Sunday, May 25, 2008

पुलिस का निकम्मापन

Rajasthan Patrika 25-05-2008
नोएडा के आरूषि हत्या कांड की जांच में उत्तर प्रदेश पुलिस ने जिस तरह की गलतियां की हैं उन्हें लापरवाही नही माना जा सकता। साफ लगता है कि शुरूआती जांच में पुलिस ने हत्यारों को बचाने की कोशिश की। अखबारों में और टीवी चैनलों पर अनेक तथ्य सामने आ चुके हैं जिनसे इस आरोप की पुष्टि होती है। नोएडा के थानेदार ने आरूषि के कमरे में दीवार पर लगे खून के निशान और उसके सिर के बाल का नमूना क्यों नहीं लिया। आरूषि के माता पिता के असमान्य व्यवहार पर पुलिस ने कोई जांच क्यों नहीं की। पुलिस ने आरूषि का पोस्टमार्टम परंपरा से हटकर जल्दीबाजी में क्यों करवाया। जांच टीम ने घटना स्थल से ऊपर जा रहे जीने की रेलिंग पर और छत के दरवाजे पर लगे खून के निशान क्यों नहीं देखे। ऐसे तमाम कारण है जो ये सिद्ध करते हैं कि पुलिस ने जांच के नाम पर नाटक किया।

ऐसा पहली बार नही हुआ। निठारी कांड ने भी उ. प्र. पुलिस की ऐसी ही मिली भगत सामने आयी थी। आमतौर पर महत्वपूर्ण लोगों या पैसे वाले लोगों से जुड़े अपराधों में उप्र.पुलिस अक्सर अपराधियों को संरक्षण देने का काम करती आयी है। लखनऊ में मशहूरबैडमिंटन खिलाड़ी सैयद मोदी की हत्या की जांच में भी इसी तरह पुलिस ने सबूतों को मिटाने का काम किया। अपराधियों की स्वाकारोक्ति के बाद भी उन्हें सजा नहीं मिल
पायी। क्योंकि उनके विरुद्ध सबूतों को पुलिस ने ही गायब कर दिया था।

फूलन देवी की हत्या दिल्ली के पौश इलाके अशोक रोड स्थित अपनी कोठी के पास हुई। फूलन देवी के सुरक्षा गार्डों ने न तो उसे बचाने की कोशिश की और न हीं हत्यारों को पकड़ने की। दिल्ली पुलिस के आला अधिकारी दावा करते हैं कि दिल्ली में सुरक्षा के तीन अभेद घेरे हैं। कोई अपराधी अगर अपराध करके भागता है तो उसे इन घेरों में तुरंत पकड़ा जा सकता है। फिर क्या वजह थी कि फूलन देवी के हत्यारे इन तीनों सुरक्षा घेरों को आसानी से पार करके दिल्ली की सरहदों के बाहर निकल गये। इतना ही काफी नही था जब हत्यारे को पश्चिमी उ. प्र. से पकड़ कर लाया गया और ऐशिया की सबसे बड़ी और सुरक्षित मानी जाने वाली तिहाड़ जेल में कैद करके रखा गया तो आश्चर्य देखिए कि हत्यारे के मित्र फर्जी वारंट दिखाकर उसे तिहाड़ जेल से छुड़ा ले गये।

जैन हवाला कांड में 1991 में सीबीआई ने छापा डाला और मार्च 1995 तक जैन बंधु स्वतंत्र घूमते रहे। जनहित याचिका की सुनवायी के दौरान जब सीबीआई ने सर्वोच्च अदालत में झूठा शपथ पत्र दाखिल किया कि जैन बंधु फरार है और उनको ढ़ूंढने के लिए नोटिस चस्पा किये गये हैं तो जनहित याचिकाकर्ता ने अदालत को दिल्ली के प्रतिष्ठित अंगे्रजी दैनिक के पहले पेज पर छपी एक प्रमुख खबर दिखाई जिसमें लिखा था कि गत सप्ताह जैन बंधुओं ने अपने फार्म हाऊस पर एक शानदार दावत की जिसमे कई नामी हस्तियां मौजूद थीं। ये कैसे हो सकता है कि खुलेआम शानदार दावतें देने वाले व्यक्ति को ढूंढने में सीबीआई तो नाकाम रही और पत्रकारों को उनके क्रिया कलापों की जानकारी सहजता से उपलब्ध थी। साफ जाहिर है कि सीबीआई ने इस कांड में ऐसी ही तमाम साजिशें करके अपराधियों को निकल भागने के दर्जनों मौके दिये। जिनका प्रमाण सर्वोच्च न्यायालय की केस फाइल में दर्ज है। ठीक ऐसे ही बोफोर्स से लेकर स्टैंप घोटाले तक की जांच में होता आया है।

उत्तर पूर्वी राज्य के एक बड़े नेता के सपूत ने एक शिक्षक की बेटी के साथ बलात्कार करउसे झील में फेंक दिया। उसे डूब कर मरा बता दिया गया। जब विरोधी दलों ने शोर मचाया तो जांच सीबीआई को सौंपी गयी। मजे की बात यह है कि इस हत्या की जांच भी हो गयी। पर उस अभागी लड़की के विसरा के नमूनों की सील तक नहीं टूटी। यानी बिना कीकात के रिपोर्ट बना दी गयी। ये सपूत सबूत के अभाव में बरी हो गया। सारे देश में खोजने चले तो ऐसे हजारों उदाहरण मिलेगें जहां पुलिस जांच में जानबूझ कर निकम्मापन करती हैं। ज्यादातर मामले न तो प्रकाश में आते हैं और न ही मीडिया की उन पर नजर पड़ती है।

