Friday, March 26, 2004

मतदाता पूछे बुनियादी सवाल


पिछले दस वर्षों में राजनेताओं की विश्वसनीयता में भारी कमी आई है। अब कोई उनकी बात सुनना नहीं चाहता। बड़े-बड़े नेताओं के लिए भी स्वेच्छा से भीड़ नहीं जुटती। पैसे खर्च करके किराए की भीड़ जुटानी पड़ती है। इसलिए चुनाव के समय उन्हें फिल्मी सितारों को पकड़कर लाना पड़ रहा है। इस स्थिति के लिए राजनेता स्वयं जिम्मेदार हैं। कोरे वादों से जनता को हमेशा मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। संचार क्रांति के युग में अब देश के हर नागरिक को अपने वोट की कीमत पता चल चुकी है। उसे यह भी दिखाई देता है कि तमाम वादों और योजनाओं की घोषणाओं के बावजूद उसकी आर्थिक स्थिति में बहुत मामूली सुधार हुआ है। जबकि हुक्मरानों का जीवन स्तर राजे-महाराजाओं से भी बढ़-चढ़कर हो गया है। 

टीवी चैनलों में होने वाले बहसों में जनहित के मुद्दों पर जब नेता उत्तेजित होकर बयानबाजी करते हैं तो उनके व्यक्तित्व का दोहरापन साफ दिखाई देता है। चुनाव के पहले जिन तेवरों में ये टीवी चैनलों पर एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं, चुनाव के बाद तो वो तेवर भी ठंडे पड़ जाते हैं। साफ है कि आरोप भी केवल चुनावी फायदे के लिए लगाए जाते हैं। चुनाव के बाद आरोप लगाने वाले और आरोप सहने वाले सब गलबहियां डालकर आनंद उत्सव में जुट जाते हैं। मतदाता ठगा सा रह जाता है।
जनता के मन में जो बुनियादी सवाल उठते हैं, उन पर कोई राजनेता न तो टीवी चैनलों पर चर्चा करना चाहता है और ना ही  अपनी जनसभाओं में। क्योंकि अगर इन सवालों पर चर्चा होने लगी तो सब के सब नंगे हो जाएंगे। इसीलिए जानबूझकर ऐसे नए नए मुद्दे उछाले जाते हैं जिनके विवादों में मीडिया और मतदाता उलझा रहे और असली मुद्दों पर उसका ध्यान न जाए। इसके तमाम उदाहरण दिए जा सकते हैं। 

चुनाव के पहले हर दल दूसरे दल पर भ्रष्टाचारी होने का आरोप लगाता है। आजकल भी ऐसे आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर चल रहा है। ऐसे में मतदाताओं को हर चुनावी सभा में प्रचार करने आए नेताओं से पूछना चाहिए कि अगर आप देश में बढ़ते भ्रष्टाचार से इतने ही दुखी हैं, तो कृपया यह बताइए कि आपके दल ने आज तक अपनी आमदनी और खर्चे का सही हिसाब आयकर विभाग को क्यों नहीं दिया? क्या आपके दल ने ऐसे सर्वेक्षण कराए हैं जिससे यह पता चले कि मंत्री बनने से पहले आपके दल के नेताओं की आर्थिक स्थिति क्या थी और मंत्री पद पर कुछ वर्ष रहने के बाद वह क्या हो गई? यह भी पूछना चाहिए कि प्रायः हर बड़े राजनेता के पास अरबों रुपये की बेनामी संपत्ति होती है। फिर भी आज तक उसे भ्रष्टाचार के मामले में पकड़ा क्यों नहीं गया? पूछना चाहिए कि देश में पिछले पचास वर्षों में इतने घोटाले उछले, तमाम सबूत जुटाए गए, सीबीआई के अफसरों ने जांच के नाम पर करोड़ों रुपया खर्च किया, संसद के हजारों घंटे घोटालों पर शोर मचाने में बर्बाद हुए, वर्षों मुकदमे चले और सरकार ने बड़े वकीलों को करोड़ों रुपया फीस भी दी, फिर भी आज तक