Friday, March 26, 2004

मतदाता पूछे बुनियादी सवाल


पिछले दस वर्षों में राजनेताओं की विश्वसनीयता में भारी कमी आई है। अब कोई उनकी बात सुनना नहीं चाहता। बड़े-बड़े नेताओं के लिए भी स्वेच्छा से भीड़ नहीं जुटती। पैसे खर्च करके किराए की भीड़ जुटानी पड़ती है। इसलिए चुनाव के समय उन्हें फिल्मी सितारों को पकड़कर लाना पड़ रहा है। इस स्थिति के लिए राजनेता स्वयं जिम्मेदार हैं। कोरे वादों से जनता को हमेशा मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। संचार क्रांति के युग में अब देश के हर नागरिक को अपने वोट की कीमत पता चल चुकी है। उसे यह भी दिखाई देता है कि तमाम वादों और योजनाओं की घोषणाओं के बावजूद उसकी आर्थिक स्थिति में बहुत मामूली सुधार हुआ है। जबकि हुक्मरानों का जीवन स्तर राजे-महाराजाओं से भी बढ़-चढ़कर हो गया है। 

टीवी चैनलों में होने वाले बहसों में जनहित के मुद्दों पर जब नेता उत्तेजित होकर बयानबाजी करते हैं तो उनके व्यक्तित्व का दोहरापन साफ दिखाई देता है। चुनाव के पहले जिन तेवरों में ये टीवी चैनलों पर एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं, चुनाव के बाद तो वो तेवर भी ठंडे पड़ जाते हैं। साफ है कि आरोप भी केवल चुनावी फायदे के लिए लगाए जाते हैं। चुनाव के बाद आरोप लगाने वाले और आरोप सहने वाले सब गलबहियां डालकर आनंद उत्सव में जुट जाते हैं। मतदाता ठगा सा रह जाता है।
जनता के मन में जो बुनियादी सवाल उठते हैं, उन पर कोई राजनेता न तो टीवी चैनलों पर चर्चा करना चाहता है और ना ही  अपनी जनसभाओं में। क्योंकि अगर इन सवालों पर चर्चा होने लगी तो सब के सब नंगे हो जाएंगे। इसीलिए जानबूझकर ऐसे नए नए मुद्दे उछाले जाते हैं जिनके विवादों में मीडिया और मतदाता उलझा रहे और असली मुद्दों पर उसका ध्यान न जाए। इसके तमाम उदाहरण दिए जा सकते हैं। 

चुनाव के पहले हर दल दूसरे दल पर भ्रष्टाचारी होने का आरोप लगाता है। आजकल भी ऐसे आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर चल रहा है। ऐसे में मतदाताओं को हर चुनावी सभा में प्रचार करने आए नेताओं से पूछना चाहिए कि अगर आप देश में बढ़ते भ्रष्टाचार से इतने ही दुखी हैं, तो कृपया यह बताइए कि आपके दल ने आज तक अपनी आमदनी और खर्चे का सही हिसाब आयकर विभाग को क्यों नहीं दिया? क्या आपके दल ने ऐसे सर्वेक्षण कराए हैं जिससे यह पता चले कि मंत्री बनने से पहले आपके दल के नेताओं की आर्थिक स्थिति क्या थी और मंत्री पद पर कुछ वर्ष रहने के बाद वह क्या हो गई? यह भी पूछना चाहिए कि प्रायः हर बड़े राजनेता के पास अरबों रुपये की बेनामी संपत्ति होती है। फिर भी आज तक उसे भ्रष्टाचार के मामले में पकड़ा क्यों नहीं गया? पूछना चाहिए कि देश में पिछले पचास वर्षों में इतने घोटाले उछले, तमाम सबूत जुटाए गए, सीबीआई के अफसरों ने जांच के नाम पर करोड़ों रुपया खर्च किया, संसद के हजारों घंटे घोटालों पर शोर मचाने में बर्बाद हुए, वर्षों मुकदमे चले और सरकार ने बड़े वकीलों को करोड़ों रुपया फीस भी दी, फिर भी आज तक किसी बड़े नेता या अफसर को भ्रष्टाचार के मामले में सजा क्यों नहीं मिली? मतदाताओं को हर दल के नेता से पूछना चाहिए कि क्या वजह है कि वे केवल उन्हीं घोटालों पर शोर मचाते हैं जिनमें उनके विरोधी दल के नेता फंसे होते हैं? हवाला कांड जैसे घोटाले में सभी बड़े दलों के नेता फंसे थे इसलिए किसी ने भी इसकी ईमानदारी से जांच की मांग नहीं की। अगर वे वास्तव में भ्रष्टाचार दूर करना चाहते हैं तो दल की दलदल से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में सभी घोटालेबाजों के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए और उन्हें सजा दिलवाने तक चुप नहीं बैठना चाहिए। क्या वजह है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद किसी भी दल ने न तो केंद्रीय सतर्कता आयोग को बड़े पदों पर बैठे नेताओं और अफसरों के भ्रष्टाचार के विरुद्ध जांच करने की छूट देने दी और ना ही सीबीआई को स्वायत्ता ही मिलने दी? देशी मूल का हो या विदेशी मूल का, क्या देश का एक भी नेता ऐसा है जिसने लगातार तत्परता से भ्रष्टाचार से विरुद्ध लड़ाई लड़ी हो? जब एक भी नेता ऐसा नहीं है तो किसी भी दल के नेता को देश के सामने यह नहीं कहना चाहिए कि मेरी कमीज उसकी कमीज से सफेद है। 

