Sunday, April 20, 2008

खुदा के लिए कुरान को समझो

Rajasthan Patrika 20-04-2008
पुरानी कहावत है कि ’अति सर्वत्र वर्जते यानी किसी भी चीज का ’हद से गुजर जाना है दवा हो जाना’। आंसमय से फिरकापरस्ती के खिलाफ इस्लाम के दीनी लोग ही खुलकर आवाज उठाने लगे हैं। जब से न्यूयार्क के वल्र्ड ट्रेड सेंटर की इमारतें आतंकवादियोंतकवाद जिस तेजी से पूरी दुनिया में फैला उससे गैर मुस्लिम ही नहीं इस्लाम के मानने वाले भी परेशान हो गए। इसलिए पिछले कुछ के हवाई हमले का शिकार हुई हैं तब से पूरी दुनिया के लोग इस्लाम को मानने वालों को शक की नजर से देखने लगे हैं। पर गेहूं के साथ अक्सर घुन भी पिसता है। ऐसा नहीं है कि इस्लाम को मानने वाले सभी लोग फिरकापरस्त हैं, जेहादी हंै या आतंकवादी हैं। हकीकत यह है कि ज्यादातर मुसलमान अमन चैन और तरक्की चाहते हैं। वे आतंकवाद के सख्त खिलाफ हैं। पर आतंकवादियों और कठ्मुल्लों के डर के कारण चुप रह जाते हैं। खुलकर विरोध नहीं करते। इस रवैए में पिछले कुछ महीनों में तेजी से बदलाव आया है। मुस्लिम समाज के अलग-अलग वर्गों के लोग अब आतंकवाद के खिलाफ खुलकर बोलने लगे हैं।

पूरी दुनिया के मौलवियों को दीनी तालीम देने के लिए मशहूर जमीयत उलेमा-ए-हिंद, देवबंद में पिछले दिनों दुनियाभर के मौलवियों का एक सम्मेलन हुआ। आपसी रजामंदी के बाद इस्लामवेत्ताओं ने एक अंतर्राष्ट्रीय फतवा जारी किया। जिसमें आतंकवाद की कड़े शब्दों में आलोचना की गई और यह कहा गया कि आतंकवाद इस्लाम का विरोधी है। यह भी कहा गया कि कुरान पाक आतंकवाद की इजाजत नहीं देती। इस फतवे के माध्यम से दुनियाभर के मुसलमानों को आतंकवाद का विरोध करने का आदेश दिया गया। यह एक ऐतिहासिक घटना थी जिसे पूरी दुनिया के मीडिया ने प्रचारित किया।

इसी क्रम में और भी कई तरह के प्रयास इस्लाम को मानने वालों ने हाल के दिनों में किए हैं। जिससे आतंकवाद को हतोत्साहित किया जा सके। पर पिछले दिनों भारत में आई पहली अधिकृत पाकिस्तानी फिल्म ’खुदा के लिए’ ने तो कमाल ही कर दिया। पाकिस्तान में बनी इस फिल्म ने पूरी दुनिया के मुसलमानों को फिरकापरिस्ती का घिनौना चेहरा उघाड़ कर दिखा दिया है।

इस फिल्म की खासियत यह है कि कट्टरपंथी जिन-जिन बातों पर युवाओं को बरगलाते हैं, उनका दिमाग काबू में कर लेते हैं और उन्हें फिदाईन बना देते हैं उन सभी बातों को कुरान शरीफ की ही आयतों की मार्फत इतनी खूबसूरती और तर्क के साथ काट कर रखा गया है कि कट्टरपंथी बेनकाब हो जाते है। फिल्म में दिखाई गई सैद्धांतिक तकरार अगर कोई गैर मजहबी फिल्म निर्माता दिखाता या गैर मजहबी कलाकारों के माध्यम से रखी जाती तो शायद अब तक बबेला मच जाता। पर ये फिल्म पाकिस्तान में बनी है और इसको बनाने वाले और इसमें भूमिका अदा करने वाले सभी किरदार मुसलमान है इसलिए विरोध की गुंजाइश नहीं बचती। इसकी सबसे प्रभावशाली बात तो यह है कि इस फिल्म में मौलवियों की टक्कर मौलवियों से ही करवायी गई है और हर सवाल का जवाब तर्का से और कुरान की आयातों से इस तरह दिया गया है कि कठ्मुल्ले खुद ही बगले झांक रहे हैं। आश्चर्य की बात यह है कि आमतौर पर फिरकापरस्त माने जाने वाले पाकिस्तान में यह फिल्म बेहद लोकप्रिय हो रही है। साफ जाहिर है कि पाकिस्तान की जनता कठ्मुल्लों के कारनामों से आजि़ज आ गई है और खुली हवा में सांस लेना चाहती है। वरना यह फिल्म पाकिस्तान में चलने नहीं दी जाती।

भारत की निरीह जनता अर्से से आतंकवाद का शिकार हो रही है। भारत के सूचना तकनीकि केन्द्र बंगलूर से लेकर कश्मीर की घाटी तक कितने ही पढ़े लिखे मुसलमान नौजवान कठ्मुल्लों के जाल में फंसकर बर्बाद हो रहे हैं। ऐसे में यह फिल्म महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। भारत में बनी मिशन कश्मीर, फिज़ा, ब्लैक एंड व्हाइट, रोज़ा, बोम्बे, दिल से जैसी फिल्में भी इसी मकसद से बनाई गईं थीं। जिनमें आतंकवाद का अमानवीय पक्ष और दोनों मजहबों की इंसानियत की मिसालें पेश की गईं। पर ‘खुदा के लिए’ फिल्म में जो कोशिश की गई है वह सबसे अलग और ज्यादा प्रभावी है। भारत सरकार को इस फिल्म को मनोरंजन कर से मुक्त करके दूरदर्शन व दूसरे टीवी चैनलों पर भी इसका प्रसारण करवाना चाहिए। इससे समाज में जागृति फैलेगी।

वैसे सरकार कोई निर्णय ले या न ले देश की जनता खुद ही इस फिल्म को देखेगी जरूर। जिसका अच्छा असर समाज पर पड़ेगा। दरअसल फिरकापरस्ती या धर्मान्धता किसी भी धर्म की क्यों न हो घातक ही होती है। जो धर्मगुरू नफरत, हिंसा और दूसरों को सताने या दुख पहुंचाने की सलाह देते हैं वे धर्म के व्यापारी तो हो सकते हैं पर आध्यात्मिक या रूहानी नहीं। हमेशा से ऐसे ही धर्मगुरूओं ने समाज में वैमनस्य के बीज बोए हैं। भोली भाली जनता को ठग कर ये लोग समाज को गुमराह करते हैं। समझदार लोग इनकी असलियत देख सुनकर भी खामोश रह जाते हैं। इनके आगे बोलने या इनकी बात काटने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। नतीजतन समाज अंधेरी सुरंग में अनजाने ही धकेल दिया जाता है। जैसा मुस्लिम समाज के साथ अर्से से हो रहा है। ’खुदा के लिए’ फिल्म के निर्माता ने बहुत बहादुरी का काम किया है। हर मजहब के खोखलेपन को उजागर करने के लिए ऐसी बहादुरी समय-समय पर फिल्म निर्माताओं को दिखानी चाहिए। तभी फिल्म उद्योग जनता का हित कर पाएगा। वैसे भी फिल्म का माध्यम संदेश देने के लिए बहुत सशक्त तरीका है। जिसका अगर सही उपयोग हो तो समाज और देश को बहुत लाभ मिल सकता है।

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