किसी बड़े नेता या अफसर को भ्रष्टाचार के मामले में सजा क्यों नहीं मिली? मतदाताओं को हर दल के नेता से पूछना चाहिए कि क्या वजह है कि वे केवल उन्हीं घोटालों पर शोर मचाते हैं जिनमें उनके विरोधी दल के नेता फंसे होते हैं? हवाला कांड जैसे घोटाले में सभी बड़े दलों के नेता फंसे थे इसलिए किसी ने भी इसकी ईमानदारी से जांच की मांग नहीं की। अगर वे वास्तव में भ्रष्टाचार दूर करना चाहते हैं तो दल की दलदल से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में सभी घोटालेबाजों के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए और उन्हें सजा दिलवाने तक चुप नहीं बैठना चाहिए। क्या वजह है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद किसी भी दल ने न तो केंद्रीय सतर्कता आयोग को बड़े पदों पर बैठे नेताओं और अफसरों के भ्रष्टाचार के विरुद्ध जांच करने की छूट देने दी और ना ही सीबीआई को स्वायत्ता ही मिलने दी? देशी मूल का हो या विदेशी मूल का, क्या देश का एक भी नेता ऐसा है जिसने लगातार तत्परता से भ्रष्टाचार से विरुद्ध लड़ाई लड़ी हो? जब एक भी नेता ऐसा नहीं है तो किसी भी दल के नेता को देश के सामने यह नहीं कहना चाहिए कि मेरी कमीज उसकी कमीज से सफेद है। 

चुनाव के इस दौर में जब कोई रोड शो पर निकला हो और कोई रथ पर सवार हो तो फुटपाथ पर खड़ी बदहाल जनता को पूछना चाहिए कि क्या वजह है कि जनता के बीच में इस तरह आने की फुर्सत आपको चुनाव के पहले ही मिलती है। चुनाव के बाद क्यों नहीं ये राजनेता हर महीने देश के किसी न किसी हिस्से में रोड शो या रथयात्रा पर निकलते हैं? तब तो इन्हें उद्घाटन करने से ही फुर्सत नहीं मिलती। वे जानते हैं कि अगर जनता के बीच जाकर उसकी शिकायत सुनेंगे तो उसके शब्द बाणों की बौछार झेल नहीं पाएंगे। बेहतर है कि अपने महलनुमा सरकारी बंगलों और किलेनुमा दफ्तरों में सुरक्षा गार्डों से घिरे बैठे रहो और जनता को गेट से ही दुत्कार कर लौटा दो। फिर इन रोड शो और रथयात्राओं से जनता को क्या मिलने वाला है? वह जानती है कि यह सारा नाटक केवल उसके वोट बटोरने के लिए है। उसे सब्जबाग दिखाने के लिए है। उसे भविष्य के झूठे सपने दिखाने के लिए है। हर दल सत्ता में आने के लिए कहता है कि बीस साल बाद वो देश को गरीबी से मुक्त कर देगा, बेरोजगारी खत्म कर देगा या देश को आर्थिक रूप से मजबूत बना देगा। पर पूत के पांव तो पालने में देखे जाते हैं। आगाज तो अभी देख लिया, फिर बीस साल तक कौन इंतजार करे? आदमी की याद्दाश्त भी इतनी लंबी नहीं होती। वो तो जिसे जोशोखरोश से सत्ता में लाता है, छह महीने बाद ही उसे गाली देने लगता है। ऐसी जनता को बीस साल बाद के विकास के सपने दिखाकर राजनेता पिछले पचास वर्षों से मूर्ख बनाते आए हैं। इसलिए जनता अब ना तो किसी विचारधारा से प्रभावित होती है और ना ही किसी राजनेता से। वो वोट देती है तो जाति के आधार पर, या स्थानीय मुद्दों के आधार पर। यही कारण है कि बड़े से बड़े अपराधी तक आसानी से चुनाव जीतकर आ जाते हैं।
