Sunday, October 21, 2007

कौन चाहता है कि पुलिस सुधरे ?

 Rajasthan Patrika  21-10-2007
नोएडा की श्रीमती नीमा गोयल आज संतोष के आंसू बहा रही हैं। दस वर्ष पहले दिल्ली के क्नाट प्लेस में पुलिस की फर्जी मुठभेड़ में निरअपराध मारे गए उनके युवा पति प्रदीप गोयल के हत्यारे, दिल्ली पुलिस के सहायक आयुक्त एसएस राठी सहित सभी 10 पुलिस कर्मियों को अदालत ने हत्या का दोषी करार दिया है। देशवासी प्रसन्न हैं कि आखिर दोषी पुलिस कर्मियों को सजा मिलेगी। मिलनी भी चाहिए। तभी तो इस तरह की अहमक हरकत करने वाले पुलिसकर्मी सुधरेंगे।

अक्सर आरोप लगते हैं कि पुलिस अमानवीय व्यवहार करती है। पुलिस थाने में बलात्कार करती है। पुलिस आधी रात में वर्दी में डकैती करती है। पुलिस लाचार लोगों की संपत्ति पर जबरन कब्जा करती है। पुलिस रिपोर्ट लिखने के लिए भी रिश्वत मांगती है। पुलिस जातिगत द्वेष की भावना से काम करती है। पुलिस सांप्रदायिकता से ग्रस्त है। पुलिस को आम आदमी रक्षक नहीं भक्षक मानता है। ऐसे ही आरोपों के इर्द-गिर्द देश के हर प्रांत की पुलिस से जुड़ी खबरें अक्सर आती रहती हैं। पर क्या कभी हमने जानने की कोशिश की कि पुलिस इतनी गैर-जिम्मेदार क्यों है ?
अजमेर की दरगाह शरीफ में आतंकवादी बम का विस्फोट होता है तो हम पुलिस पर लापरवाही का दोष लगाते हैं। अगर पुलिस मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे या चर्च कहीं भी घुसती हैं तो हमारी धार्मिक भावनाओं को ठेस लगती हैं। पुलिस को हम अपने धर्म स्थान में घुसने नहीं देंगे। उधर आतंकवादी नमाजी या भक्त बन कर घुस जाएंगे। फिर जब विस्फोट होगा तो हम इसे पुलिस की लापरवाही बताएंगे। योग्य उम्मीदवारों की उपेक्षा करके रिश्वत में मोटी रकम लेकर अगर सिपाहियों की भर्ती होगी तो हम कैसे उम्मीद करें कि वे अपने जीवन में धर्मराज युधिष्ठिर की तरह आचरण करेंगे ? यदि मुख्यमंत्री अपनी जाति के लोगों को थोक में पुलिस में भर्ती करेंगे तो कैसे इन पुलिस वालों से उम्मीद की जाए कि वे जातिगत द्वेष नहीं पालेंगे। जब पुलिसकर्मी अपनी आंखों से रातदिन देखते हैं कि अनेक बड़े नेता और मंत्री खुलेआम अपराधियों को प्राश्रय दे रहे हंै और स्वयं भी व्यभिचार में लिप्त हैं तो इन पुलिस वालों से सदाचरण की आशा कैसे की जा सकती है? जब पुलिस वाले देखते हैं कि अदालतांे में खुलेआम रिश्वत देकर अपराधी छूट जाते हैं तो उनसे कैसे उम्मीद की जाए कि वे जान जोखिम में डालकर अपराधियों को पकड़े ? वीआईपी सुरक्षा के नाम पर जब पुलिस का दुरूपयोग राजनेताआंे की झूठी शान बढाने में हो रहा हो तो वे कैसे जनता को सुरक्षा मुहैया कराएंगे? जब पुलिस के बड़े हाकिम लाटसाहबों की सी जिंदगी जीते हों और सिपाही को 24 घंटे पिलने के बाद भी दिवाली और ईद की छुट्टी बमुश्किल मिलती हों तो वो कैसे अपना मानसिक संतुलन कायम रख पाएगा ? जब थानों पर तैनाती पुलिस कप्तान को हर महीने मोटी थैली पहुंचाने की एवज में होती तो उस थाने का चार्ज लेकर दरोगा अपराध का ग्राफ कम क्यों करवाएगा ?

