Sunday, January 13, 2008

हम तो हैं परदेस देस में निकला होगा चांद

Rajasthan Patrika 13-01-2008
ढाई करोड़ भारतीय मूल के लोग दुनिया के 130 देशों में रहते हैं। इन सबको भारत से प्यार है। ठीक वैसे ही जैसे गांव से एक बेटा शहर पढ़ने और नौकरी करने चला जाता हैं। सफल हो जाता है। वहीं बस जाता है। पर अपनी माटी की सुगंध कभी भूल नहीं पाता। प्रवासी भारतीयों की कुछ अपेक्षाएं हैं। कुछ शिकायतें हैं। कुछ पर सरकार ने ध्यान दिया है और बाकी पर अभी ध्यान देने की जरूरत है। हर वर्ष 8 जनवरी को प्रवासी भारतीय दिवस मनाया जाता है। दुनिया भर से लगभग डेढ़ हजार प्रवासी भारतीय इसमें शिरकत करने आते हैं। इस वर्ष प्रधान मंत्री Mk¡ मनमोहन सिंह ने प्रवासी भारतियों को कुछ नई सुविधाएं देकर प्रसन्न किया पर ये नाकाफी है।

सबसे ज्यादा प्रवासी भारतीय मयनमार में रहते हैं। इसके बाद पचास लाख प्रवासी भारतीय खाड़ी के देशों में व बीस लाख अमरीका में रहते है। मलेशिया में रहने वाले प्रवासी भारतीयों में 80 फीसदी तमिल मूल के हैं। कैरेबियन देशों, केन्या, सूरीनाम और इंग्लैड में भी काफी प्रवासी भारतीय रहते हैं। मारीशस की तो आधी आबादी ही प्रवासी भारतीयों की है। कुल तीन तरह के लोग भारत से विदेश गए। एक तो वे जो सौ-डेढ़ सौ साल पहले मजदूर बनकर गए। दूसरे वे जो पढ़ने व नौकरी करने गए और तीसरे वे जो धनी थे और व्यापार करने गए। इनमें भी दो तरह के प्रवासी भारतीय हैं। एक वे जिन्होंने उन देशों की नागरिकता ले ली और दूसरे वे जो रहते तो विदेश में है पर हैं आज भी भारतीय नागरिक ही। जो धनी थे जैसे गुजराती और जिन्होंने विदेशों में जाकर और ज्यादा धन कमा लिया उन्हें ज्यादा दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ता। पर जिन्होंने वहीं रहकर पिछले दो दशकों में काफी धन कमाया है उनसे स्थानीय लोगों को खतरा महसूस होने लगा है। क्याकि इन प्रवासी भारतीयों ने सफलता के झंडे गाढ़ दिए है। इससे पश्चिमी जगत का यह भ्रम टूटा है कि भारतीय अनपढ़, आलसी और कम अक्ल होते हैं। प्रवासी भारतीयों की सफलता से स्थानीय लोगों को काफी ईष्या है। अमरीका के न्यूजर्सी इलाके में दो दशक पहले पनपे उद्दंड युवा समूह Mk¡ट बस्टर ने बिन्दी लगाने वाली भारतीय महिलाओं पर हमले किए। बिन्दी को उन्होंने Mk¡ट का नाम दिया। इसी तरह अंग्रेज आज तक औपनिवेशिक मानसिकता से भारत पकिस्तान और बांग्ला देश मूल के लोगों को पाकी कहकर उनपर फब्तियां कसते हैं। मलेशिया में तमिल मूल के पुराने वाशिन्दे तो हिल मिल कर रहते हैं पर मजदूरी करने पिछले वर्षों में वहां गए प्रवासी भारतीयों से स्थानीय लोग बुरा व्यवहार करते हैं।

