायक, खाने से लेथारिज्म रोग नहीं होगा एवं किसानों के लिए लाभदायक मतलब उत्पादन शुल्क, अकाल व सुखे के समय भी शून्य होने का दावा व्यापारिक विज्ञान ही कर सकता है, विज्ञान नहीं। क्योंकि ऐसा दावा करना सरासर धोखा एवं छल है। सामान्यतः बीजों की खोज करने के बाद 20 से 30 साल के उत्पादन एवं उपयोग के अनुभवों के आधार पर गुणों की व्याख्या करना सही माना जाता है।
संयोग की बात ही कही जाएगी कि जब अमेरिका एवं इंग्लैंड के वैज्ञानिक खेसारी फसल पर अपना आधिपत्य जमाने के उद्देश्य से देश के ‘‘लाईक माईंडेड’’ आयुर्विज्ञान एवं कृषि क्षेत्र के वैज्ञानिकों से संबंध स्थापित कर रहे थे उस समय अकेडमी आॅफ न्यूट्रीशन इम्प्रुव्हमेंट, नागपुर के वैज्ञानिक अपने अध्ययनों से जनता के बीच सिद्ध कर रहे थे कि खेसारी दाल सब दालों से ज्यादा पौष्टिक, सस्ती एवं छोटे किसानों (जिनकी खेती वर्षा पर ही निर्भर करती है) के लिए सबसे लाभ दायक फसल है। आकाल व सूखे के समय ज्यादा उत्पादन देने से मनुष्य जाति का उत्तम खाद्यान तथा पशुओं का उत्तम चारे का काम करके इसने उनके उत्तम स्वास्थ्य एवं कार्यक्षमता को बनाए रखा तथा प्राणों की रक्षा भी की है। अकेडमी ने अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों द्वारा कम टाॅक्सीन के बीजों से उत्पादित होने वाली दाल के उपयोग को उसके जन्म के पूर्व ही स्वास्थ्य की दृष्टि से सुरक्षित बतलाने एवं दुष्प्रचार को षड़यंत्र का भाग बताकर किसानों को बचने के लिए आगाह किया।
अकेडमी की मांग को वैज्ञानिक धरातल पर सही पाने तथा राज्य एवं केन्द्र सरकार द्वारा गठित कमेटियों के सामने लेथारिज्म रोग का एक भी रोगी अथवा खेसारी एवं लेथारिज्म रोग में संबंध स्थाापित करने वाला शोध पत्र सामने नहीं आने के बाद भी, आधिपत्य जमाने वाले अंर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों के दबाव के कारण हमारे वैज्ञानिक ऊंचे पदों पर बैठे वैज्ञानिकों, राजनेताओं एवं जनप्रतिनिधियों को बनावटी अथवा जल्दबाजी में किए गए सर्वेक्षणों के तथाकथित नतीजों से भविष्य में, लेथारिज्म रोग हो जाने पर उनकी ही बदनामी होगी का डर तथा अधिक शोध की आवश्यकता को अपनी रोज़ी-रोटी के लिए प्रतिपादित कर निर्णय लेने से रोक देते थे।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर की गई यह स्वीकारोक्ति इस बात की पुष्टि करती है कि अकेडमी ने 18 सालों के अपने संघर्ष और अध्ययन से उस षंड़यंत्र को पूरी तरह विफल कर दिया जिसमें इस बहुउपयोगी खाद्यान की पारंपरिक फसल को समाप्त कर अपना बीज-फसल थोपने का प्रयास किया जा रहा था। इस अंतर्राष्ट्रीय संगठन को यह स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा कि खेसारी एक अच्छा खाद्यान तथा पशु-खाद्य है। अब जब महाराष्ट्र में प्रतिबंध समाप्ति का निर्णय किया जा चुका है तो एक बार फिर अपना बीज फसल थोपने के प्रयास में यह वैज्ञानिक समूह सम्मेलन का आयोजन कर रहा है, वहां तीसरी दुनिया के उनके पक्षधर वैज्ञानिकों को अपने ओर से खर्च देकर आमंत्रित किया गया है। इन षड़यंत्रकारियों को यह पता है कि महाराष्ट्र में लगे प्रतिबंध को हटा देने से किसान खेती करने एवं बाजार में बेचने के लिए स्वतंत्र हो जाएंगे। इससे अकेडमी के प्रयास की सफलता पर मोहर लग जाएगी और वे अपने बीजों को तीसरी दुनिया के किसानों पर थोपने में सफल नहीं हो पाएंगे। साथ ही इस दाल के संबंध में अनेक वर्षों से जो हो-हल्ला मचा रखा था तथा डर पैदा किया गया था, उसकी पोल भी खुल जाएगी।