दरअसल राज्यों की पुलिस का बहुत तेजी से राजनैतिककरण हुआ है। आज उत्तर प्रदेश में ऊपर से नीचे तक पुलिस राजनैतिक दलों के बीच बट गयी है। कम्प्यूटर में बाकायदा बसपा व सपा से जुड़े पुलिस अधिकारियों और सिपाहियों की सूचियां दर्ज हैं। जिन्हें ध्यान में रखकर ही उनकी तैनाती की जाती है। ऐसे मे पुलिस से सही और निष्पक्ष जांच की उम्मीद करना मूर्खता होगी।

आज पुलिस व्यवस्था का राजनैतिककरण समाज के लिए बहुत घातक होता जा रहा है। इसे रोकने के ठोस प्रयास किये जाने चाहिए। ऐसे दर्जनों सुझाव है जिन पर अमल किया जा सकता है। बशर्तें कि राज्यों के मुख्यमंत्री और केन्द्र की सरकार पुलिस व्यवस्था में सुधार कर इसे प्रभावशाली, निष्पक्ष और जनउपयोगी बनाना चाहें। जरूरत इस बात की है कि सर्वोच्च न्यायालय और प्रांतों के उच्च न्यायालयों के अधीन आपराधिक जांच के लिए योग्य पुलिसकर्मियों की इकाइयां गठित की जायें। जो अदालत के निर्देश पर निडर होकर जांच करें। उन्हें सत्तारूढ़ दलों की नाराजगी का डर न हों। ये ऐजेंसियां महत्वपूर्ण मामलों की समयबद्ध जांच करें और निडर होकर अपनी जांच अदालत को सौंप दें। तभी अपराधी पकड़े जाऐंगे। वरना अपराधी ही नहीं आतंकवादी भी छूटते रहेंगे और जनता तबाह होती रहेगी क्यों आज तो हमारी पुलिस काफी निकम्मी हो चुकी है। एक शेर माकूल रहेगा- रात का अंदेशा था, लुट गए उजाले में।