चुनाव के इस दौर में जब कोई रोड शो पर निकला हो और कोई रथ पर सवार हो तो फुटपाथ पर खड़ी बदहाल जनता को पूछना चाहिए कि क्या वजह है कि जनता के बीच में इस तरह आने की फुर्सत आपको चुनाव के पहले ही मिलती है। चुनाव के बाद क्यों नहीं ये राजनेता हर महीने देश के किसी न किसी हिस्से में रोड शो या रथयात्रा पर निकलते हैं? तब तो इन्हें उद्घाटन करने से ही फुर्सत नहीं मिलती। वे जानते हैं कि अगर जनता के बीच जाकर उसकी शिकायत सुनेंगे तो उसके शब्द बाणों की बौछार झेल नहीं पाएंगे। बेहतर है कि अपने महलनुमा सरकारी बंगलों और किलेनुमा दफ्तरों में सुरक्षा गार्डों से घिरे बैठे रहो और जनता को गेट से ही दुत्कार कर लौटा दो। फिर इन रोड शो और रथयात्राओं से जनता को क्या मिलने वाला है? वह जानती है कि यह सारा नाटक केवल उसके वोट बटोरने के लिए है। उसे सब्जबाग दिखाने के लिए है। उसे भविष्य के झूठे सपने दिखाने के लिए है। हर दल सत्ता में आने के लिए कहता है कि बीस साल बाद वो देश को गरीबी से मुक्त कर देगा, बेरोजगारी खत्म कर देगा या देश को आर्थिक रूप से मजबूत बना देगा। पर पूत के पांव तो पालने में देखे जाते हैं। आगाज तो अभी देख लिया, फिर बीस साल तक कौन इंतजार करे? आदमी की याद्दाश्त भी इतनी लंबी नहीं होती। वो तो जिसे जोशोखरोश से सत्ता में लाता है, छह महीने बाद ही उसे गाली देने लगता है। ऐसी जनता को बीस साल बाद के विकास के सपने दिखाकर राजनेता पिछले पचास वर्षों से मूर्ख बनाते आए हैं। इसलिए जनता अब ना तो किसी विचारधारा से प्रभावित होती है और ना ही किसी राजनेता से। वो वोट देती है तो जाति के आधार पर, या स्थानीय मुद्दों के आधार पर। यही कारण है कि बड़े से बड़े अपराधी तक आसानी से चुनाव जीतकर आ जाते हैं।
अगर कोई भी दल भारत को वास्तव में सशक्त राष्ट्र बनाना चाहता है तो उसे पहले अपने आचरण से ऐसा करके दिखाना होगा। गरीबी और धीमी गति से आर्थिक विकास का करण साधनों की कमी नहीं है। सुजलाम् सुफलाम् शस्य श्यामलाम् इस देश में न तो साधनों की कमी है और ना ही मेहनती और चतुर लोगों की, पर विकास का सारा पैसा भ्रष्टाचार की जेब में चला जाता है या सरकारी तामझाम पर बर्बाद हो जाता है। बिना सरकारी खर्च कम किए या बिना उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार को नियंत्रित किए नीचे के स्तर का भ्रष्टाचार कम नहीं किया जा सकता। जब तक यह नहीं होगा, तब तक आम जनता को कुछ नहीं मिलेगा। भ्रष्टाचार दूर करने के लिए जरूरी है कि सीबीआई और सीवीसी जैसी संस्थाओं को स्वायत्ता दी जाए। इनके सर्वोच्च पदों पर पारदर्शी व्यक्तित्व वाले लोगों को ही नियुक्त किया जाए। उनकी नियुक्ति की प्रक्रिया भी यथासंभव जनतांत्रिक और पारदर्शी हो। इन उच्च पदों पर बैठने वालों से एक लिखित शपथपत्र जारी करवाया जाए कि वे सेवानिवृत्त होने के बाद सरकार में कभी कोई पद ग्रहण नहीं करेंगे। इनके दैनिक काम का मूल्यांकन करने के लिए देश में कई स्तर पर ऐसी जनसमितियां बनाई जाएं जिनके प्रति ये जवाबदेह हों। इन समितियों में सरकार द्वारा नामांकित लोग नहीं, बल्कि वो लोग आगे आएं जिन्होंने जनहित में काम करने के मानदंड खड़े किए हैं। 

भ्रष्टाचार दूर करने के लिए जरूरी है कि न्यायपालिका भी पारदर्शी हो। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पद पर रहते हुए यह स्वीकार कर चुके हैं कि उच्च न्यायपालिका में भी बीस फीसदी भ्रष्टाचार है। भारत के मौजूदा मुख्य न्यायाधीश ने हाल ही में कहा कि निचली अदालतों में भारी भ्रष्टाचार है और वे इससे निपटने में असहाय हैं। जब भारत का मुख्य न्यायाधीश ही असहाय हो, तो न्यायपालिका पारदर्शी कैसे रह पाएगी? यही वजह है कि न्यायपालिका के शिकंजे से भ्रष्टाचारी हंसते हुए बाहर निकल आते हैं और हर बार जनता की हताशा बढ़ती जाती है। न्यायपालिका में सुधार के लिए आवश्यक है कि अदालत की अवमानना कानूनमें व्यापक संशोधन किया जाए, ताकि भ्रष्ट न्यायाधीशों के खिलाफ मीडिया सतर्क रहे और न्यायपालिका की जनता के प्रति जवाबदेही बनी रहे। इसी तरह पुलिस आयोग की सिफारिशें लागू करके पुलिस व्यवस्था में भी पूरे सुधार की जरूरत है। इन तीन बुनियादी सुधारों को लाए बिना कोई भी   राजनैतिक दल जनता के दुख दूर नहीं कर सकता। पर ऐसे बुनियादी सवालों पर कोई बोलना नहीं चाहता। इसलिए जो कुछ बोला जा रहा है, उसके कोई मायने नहीं हैं।

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