अगर कोई भी दल भारत को वास्तव में सशक्त राष्ट्र बनाना चाहता है तो उसे पहले अपने आचरण से ऐसा करके दिखाना होगा। गरीबी और धीमी गति से आर्थिक विकास का करण साधनों की कमी नहीं है। सुजलाम् सुफलाम् शस्य श्यामलाम् इस देश में न तो साधनों की कमी है और ना ही मेहनती और चतुर लोगों की, पर विकास का सारा पैसा भ्रष्टाचार की जेब में चला जाता है या सरकारी तामझाम पर बर्बाद हो जाता है। बिना सरकारी खर्च कम किए या बिना उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार को नियंत्रित किए नीचे के स्तर का भ्रष्टाचार कम नहीं किया जा सकता। जब तक यह नहीं होगा, तब तक आम जनता को कुछ नहीं मिलेगा। भ्रष्टाचार दूर करने के लिए जरूरी है कि सीबीआई और सीवीसी जैसी संस्थाओं को स्वायत्ता दी जाए। इनके सर्वोच्च पदों पर पारदर्शी व्यक्तित्व वाले लोगों को ही नियुक्त किया जाए। उनकी नियुक्ति की प्रक्रिया भी यथासंभव जनतांत्रिक और पारदर्शी हो। इन उच्च पदों पर बैठने वालों से एक लिखित शपथपत्र जारी करवाया जाए कि वे सेवानिवृत्त होने के बाद सरकार में कभी कोई पद ग्रहण नहीं करेंगे। इनके दैनिक काम का मूल्यांकन करने के लिए देश में कई स्तर पर ऐसी जनसमितियां बनाई जाएं जिनके प्रति ये जवाबदेह हों। इन समितियों में सरकार द्वारा नामांकित लोग नहीं, बल्कि वो लोग आगे आएं जिन्होंने जनहित में काम करने के मानदंड खड़े किए हैं। 

भ्रष्टाचार दूर करने के लिए जरूरी है कि न्यायपालिका भी पारदर्शी हो। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पद पर रहते हुए यह स्वीकार कर चुके हैं कि उच्च न्यायपालिका में भी बीस फीसदी भ्रष्टाचार है। भारत के मौजूदा मुख्य न्यायाधीश ने हाल ही में कहा कि निचली अदालतों में भारी भ्रष्टाचार है और वे इससे निपटने में असहाय हैं। जब भारत का मुख्य न्यायाधीश ही असहाय हो, तो न्यायपालिका पारदर्शी कैसे रह पाएगी? यही वजह है कि न्यायपालिका के शिकंजे से भ्रष्टाचारी हंसते हुए बाहर निकल आते हैं और हर बार जनता की हताशा बढ़ती जाती है। न्यायपालिका में सुधार के लिए आवश्यक है कि अदालत की अवमानना कानूनमें व्यापक संशोधन किया जाए, ताकि भ्रष्ट न्यायाधीशों के खिलाफ मीडिया सतर्क रहे और न्यायपालिका की जनता के प्रति जवाबदेही बनी रहे। इसी तरह पुलिस आयोग की सिफारिशें लागू करके पुलिस व्यवस्था में भी पूरे सुधार की जरूरत है। इन तीन बुनियादी सुधारों को लाए बिना कोई भी   राजनैतिक दल जनता के दुख दूर नहीं कर सकता। पर ऐसे बुनियादी सवालों पर कोई बोलना नहीं चाहता। इसलिए जो कुछ बोला जा रहा है, उसके कोई मायने नहीं हैं।

Friday, March 19, 2004

धार्मिक टीवी चैनल और धर्मगुरू


