Friday, May 14, 2004

‘बेलगाम न्यायपालिका’ को कैसे कसें

सेवानिवृत्त होते-होते भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति वी.एन. खरे कह गए कि उच्च न्यायपालिका के भी कुछ सदस्य बेलगाम हो गए हैं और उन्हें नियंत्रित करने के अधिकार उनके पास नहीं हैं। इस चैंकाने वाले वक्तव्य का बड़ा गहरा अर्थ है। इसका मतलब है कि उच्च न्यायपालिका में कुछ लोग न सिर्फ भ्रष्ट हो गए हैं बल्कि अनुशासनहीन भी हैं। इससे पहले भी भारत के मुख्य न्यायाधीश पद पर रहते हुए न्यायमूर्ति एस पी भरूचा ने कहा था कि उच्च न्यायपालिका में भी बीस फीसदी भ्रष्टाचार है। एक के बाद एक कई मुख्य न्यायाधीश निचली अदालतों को काफी हद तक भ्रष्ट बताते रहे हैं। इस सबका मतलब ये हुआ कि भारत की न्याय व्यवस्था में नीचे से ऊपर तक भारी भ्रष्टाचार फैल चुका है। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे आज से कुछ वर्ष पहले कोई कहने को तैयार नहीं था। 

जैन हवाला कांड में जिस तरह से राजनेताओं को तमाम सबूतों के बावजूद छोड़ा गया, उससे पूरा देश हतप्रभ था। सर्वोच्च न्यायालय के जिस मुख्य न्यायाधीश ने हवाला कांड की शुरूआत में कहा था कि इस कांड में इतने सबूत हैं कि अगर इस पर भी हम उच्च पदों पर बैठे लोगों को सजा नहीं दे पाते, तो हमें अदालतें बंद कर देनी चाहिए। बाद में उन्हीं मुख्य न्यायाधीश ने इस कांड को समय से पहले व बिना जांच हुए ही लपेटते हुए यह कहा कि इस कांड में नाकाफी सबूत हैं। बाद में इस केस को रफा-दफा करने में उन मुख्य न्यायाधीश के अनैतिक आचरण का पर्दाफाश भी कालचक्र समाचार के माध्यम से किया गया। तब से ही सर्वोच्च न्यायालय के कुछ न्यायाधीशों की विश्वसनीयता पर सवाल उठने लगे। बाद में भी कुछ अन्य न्यायाधीशों से जुड़े भ्रष्टाचार के मामलों को हमने सप्रमाण छापकर देश के सामने रखा। हमारा मकसद सिर्फ यह बताना था कि न्यायपालिका के फैसले की आड़ लेकर जो राजनेता भ्रष्टाचार के आरोपों से मुक्त हो जाते हैं, वे अक्सर पाक-साफ नहीं होते। बड़े-बड़े घोटाले करने के बाद राजनेताओं के अदालत से बरी हो जाने का नाटक इस देश की जनता बरसों से देख रही है।

इस देश में पांच सौ रुपये की रिश्वत लेने वाला एक सिपाही तो सजा भोगता है, पर पांच सौ करोड़ का घोटाला करने वाला मुख्यमंत्री बन जाता है। देश में साधनों की कमी नहीं है। पर उन साधनों का अनैतिक दोहन और सारी आर्थिक सत्ता का कुछ भ्रष्ट लोगों के हाथ में इकट्ठा हो जाना इस देश के आम आदमी की बदहाली, गरीबी और बेरोजगारी का कारण है। संविधान के निर्माताओं ने लोकतंत्र का प्रारूप अपनाते समय लोकतंत्र के चारों खंभों को इस तरह खड़ा किया था कि एक-दूसरे पर निगाह रखने का हक और दायित्व बना रहे। कार्यपालिका पर विधायिका की निगाह रहती है और विधायिका पर मतदाता की, पर न्यायपालिका ने अदालत की अवमानना कानून का गलत अर्थ निकालकर और उसका सरासर दुरुपयोग करके अपने लिए एक ढाल खड़ी कर ली है। इस ढाल के पीछे स्याह और सफेद सब ढक दिया जाता है। आवाज उठाने वाले को अदालत की अवमानना का दोषी करार देकर जलील किया जाता है और जेल भेज दिया जाता है। इस तरह लोकतंत्र का यह सबसे महत्वपूर्ण खंभा यानी न्यायपालिका भ्रष्टाचार की घुन से खोखला हो चुका है, फिर भी झूठे आडंबर से अपनी झूठी गरिमा को बचाए हुए है। जिसका खामियाजा इस देश की सौ करोड़ जनता को भुगतना पड़ रहा है।

