Friday, October 22, 2004

कौन नहीं करता सेंसर

Punjab  kesari 22-10-2004
अनुपन खेर बड़े नाराज हैं। उन्हें बेआबरू करके सेंसर बोर्ड से बाहर कर दिया गया। उनका आरोप है कि सरकार ने बिना कारण उन्हें हटाया है ताकि अपनी मर्जी का आदमी सेंसर बोर्ड में बिठा सके। सेंसर बोर्ड हमेशा से विवादों के घेरे में रहा है। इसको बनाने का मकसद यह सुनिश्चित करना होता है कि समाज के हित के विरूद्ध कोई फिल्म जन प्रदर्शन के लिए न जाए। माना जाता है कि जिन फिल्मों में हिंसा या कामुकता दिखाई जाती है या जिनसे साम्प्रदायिक उन्माद फैलता हो या देश की सुरक्षा को खतरा पैदा होता हो या समाज के किसी वर्ग की भावनाओं को ठेस पहुंचती हो तो ऐसी फिल्मों को प्रदर्शन की अनुमति न दी जाए। क्या दिखाया जाए और क्या न दिखाया जाए इसका फैसला करने के लिए सेंसर बोर्ड में जिनको मन¨नीत किया जाता है आम तौर पर वे लोग कोई बहुत पहुंची हुई हस्ती नहीं होते बल्कि चमचे और चाटुकार होते हैं। इसलिए उनके फैसले व्यक्तिगत रागद्वेषों से प्रभावित होते हैं। जिस दौर में सेटैलाईट चैनलों का अवतरण नहीं हुआ था तब सेंसर बोर्ड का काफी महत्व होता था। अक्सर फिल्में बोर्ड के पास महीनों अटकी रहती थीं। पहुंच वाले या पैसा देने वाले अपनी फिल्में पास करा ले जाते थे।

सेंसर बोर्ड को हमेशा से सत्तारूढ़ दल ने अपने विरोधियों की कलाई मरोड़ने के लिए इस्तेमाल किया है। आपात काल में किस्सा कुर्सी का फिल्म को इसी तरह रोका गया। बाद में उस पर काफी विवाद हुआ। उन दिनों ऐसा लगता था मानो कांगे्रसी ही मीडिया की स्वतंत्रता का हनन करती है बाकी विपक्षी दल तो मीडिया की स्वतंत्रता के हामी है, खासकर भाजपा के नेता खुद को बहुत उदारवादी बताते थे। पर राजग की सरकार की छःह वर्षों में इस देश ने आपात काल से भी ज्यादा बुरी सेंसरशिप का नमूना देखा। पहले दिन से मीडिया को नियंत्रित करने की जालसाजी शुरू हो गई। साम, दाम, दण्ड भेद का इस्तेमाल करके भाजपा के नेताओं ने छःह वर्ष में हिन्दुस्तान में स्वत्रंत पत्रकारिता की रीढ़़़ तोड़ दी। वैसे भी संघ की मानसिकता के लोग अपनी आलोचना सुनना पसंद नहीं करते। गुजरात के दंगों के बाद श्री दीनानाथ मिश्र और श्री बलवीर पुंज ने पत्रकारों का एक सम्मेलन बुलाया और उसमें गुजरात की हिंसा को टेलीविजन पर दिखाने के लिए पत्रकारों को बुरा भला कहा। इत्तफाक से उस सम्मेलन में मैं भी मौजूद था मैंने याद दिलाया कि n के दौर में जब देश में स्वतंत्र हिन्दी टीवी पत्रकारिता के नाम पर केवल मेरे द्वारा निकाली जा रही वीडियो पत्रिका कालचक्रही चलन में थी और उसमें मैंने अयोध्या में कार सेवकों पर हुई हिंसा का सजीव चित्रण किया था तब भाजपा ने उस वीडियो कैसेट को गांव-गांव, गली-गली दिखाया था और इस तरह अपना जनाधार बढ़ाने का काम किया।  मैंने आयोजकों से प्रश्न किया कि तब टीवी पर हिंसा दिखाना आपके फायदे में था इसलिए आपने उसका समर्थन किया और आज घाटे में दीख रहा है तो आप विरोध कर रहे हैं।
1993 में जब कालचक्र वीडियो पत्रिका में जैन हवाला कांड का पर्दाफाश किया गया तो उस वीडियों को देखकर सेंसर बोर्ड में हड़कंप मच गया। सेंसर बोर्ड ने इस पर अपने निर्णय बार-बार बदले और अंत में कालचक्र के इस अंक को प्रतिबंधित कर दिया। उस समय केन्द्र में नरसिंह राव की सरकार थी। पर तब भाजपा या जनता दल समेत किसी ने इस प्रतिबंध का विरोध नहीं किया क्योंकि इन दलों के भी बड़े नेताओं के नाम हवाला कांड में शामिल थे। इसलिए ये भी नहीं चाहते थे कि कालचक्र का दसवां अंक देश की जनता तक पहुंचे। वो तो न्यायमूर्ति वी. लैंटिन ऐसे व्यक्ति थे कि उन्होंने अपने निर्णय से ये प्रतिबंध हटा दिया और सेंसर बोर्ड को इसके लिए काफी लताड़ा।