Sunday, May 18, 2008

बयानों से नहीं रुकेगा आतंकवाद

Rajasthan Patrika 18-05-2008
  जयपुर की तरह देश में जब कभी जेहादी हिंसा होती है तो जांच के बाद यही हकीकत सामने आती है कि इन जेहादियों को आर्थिक मदद बाहर के मुल्कों से मिलती है। मदद की ये रकम हवाला के जरिए हिन्दुस्तान की सरहदों के भीतर पहुंचती है। जह इसका बंटवारा जेहादियों, राजनेताओं और आलाअफसरों के बीच होता है। इस कारोबार में मध्यमवर्गीय व्यापारी से लेकर बड़े उद्योगपतियों तक शामिल होते है। इसलिए कभी कोई जांच अपराध की जड़ तक नहीं पहुंचती। जो पकड़े जाते हैं वो हवाला कारोबार के प्यादे भर होते है। शह और मात का खेल खेलने वाले बड़े खिलाड़ी कभी बेनकाब नही होते। इसलिए इन प्यादों को भी बेफिक्री होती है कि मारे गए तो जन्नत मिलेगी और अगर पकड़े गये तो कुछ समय के कानूनी झंझट के बाद मुक्ति मिल जाएगी। इसलिए ये बेखौफ इस खेल में कूद पड़ते हैं। पर हमारी सरकारों को क्या हो गया है। भारत के हजारों लाखों लोग जेहादी हमलks में मारे जा चुके हैं। अरबों रूपये की संपत्ति तबाह हो चुकी है। पर सरकार और उसकी खुफिया जांच ऐजेंसियां असली मुल्जिमों को आज तक पकड़ नही पायी। क्या ये ऐजेंसियां नाकाबिल है या इन्हें जानबूझ कर पंगु बना दिया गया है।
एक विश्वसनीय सूचना के अनुसार मुंबई पुलिस ने देश में तेजी से आ रहे नकली नोटों के एक बड़े कांड की जांच की तो हैरत में आ गई। क्योंकि पता ये चला कि लाखों करोड़ रुपए के नकली नोट देश में लाने के इस कारोबार में महाराष्ट्र के एक प्रभावशाली नेता का हाथ है। विश्वस्त सूत्रों के अनुसार जब इस नेता के खिलाफ कारवाही करने की मांग शासन में बैठे आला हाकिमों के पास पहुंची तो फाइल पर लिख दिया गया एनएफए यानी आगे कोई कारवाही न की जाए। इससे ज्यादा खतरनाक बात क्या हो सकती है कि कोई बाहरी ताकत देश में जेहादी खून खराबा करवाने के लिए मोटी रकम और नकली नोट छापकर भेज रही है और सरकार उसकी जांच भी नहीं करवाना चाहती। यह पहली बार नहीं हुआ। 1993 में उजागर हुए जैन हवाला कांड से लेकर आज तक जेहादियों और हवाला कारोबारियों को पकड़ने के सारे प्रयास खोखले और नाटकीय ही सिद्ध हुए है। कोई हुक्मरान नहीं चाहता कि हवाला कारोबारी पकड़े जाएं और उस आग में वो भी झुलस जाएं। इसलिए हवाला कारोबार भी पनपता है, हुक्मरान भी पनपते हैं और आतंकवाद भी। मारा जाता है तो आम इंसान चाहे वो अहमदाबाद के श्री स्वामीनारायण मंदिर में मारा जाए, या बनारस के संकट मोचन मंदिर में या जयपुर के हनुमान मंदिर में।
नकली नोटों के कारोबार ने और हवाला कारोबारियों ने हिन्दुस्थान की अर्थव्यवस्था में घुन लगा दिया है। अंदर ही अंदर ये खोखली होती जा रही है। पर किसी को चिंता नहीं। इसका सबसे ज्यादा असर आम आदमी की जिंदगी पर पड़ रहा है। नकली नोटों ने झूठी मांग पैदा कर दी है। एक उदाहरण काफी होगा। एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति जीवन भर की बचत का 10-12 लाख रूपया लेकर अपने लिए एक आशियाना खरीदने जाता है तो पता चलता है कि कोई दूसरा ड्योढ़ी कीमत देकर उसे हाथों-हाथ खरीद ले गया। आज देश में अचल संपत्ति के तेजी से बढ़ते दामों के पीछे यही अवैध कारोबार है। खुफिया ऐजेंसियों के स्रोत बताते हैं कि जेहादी और देशद्रोही ऐसे अवैध धन से देशभर में तेजी से अचल संपत्तियां खरीद रहे हैं। यदि जांच ऐजेंसियां चाहें तो इस तथ्य की पुष्टि भी आसानी से हो सकती है। अगर आयकर ऐजेंसियां धर पकड़ करना चाहें तो भी कोई मुश्किल नहीं आएगी। पर ऐसे कदम उठाकर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधें।
एक के बाद एक गृहमंत्री आतंकवाद के बारे में श्वेत पत्र लाने की घोषणायें करता आया है। पर यह श्वेत पत्र आज तक जारी नहीं हुआ। संसद में हर मुद्दे पर बहस होती है। शोर मचता है। पर हवाला कांडों की जांच की मांग कोई दल नहीं करता, कम्युनिस्ट भी नहीं। साफ जाहिर है कि हवाला के पैसों से अपनी राजनीति और कारोबार चलाने वाले ये बड़े नेता क्यों ऐसा आत्मघाती कदम उठायेंगे ? इसलिए जयपुर में कितना ही बड़ा हत्या का तांडव क्यों न मचा हो। कितने ही घर बर्बाद हुए हो। कितने ही बड़े नेताओं ने आकर भावावेशपूर्ण बयान क्यों न जारी किए हों पर बदलेगा कुछ नहीं। फिर कहीं ऐसे ही बम फटेंगे। ऐसे ही निरीह लोग मरेंगे। ऐसे ही मीडिया दर्दनाक दृश्य दिखायेगा और ऐसे ही आरोपों प्रत्यारोपों की बौछार होगी। पर कुछ नहीं होगा। क्योंकि कोई बदलना ही नहीं चाहता।
अगर सब राजनैतिक दल ईमानदारी से आतंकवाद का मुकाबला करना चाहते हैं तो उन्हें तीन काम करने होंगे। पहला: सीबीआई के कब्रगाह में दफन हवाला संबंधी सभी केसों की ईमानदार और तेज जांच की मांग करना। दूसरा: आतंकवादियों को खत्म करने के लिए मध्ययुगीन कानूनों को लागू करना। जैसे कुरान शरीफ में बताए गए हैं। हिंसा करने वाले को कोई मुरव्वत नहीं। तीसरा: जेहादियों को पनाह देने वाले शहरों और मुहल्लों में सेना से सघन तलाशी अभियान चलवाना। जिससे अवैध जखीरा बाहर आ सके। जो राजनेता ये करने को राजी है और दबी जबान से नहीं बल्कि सिंह गर्जन के साथ ये मांग देश के आगे रखता है वही सच्चे मायनों में जनता का हमदर्द है और जनता को आतंकवाद से राहत दिला सकता है। दूसरा कोई नहीं। जनता को अपने विधायकों और सांसदों पर दबाव बना कर ऐसा करने की मांग करनी चाहिए।

Friday, May 16, 2008

क्या बताना चाहते हैं राहुल गांधी ?

राहुल गांधी देश के पिछड़े इलाकों में दौरे करके आम आदमी की बदहाली का जायजा ले रहे हैं। इससे पहले सभी दलों के युवा सांसदों ने भी ऐसी ही एक साझी कोशिश की थी। ये युवा सांसद हैरान है कि सरकार की तमाम नीतियां गरीबों के हक में होने के बावजूद जमीनी हकीकत इतनी हृदयविदारक क्यों हैं ? ये बात दूसरी है कि इनमें से सभी बहुत सफल, संपन्न और दीर्घ काल तक सत्ता में रहे राजनेताओं के साहबजादे और साहेबजादियां हैं। आश्चर्य की बात यह है कि जो बात इस देश के साधारण स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे भी जानते हैं, उस बात को जानने के लिए विदेशों में पढ़े इन युवा सांसदों को इतनी कवायद करने की क्या जरूरत है ? खुद राहुल गांधी के पिता और पूर्व प्रधानमंत्री यह स्वीकार चुके हैं कि रूपए में 14 पैसे भी आम आदमी तक नहीं पहुंचते। नोबल पुरास्कार विजेता भारतीय मूल के अर्थशास्त्री डा. अमत्र्यसेन भी यही मानते हैं कि भारत में गरीबी का कारण भ्रष्टाचार है। इसलिए देश की गरीबी, बेरोजगारी और बदहाली पर आंसू बहाने की बजाए इन युवा सांसदों को प्रशासनिक भ्रष्टाचार के विरूद्ध मोर्चा खोलना चाहिए। क्योंकि गरीबी और बेरोजगारी का कारण है भ्रष्टाचार।