Friday, November 26, 2004

शंकराचार्य की गिरफ्तारी पर मन्दिरों की राजनीति

Panjab Kesari 26-11-2004
शंकराचार्य की गिरफ्तारी ने देश के हिन्दू समाज को उद्वेलित कर दिया है। कानून की निगाह में सब समान हैं इस बात से हिन्दुओं को परहेज नहीं, पर उनका सवाल है कि एक दर्जन मुकदमे कायम होने के बावजूद क्या वजह है कि सरकार आज तक जामा मस्जि़द के इमाम बुखारी को कभी गिरफ्तार नहीं कर पायी। क्या वजह है कि न्याय पालिका के उच्च पदों पर आसीन लोगों के भ्रष्टाचार उजागर होने के बावजूद संसद ने उन पर महाभियोग नहीं चलाया और देश को ऐसे भ्रष्ट न्यायाधीशों के रहम पर छोड़ दिया? क्या वजह है कि हत्या, बलात्कार, लूट और अपहरण करने वाले देश में कानून के निर्माता और मंत्री बन जाते हैं और पुलिस और न्याय व्यवस्था उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाती? इस सन्दर्भ में शंकराचार्य की गिरफ्तारी काफी अटपटी लगती है। वे हत्या में स्वयं शामिल नहीं हैं। तमिलनाडु पुलिस के अनुसार उन पर हत्या की साजिश में शामिल होने का आरोप है। शंकराचार्य जैसी सख्शीयस को आधी रात में गिरफ्तार करने की जरूरत नहीं थी। उन्हें बाकायदा दिन में भी गिरफ्तार किया जा सकता था। उनकी धार्मिक स्थिति और दैनिक साधना व कर्मकाण्ड को ध्यान में रखकर उन्हें जेल की तंग कोठरी के बजाय किसी ऐसे स्थान पर भी रखा जा सकता था जहाँ उनकी दिनचर्या में व्यवधान न पड़ता। धर्म निर्पेक्षतावादी इस तर्क से सहमत नहीं होंगे। उनका मानना है कि हत्या के लिए सशंकित व्यक्ति से वैसा ही व्यवहार किया जायेगा। जैसा इस स्थिति में किसी सामान्य व्यक्ति से किया जाता। पर इस बात का क्या जबाव है कि भ्रष्टाचार के आरोपी बड़े राजनेताओं को पांच सितारा सुविधाओं के बीच कैद किया जाता है। शंकराचार्य पर अभी हत्या की साजिश में शामिल होने का आरेाप है। अभी वे अपराधी सिद्ध नहीं हुए। ऐसी स्थिति में उनसे इतना कड़ा व्यवहार करना हिन्दू धर्मामवलम्बियों के गले नहीं उतर रहा।

गले तो उनके यह भी नहीं उतर रहा कि शंकराचार्य जैसा व्यक्ति हत्या की साजिश में शामिल हो सकता है। पर जो प्रमाण पुलिस ने देश के सामने प्रस्तुत किये हैं उन्हें देखकर शक की ज्यादा गुंजाइश नहीं रहती। अलबत्ता असलियत तो पुलिस जांच पूरी होने के बाद सामने आयेगी। आयेगी भी या नहीं यह भी दाबे से नहीं कहा जा सकता। क्यों कि इस देश में अनेक राजनैतिक हत्याओं और घोटालों की जांच दशकों में भी पूरी नहीं हुई है। खुफिया एजेन्सियों का जाल पालने वाला यह गरीब देश आज तक यह भी पता नहीं लगा सका कि इसके दो प्रधानमंत्रियों श्रीमती इन्दिरा गांधी और श्रीराजीव गांधी की हत्या के पीछे कौन था? पर यह भी सही है कि जिन धार्मिक संगठनों के पास धन और वैभव के भण्डार भरते जाते हैं वहाँ भ्रष्टाचार और हत्या जैसी घटनाएँ होना कोई अनहोनी बात नहीं। हर धर्म में ऐसा होता है। भारत में भी ऐसे कई उदाहरण हैं। इस सन्दर्भ मंे स्वामी विवेकानन्द के कथन को याद करना होगा। उन्होंने कहा था कि हर धार्मिक संस्था अन्ततः पतन की ओर बढ़ती है और उसका नाश हो जाता है। आदि शंकराचार्य, प्रभु यीशु, गुरुनानक देव, गौतम बुद्ध, श्रीचैतन्य महाप्रभु आदि सब ऐसे दिव्य पुरुष थे जिन्होंने गरीबी, त्याग, तप व विरक्तता में जीवन जिया और अपनी साधगी, करुणा व प्रेम से लाखों लोगों का जीवन बदल दिया। दुर्भाग्य से चाहे गिरिजाघर हों या मसजि़दें, चर्च और या मन्दिर आज सब धन और सत्ता के केन्द्र बनते जा रहे हैं। इसीलिए उनमें नैतिक पतन भी हो रहा है और आध्यात्म से हठकर उनका दुरुपयोग भी खुलेआम हो रहा है। शंकराचार्य का काची मठ इसका अपवाद नहीं। जानकार तो यह भी कहते हैं कि मठ का तलिमनाडु की मुख्यमंत्री सुश्री जय ललिता से जो मतभेद पैदा हुआ उसकी जड़ में वह करोड़ों रूपया जो मठ के पास चढ़ावें में जमा हुआ है। सच्चाई तो केवल भगवान जानता है या जांच एजेन्सियाँ। 

भगवद्गीता में आस्था रखने वाला हर हिन्दू कर्म के सिद्धान्त को मानता है। वह मानता है कि हर व्यक्ति को अपने पूर्व में किये कर्म का फल भोगना ही पड़ता है। चाहे वह कितना ही ताकतवर, उच्च पदासीन, साधन सम्पन्न या प्रतिष्ठित व्यक्ति क्यों न हो। इस धर्म के अनुसार तो शंकराचार्य की गिरफ्तारी भी उनके पूर्व कर्मों का ही परिणाम है। कहते है कि जैसा खाओ अन्न तो वैसा बने मन। इसीलिए देश के तमाम विरक्त संत किसी का दिया अन्न नहीं खाते। पर शंराचार्यों को तो लगातार देश और विदेश का भ्रमण करना होता है। घाट-घाट का पानी और घाट-घाट का अन्न स्वीकारना पड़ता है। ऐसे ही दूषित अन्न को खाने का परिणाम शायद शंकराचार्य की गिरफ्तारी के रूप में सामने आया है।