फिर भी प्रवासी भारतीय अपने दम खम और कड़ी मेहनत के सहारे लगातार आगे बढ़ रहे हैं। वे भारत के विकास में अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार सहयोग करना चाहते है। जो इस्पात जगत के बादशाह लक्ष्मी मितल की तरह अरबों रूपए का विनियोग भारत में करना चाहते हैं वे केन्द्र सरकार स्तर पर तो अपने प्रगाढ़ सबंधों से लालफीताशाही से निपट लेते हैं। पर उनके मैनेजरों को वैसे ही दिक्कतें आती हैं जैसी दूसरे उद्यमियों को। अब हर वक्त तो वे लक्ष्मी मितल को खबर देंगे नहीं। पर इससे प्रवासी भारतीयों का मन खट्टा होता है और वे भारत की बजाय दूसरे देशों में विनियोग करने चले जाते हैं। जबकि दूसरी ओर चीन में कुल विदशी विनियोग का 70 फीसदी चीनी मूल के लोग ही कर रहे हैं। प्रवासी भारतीयों की इसी समस्या का हल निकालकर मौजूदा सरकार ने प्रवासी भारतीयों की समस्याओं से निपटने के लिए एक अलग मंत्रालय ही बना दिया है। छः महीने पहले ही भारत सरकार ने प्रवासी भारतीयों की समस्याओं का एक ही जगह निपटारा करने के लिए सिंगिलविंडो फैसिलिटेशन सेंटर की स्थापना की है। साथ ही प्रधान मंत्री ने इस वर्ष मशहूर व योग्य प्रवासी भारतीयों की सलाह लेने के लिए एक समिति भी बनाने की घोषणा की है। इसके पीछे भाव यह है कि हर प्रवासी भारतीय पैसे का ही निवेश नहीं करना चाहते बल्कि बहुत से प्रवासी भारतीय अपने ज्ञान ओर अनुभव को भारत से बांट कर भारत के विकास में सहयोग देना चाहते है। पर यहां की नौकरशाही और लालफीताशाही उन्हें थका देती हैं। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले वर्षों में सभी ढ़ाई करोड़ प्रवासी भारतीय भारत के विकास में अपनी यथाशक्ति भूमिका निभाने के लिए प्रेरित होंगे क्योंकि तब तक सरकार का रवैया और भी उदार हो चुका होगा।

सबसे बड़ी कमी प्रवासी भारतीयों में यह है कि वो भारत की लगभग हर व्यवस्था की पश्चिमी देशों से तुलना करते हैं और बिना कारण जाने अपनी सलाह देने लगते हैं। जबकि असलियत यह है कि प्रवासी भारतीय वे लोग हैं जिन्होंने इस देश को समझा नहीं और यहां की दिक्कतों से घबरा कर विदेश भाग गए। जबकि जिन मेधावी और योग्य लोगों ने यहीं रहकर परिस्थति का सामना किया वे इस देश के मिजाज को बेहतर जानते हैं और इसलिए छोटी छोटी बातों पर उतेजित नहीं होते उनका सामना करते हैं और विषम परिस्थति में मैदान छोड़कर नहीं भागते। इसलिए उन्हें प्रवासी भारतीयों के उपदेश अच्छे नहीं लगते। पर अब समय बदल रहा है। उदारीकरण और वैश्वीकरण के दौर में दूरियां घट रहीं है। इसलिए आर्थिक जरूरत के मुताबिक जो आज प्रवासी है वे कल फिर से भारतीय हो जाएंगे और जिन्होंने आज तक भारत की भौगोलिक सीमा नहीं लांघी थी वे अब विदेशों में कारखाने लगा रहे हैं। जो भी हो प्रवासी भारतीय हमारे ही परिवार के अंग हैं उन्हें भारत के विकास में योगदान करने का पूरा हक है। सरकार को चाहिए कि उनके रास्ते के रोड़ों को दूर करें। पर यर्थाथ यह है कि जब सरकार देश के एक सौ दस करोड़ लोगों की बुनियादी जरूरते भी पूरी नहीं कर पाती तो वह प्रवासी भारतीयों को शेष देश की दशा से अलग हट कर विशिष्ट सुविधाएं कैसे दे सकती है। हर वर्ष जनवरी के दूसरे सप्ताह में प्रवासी भारतीय दिवस एक पर्व के रूप में मनाकर समाप्त हो जाता है। इससे ठोस कुछ निकलना चाहिए।

No comments:

Post a Comment