विकास की नीतियां बनाने वालों का जमीन से कोई मतलब नहीं होता। ये नीतियां राजनैतिक फायदे के लिए ज्यादा और आम आदमी को राहत पहंुचाने के लिए कम होती हैं। दूसरी तरफ नीतियां लागू करने वाली राज्य सरकारें और उसकी मशीनरी का मकसद हर योजना के आवंटन का अधिकतम पैसा अपनी जेब में पहुंचाना होता है। इसलिए कोई भी राजनैतिक दल इस बुनियादी समस्या पर चोट नहीं करता। क्योंकि हमाम में सब नंगे हैं। राजनैतिक लाभ के लिए भ्रष्टाचार पर केवल शोर मचाने का नाटक किया जाता है। वैसे भी हर आदमी दूसरे पर ही अंगुली उठाता है और खुद के दामन के दागों को छुपाता हैं। इसमें कोई अपवाद नहीं। यहां तक कि देश की सर्वोच्च न्यापालिका भी नैतिकता के मामले में दोहरे मानदंडों का समर्थन कर रही है। सूचना के अधिकार के दायरे में लाए जाने से न्यायपालिका खुश नहीं है। जबकि न्यायपालिका में फैले भ्रष्टाचार से निपटने का कोई तरीका आज उपलब्ध नहीं है। फिर भी न्यायपालिका न तो अपने ऊपर अंकुश चाहती है और ना ही जवाबदेही।

जबसे संसद की सलाहकार समिति ने न्यायपालिका को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लेने की सिफारिश की है तब से भारत के मुख्य न्यायाधीश काफी उखड़े हुए हैं। उनका कहना है कि वे संवैधानिक पद पर हैं और संवैधानिक पदों को ऐसे कानून के दायरे में नहीं लिया जा सकता। जबकि लगभग सभी सांसदों और सभी राजनैतिक दलों का मानना है कि न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित होनी चाहिए। लोकतंत्र के चार खम्बों में से एक है न्यायपालिका। जो किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। बाकी तीन खम्बें हैं कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया। कार्यपालिका की जवाबदेही विधायिका के प्रति होती है और विधायिका की जनता के प्रति और मीडिया की जवाबदेही उसके पाठकों के प्रति होती है। आदर्श स्थिति में ये चारों अंग एक-दूसरें के पूरक और एक दूसरे पर निगाह रखने का काम करें तो लोकतंत्र सुदृढ़ होता है। संविधान के निर्माताओं ने न्यायाधीशों को बाकी तीन अंगों के प्रति जवाबदेह न बना कर न्यायपालिका की गरिमा को स्थापित किया था। पर आज वह गरिमा न्यायपालिका के आचरण से ही टूट रही है। इसलिए देश में यह मांग उठ रही है। न्यायपालिका का आचरण अगर पारदर्शी नहीं होगा तो गरीब को उसका हक कैसे मिलेगा ?

जहां तक सरकार की नीतियों के क्रियान्वयन का प्रश्न है तो उसका एक दूसरा प्रभावी तरीका हो सकता है कि इन योजनाओं को लागू करने में समाज सेवी और जागरूक लोगों व प्रतिष्ठित स्वयं सेवी संस्थाओं की मदद ली जाए। क्यांेकि ये लोग सेवाभावना से, निष्ठा से और कम खर्चीले तरीके से काम करने के आदी होती है। मुश्किल इस बात की है कि सच्चे और अच्छे लोगों और संस्थाओं को ऐसे कार्यक्रमों में शामिल नहीं किया जाता। एन.जी.ओ. के नाम पर भी आला अफसरों और नेताओं के घरों की महिलाएं और बच्चे संगठन बना लेते हैं और योजनाओं का करोड़ो रूपया डकार जाते हैं। इसलिए देश के गरीब और आदिवासी बदहाल हैं।

कैसी विडंबना है कि सरकार के पास देश की बदहाली दूर करने के लिए हजारों करोड रूपया है। सैकड़ों योजनाएं हैं। लाखों कर्मचारी हैं। पर जमीनी हालत नहीं बदलती। एक तरफ हम विकास की दौड़ में तेजी से बढ़ना चाहते है और दूसरी तरफ हम अपनी बदहाली के कारणों को देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। इसीलिए कुछ नहीं बदलता। हर नया नेता, नए सपने दिखाकर मतदाताओं को लुभाना चाहता है। राहुल गांधी भी ऐसे ही सपने दिखा रहे हैं। लोग सब समझते हैं। फिर भी कुछ कर नहीं पाते। क्योंकि उनके पास कोई विकल्प है ही नहीं। हां इतना बदलाव जरूर आया है कि अब मतदाताओं को आसानी से ठगा नहीं जा सकता। ठोस काम करने वाला मतदाता की निगाह में चढ़ता जरूर है। इसलिए राहुल गांधी को भी कुछ ठोस कार्यक्रम बनाने चाहिए। जिनसे देश में बदलाव आए। अभी उनके पास काफी वक्त है। वे जोखिम उठा सकते हैं। इसलिए जनता की बदहाली पर आंसू बहाने से बेहतर हो कि वे स्थायी बदलाव की कोशिश करें।