कानून की अपनी प्रक्रिया है। उसमें अभी वक्त लगेगा, तब तक हिन्दू आहत मन को मरहम लगाने की जरूरत है। अगर तलिमनाडु की पुलिस ने किसी भी कारण से काची कामकोटि के शंकराचार्य पर हाथ डाला है तो देश के वाकी राज्यों की पुलिस और केन्द्र सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जघन्य अपराध में शामिल किसी भी धर्म के धर्मगुरु को छोड़ा न जाय ताकि हिन्दुओं के दिल पर मरहम लग जाये। उन्हें यह भ्रम न रहे कि हर मामले में हिन्दु ही पिटते हैं। पर यहाँ यह भी विचारणीय प्रश्न है कि क्या शंकराचार्य की गिरफ्तारी को राजनैतिक मुद्दा बनाकर किसी भी संगठन या दल का राजनीति करना उचित है? पिछले दिनों भाजपा और विहिप ने शंकराचार्य की गिरफ्तारी के विरोध में देशव्यापी आंदोलन शुरू किया। 21 नवम्बर को देश भर के मन्दिरों को भी बंद रखने की अपील की और कुछ शहरों में सफल भी रहे। पर जो विहिप अयोध्या मसले को हर चुनाव से पहले उछाल कर भाजपा की राजनीति करती रही और मन्दिर निर्माण नहीं हुआ। वहीं विहिप अब शंकराचार्य की गिरफ्तारी पर भारतभर के मन्दिरों के साथ आध्यात्मिक अपराध करने से नहीं चूकी। 21 नवम्बर को मथुरा के द्वारिकाधीश मन्दिर के सामने इस जबरदस्ती के बंद को लेकर श्रद्धालुओं और कुछ स्थानीय पण्डों की बीच गरमा-गर्मी हो गयी। गहवरवन बरसाना के विरक्त संत श्री रमेश बाबा जब 6500 भक्तों को ब्रज चैरासी कोस की पैदल परिक्रमा करवाते हुए द्वारिकाधीश के मन्दिर पहुँचे तो असमय मन्दिर के कपाट बंद देखकर उन्हें बहुत निराशा हुई। उन्होंने स्थानीय पण्डा समाज से मन्दिर खोलने का आग्रह किया जिसे केवल कुछ मन्दिरों के पण्डों ने स्वीकार कर मन्दिर खोल दिये जबकि द्वारिकाधीश के पट बंद ही रहे। बाबा का कहना है कि हिन्दू मन्दिरों में भगवान के विग्रह केवल पत्थर की मूर्ति नहीं है। प्राण प्रतिष्ठा के बाद वे जागृत विग्रह हो जाते हैं। किसी भी कीमत पर उनकी सेवा, पूजा, दर्शन बंद नहीं किये जा सकते। ऐसा करना दानवी कृत्य है। औरंगजेब और हिरण्यकश्यप जैसे शासक मन्दिर के द्वार बंद करवाते हैं। बाबा ने मंदिर के द्वार पर महाप्रभु बल्लभाचार्य के अनुयायियों को याद दिलाया कि जब स्वयं महाप्रभु ने, सूरदास जी ने, कुंभादास जी ने या भक्तिन मीराबाई ने महाप्रयाण किया। तब भी मन्दिरों के कपाट बंद नहीं किये गये थे। बाबा का कहना था कि शंकराचार्य की गिरफ्तारी से आहत लोगों को दुनिया की सर्वोच्च अदालत भगवान के मन्दिर में आकर प्रार्थना, भजन व कीर्तन करना चाहिए था। विहिप ने देश भर मन्दिरों को बंद करवा कर एक अपशगुनी परम्परा की शुरूआत की है। यह सनातन धर्म के प्रति अपराध है। ऐसे कृत्य से शंकराचार्य को लाभ नहीं होगा। क्यों कि देश भर के हजारों लाखों भक्त अपने आराध्य के दर्शनों से वंचित रह गये। भक्तों को भगवान से दूर रखना राक्षसों का कार्य है। विहिप और भाजपा ने मन्दिरों का राजनीति के लिए इस्तेमाल कर हिन्दू धर्म की अपूर्णनीय क्षति की है। इस विषय पर सारे देश के हिन्दू समाज को और संत समाज को विचार करना चाहिए। शास्त्रों का सहारा लेना चाहिए और यह बात स्पष्ट कर देनी चाहिए कि किसी भी हालत में कभी भी ठाकुर जी की सेवा और उनके दर्शनों को बंद करने की घिनौनी राजनीति नहीं की जायेगी। ऐसा करने वाले हिन्दू धर्म के शुभचिंतक कदापि नहीं हो सकते।

Friday, November 12, 2004

सिक्किम में आयकर क्यों नहीं वसूला जा रहा है ?


सब जानते है कि देश में आयकर कानून है। एक सीमा से अधिक आया होने पर हम सभी को आयकर देना पड़ा है। समय पर आयकर भुगतान न करने वाले के दण्ड दिया जाता है। आयकर की चोरी व्यापारी और कारखानेदार तो करते ही है, पर सरकारी अधिकारियों या मंत्रियों को अपनी आय पर तो कर देना ही पड़ता है क्योंकि उसे छिपाया नहीं जा सकता। हां, रिश्वत से होने वाली अवैध आय जरूर कर के जाल से बच जाती है। पर भारत में एक राज्य ऐसा भी है जहां के अधिकारी और मंत्री अपने सरकारी वेतन में से भी आयकर नहीं कटवाते। देश के दूसरे हिस्सों में रहने वाले आम हिन्दुस्तानी यह सवाल कर सकते हैं कि एक ही देश में एक ही कानून को दो तरह से क्यों लागू किया जा रहा है?

दरअसल, 1989 में वित्तीय अध्यादेश के खण्ड 26 के अनुसार आयकर कानून को सिक्किम राज्य पर लागू कर दिया गया था। पर यह आश्चर्य की बात है कि सिक्किम में रहने वाले लोग पिछले 15 वर्षों से आयकर जमा नहीं कर रहे हैं। आयकर जमा न करने वालों में केवल स्थानीय नागरिक ही नहीं बल्कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी, सिक्किम राज्य सरकार के मंत्री, उद्योगपति व व्यापारी शामिल हैं। इस तरह भारत सरकार को हर वर्ष करोड़ों रूपए के राजस्व की हानि हो रही है। बावजूद इसके न तो प्रत्यक्ष कर विभाग, न वित्त मंत्रालय और न ही भारत सरकार कुछ कड़े कदम उठा रही है। सिक्किम के प्रति इस पक्षपातपूर्ण व्यवहार का कोई तार्किक कारण वित्तमंत्री श्री पी. चिदाम्बरम नहीं दे सकते। मौजूदा वित्तमंत्री ही क्यों पिछले 15 वर्षों में भारत सरकार के जो भी वित्तमंत्री रहे हैं उन सबकी जवाबदेही बनती है।