देश में धार्मिक टीवी चैनलों की बाढ़ आ गई है। आस्था, संस्कार, अहिंसा, साधना और अब जागरण। अब तक आए ये पांच टीवी चैनल दर्शकों को आध्यात्मिक ज्ञान, वैदिक संस्कार या भक्ति देने का दावा करते हैं। कुछ हद तक ये ऐसा कर भी रहे हैं। पर कुल मिलाकर पांच चैनल भी वो प्रभाव नहीं पैदा कर पा रहे, जो इतने सशक्त माध्यम से पैदा किया जा सकता है। भारत जैसे धर्म प्रधान देश में लोगांे की धार्मिक जिज्ञासओं और भावनाओं के अनुरूप बहुत कुछ दिखाया जा सकता है। उसके लिए निर्माताओं का जिज्ञासू दिल और दिमाग चाहिए। समस्या ये है कि अच्छा कार्यक्रम बनाने के लिए धन की जरूरत होती है और धन केवल विज्ञापनों से आता है। विज्ञापन तभी मिलते हैं, जब कार्यक्रम लोकप्रिय हों और कार्यक्रम लोकप्रिय तब होगा जब उसमें गुणवत्ता होगी। गुणवत्ता तब आएगी, जब उसमें सही लागत लगेगी। जितना गुड़ डालोगो, उतना ही मीठा होगा। समस्या वही मुर्गी और अण्डे वाली है। पहले मुर्गी या पहले अण्डा। नतीजा ये कि धूमधड़ाके के साथ बड़े-बड़े लंबे-चैड़े दावे करके धार्मिक चैनल शुरू तो कर दिए गए, पर उनमें दिखाने के लिए कुछ ठोस प्रोग्रामिंग की नहीं गई। नतीजतन बाजार में पहले से उपलब्ध वीडियो कवरेज को ही दिखाकर चैनलों ने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया। फिर चाहे वो किसी के घर का निजी उत्सव हो, या कोई भौंडा भजन गायक, रेट बांध दिया गया। पांच हजार रूपए से लेकर 15 हजार रूपए रोज का रेट। इतने रूपए दो तो अपना कार्यक्रम चैनल पर प्रसारित करवा लो। जब कार्यक्रम चयन का आधार कार्यक्रम लाने वाले की आर्थिक क्षमता ही हो, तो कार्यक्रम की गुणवत्ता पर कौन ध्यान देगा। जो भी मुंहमांगे पैसे देता है, उसका कार्यक्रम प्रसारित कर दिया जाता है। इस तरह के दर्जनों प्रवचन और कार्यक्रम आजकल धार्मिक टीवी चैनलों पर आ रहे हैं। कोई सहज प्रश्न कर सकता है कि इतने सारे पैसे फीस के रूप में देकर अपने प्रवचन धार्मिक टीवी चैनलों पर प्रसारित करने से धर्म गुरू को क्या लाभ मिलता है? विशेषकर तब जबकि टीवी चैनल प्रवचन देने वाले को न तो कोई फीस देता है और न ही ऐसे कार्यक्रम के निर्माण के लागत ही। अगर 25 मिनट के एक प्रवचन आधारित कार्यक्रम की उत्पादन लागत 15 हजार रुपया प्रतिदिन मानी जाए और उसे प्रसारण करने की फीस 10 हजार रुपया प्रतिदिन हो तो 30 दिन में साढ़े सात लाख रुपया खर्च करके कोई भागवतवक्ता या दूसरा आत्मघोषित महात्मा धार्मिक टीवी चैनलों पर अपना प्रवचन प्रसारित करवा सकता है।
साफ जाहिर है कि जिस पर जितना फालतू धन होगा, उतना उसे प्रसारण का समय ज्यादा मिलेगा। अब जरा गौर करें। आध्यात्म के मार्ग पर चलने वाला न तो संग्रही होगा और ना ही उसे लोक प्रतिष्ठा के प्रति कोई आकर्षण ही होगा। आध्यात्मिक प्रगति की पहली शर्त है- व्यक्ति भौतिकता से विरक्त होता जाए। पर भागवत प्रवचन करने वाले ना तो शुकदेव महाराज जैसे विरक्त संत है और ना ही परीक्षित महाराज जैसे एकनिष्ठ श्रोता। बड़े-बड़े वातानुकूलित महलों में रहने वाले या धन कमाने के लिए भागवत कहने वाले आत्मघोषित भागवताचार्य तथ्य की बात कैसे बता सकते हैं? जो खुद ही माया में अटके हों, वो भक्तों में प्रेम कैसे जगा सकते हैंै ? दुर्भाग्य से आज ऐसे भागवताचार्य की संख्या सैकड़ों में है। भागवत कहना एक धंधा बन गया है। उसे तथ्यात्मक कम और मनोरंजन से भरपूर ज्यादा बनाया जा रहा है। पर फिर सवाल उठता है कि साढ़े सात लाख रूपया महीना खर्च करके कोई