दरअसल भारत में पुलिस राज सत्ता के हाथ में जनता के दमन का औजार मात्र है। इसकी जवाबदेही जनता के प्रति नहीं केवल सरकार के प्रति है। दरसल भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 हमारे संविधान की मूल भावना के विरूद्ध है। भारत का संविधान भारत की जनता को सर्वोच्च मानता है। उसको ही समर्पित है। भारतीय गणराज्य की समस्त संस्थाएं जनता की सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। किंतु भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 में कहीं भी जनता शब्द का उल्लेख नहीं आता। 1857 के गदर के बाद जब ब्रितानी हुकूमत ने ईस्ट इंडिया कंपनी से हिंदुस्तान की बागडोर ली तो उसे ऐसे कानून की जरूरत थी जिसकी मदद से वह भारत की जनता का दमन कर सके। इसीलिए उसने यह कानून बनाया था। पर आश्चर्य की बात तो यह है कि 1947 में आजादी मिलने के बाद और 1950 में नए संविधान के लागू होने के बाद भी पुलिस अधिनियम में संशोधन नहीं किया गया।

1977 में जनता पार्टी की सरकार ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग बनाया। जिसमें तमाम अनुभवी पुलिस अधिकारियों को पुलिस सुधार का मसौदा बनाने का काम दिया गया। इस आयोग ने बड़ी मेहनत से काम किया। इसकी रिपोर्ट रोंगटे खडे़ कर देती है। जिसे पढने के बाद हर आदमी यह मान लेगा कि दोष पुलिस का नहीं हमारे राजतंत्र का है। इस रिपोर्ट में पुलिस व्यवस्था में आमूलचूल परिर्वतन की सिफारिश की गई है। संक्षेप में रिपोर्ट कहती है कि पुलिस की कार्यप्रणाली पर लगातार निगाह रखी जाए। पुलिस कर्मियों के प्रशिक्षण और काम की दशा पर संवेनदशीलता से ध्यान दिया। उनका दुरूपयोग रोका जाए। उन पर राजनीतिक नियंत्रण समाप्त किया जाए। उनकी जवाबदेही निर्धारित करने के कड़े मापदंड हों। पुलिस महानिदेशकों का चुनाव केवल राजनैतिक निर्णयों से प्रभावित न हो बल्कि उसमें न्यायपालिका व समाज के अन्य महत्वपूर्ण वर्गों का भी प्रतिनिधित्व हो। पुलिस वालांे के तबादलों की व्यवस्था पारदर्शी हो। उन पर निगरानी रखने के लिए स्वायत्त नागरिक समितियां गठित हांे। पर दुख की बात है कि पिछले 30 वर्षों से पुलिस आयोग की सिफारिशें धूल खा रही है। 1998 में महाराष्ट्र के मशहूर पुलिस अधिकारी श्री जेएफ रिबैरो की अध्यक्षता में पुलिस सुधारों का अध्ययन करने के लिए एक और समिति का गठन किया गया। जिसने मार्च 1999 में अपनी रिपोर्ट दे दी। वह भी धूल खा रही है। इसके बाद पद्मनाभैया समिति का गठन हुआ। पर रहे वही ढाक के तीन पात।

पुलिस व्यवस्था में क्या सुधार किया जाए ये तो इन समितियों की रिपोर्ट से साफ है पर लाख टके का सवाल यह है कि यह सुधार लागू कैसे हो ? यह कोई नहीं जानता। राजनैतिक इच्छाशक्ति के बिना ये हो नहीं सकता। सच्चाई यह है कि हर राजनैतिक दल पुलिस की मौजूदा व्यवस्था से पूरी तरह संतुष्ट हैं। क्योंकि पूरा पुलिस महकमा राजनेताओं की जागीर की तरह काम कर रहा है। इसलिए भारत के गृहमंत्री पुलिस महानिदेशकों की सालाना बैठकों में बडबोले ऐलान करते रहेंगे और जनता यूं ही पुलिस से प्रताडि़त होती रहेगी। अगर जनता चाहती है कि पुलिस का रवैया बदले और वे भक्षक की जगह रक्षक बने, तो उसे अपने क्षेत्र के सांसद को पकड़ना होगा। हर सांसद को जनता इस बात के लिए तैयार करे कि वह संसद में पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू करवाने का जोरदार अभियान चलाए। अगले आम चुनावों से पहले पूरे देश में इन सुधारों को लागू करने का महौल बनाया जाए। तभी कुछ बदलेगा। क्या हम ये करंेगे ?

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