सिक्किम गणराज्य के भारत में विलय के बाद स्व. श्रीमती इंदिरा गांधी ने वहां की आर्थिक तरक्की को ध्यान में रखकर सिक्किम पर भारत का आयकर कानून लागू नहीं किया था, जिसका खूब नाजायज फायदा उठाया गया। 1987 में जब मैं गंगटोक (सिक्किम) गया तब मुझे इसकी जानकारी मिली। मैंने दिल्ली लौटकर टाइम्स आफ इंडिया के तत्कालीन संपादक श्री गिरीलाल जैन को अपनी रिपोर्ट दी तो उन्होंने उसे तुरंत प्रमुखता से छापा। इस रिपोर्ट में मैंेने बताया कि किस तरह सिक्किम की इस विशिष्ट स्थिति का प्रभावशाली लोगों द्वारा दुरूपयोग किया जा रहा है। सिक्किम के नागरिक ही नहीं बल्कि देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले साधन संपन्न लोगों ने आयकर कानून की दृष्टि से कागजों में अपना स्थायी निवास सिक्किम में दिखा रखा था ओर इस तरह आयकर की छूट का लाभ ले रहे थे। इस तरह का अवैध लाभ लेने वालों में बाॅलीबुड की अनेक हीरोइने और हीरों शामिल हैं। सिगरेट और शराब बनाने वाली कुछ मशहूर कंपनियों ने तो अपना उत्पादन केन्द्र ही सिक्किम में दिखा रखे थे। इन कंपनियों का उत्पादन हकीकत में तो देश के दूसरे प्रांतों में होता था पर रिकार्ड में उसे सिक्किम में हुआ दिखा कर आबकारी शुल्क और आयकर आदि से छूट ले ली जाती थी। अगर उस समय के दस्तावेजों की जांच कराई  जाए तो कई बड़ी सिगरेट और शराब कंपनियों के मालिक धोखाधड़ी के आरोप में जेल जा सकते हैं। क्योंकि जितना माल इन्होंने सिक्किम से निर्यात हुआ अपने खातों में दिखा रखा है उतने माल के उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चे माल और पैकिंग मैटीरियल आदि की सिक्किम में आमद का कोई प्रमाण नहीं है। तो क्या बिना तम्बाकू और कागज आए ही वहां सिगरेट बन रहीं थी, वो भी करोड़ों रूपए कि हर साल ?

टाईम्स आफ इंडिया में छपी मेरी इस रिपोर्ट ने दिल्ली में सोए हुए वित्तमंत्रालय को जगा दिया। मैं यह दावा नहीं करता कि मेरी इस रिपोर्ट छपने के कारण ही पर यह सत्य है कि 1989 में सिक्किम में भी शेष भारत की तरह भारत का आयकर कानून लागू कर दिया गया। इसके बाद सिक्किम में रहने वाले हर व्यक्ति को अपना आयकर समय से जमा कराने चाहिए था। सिक्किम राज्य पर आयकर के मामले में निगरानी रखने का काम वित्त मंत्रालय ने सिल्चर स्थित अपने आयकर कार्यालय को सौप दिया। आश्चर्य की बात है कि पिछले 15 वशर्¨ं में इस विभाग ने आयकर वसूलना तो दूर यह सूची बनाने की भी कोशिश नहीं कि कि सिक्किम में कौन-कौन व्यक्ति आयकर देने की क्षमता रखता है। नतीजा यह कि सिक्किम में आज 15 वर्ष वाद भी आयकर नहीं वसूला जा रहा है। आयकर न देने वालों में व्यपारी ओर उद्योगपति तो है कि केन्द्र व राज्य सरकार के कर्मचारी और राज्य के मुख्यमंत्री व मंत्री आदि सभी शामिल हैं। एक बार को रिश्वत की आय को तो छुपा भी लिया जाए पर सरकार से मिलने वाले वेतन को छिपाना संभव नहीं होता। फिर भी सिक्किम के लगभग सभी सरकारी कर्मचारी धड़ल्ले से आयकर की चोरी कर रहे हैं और भारत सरकार के वित्त मंत्रालय का प्रत्यक्षकर विभाग आँखें पर पट्टी बांधे बैठा है।  इस तरह केन्द्र सरकार को प्रति वर्ष कर¨ड रूपए की हानि हो रही है। आश्चर्य की बात है कि टेलीविजन और अखबारों में आर्थिक मुुद्दों पर बड़े-बड़े भाषण झाड़ने वाले विशेषज्ञ भी इस मुद्दे पर खामोश हैं। ऐसे में यह जवाबदेही वित्त मंत्री की ही बनती है कि वे इतने बड़े अपराध को क्यों होने दे रहे हैं ?

दरअसल आयकर कानून का पालन देश के किसी भी हिस्से में ठीक से नहीं हो रहा हैं। सब जानते है कि इस वक्त देश में सबसे ज्यादा पैसा भ्रष्ट नेताओं, अफसरों और उद्योगपतियों के पास हैं। अगर इनके द्वारा दिए जा रहे टैक्स की मात्रा का अध्ययन करें तो सुनने वाला दंग रह जाएगा। जितना बड़ा आदमी उतना कम आयकर। इसी तरह सभी राजनैतिक दल आयकर की चोरी करते हैं। शायद यही वजह है कि वे आयकर कानून को ठीक से लागू नहीं करना चाहते। जबकि आयकर लगाने का उद्देश्य सरकार चलाने के राजस्व  की वसूली करना है। सिक्किम जैसे राज्य को तो विकास के लिए केेन्द्र सरकार से सैकड़ो करोड़ रूपए का अनुदान मिलता है। फिर वहां के लोग आयकर क्यों नहीं देते ? अक्सर देखने में आया है कि इस तरह के कानून या उन्हें लागू करने में दी जाने वाली छूट के पीछे असली मकसद कुछ और ही होता है। इस तरह के पोल वाले कानून बना कर देश के सत्ताधीश या उनके नातेदार अपने काले धन को धोने का काम करते हैं। इसलिए सिक्किम जैसे राज्य पर किसी निगाह नहीं जा रही है। जबकि यह संगीन मामला है और एक बहुत बड़ा घोटाला भी जिसकी जांच सीबीआई को सौप देनी चाहिए। पर आज देश का माहौल बदल गया है, आज सूचना तेजी से फैलती है इसलिए जब देश के दूसरे हिस्सों में आयकरदाताओं का सिक्किम की इस विशेष स्थिति पर ध्यान जाएगा तो वे शोर जरूर मचाएंगे। हो सकता है उनका शोर सुनकर श्री पी. चिदाम्बरम जाग जाएं और सिक्किम में रहने वाले लोगों से अगला पिछला सभी आयकर वसूल करें और आज तक आयकर न देने वाले सिक्किम के अधिकारियों के विरूद्ध दण्डात्मक कार्यवाही करें।