क्यों अपना प्रवचन टीवी चैनल पर प्रसारित करवाना चाहता है? साफ जाहिर है कि ऐसा करना घाटे का नहीं, मुनाफे का सौदा है। जितनी ज्यादा बार और जितने ज्यादा टीवी चैनलों पर आपका चेहरा बार-बार आएगा, उतनी ही आपकी प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी। चेले भी बढ़ेंगे और आमदनी भी बढ़ेगी। फिर यह आध्यात्म कहां हुआ ? ये तो धर्म का व्यापार हो गया और ये व्यापार आजकल पूरे जोशोखरोश से चल रहा है। इसका बहुत बड़ा नुकसान समाज को हो रहा है। अगर प्रवचन कहने वाला विरक्त नहीं है तो उसके उपदेश में स्वार्थपरता होगी। ऐसा व्यक्ति जो भी बोलेगा, उसे सुनने वाले का आध्यात्मिक कल्याण होना तो मुश्किल है, आर्थिक दोहन जरूर हो जाएगा। क्योंकि टीवी का दर्शक उस प्रवचनकर्ता को गुरू मान बैठेगा और उसके प्रवचन को प्रभु की वाणी। इस तरह करोड़ों दर्शकों का भावनात्मक और आर्थिक दोहन तो हो जाएगा पर आध्यात्मिक कल्याण नहीं होगा।
दूसरी तरफ धार्मिक टीवी चैनल चलाने वालों की भी एक कठिनाई है। अच्छा कार्यक्रम दिखाने के लिए उनके पास साधनों की कमी है। इसलिए सब कुछ जानते हुए भी ये टीवी चैनल मालिक वो नहीं दिखा पा रहे, जो उन्हें बहुजन हिताए दिखाना चाहिए। ऐसे में ये जिम्मेदारी उन सेठों और संस्थाओं की है, जो वास्तव में समाज में धार्मिक जीवन मूल्यों की स्थापना करना चाहते है। ऐसे सभी सक्षम लोगों को आगे आना चाहिए। अपने धन और साधन मुहैया कराकर देश में अच्छे संतों की खोज करनी चाहिए और उनके प्रवचनों को या भजनों को रिकार्ड करने की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए। इसके बाद सैटेलाइट टीवी चैनल मालिक को उसकी कीमत देकर ऐसे शुद्ध हृदय वाले संतों की वाणी प्रसारित करनी चाहिए। उससे जन कल्याण तो होगा ही, पुण्य भी मिलेगा।
जो वास्तव में ऊंचे दर्जे का संत होगा, वो किसी से कहने नहीं आएगा कि मेरी रिकाॅर्डिंग करो। वो तो जंगल में बैठकर भजन करेगा। पर उसकी वाणी में जो तेज होगा, उसका मुकाबला आत्मघोषित भगवताचार्य नहीं कर पाएंगे। गहवरवन बरसाना में पिछले 52 वर्षों से भजन गाकर साधना करने वाले विरक्त संत श्री रमेश बाबा का गायन जो एक बार सुन ले, वो बार-बार सुनने को उस जंगल में जाता है। पर बाबा ने आज तक किसी टीवी वाले को पास नहीं फटकने दिया। वे न तो किसी को शिष्य बनाते हैं, न किसी से पैसा लेते हैं और न किसी बड़े-छोटे के बीच भेदभाव करते हैं। केवल अपनी साधना के रूप में भजन गाते हैं, इसीलिए उनके भजनों में जो कशिश है, वो कहीं और देखने को नहीं मिलती। पर रमेश बाबा जैसे विरक्त संत जो अपने अच्छे कामों का भी प्रचार नहीं चाहते, गुमनाम ही रहना चाहते हैं, पैसे देकर तो अपना प्रवचन टीवी पर दिखाने से रहे। नतीजा यह होगा कि नकली लोग तो अपना आडंबर दिखाकर जनता के दिलो-दिमाग पर छा जाएंगे और फिर उसका दोहन करेंगे और दूसरी तरफ शुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान देने वालों की सारगर्भित वाणी कभी आध्यात्म के पिपासुओं को मिल नहीं पाएगी। इसलिए अपने-अपने धर्म में आस्था रखने वाले साधन संपन्न लोगों को चाहिए कि वे लोग धर्म को व्यापार बनाने वालों से दूर रहे और ऐसे ज्ञान और अनुभव को खोजकर देश के सामने प्रस्तुत करवाएं, जो आम आदमी को उपलब्ध नहीं हो। इससे पुण्य तो मिलेगा ही, यह कार्य बहुजन हिताय भी होगा। दूसरी तरफ धार्मिक टीवी चैनलों को भी यह सोचना चाहिए कि वे ऐसे कार्यक्रम प्रस्तुत करें जिससे लोगों का धार्मिक मनोरंजन भी हो और आध्यात्मिक कल्याण भी।