Sunday, May 11, 2008

जार्ज बुश अपने गिरेबाँ में झांके


Rajasthan Patrika 11-05-2008
अमेरिकी राष्ट्रपति जा¡र्ज बुश और उनसे पहले कोनडोलीजा राइस ने दुनिया भर में खाद्य पदार्थों की कमी का कारण भले ही भारत के मध्यम वर्ग की संपन्नता को बताया है पर सच यह है कि दुनिया भर में अनाज का उत्पादन 1997-99 में 357 किलाग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष से घटकर 2005-07 में 317 किलोग्राम रह गया था। जिसके लिए भारत जिम्मेदार नहीं है। इसके कई कारण और हैं।  अगर हम फिलहाल इसकी चर्चा न करें और यह जानने की कोशिश करें कि अनाज उत्पादन बढ़ाने को प्रोत्साहन देने वाला कोई कारण है क्या ? तो हमें कोई ठोस कारण नजर नहीं आता है। खाद्य पदार्थें का उत्पादन बढ़ाने के पक्ष में बस एक ही कारण है - बढ़ती कीमत। पर इससे किसानों को कितना फायदा मिलेगा तथा इस पर कितना भरोसा किया जा सकता है यह जांच का विषय है।

यहां हम जा¡र्ज बुश के बयान की बात करें तो सीधा सा जवाब है कि अगर आज  भारतीय ज्यादा खा रहे हैं तो पैदा भी ज्यादा कर रहे हैं। खाद्य संकट दुनिया भर में है और इसे दुनिया के स्तर पर ही देखना होगा। जहा¡ तक भारत की बात है खाद्य पदार्थों के मामले में आत्मनिर्भर है और मौजूदा संमस्या से भी वह अपने स्तर पर निपट लेगा। सच तो यह है कि 25 अप्रैल को समाप्त हुए सप्ताह के दौरान खाद्य तेलों की कीमत कम हुई है। जबकि चावल, गेहूं, आटा, तूर दाल और आलू की कीमत महीने भर से स्थिर है। दिल्ली में सरसों के तेल की कीमत 73 रूप्ए से घटकर 71 रूपए रह गई है। सरकार का दावा है कि कीमतें अभी और कम होंगी तथा उसने जो कदम उठाए हैं उसके नतीजे आने लगे हैं।

वैसे तो जा¡र्ज बुश ने अपनी बात दिलचस्प सोचके रूप में प्रस्तुत की है। पर ऐसा कहते हुए वे यह भूल गए कि भारत का मध्यम वर्ग अगर अच्छा खा और मांग रहा है तो देश की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा अभी भी भूख और कुपोषण का शिकार है। इसका कारण यहां अनाज की कमी नहीं, गरीबी है। भारत वैसे भी खाद्य पदार्थों का आयात नहीं, निर्यात करता है। ऐसे में यह सोचना कि भारत के मध्यम वर्ग की हालत बदलने का असर सारी दुनिया पर पड़ रहा है तो यह पूरी तरह गलत है। हमारा मध्यम वर्ग अच्छा खाना मांग रहा है तो बुश को तकलीफ हो रही है पर हमारा गरीब भूखा भी सो रहा है। बुश उसे क्यों नहीं देखते ? देखें भी कैसे, अमेरिका में तो हर चीज की प्रति व्यक्ति खपत शेष दुनिया से कई गुना ज्यादा है।

वैसे भी भारत की अर्थव्यवस्था कुछ मामलों में पिछले 4-5 वर्षों से तेजी से बढ़ रही है और ऐसा नहीं है कि अमेरिका को इस बात का पता अचानक चला है। बुश ने यह गलती भोलेपन में भी नहीं की है। सब जानते हैं कि अमेरिका ने अनाज का उत्पादन करने की जगह बायो-फ्यूएल और कैश क्राॅप पर जोर देना शुरू कर दिया है। इसलिए आज अगर दुनिया में अनाज का संकट है तो अमेरिकी नीतियों के कारण और कीमतें बढ़ रहीं तो उसी के कारण।

इसी तरह भारत में भी खेती की जमीन कम हो रही है और उसकी जगह उद्योग व कल कारखाने लग रहे हैं तो इसका कारण भी अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों का दबाव किसी से छिपा हुआ नहीं है। हां शहरीकरण का विस्तार भी इसका एक कारण है। पर प्रश्न है कि अमरीका में मक्का और वनस्पति तेल का उपयोग अगर बायो-डीजल के उत्पादन के लिए किया जाएगा तो क्या इसका असर नहीं होगा ? अकेले अमेरिका में एथनाॅल के उत्पादन में उपयोग की गई मक्का की मात्रा दुनिया भर के कुल उत्पादन के 5 फीसदी के बराबर है। यह दुनिया भर में होने वाले अनाज के कारोबार का एक तिहाई से भी ज्यादा है। इसके अलावा खाद्यान्न की एक फसल का उपयोग बायो-फ्यूएल के लिए किए जाने का असर दूसरे अनाज पर भी होता है। इसीलिए भारत ने अमेरिका से कहा है कि वह उसे देश की अहार सुरक्षा को जोखिम में डाले बगैर बायो-फ्यूएल कार्यक्रम को जारी रखने के तरीके सिखा सकता है।

बुश को भारत की निन्दा करने से पहले चाहिए कि कृषि भूमि का उपयोग दूसरे कामों के लिए करना छोड़ें। सब जानते हैं कि अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों में अनाज का उत्पादन करने वाली जगह कम हुई है। इसलिए वहां संकट पैदा हो रहा है। भारत ने इस मामले पर पहले ही विचार कर लिया है और इसके लिए बनाई जाने वाली कार्ययोजना में यह स्पष्ट किया जाने वाला है कि कृषि भूमि या मनुष्यों के खाने वाले अनाज का उपयोग बायो-फ्यूएल बनाने के लिए नहीं किया जाएगा। तब इससे देश की आहार सुरक्षा के लिए कोई खतरा पैदा नहीं होगा। पर अमरीका की बात करें तो वहां कृषि की जगह कृषि कारोबार हो रहा है। इस साल वहां उपजे कुल अनाज के 30 फीसदी का उपयोग बायो-फ्यूएल के लिए हुआ है। जबकि पिछले साल यह मात्रा केवल 18 फीसदी थी। विशेषज्ञों का कहना है कि इस साल अमरीका में बायो-फ्यूएल के उत्पादन में दस करोड़ टन अनाज खप जाएगा। जबकि इसका उपयोग दुनिया में भूखे लोगों को खिलाने में किया जा सकता था। अमरीका यह कभी नहीं करेगा और दूसरों को उपदेश देता रहेगा।