Friday, October 22, 2004

कौन नहीं करता सेंसर

Punjab  kesari 22-10-2004
अनुपन खेर बड़े नाराज हैं। उन्हें बेआबरू करके सेंसर बोर्ड से बाहर कर दिया गया। उनका आरोप है कि सरकार ने बिना कारण उन्हें हटाया है ताकि अपनी मर्जी का आदमी सेंसर बोर्ड में बिठा सके। सेंसर बोर्ड हमेशा से विवादों के घेरे में रहा है। इसको बनाने का मकसद यह सुनिश्चित करना होता है कि समाज के हित के विरूद्ध कोई फिल्म जन प्रदर्शन के लिए न जाए। माना जाता है कि जिन फिल्मों में हिंसा या कामुकता दिखाई जाती है या जिनसे साम्प्रदायिक उन्माद फैलता हो या देश की सुरक्षा को खतरा पैदा होता हो या समाज के किसी वर्ग की भावनाओं को ठेस पहुंचती हो तो ऐसी फिल्मों को प्रदर्शन की अनुमति न दी जाए। क्या दिखाया जाए और क्या न दिखाया जाए इसका फैसला करने के लिए सेंसर बोर्ड में जिनको मन¨नीत किया जाता है आम तौर पर वे लोग कोई बहुत पहुंची हुई हस्ती नहीं होते बल्कि चमचे और चाटुकार होते हैं। इसलिए उनके फैसले व्यक्तिगत रागद्वेषों से प्रभावित होते हैं। जिस दौर में सेटैलाईट चैनलों का अवतरण नहीं हुआ था तब सेंसर बोर्ड का काफी महत्व होता था। अक्सर फिल्में बोर्ड के पास महीनों अटकी रहती थीं। पहुंच वाले या पैसा देने वाले अपनी फिल्में पास करा ले जाते थे।

सेंसर बोर्ड को हमेशा से सत्तारूढ़ दल ने अपने विरोधियों की कलाई मरोड़ने के लिए इस्तेमाल किया है। आपात काल में किस्सा कुर्सी का फिल्म को इसी तरह रोका गया। बाद में उस पर काफी विवाद हुआ। उन दिनों ऐसा लगता था मानो कांगे्रसी ही मीडिया की स्वतंत्रता का हनन करती है बाकी विपक्षी दल तो मीडिया की स्वतंत्रता के हामी है, खासकर भाजपा के नेता खुद को बहुत उदारवादी बताते थे। पर राजग की सरकार की छःह वर्षों में इस देश ने आपात काल से भी ज्यादा बुरी सेंसरशिप का नमूना देखा। पहले दिन से मीडिया को नियंत्रित करने की जालसाजी शुरू हो गई। साम, दाम, दण्ड भेद का इस्तेमाल करके भाजपा के नेताओं ने छःह वर्ष में हिन्दुस्तान में स्वत्रंत पत्रकारिता की रीढ़़़ तोड़ दी। वैसे भी संघ की मानसिकता के लोग अपनी आलोचना सुनना पसंद नहीं करते। गुजरात के दंगों के बाद श्री दीनानाथ मिश्र और श्री बलवीर पुंज ने पत्रकारों का एक सम्मेलन बुलाया और उसमें गुजरात की हिंसा को टेलीविजन पर दिखाने के लिए पत्रकारों को बुरा भला कहा। इत्तफाक से उस सम्मेलन में मैं भी मौजूद था मैंने याद दिलाया कि n के दौर में जब देश में स्वतंत्र हिन्दी टीवी पत्रकारिता के नाम पर केवल मेरे द्वारा निकाली जा रही वीडियो पत्रिका कालचक्रही चलन में थी और उसमें मैंने अयोध्या में कार सेवकों पर हुई हिंसा का सजीव चित्रण किया था तब भाजपा ने उस वीडियो कैसेट को गांव-गांव, गली-गली दिखाया था और इस तरह अपना जनाधार बढ़ाने का काम किया।  मैंने आयोजकों से प्रश्न किया कि तब टीवी पर हिंसा दिखाना आपके फायदे में था इसलिए आपने उसका समर्थन किया और आज घाटे में दीख रहा है तो आप विरोध कर रहे हैं।
1993 में जब कालचक्र वीडियो पत्रिका में जैन हवाला कांड का पर्दाफाश किया गया तो उस वीडियों को देखकर सेंसर बोर्ड में हड़कंप मच गया। सेंसर बोर्ड ने इस पर अपने निर्णय बार-बार बदले और अंत में कालचक्र के इस अंक को प्रतिबंधित कर दिया। उस समय केन्द्र में नरसिंह राव की सरकार थी। पर तब भाजपा या जनता दल समेत किसी ने इस प्रतिबंध का विरोध नहीं किया क्योंकि इन दलों के भी बड़े नेताओं के नाम हवाला कांड में शामिल थे। इसलिए ये भी नहीं चाहते थे कि कालचक्र का दसवां अंक देश की जनता तक पहुंचे। वो तो न्यायमूर्ति वी. लैंटिन ऐसे व्यक्ति थे कि उन्होंने अपने निर्णय से ये प्रतिबंध हटा दिया और सेंसर बोर्ड को इसके लिए काफी लताड़ा।