कहने को तो सेंसर बोर्ड एक स्वायत्त संस्था है। पर उसमें मन¨नीत सदस्य सत्तारूढ़ दल के चरण और भाट होंगे तो स्वयं ही वही करेंगे जो उनके आका चाहेंगे। यही कारण है कि सेंसर बोर्ड के वजूद के बावजूद ढेरो कूड़ा करकट विवेकहीन तरीके से देश की जनता को परोसा जा रहा है। हां, यह जरूरत है कि सेटैलाईट चैनलों के अचानक बड़ जाने से सेंसर बोर्ड की भूमिका अब काफी कम हो गई है। पहले चुम्बन के दृश्य पर ही फिल्म अटकी रहती थी पर अब कामोत्तेजक दृश्य खुले आम टीवी चैनलों पर दिखाए जाते हैं। समाचार वाले दुनिया के हर कोने में हो रही हिंसा का खुला प्रदर्शन करते है। राजनेताओं और आतंकियों के भड़काऊ बयान प्रसारित किए जाते है। बिल लादेन तक के बयान दुनिया को टीवी पर दिखाए गए। ऐसे माहौल में सेंसर बोर्ड की कोई खास अहमियत नहीं है। फिर भी माना ये जाता है कि अगर खुली छूट दे दी जाएगी तो स्थिति नियंत्रण के बाहर हो जाएगी। इसलिए अंकुश बना रहना जरूरी है। यदि यह बात है तो संेसर बोर्ड में गंभीर व्यक्तित्व वाले निष्पक्ष और समाज के प्रति जागरूक लोगों को ही भेजना चाहिए। उनके चयन की प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए। पर कोई भी सरकार इसे स्वीकार नहीं करेगी। कहा यही जाएगा कि सेंसर बोर्ड पूरी तरह स्वायत्त है पर बोर्ड वही करेगा जो उससेे कहा जाएगा। इसलिए श्री अनुपम खेर को उत्तेजित होने की कोई आवश्यकता नहीं है। जब भाजपा की सरकार थी तो अनुपम खेर की चांदी थी। अब सरकार नहीं रही तो उन्हें मौजूदा सरकार के हुकूमबरदारों के लिए रास्ता छोड़ देना चाहिए और भाजपा के सत्ता में लौटने की प्रतीक्षा करनी चाहिए।

वैसे कानून चाहे कितने भी बना लिए जाए। जब तक उन्हें लागू करने वाली एजेंसियां ईमानदारी से काम नहीं करेंगी तब तक कोई फायदा नहीं। पूरे देश के छोटे शहरों और गांवों में आज कल कामुक फिल्में खुलेआम धड़ल्ले से दिखाई जाती हैं। हर फिल्म के शुरू में सेंसर बोर्ड का प्रमाण पत्र भी दिखाया जाता है। पर फिल्म के दौरान एक दो रील वो चला दी जाती है जिसे दिखाने की अनुमति नहीं ली गई होती है। इसी रील में वह सब कुछ होता है जिसे देखने भारी भीड़ इन सिनेमा हालों में आती है। यह धंधा पुलिस और मनोरंजन कर विभाग की मिलीभगत से फलता-फूलता है। वैसे भी अगर कोई विरोध करना ही चाहे तो सरकार उसका क्या बिगाड़ लेगी। सेंसर बोर्ड के बावजूद अपनी फिल्में आतंकवादी या नक्सलवादी ही नहीं बांटते बल्कि भाजपा के नेता मदन लाल खुराना तक ने नई दिल्ली के पालिका बाजार में अयोध्या पर बनी डा0 जेके जैन की वीडियों फिल्म को सरेआम जारी किया था। पर दिल्ली पुलिस ने उनके खिलाफ कोई कारवाई नहीं की।

इन हालातों में सेंसर ब¨र्ड के औचित्य पर एक खुली बहस की आवश्यकता है। फरवरी 1990 में दिल्ली उच्च न्यायालय में वीडियो समाचारों पर सेंसर के विरोध में मैंने एक जनहित याचिका दायर की थी तब इस विषय पर सारे देश में खूब बहस चली। संपादकीय भी लिखे गए। पर वह मामला तब से अभी तक अदालत में लंबित है। प्र्रकाश झा की जयप्रकाश नारायण पर फिल्म को लेकर यह मामला फिर फोकस में है। इसका स्थायी समाधान निकाला ही जाना चाहिए। एक तरफ तो हम मुक्त बाजार और मुक्त आकाश की हिमायत करते हैं और दूसरी तरफ देश के फिल्मकारों सेंसर की कैंची से पकड़कर रखना चाहते हैं, यह कहां तक सही है ?

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