उल्लेखनीय है कि भारत की आबादी प्रतिवर्ष लगभग डेढ़ फीसदी बढ़ रही है और प्रति व्यक्ति खाद्य पदार्थ की मांग भी बढ़ रही है। चिंता की बात है कि हमारे यहां अनाज और दाल के उत्पादन की वृद्धि आबादी में वृद्धि की दर से नहीं हो रही है। यहां भी वैश्वीकरण एक कारण रहा है। खेसरी दाल को घातक बता कर उसे प्रतिबंधित करवा दिया गया। जबकि यह दाल कम पानी में भी उपजाई जाती थी और गरीब के घर खूब पकती थी। नागपुर के डाॅ. शान्तिलाल कोठारी इस प्रतिबंध के बावजूद धड़ल्ले से खेसरी दाल उगा रहे हैं और वर्षों से खा रहे हैं। जरूरत है कि सरकार इन गलतियों को सुधारे। अस्थायी राहत देने के उपाय कुछ समय के लिए कारगर हो सकते हैं पर स्थायी समाधान के लिए कुछ दूसरे उपाय करने होंगे जिसके लिए भारत में पूरी संभावना है। बशर्ते कि हम कृषि के देशी तरीकों को फिर से और समझदारी से अपनाने को तैयार हों। पर जाॅर्ज बुश के अहमकाना बयानों की परवाह करने की हमें कोई जरूरत नहीं है। 

जार्ज बुश अपने गिरेबाँ में झांके


अमेरिकी राष्ट्रपति जा¡र्ज बुश और उनसे पहले कोनडोलीजा राइस ने दुनिया भर में खाद्य पदार्थों की कमी का कारण भले ही भारत के मध्यम वर्ग की संपन्नता को बताया है पर सच यह है कि दुनिया भर में अनाज का उत्पादन 1997-99 में 357 किलाग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष से घटकर 2005-07 में 317 किलोग्राम रह गया था। जिसके लिए भारत जिम्मेदार नहीं है। इसके कई कारण और हैं।  अगर हम फिलहाल इसकी चर्चा न करें और यह जानने की कोशिश करें कि अनाज उत्पादन बढ़ाने को प्रोत्साहन देने वाला कोई कारण है क्या ? तो हमें कोई ठोस कारण नजर नहीं आता है। खाद्य पदार्थें का उत्पादन बढ़ाने के पक्ष में बस एक ही कारण है - बढ़ती कीमत। पर इससे किसानों को कितना फायदा मिलेगा तथा इस पर कितना भरोसा किया जा सकता है यह जांच का विषय है।

यहां हम जा¡र्ज बुश के बयान की बात करें तो सीधा सा जवाब है कि अगर आज  भारतीय ज्यादा खा रहे हैं तो पैदा भी ज्यादा कर रहे हैं। खाद्य संकट दुनिया भर में है और इसे दुनिया के स्तर पर ही देखना होगा। जहा¡ तक भारत की बात है खाद्य पदार्थों के मामले में आत्मनिर्भर है और मौजूदा संमस्या से भी वह अपने स्तर पर निपट लेगा। सच तो यह है कि 25 अप्रैल को समाप्त हुए सप्ताह के दौरान खाद्य तेलों की कीमत कम हुई है। जबकि चावल, गेहूं, आटा, तूर दाल और आलू की कीमत महीने भर से स्थिर है। दिल्ली में सरसों के तेल की कीमत 73 रूप्ए से घटकर 71 रूपए रह गई है। सरकार का दावा है कि कीमतें अभी और कम होंगी तथा उसने जो कदम उठाए हैं उसके नतीजे आने लगे हैं।

वैसे तो जा¡र्ज बुश ने अपनी बात दिलचस्प सोचके रूप में प्रस्तुत की है। पर ऐसा कहते हुए वे यह भूल गए कि भारत का मध्यम वर्ग अगर अच्छा खा और मांग रहा है तो देश की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा अभी भी भूख और कुपोषण का शिकार है। इसका कारण यहां अनाज की कमी नहीं, गरीबी है। भारत वैसे भी खाद्य पदार्थों का आयात नहीं, निर्यात करता है। ऐसे में यह सोचना कि भारत के मध्यम वर्ग की हालत बदलने का असर सारी दुनिया पर पड़ रहा है तो यह पूरी तरह गलत है। हमारा मध्यम वर्ग अच्छा खाना मांग रहा है तो बुश को तकलीफ हो रही है पर हमारा गरीब भूखा भी सो रहा है। बुश उसे क्यों नहीं देखते ? देखें भी कैसे, अमेरिका में तो हर चीज की प्रति व्यक्ति खपत शेष दुनिया से कई गुना ज्यादा है।

वैसे भी भारत की अर्थव्यवस्था कुछ मामलों में पिछले 4-5 वर्षों से तेजी से बढ़ रही है और ऐसा नहीं है कि अमेरिका को इस बात का पता अचानक चला है। बुश ने यह गलती भोलेपन में भी नहीं की है। सब जानते हैं कि अमेरिका ने अनाज का उत्पादन करने की जगह बायो-फ्यूएल और कैश क्राॅप पर जोर देना शुरू कर दिया है। इसलिए आज अगर दुनिया में अनाज का संकट है तो अमेरिकी नीतियों के कारण और कीमतें बढ़ रहीं तो उसी के कारण।