कहने को तो सेंसर बोर्ड एक स्वायत्त संस्था है। पर उसमें मन¨नीत सदस्य सत्तारूढ़ दल के चरण और भाट होंगे तो स्वयं ही वही करेंगे जो उनके आका चाहेंगे। यही कारण है कि सेंसर बोर्ड के वजूद के बावजूद ढेरो कूड़ा करकट विवेकहीन तरीके से देश की जनता को परोसा जा रहा है। हां, यह जरूरत है कि सेटैलाईट चैनलों के अचानक बड़ जाने से सेंसर बोर्ड की भूमिका अब काफी कम हो गई है। पहले चुम्बन के दृश्य पर ही फिल्म अटकी रहती थी पर अब कामोत्तेजक दृश्य खुले आम टीवी चैनलों पर दिखाए जाते हैं। समाचार वाले दुनिया के हर कोने में हो रही हिंसा का खुला प्रदर्शन करते है। राजनेताओं और आतंकियों के भड़काऊ बयान प्रसारित किए जाते है। बिल लादेन तक के बयान दुनिया को टीवी पर दिखाए गए। ऐसे माहौल में सेंसर बोर्ड की कोई खास अहमियत नहीं है। फिर भी माना ये जाता है कि अगर खुली छूट दे दी जाएगी तो स्थिति नियंत्रण के बाहर हो जाएगी। इसलिए अंकुश बना रहना जरूरी है। यदि यह बात है तो संेसर बोर्ड में गंभीर व्यक्तित्व वाले निष्पक्ष और समाज के प्रति जागरूक लोगों को ही भेजना चाहिए। उनके चयन की प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए। पर कोई भी सरकार इसे स्वीकार नहीं करेगी। कहा यही जाएगा कि सेंसर बोर्ड पूरी तरह स्वायत्त है पर बोर्ड वही करेगा जो उससेे कहा जाएगा। इसलिए श्री अनुपम खेर को उत्तेजित होने की कोई आवश्यकता नहीं है। जब भाजपा की सरकार थी तो अनुपम खेर की चांदी थी। अब सरकार नहीं रही तो उन्हें मौजूदा सरकार के हुकूमबरदारों के लिए रास्ता छोड़ देना चाहिए और भाजपा के सत्ता में लौटने की प्रतीक्षा करनी चाहिए।

वैसे कानून चाहे कितने भी बना लिए जाए। जब तक उन्हें लागू करने वाली एजेंसियां ईमानदारी से काम नहीं करेंगी तब तक कोई फायदा नहीं। पूरे देश के छोटे शहरों और गांवों में आज कल कामुक फिल्में खुलेआम धड़ल्ले से दिखाई जाती हैं। हर फिल्म के शुरू में सेंसर बोर्ड का प्रमाण पत्र भी दिखाया जाता है। पर फिल्म के दौरान एक दो रील वो चला दी जाती है जिसे दिखाने की अनुमति नहीं ली गई होती है। इसी रील में वह सब कुछ होता है जिसे देखने भारी भीड़ इन सिनेमा हालों में आती है। यह धंधा पुलिस और मनोरंजन कर विभाग की मिलीभगत से फलता-फूलता है। वैसे भी अगर कोई विरोध करना ही चाहे तो सरकार उसका क्या बिगाड़ लेगी। सेंसर बोर्ड के बावजूद अपनी फिल्में आतंकवादी या नक्सलवादी ही नहीं बांटते बल्कि भाजपा के नेता मदन लाल खुराना तक ने नई दिल्ली के पालिका बाजार में अयोध्या पर बनी डा0 जेके जैन की वीडियों फिल्म को सरेआम जारी किया था। पर दिल्ली पुलिस ने उनके खिलाफ कोई कारवाई नहीं की।

इन हालातों में सेंसर ब¨र्ड के औचित्य पर एक खुली बहस की आवश्यकता है। फरवरी 1990 में दिल्ली उच्च न्यायालय में वीडियो समाचारों पर सेंसर के विरोध में मैंने एक जनहित याचिका दायर की थी तब इस विषय पर सारे देश में खूब बहस चली। संपादकीय भी लिखे गए। पर वह मामला तब से अभी तक अदालत में लंबित है। प्र्रकाश झा की जयप्रकाश नारायण पर फिल्म को लेकर यह मामला फिर फोकस में है। इसका स्थायी समाधान निकाला ही जाना चाहिए। एक तरफ तो हम मुक्त बाजार और मुक्त आकाश की हिमायत करते हैं और दूसरी तरफ देश के फिल्मकारों सेंसर की कैंची से पकड़कर रखना चाहते हैं, यह कहां तक सही है ?

Friday, October 15, 2004

प्रोफेशनल कोर्सों के नये संस्थान

Panjab kesari 15-10-2004
आगरा से दिल्ली आने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर 20-22 वर्ष का नौजवान लिफ्ट मिलने की हसरत लिए खड़ा था। गाड़ी रुकवाकर उसे बिठा लिया। परिचय मिला कि वो वहीं नये खुले इंजीनियरिंग कालेज का मैकेनिकल इंजीनियरिंग का लेक्चरर है। पलवल (हरियाणा) आने पर वह उतर गया। उसकी यही दिनचर्या है। इसी वर्ष इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर अपने घर पलवल आया तो कोई अच्छी नौकरी नहीं मिली। सोचा कि प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करे। इस समय का सदुपयोग करने के लिए उसने मथुरा में खुले इंजीनियरिंग कालेज में नौकरी ले ली। पूछने पर पता चला कि इस कालेज में ज्यादातर दूसरे शिक्षक भी ऐसी ही पृष्ठभूमि के हैं। ऐसे नौसिखियों से छात्रों को इंजीनियरिंग के गहन और तकनीकी विषयों की पढ़ाई करवाई जा रही है। जाहिर है कि जिस कालेज की इमारत ही अभी पूरी तरह बनकर तैयार नहीं हुई हो। जहां न तो बढि़या पुस्तकालय हो और न ही प्रयोगशालाएं। जहां की प्रबन्ध कमेटी में ऐसे लोग हों जिन्हें कल तक छोटे व्यापारी या जमीनों के दलाल के रूप में जाना जाता था वहाँ प्रबन्ध समिति की दृष्टि और प्राथमिकता क्या होगी ?