धार्मिक टीवी चैनलों को कुछ ऐसी नीति बनानी चाहिए कि वे अपने प्रसारण समय के 70 फीसदी समय में तो पैसा देकर खुद का प्रचार करवाने वाले धर्माचार्यों के कार्यक्रम दिखाएंगे और 30 फीसदी कार्यक्रम ऐसे धर्माचार्यों पर प्रसारित हो, जिन्हें प्रतिष्ठा, शिष्य और धन इन तीनों में रुचि न हो और वे जो भी बोले ंवो भगवान की प्रसन्नता के लिए बोलें। ऐसे संतों की वाणी का जनता पर असर पड़ेगा और देश में आध्यात्मिकता की लहर आएगी, तभी धार्मिक टीवी चैनल अपने उद्देश्यों में सफल हो जाएंगे।

Friday, March 5, 2004

भारत में एड्स की समस्या वाकई इतनी गंभीर है


अभी कुछ दिन पहले आंध्र प्रदेश में एक परिवार ने एड्स के खौफ के चलते जान दे दी। डाॅक्टरों ने उसे बताया था कि उसके पूरे परिवार को एड्स हो गया है। इससे परेशान होकर उसे अपने पूरे परिवार को जहर देकर खुद भी आत्महत्या कर ली। यह तो सिर्फ एक मामला है। देश में हर साल सैकड़ों लोग एड्स को लेकर काल के गाल में समा रहे हैं। पिछले कुछ सालों से पूरी दुनिया में एड्स का खौफ बुरी तरह छा गया है। सरकारी और गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कुछ एशियाई देशों, जिनमें हमारा भारत भी शामिल है, में एचआईवी पाॅजिटिव रोगियों की तादाद बहुत तेजी से बढ़ती जा रही है। यह बात सही है कि हमारे देश में एचआईवी ग्रस्त मरीजों की संख्या बढ़ी तो है, पर इतनी भी नहीं जितना कि कुछ विदेशी एजेंसिया बता रही हैं। कुछ दिनों पहले अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए द्वारा जारी रिपोर्ट में भारत, चीन और रूस जैसे देशों में महामारी जैसी स्थितियां पैदा होने की बात कही गई थी तो अब पाॅपुलेशन फाउंडेशन आॅफ इंडिया (पीएफआई) नामक विदेशी अनुदान से चलने वाली भारतीय संस्था ने एक चार्ट बुक जारी की है। वास्तव में इस चार्ट बुक में सूचनाओं को जिस तरह से उलटफेर करके दिखाया गया है, उससे तो यही लगता है कि भारत में एड्स की समस्या वास्तव में बहुत ही गंभीर रूप लेती जा रही है। जाने-माने लोगों की प्रबंध समिति वाली पीएफआई ने भारत में एचआईवी मामलों की जो स्थिति दशाई है, वह विशेषज्ञ आधिकारिक संस्था नेशनल एड्स कंट्रोल आॅर्गनाइजेशन’ (नाको) द्वारा बताई गई स्थिति से बिल्कुल उलट है। जहां नाको का दावा है कि देश में एड्स रोगियों की संख्या पिछले चार सालों में सापेक्ष रूप से चालीस लाख के नीचे स्थिर है, वहीं चार्ट बुक में पीएफआई का कहना है कि एचआईवी संक्रमण बहुत तेजी से बढ़ रहा है। पीएफआई की चार्ट बुक में चकित करने वाली बात यह है कि उसने यह जानते हुए भी कि नाको पहले ही दुनिया भर में मौजूद विशेषज्ञों की मदद से सभी आंकड़ों का कैलकुलेशन कर चुका है, उसने आंकड़ों के कैलकुलेशन के लिए अमेरिकी एजेंसी पाॅपुलेशन रिफ्रेन्स ब्यूरो को क्यों शामिल किया? इस संस्था ने नाको के आंकड़ों का इस्तेमाल तो किया, लेकिन शरारतपूर्ण ढंग से गलत और बिगड़े रूप में।