इसी तरह भारत में भी खेती की जमीन कम हो रही है और उसकी जगह उद्योग व कल कारखाने लग रहे हैं तो इसका कारण भी अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों का दबाव किसी से छिपा हुआ नहीं है। हां शहरीकरण का विस्तार भी इसका एक कारण है। पर प्रश्न है कि अमरीका में मक्का और वनस्पति तेल का उपयोग अगर बायो-डीजल के उत्पादन के लिए किया जाएगा तो क्या इसका असर नहीं होगा ? अकेले अमेरिका में एथनाॅल के उत्पादन में उपयोग की गई मक्का की मात्रा दुनिया भर के कुल उत्पादन के 5 फीसदी के बराबर है। यह दुनिया भर में होने वाले अनाज के कारोबार का एक तिहाई से भी ज्यादा है। इसके अलावा खाद्यान्न की एक फसल का उपयोग बायो-फ्यूएल के लिए किए जाने का असर दूसरे अनाज पर भी होता है। इसीलिए भारत ने अमेरिका से कहा है कि वह उसे देश की अहार सुरक्षा को जोखिम में डाले बगैर बायो-फ्यूएल कार्यक्रम को जारी रखने के तरीके सिखा सकता है।

बुश को भारत की निन्दा करने से पहले चाहिए कि कृषि भूमि का उपयोग दूसरे कामों के लिए करना छोड़ें। सब जानते हैं कि अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों में अनाज का उत्पादन करने वाली जगह कम हुई है। इसलिए वहां संकट पैदा हो रहा है। भारत ने इस मामले पर पहले ही विचार कर लिया है और इसके लिए बनाई जाने वाली कार्ययोजना में यह स्पष्ट किया जाने वाला है कि कृषि भूमि या मनुष्यों के खाने वाले अनाज का उपयोग बायो-फ्यूएल बनाने के लिए नहीं किया जाएगा। तब इससे देश की आहार सुरक्षा के लिए कोई खतरा पैदा नहीं होगा। पर अमरीका की बात करें तो वहां कृषि की जगह कृषि कारोबार हो रहा है। इस साल वहां उपजे कुल अनाज के 30 फीसदी का उपयोग बायो-फ्यूएल के लिए हुआ है। जबकि पिछले साल यह मात्रा केवल 18 फीसदी थी। विशेषज्ञों का कहना है कि इस साल अमरीका में बायो-फ्यूएल के उत्पादन में दस करोड़ टन अनाज खप जाएगा। जबकि इसका उपयोग दुनिया में भूखे लोगों को खिलाने में किया जा सकता था। अमरीका यह कभी नहीं करेगा और दूसरों को उपदेश देता रहेगा।

उल्लेखनीय है कि भारत की आबादी प्रतिवर्ष लगभग डेढ़ फीसदी बढ़ रही है और प्रति व्यक्ति खाद्य पदार्थ की मांग भी बढ़ रही है। चिंता की बात है कि हमारे यहां अनाज और दाल के उत्पादन की वृद्धि आबादी में वृद्धि की दर से नहीं हो रही है। यहां भी वैश्वीकरण एक कारण रहा है। खेसरी दाल को घातक बता कर उसे प्रतिबंधित करवा दिया गया। जबकि यह दाल कम पानी में भी उपजाई जाती थी और गरीब के घर खूब पकती थी। नागपुर के डाॅ. शान्तिलाल कोठारी इस प्रतिबंध के बावजूद धड़ल्ले से खेसरी दाल उगा रहे हैं और वर्षों से खा रहे हैं। जरूरत है कि सरकार इन गलतियों को सुधारे। अस्थायी राहत देने के उपाय कुछ समय के लिए कारगर हो सकते हैं पर स्थायी समाधान के लिए कुछ दूसरे उपाय करने होंगे जिसके लिए भारत में पूरी संभावना है। बशर्ते कि हम कृषि के देशी तरीकों को फिर से और समझदारी से अपनाने को तैयार हों। पर जाॅर्ज बुश के अहमकाना बयानों की परवाह करने की हमें कोई जरूरत नहीं है। 

Sunday, May 4, 2008

क्या बताना चाहते हैं राहुल गांधी ?

Ranchee Express 5-5-2008
राहुल गांधी देश के पिछड़े इलाकों में दौरे करके आम आदमी की बदहाली का जायजा ले रहे हैं। इससे पहले सभी दलों के युवा सांसदों ने भी ऐसी ही एक साझी कोशिश की थी। ये युवा सांसद हैरान है कि सरकार की तमाम नीतियां गरीबों के हक में होने के बावजूद जमीनी हकीकत इतनी हृदयविदारक क्यों हैं ? ये बात दूसरी है कि इनमें से सभी बहुत सफल, संपन्न और दीर्घ काल तक सत्ता में रहे राजनेताओं के साहबजादे और साहेबजादियां हैं। आश्चर्य की बात यह है कि जो बात इस देश के साधारण स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे भी जानते हैं, उस बात को जानने के लिए विदेशों में पढ़े इन युवा सांसदों को इतनी कवायद करने की क्या जरूरत है ? खुद राहुल गांधी के पिता और पूर्व प्रधानमंत्री यह स्वीकार चुके हैं कि रूपए में 14 पैसे भी आम आदमी तक नहीं पहुंचते। नोबल पुरास्कार विजेता भारतीय मूल के अर्थशास्त्री डा. अमत्र्यसेन भी यही मानते हैं कि भारत में गरीबी का कारण भ्रष्टाचार है। इसलिए देश की गरीबी, बेरोजगारी और बदहाली पर आंसू बहाने की बजाए इन युवा सांसदों को प्रशासनिक भ्रष्टाचार के विरूद्ध मोर्चा खोलना चाहिए। क्योंकि गरीबी और बेरोजगारी का कारण है भ्रष्टाचार।