कुछ किलोमीटर पीछे ऐसा ही एक नया बना मेडिकल कालेज है। वहां भी तमाम बच्चे बच्चियों को देखकर यही लगा कि ये सब विद्यार्थी होंगे। पूछने पर पता चला कि वे सब प्राध्यापक हैं और पिछले दो सालों में ही डिग्री लेकर लौटे हैं। क्योंकि निजी पे्रक्टिस करना सबके लिए सम्भव नहीं था। नौकरियां मिल नहीं रही थीं, इसलिए ये काम ले लिया। अभी अस्पताल की सब इमारतें बनकर तैयार भी नहीं हुईं। जो बनी हैं उसकी रूप सज्जा तो बाहर से देखने में प्रभावशाली है, पर एक प्रोफेशनल संस्थान के परिसर में जो अकादमिक गरिमा और गहराई होनी चाहिए उसका नितान्त अभाव है।

ये तो मात्र दो उदाहरण हैं। पर देश के किसी भी राजमार्ग पर निकल जाइए आपको मैनेजमेंट, कंप्यूटर, इंजीनियरिंग, मेडिकल, फैशन डिजाइनिंग, केटरिंग आदि के दर्जनों नये संस्थान एक-एक सड़क पर मिल जायेंगे। सबकी मुख्य इमारत बहुत प्रभावशाली होगी। पर जितने कोर्स पढ़ाने का ये संस्थान दावा करते हैं उसको देखकर इनका पूरा साजोसामान और प्रयत्न बहुत बचकाना आता है। ऐसे संस्थानों में भी दाखिला लेने वालों की लम्बी कतारें लगी हैं और इसीलिए ये खूब फलफूल रहे हैं। दाखिले की मोटी फीस अभिभावकों से वसूली जा रही है। चूंकि ये सब डिग्रियां हासिल करना आज फैशनेबल बन चुका है। इसलिए कस्बे-कस्बे में बच्चे इनके लिए लालायित रहते हैं। टी.वी. व पत्रिकाओं में आने वाले लेख और विज्ञापन उनकी भूख और बढ़ा देते हैं। जो मेधावी हैं वे देश की प्रतिष्ठित संस्थाओं की प्रतियोगी परिक्षाओं में बैठते हैं और कहीं-न-कहीं दाखिला पाकर अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ते हैं। पर इंजीनियर, डाक्टर या अन्य प्रोफेशनल डिग्री पाने की हसरत रखने वालों की संख्या तो देश में करोड़ों में है और प्रतिष्ठित संस्थानों में दाखिला कुछ लाखों को ही मिलता है। शेष करोड़ों प्रत्याशियों की हसरत पूरी कर रहे हैं कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे ये नये संस्थान। हकीकत ये है कि इन डिग्रियों से इन बच्चों की हसरत पूरी नहीं होने जा रही है। यह दूसरी बात है कि इनके निम्न मध्यवर्गीय माता-पिताओं ने अपने जीवन भर की कमाई इन बच्चों के भविष्य पर दांव लगा दी है। इस उम्मीद में कि बच्चा समाज में प्रतिष्ठित हो जायेगा। जबकि रोजगार का बाजार बढ़ नहीं रहा, बेरोजगारी बढ़ रही है। निजी क्षेत्र में अगर रोजगार मिलते भी हैं तो उन्हीं को जो वास्तव में योग्य हैं या फिर अपने उच्च स्तरीय सम्पर्कों से कंपनी को मोटा मुनाफा दिलवा सकते हैं।

इन नये खुले संस्थानों के कितने नौजवानों को नौकरी मिल रही है, कैसी नौकरी मिल रही है और कहां मिल रही है इसका गहराई से अध्ययन होना चाहिए और उसकी रिपोर्ट व्यापक रूप से प्रकाशित होनी चाहिए। ताकि लोग जानबूझ कर धोखा न खायें। हो यह रहा है कि भ्रष्ट राजनेताओं, अधिकारियों व व्यापारियों ने मिल कर देश में ऐसे हजारों संस्थानों को खड़ा कर दिया है। क्योंकि उन्हें यह बहुत मुनाफे का सौदा दिखाई दिया। इधर तो सूचना क्रान्ति से देश में प्रोफेशनल कोर्सों के प्रति जागरूकता और जिज्ञासा बढ़ी और उधर देश में पहले से मौजूद संस्थानों में आगे सीट बढ़ाने की गुंजाइश नहीं थी। नतीजा यह कि इस अचानक बढ़ी मांग को पूरा करने के लिए रातो-रात देश में ऐसे संस्थानों का  जाल खड़ा हो गया। जानकर आश्चर्य होता है कि कैसे कैसे लोग इन कालेजों को चला रहे हैं। एक दरोगा जिसने करोड़ों रूपया रिश्वत में कमाया और जिसका नौजवान बेटा चार आदमियों के बीच अपना परिचय तक ठीक से नहीं दे सकता वो इंजीनियरिंग कालेज का प्रबन्धक और मालिक है और खूब फलफूल रहा है। जाहिर है कि इन संस्थानों के चलाने वालों के लिए यह भी एक धन्धा है। जिन्हें 30 वर्ष पहले के खाद्य संकट का दौर याद होगा उन्हें ध्यान होगा कि सरकार ने एफ.सी.आई. के गोदाम बनवाने की स्कीम चलवाई थी। लोगों को सस्ती दर पर जमीन और ऋण उपलब्ध करवाकर एफ.सी.आई. के लिए बड़े बड़े गोदाम बनवाने के लिए कहा गया। देश को सपना दिखाया गया कि इन गोदामों में अनाज का संरक्षण होगा। सरकारी फायदा लेने के लिए प्रभावशाली लोगों ने हर जिले में इन गोदामों की भारी-भारी इमारतें खड़ी कर दीं। आज इनकी क्या दशा है ? पैसा बनाने वाले पैसा बनाकर सरक लिए अनाज आज भी खलिहानों में मौसम की मार झेलता रहता है। इसी तरह इन कालेजों को खोलने वालों की दृष्टि बड़ी साफ है। जब तक युवावर्ग अपने माता-पिता को लाखों रूपये की फीसे के बंडलों के साथ इन संस्थानों के प्रवेश द्वार तक खींच कर ला रहा है। इनकी शानशौकत बनी रहेगी। जिस दिन इनसे निकले नौजवानों की बेरोजगारी और हताशा की खबरें लौट कर कस्बों में पहुंचेंगी उस दिन इनका ग्लैमर कपूर की तरह उड़ जायेगा। तब इनमें दाखिले की क्रेज नहीं रहेगी। तब ये मालिकों के लिए घाटे का सौदा बन जायेंगे। जो इन्हें बन्द करने में एक दिन नहीं लगायेंगे। ऐसे संस्थान जिस तेजी से खुलते हैं उतनी ही तेजी से रात के अंधेरे में गायब भी हो जाते हैं। ये संस्थान ऐसे लोगों द्वारा तो शुरू नहीं किए गये जो समाज में शिक्षा के कीर्तिमान स्थापित करना चाहते है।