सोचने वाली बात ये है कि न्यायपालिका का भ्रष्ट होना कोई सामान्य बात नहीं है, जिसकी उपेक्षा की जा सके। देश के सौ करोड़ लोगों को न्याय देने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर है अगर वे बेलगामहैं, ‘उनमें बीस फीसदी भ्रष्ट हैंतो यह बहुत ही खतरनाक स्थिति है। जरा सोचिए कि किसी औद्योगिक घराने पर पांच सौ करोड़ रुपये के उत्पादन शुल्क की देनदारी है। वह औद्योगिक घराना उच्च न्यायपालिका के बीस फीसदी भ्रष्ट न्यायाधीशों में से किसी एक के सामने अपना मामला लगवा लेता है और ऐसे न्यायाधीश को उसके विदेशी खाते में पचास करोड़ रुपये की घूस दे देता है तो माननीय न्यायमूर्ति महोदय निर्णय देते हैं कि दरअसल उस घराने से पांच सौ करोड़ नहीं मात्र सौ करोड़ रुपये वसूल किए जाएं। इस तरह वह औद्योगिक घराना साढे़ तीन सौ करोड़ रुपये का उत्पादन शुल्क देने से बच जाता है। अगर माननीय न्यायमूर्ति भ्रष्ट न होते और उस औद्योगिक घराने को पांच करोड़ ही देना पड़ते, तो उससे मिले चार सौ करोड़ रुपये से इस देश के चार सौ गांवों में रोशनी आ जाती या सड़क बन जाती। पर एक नहीं सैकड़ों उदाहरण हैं जब देश के उच्च पदों पर बैठे राजनेताओं और अफसरों को उनके बड़े-बड़े घोटालों के बावजूद सर्वोच्च अदालत तक ने बाइज्जत बरी कर दिया। यही कारण है कि भारत में उच्च पदों पर बैठे लोगों का भ्रष्टाचार शर्म की सारी सीमाएं लांघ चुका है, फिर भी पचास बरसों में आज तक किसी को सजा नहीं मिल पाई है। 

अगर न्यायमूर्ति खरे को अपनी स्थिति पर इतनी असहायता महसूस हो रही थी तो उन्होंने उसे अपनी सेवानिवृत्ति के दिन तक के लिए बचाकर क्यों रखा ? जाहिर है उनका यह अनुभव सेवा के आखिरी चैबीस घंटों में तो हुआ नहीं होगा ? काफी पहले से वह ये दर्द महसूस करते रहे होंगे, फिर क्या वजह है कि उन्होंने अपने इस अनुभव को देश की जनता, मीडिया और हुक्मरानों से पहले नहीं बांटा ? इस देश का यही दुर्भाग्य है कि चाहे वो कैबिनेट सचिव हों, सेनाध्यक्ष हो या सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, पूरे सेवाकाल में सत्ता का सुख भोगते है। हर तरह के समझौते करते है और अपने नीचे और ऊपर वालों के काले कारनामों को अनदेखा करते है या खुद भी उनमें हिस्सा लेते है, पर जब उनका वानप्रस्थ आश्रम शुरू होता है तो अचानक उन पर नैतिकता का भूत सवार हो जाता है। इन घडि़याली आंसुओं से किसी का भला नहीं होने वाला। न न्यायपालिका का और ना ही इस देश की जनता का। 

चुनाव संपन्न हो चुके हैं। परिणाम भी आ ही रहे हैं। सरकार भी बन ही जाएगी। इस पूरे दौर में राजनेताओं ने एक-दूसरे पर जमकर कीचड़ उछाली। अपनी कमीज को दूसरों की कमीज से ज्यादा सफेद बताया। पर कौन नहीं जानता कि आज राजनीति समाजसेवा का नहीं, भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुकी है। इस चुनावी व्यवस्था से चुनकर संसद में आने वाले देश को भ्रष्टाचार से मुक्त करने के लिए कितने गंभीर हैं, यह बताने की जरूरत नहीं। अगर वास्तव में हमारे सांसद समाज को इस रोग से मुक्त करना चाहते हैं तो उनके पास वे सारे अधिकार और ताकत है जिससे वे कानून में वांछित संशोधन करके जनता के प्रति अपनी और न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित कर सकते हैं। अदालत की अवमानना कानून में अगर सिर्फ इतनी सी बात जोड़ दी जाए कि किसी न्यायाधीश के निजी आचरण पर सबूत के साथ भ्रष्टाचार या अनैतिकता का आरोप लगाना अदालत की अवमानना नहीं माना जाएगा, तो न्यायपालिका में सुधार की बहुत बड़ी शुरुआत हो जाएगी। पर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के भ्रष्टाचार व अनैतिक आचरण के सप्रमाण घोटाले उजागर करने के दौरान मैंने अनुभव किया कि सांसद ऐसी पहल नहीं करना चाहते। उस दौर में मैं देश में विभिन्न दलों के पचास से ज्यादा सांसदों से मिला जिनमें से ज्यादातर राष्ट्रीय स्तर के बड़े नेता थे। सबने इस दुत्साहस की सराहना तो की पर यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि वे न्यायपालिका को नाराज नहीं करना चाहते क्योंकि वे स्वयं या उनके कार्यकर्ता तमाम तरह के आपराधिक मामलों में फंसे हैं। नाराज न्यायपालिका उनके राजनैतिक कैरियर में घातक हो सकती है। नतीजतन कुछ नहीं बदला। फिर न्यायमूर्ति खरे का विलाप किस काम का? जनता की यही नियति है।