विकास की नीतियां बनाने वालों का जमीन से कोई मतलब नहीं होता। ये नीतियां राजनैतिक फायदे के लिए ज्यादा और आम आदमी को राहत पहंुचाने के लिए कम होती हैं। दूसरी तरफ नीतियां लागू करने वाली राज्य सरकारें और उसकी मशीनरी का मकसद हर योजना के आवंटन का अधिकतम पैसा अपनी जेब में पहुंचाना होता है। इसलिए कोई भी राजनैतिक दल इस बुनियादी समस्या पर चोट नहीं करता। क्योंकि हमाम में सब नंगे हैं। राजनैतिक लाभ के लिए भ्रष्टाचार पर केवल शोर मचाने का नाटक किया जाता है। वैसे भी हर आदमी दूसरे पर ही अंगुली उठाता है और खुद के दामन के दागों को छुपाता हैं। इसमें कोई अपवाद नहीं। यहां तक कि देश की सर्वोच्च न्यापालिका भी नैतिकता के मामले में दोहरे मानदंडों का समर्थन कर रही है। सूचना के अधिकार के दायरे में लाए जाने से न्यायपालिका खुश नहीं है। जबकि न्यायपालिका में फैले भ्रष्टाचार से निपटने का कोई तरीका आज उपलब्ध नहीं है। फिर भी न्यायपालिका न तो अपने ऊपर अंकुश चाहती है और ना ही जवाबदेही।

जबसे संसद की सलाहकार समिति ने न्यायपालिका को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लेने की सिफारिश की है तब से भारत के मुख्य न्यायाधीश काफी उखड़े हुए हैं। उनका कहना है कि वे संवैधानिक पद पर हैं और संवैधानिक पदों को ऐसे कानून के दायरे में नहीं लिया जा सकता। जबकि लगभग सभी सांसदों और सभी राजनैतिक दलों का मानना है कि न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित होनी चाहिए। लोकतंत्र के चार खम्बों में से एक है न्यायपालिका। जो किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। बाकी तीन खम्बें हैं कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया। कार्यपालिका की जवाबदेही विधायिका के प्रति होती है और विधायिका की जनता के प्रति और मीडिया की जवाबदेही उसके पाठकों के प्रति होती है। आदर्श स्थिति में ये चारों अंग एक-दूसरें के पूरक और एक दूसरे पर निगाह रखने का काम करें तो लोकतंत्र सुदृढ़ होता है। संविधान के निर्माताओं ने न्यायाधीशों को बाकी तीन अंगों के प्रति जवाबदेह न बना कर न्यायपालिका की गरिमा को स्थापित किया था। पर आज वह गरिमा न्यायपालिका के आचरण से ही टूट रही है। इसलिए देश में यह मांग उठ रही है। न्यायपालिका का आचरण अगर पारदर्शी नहीं होगा तो गरीब को उसका हक कैसे मिलेगा ?

जहां तक सरकार की नीतियों के क्रियान्वयन का प्रश्न है तो उसका एक दूसरा प्रभावी तरीका हो सकता है कि इन योजनाओं को लागू करने में समाज सेवी और जागरूक लोगों व प्रतिष्ठित स्वयं सेवी संस्थाओं की मदद ली जाए। क्यांेकि ये लोग सेवाभावना से, निष्ठा से और कम खर्चीले तरीके से काम करने के आदी होतीे है। मुश्किल इस बात की है कि सच्चे और अच्छे लोगों और संस्थाओं को ऐसे कार्यक्रमों में शामिल नहीं किया जाता। एन.जी.ओ. के नाम पर भी आला अफसरों और नेताओं के घरों की महिलाएं और बच्चे संगठन बना लेते हैं और योजनाओं का करोड़ो रूपया डकार जाते हैं। इसलिए देश के गरीब और आदिवासी बदहाल हैं।

कैसी विडंबना है कि सरकार के पास देश की बदहाली दूर करने के लिए हजारों करोड रूपया है। सैकड़ों योजनाएं हैं। लाखों कर्मचारी हैं। पर जमीनी हालत नहीं बदलती। एक तरफ हम विकास की दौड़ में तेजी से बढ़ना चाहते है और दूसरी तरफ हम अपनी बदहाली के कारणों को देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। इसीलिए कुछ नहीं बदलता। हर नया नेता, नए सपने दिखाकर मतदाताओं को लुभाना चाहता है। राहुल गांधी भी ऐसे ही सपने दिखा रहे हैं। लोग सब समझते हैं। फिर भी कुछ कर नहीं पाते। क्योंकि उनके पास कोई विकल्प है ही नहीं। हां इतना बदलाव जरूर आया है कि अब मतदाताओं को आसानी से ठगा नहीं जा सकता। ठोस काम करने वाला मतदाता की निगाह में चढ़ता जरूर है। इसलिए राहुल गांधी को भी कुछ ठोस कार्यक्रम बनाने चाहिए। जिनसे देश में बदलाव आए। अभी उनके पास काफी वक्त है। वे जोखिम उठा सकते हैं। इसलिए जनता की बदहाली पर आंसू बहाने से बेहतर हो कि वे स्थायी बदलाव की कोशिश करें।