इन संस्थानों के पक्ष में सरकार के लोगों द्वारा एक तर्क यह भी दिया जाता है कि इससे देश में टेक्निकल लिटेªसी बढ़ेगी। एक बहुत बड़ी तादाद ऐसे नौजवानों की खड़ी हो जायेगी जो देश को तकनीकी क्राति की ओर ले जाने की जमीन तैयार करने का काम करेंगे। इसलिए इनका विस्तार दूरदृष्टि से ठीक ही है। यह भी तर्क दिया जाता है कि इस तरह की शिक्षा के प्रसार से समाज में प्रतियोगिता बढ़ेगी और योग्य और मेधावी छात्र स्वयं निखरकर सामने आ जायेंगे। यह कोरी बकवास है। अगर ऐसा होता तो जितने पोलिटेक्निक संस्थान सरकारों ने अलग-अलग प्रांतों में खोले उनसे तकनीकी क्रांति हो चुकी होती। पर देश की सड़कों पर आटोमोबाइल मरम्मत से लेकर जेनरेटर और पम्प मरम्मत जैसे श्रम आधारित छोटे-छोटे उद्यम लगाने वाले करोड़ों नौजवान किसी पाॅलिटेक्निक से पढ़कर नहीं आये बल्कि खेतों और कारखानों में मशीनों पर काम करके अपने अनुभव से आगे बढ़े। अगर यही तर्क है तो फिर इन संस्थानों को इतनी भारी फीस लेने की छूट क्यों दी जा रही है ? जाहिर है कि ये संस्थान जो सब्जबाग दिखा रहे हैं उसे पूरा नहीं कर पायेंगे और इनके संचालन में अनेक राजनैतिक निहित स्वार्थ छिपे हैं इसलिए इन्हें फलने फूलने दिया जा रहा है। ठीक वैसे ही जैसे सहकारिता समितियों और चिटफन्ड कंपनियों को पनपने दिया गया और वे आम जनता को मोटे ब्याज का सपना दिखाकर वर्षों ठगती रहीं और रातों-रात माल समेट कर गायब हो गईं। एक के बाद एक जब घोटाले खुले तो पता चला कि इलाके के बड़े-बड़े नेताओं का उन पर वरदहस्त था।

इस संस्थानों से तो ऐसा धोखा नहीं होगा। क्योंकि जनता को लूटने का इनका तरीका बड़ा साफ है। पहले अपने संस्थान के कोर्सों की बढि़या मार्केटिंग की जाती है जब दाखिले को भीड़ आती है तो मुंहमागी फीस वसूली जाती है। फिर 3-4 वर्ष बच्चा संस्थान में रहकर पढ़ेगा ही। उसे जाते वक्त एक डिग्री भी थमा दी जायेगी। अब उस डिग्री की बाजार में कीमत है या नहीं ये सिरदर्दी संस्थान वालों की तो है नहीं। इसलिए आप उन पर यह दोष नहीं लगा पायेंगे कि उन्होंने आपके साथ धोखा किया। उनका जवाब होगा कि हमने फीस ली, पढ़ाया और डिग्री दी तो यह       धोखा कहां हुआ ? पर यही पूरा मायाजाल आपको अंधेरे में रखकर खड़ा किया जा रहा है। इसलिए हर नौजवान और उसके अभिभावक को चाहिए कि वो ऐसे किसी संस्थान के मायाजाल में फंसने से पहले खूब तहकीकात करे। यह पता लगाये कि वहां से पढ़कर निकले छात्रों की आज स्थिति क्या है ? हड़बड़ी में कोई फैसला न लिया जाए। अपने मां-बाप पर दबाव डालकर सिर्फ इसलिए दाखिला न लिया जाए कि आपको फलां डिग्री चाहिए। मैं एक स्कूल के ऐसे प्राध्यापक को जानता हूं जिन्होंने बड़ी ईमानदारी और सादगी से जीवन जिया और अपने सीमित साधनों में अपनी तीन बेटियों को ससुराल विदा किया। बेटा कंप्यूटर पढ़ना चाहता था। आज आई.आई.टी. के कंप्यूटर पढ़े लड़के खाली बैठे हैं। पर यह लड़का 3,50,000 रूपया फीस देकर ऐसे ही एक संस्थान में पढ़ रहा है। स्पष्ट है कि अगले वर्ष जब उसका कोर्स खत्म होगा तो उसे 3500 रूपये महीने की नौकरी मिलना मुश्किल होगा। जबकि उसके पिता उम्मीद लगाये बैठे है कि उनका बेटा उनके बुढ़ापे का सहारा बनेगा।