पीएफआई के मुताबिक, भारत में वर्ष 2002 में एचआईवी संक्रमित लोगों की संख्या 45 हजार, 80 लाख हो गई, जबकि इससे पहले यह मात्र 39 लाख 70 हजार थी। सिर्फ एक साल में ही एड्स मरीजों की संख्या में 6 लाख 10 हजार की बढ़ोतरी हुई। इसके विपरीत नाको का कहना है कि देश के एचआईवी संक्रमण के मामलों में कमी आ रही है और हो सकता है आने वाले समय में नए संक्रमणों की संख्या नगण्य हो जाए। दरअसल, इस साल नाको ने एचआईवी संक्रमित लोगों का अनुमान निश्चित संख्या के रूप में न जारी करके एक रेंज में पेश किया है, जिसके अनुसार इसका न्यूनतम स्तर 38 लाख 20 हजार और अधिकतर स्तर 45 लाख तक होने की संभावना है। पीएफआई ने इसी का फायदा उठाते अधिकतम संक्रमण के स्तर को तथ्य के रूप में पेश किया और कहा कि 45 लाख लोग एड्स के साथ जी रहे हैं। अनुमान और संभावनाओं को जान-बूझकर तथ्य के रूप में पेश करने के साथ यह पुस्तक नाको द्वारा स्वीकृत किताब अनुमान प्रक्रिया की सीमाओंको भी अनदेखी करती है। साथ ही बिल गेट्स फाउंडेशन तथा पाॅपुलेशन रिफ्रेन्स ब्यूरो की मदद से एक तथाकथित प्रतिष्ठित संस्थान द्वारा प्रस्तुत और प्रचारित यह पुस्तक आंकड़ों (ेझूठं) की सुविधाजनक प्रस्तुति, शरारतपूर्ण व्याख्या और अति आवेशपूर्ण उद्घोषणाओं का नायाब नमूना पेश करती है।
एड्स के इस गोरखधंधे के खिलाफ आवाज उठाने वाली एक संस्था जे.ए.सी कन्नूर का कहना है कि यह कोशिश दुनिया की बड़ी दवा कंपनियों और अमेरिकी आधिपत्य के लिए काम करने वाली ताकतों की व्यापक साजिश का एक हिस्सा लगती है। जब भारत में एड्स का हौवा खड़ा हो जाएगा, तो सरकार को मजबूरी में इन बड़ी कंपनियों की दवाओं का भारी मात्रा में आयात करना होगा और यह  इन कंपनियों के लिए बड़े मुनाफे का सौदा होगा। मुलोली का यह तर्क इसलिए भी समझ में आता है क्योंकि आंकड़ों के मुताबिक 95 प्रतिशत एचआईवी पाॅजिटिव केस दक्षिण अफ्रीका और भारत जैसे गरीब समझे जाने वाले देशों में है, जबकि अमेरिका और यूरोप आदि संपन्न देशों में इसका प्रतिशत मात्र 5 फीसदी है। इससे यह साबित हो जाता है कि एड्स जैसी बीमारी सिर्फ गरीब देशों के लिए है। अमीर देशों का मकसद सिर्फ एड्स का भय दिखाकर अपनी दवाएं बेचना है।
संस्था का कहना तो यह भी है कि एड्स जैसी कोई बीमारी है ही नहीं, यह तो विदेशी दवा कंपनियों द्वारा गरीब देशों के बाजारों पर कब्जा जमाने के लिए फैलाया गया भ्रम मात्र है। सरकार द्वारा एड्स की जांच के लिए जो टेस्ट कराए जाते हैं, उनमें सबसे पहला एलिजा टेस्ट है। संस्था के संयोजक पुरुषोत्तमन मुलोली का दावा है कि एलिजा टेस्ट एचआईवी और खांसी, टीबी, गर्भावस्था समेत 72 दूसरे मामलों में पाॅजिटिव होता है। इसलिए सिर्फ एलिजा टेस्ट के आधार पर कह देना कि किसी व्यक्ति को एड्स है, सही नहीं होगा। दूसरा एड्स की पुष्टि के लिए वेस्टर्न ब्लोट टेस्ट करवाया जाता है। सरकार का कहना है कि इस टेस्ट के जरिए यह पक्का हो जाता है कि व्यक्ति को एड्स है या नहीं, जबकि मुलोली कहते हैं कि उनकी आपत्ति पर सरकार ने उन्हें यह लिखकर दिया है कि वेस्टर्न ब्लोट टेस्ट से भी एड्स की पूरी तरह पुष्टि नहीं होती। अब तीसरी तरह का पीसीआर टेस्ट, जो डीएनए पर आधारित होने के कारण बहुत महंगा है। इसकी खोज अमेरिका की वैज्ञानिक केरी यूलिक्स ने की थी। इसके लिए उन्हें नोबल प्राइज भी दिया गया था। विदेशी और अब अपनी सरकार भी यह प्रचारित कर रही है कि पीसीआर टेस्ट के जरिए एचआईवी वाइरस को अलग करके पहचाना जा सकता है। पर मुलोली के अनुसार, केरी खुद मानती हैं कि सच नहीं है। इस तरह एड्स कोई बीमारी है, यह अपने आप में एक गड़बड़झाला है। अब सवाल उठता है कि यदि एड्स कोई बीमारी ही नहीं है तो इससे लोगों की मौत कैसे होती है। मुलोली के पास इसका भी जवाब है। वे कहते हैं कि दरअसल एड्स को रोकने के लिए जो दवाइयां दी जाती हैं, वह बहुत ही ज्यादा टाॅक्सिक होती हैं और इन्हीं की वजह से शरीर के अंग खराब हो जाते हैं और व्यक्ति की मौत हो जाती है। बहरहाल, यह चिंतन का अगल मुद्दा है। इस पर व्यापक चर्चा की जरूरत है।
यह सही है कि पिछले कुछ सालों में हमारे देश में एड्स का खौफ बढ़ा है। सरकार और बहुत सी समाजसेवी संस्थाओं द्वारा लाखों-करोडों रुपया पानी की तरह बहाने के बाद लोगों में एड्स के प्रति पूरी तरह जागरूकता नहीं आ पाई है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती, कि आम भारतीय अपनी सेहत के प्रति उतना सचेत नहीं रहता, जितना कि उसे होना चाहिए। प्राचीन सुसंस्कृत सभ्यता वाले हमारे देश में पुरानी मान्यताओं को दरकिनार करना ही एड्स जैसी महामारियों के पैदा होने का कारण है। पर वेस्टर्न कल्चर के रंग में डूबी नई जेनेरेशन को इस पहलू पर भी ध्यान देना चाहिए कि जिन पद्धतियों को वह दकियानूसी बताकर अपनी जिंदगी से बाहर कर रहे हैं, उन्हीं जीवन पद्धतियों को उनकी आदर्श वेस्टर्न कन्ट्रीज अपना रही हैं। वास्तविकता यह है कि इस तड़क-भड़क और भागमभाग वाली जिंदगी से वह लोग ऊब चुके हैं और अब उन्हें शांति चाहिए, जो उनके पास नहीं। इसीलिए वह भारत की प्राचीन संस्कृति की ओर देख रहे हैं। और हम हैं कि उनकी त्यागी गई माॅडर्न लाइफस्टाइल को अपने जीवन में जगह देते जा रहे हैं। हमारे दूरद्रष्टा ऋषि-मुनियों ने पहले ही इस बात का अंदाजा लगा लिया था कि आगे आने वाले समय में व्यक्ति को अपने मन पर काबू रखना कितना मुश्किल होगा, इसीलिए उन्होंने धर्म को आधार बनाकर सही और गलत को पुण्य और पाप में वर्गीकृत कर दिया। हम चाहें कितने भी माॅडर्न क्यों न हो जाएं, पर कहीं न कहीं हमारे अंदर पाप कर्मों से बचने की इच्छा रहती है। इसलिए एड्स जैसी बीमारियों के उपायों को यदि धर्म और आध्यात्म से जोड़कर प्रचारित किया जाए, तो मेरा मानना है कि इसका ज्यादा असर लोगों के दिलोदिमाग पर पड़ेगा।