Sunday, June 29, 2008

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और सीवीसी

Rajasthan Patrika 29-06-2008
पिछले दिनों केंद्रीय सतर्कता आयोग ने एक अभूतपूर्व कार्य किया। हाल ही में सेवा निवृत्त हुए भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश वाई. के. सब्बरवाल पर भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए कानून मंत्रालय को अपनी संस्तुति भेज दी। आजाद भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ। संविधान के अनुसार उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को संसद में महाभियोग चलाकर ही हटाया जा सकता है। देश का दुर्भाग्य है कि गत 10 वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय के दो मुख्य न्यायाधीशों व दो न्यायाधीशों के भ्रष्टाचार व अनैतिक आचरण के मामले उनके पदासीन होते हुए प्रकाशित हुए पर संसद नें महाभियोग चलाने का नैतिक साहस नहीं दिखाया। इंत्तफाकन इनमे से तीन मामले मैंने ही अपनी पत्रिका कालचक्र के माध्यम से उजागर किए थे। सभी मामलों में मैंने समुचित प्रमाण भी प्रकाशित किए थे। जिसके बाद मैंने सभी प्रमुखदलों के नेताओं से महाभियोग चलाने की पहल करने का अनुरोध किया। ये सभी मशहूर राजनेता इस बेखौफ पत्रिकारिता से प्रभावित तो जरूर हुए पर न्यायपालिका से उलझने को तैयार नहीं थे। सन 2002 में मैंने इसी अंगे्रजी पत्रिका में यह लेख लिखा कि जो मुख्य न्यायाधीश सेवा निवृत्त हो गए हैं उन्हें अब संविधान के प्रावधानों का संरक्षण प्राप्त नहीं है। अब वे सामान्य नागरिक हैं और इसीलिए पद पर रहते हुए उसके दुरूपयोग के प्रमाणों के आधार पर उनके खिलाफ आपराधित मामले दायर किए जा सकते हैं। पर तब न तो सीबीआई ने यह हिम्मत दिखाई और न ही सीवीसी ने।

जस्टिस सब्बरवाल के मामले में इस बात के अनेक संकेत मिल रहे हैं कि उन्होंने दिल्ली में अवैध निर्माणों के खिलाफ जो आक्रामक तेवर दिखाया उसके पीछे उनके पुत्रों के व्यवसायिक हित छिपे थे। इन प्रमाणों को देख कर ही केंद्रीय सतर्कता आयोग ने यह ऐतिहासिक कदम उठाया है। अब जब ये पहल हो ही गयी है तो आवश्यकता इस बात की भी है कि जिन पूर्व न्यायाधीशों के भ्रष्टाचार के मामले पहले सामने आ चुके हैं उन्हें भी बक्शा न जाए। केवल सब्बरवाल के खिलाफ ही कारवाई ही क्यों हो ? केंद्रीय सतर्कता आयोग को चाहिए कि वह कालचक्र में छपी इन तथ्यात्मक रिपोर्टों के आधार पर बाकी पूर्व न्यायाधीशों के खिलाफ भी ऐसी ही कारवाई करें। एक तरह के अपराध को जांचने के दो माप दण्ड नहीं हो सकते।

आज तक यही होता आया है कि अदालत की अवमानना कानून का दुरूपयोग करके अनेकों भ्रष्ट न्यायाधीश विरोध के स्वर दबा देते हैं। खुद आपराधिक मामलों में लिप्त ये न्यायाधीश दूसरों के आचरण पर फैसला सुनाते है। जिसका इन्हें कोई नैतिक अधिकार नहीं है। पर आम जनता क्या करें ? किसके पास जाएं? किसके कंधे पर सिर रखकर रोए ? जो उसे भ्रष्ट या अनैतिक न्यायाधीशों से राहत दिलाए। खुद न्यायपालिका ऐसे न्यायाधीशों के विरुद्ध कारवाई करती नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट बाॅर ऐसोसिएशन शोर मचाने से ज्यादा कुछ करना नहीं चाहती। संसद महाभियोग चलाती नहीं है। नतीजतन अनैतिक आचरण के बावजूद ऐसे न्यायाधीश अपना कार्यकाल पूरा करके ही हटते हैं। ऐसे में कम से कम इतना तो होना ही चाहिए कि सेवा निवृत्त हो चुके भ्रष्ट न्यायाधीशों के खिलाफ सीबीआई केस दर्ज करे और अगर आरोप सिद्ध हो जांए तो उन्हें सजा दिलवाए। जब उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव ए.पी सिंह भ्रष्टाचार के मामले में जेल जा सकते हंै, तमिलनाडु और बिहार के मुख्यमंत्री जेल जा सकते हैं, सेना के वरिष्ठ अधिकारी जेल जा सकते हैं, तो न्यायपालिका के सदस्य क्यों नहीं ? आखिर वे भी तो इंसान हैं और उनमें भी वो सारी कमजोरियां हो सकती हैं जो एक आम आदमी में होती है। अगर दो-चार को भी सजा मिल गई तो बाकी के दिल में डर बैठ जाएगा। आखिर इटली में 90 के दशक में ऐसा हुआ ही था।

यहां एक और बात महत्वपूर्ण है कि भारत के मौजूदा कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज न्यायायिक आयोग के अपने प्रस्ताव पर आत्म सम्मोहित हैं। इस प्रस्ताव के अनुसार भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक आयोग बनेगा जो पदासीन न्यायाधीशों के दुराचरण की जांच कर उनके खिलाफ कारवाई करेगा। देश के कई जाने माने कानूनविद् भी इस आयोग का जम कर समर्थन कर रहे है। आश्चर्य की बात है न तो ये न्यायविद् और न ही कानून मंत्री इस प्रस्ताव की सीमाओं को समझ पा रहे हैं। इस प्रस्ताव के अनुसार भारत के मुख्य न्यायाधीश को भ्रष्टाचार से अछूता मान लिया गया है। पर यह नहीं सोचा जा रहा कि अगर मुख्य न्यायाधीश ही भ्रष्ट होगा तब यह आयोग कैसे काम करेगा ? मसलन मैंने दो मुख्य न्यायाधीशों के अनैतिक आचरण का उनके पद पर रहते हुए पर्दाफाश किया था। ऐसी परिस्थति में यह आयोग क्या करेगा ? आवश्यकता इस बात की है कि इस तथ्य को नजर अंदाज न किया जाए और आयोग के ढांचे पर चिंतन करते समय ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थति के समाधान का भी प्रावधान रखा जाए। वरना यह न्याय आयोग भी नाकारा सिद्ध होगा।

मुंशी प्रेमचन्द की मशहूर कहानी ’पंच परमेश्वर’ में यह संदेश मिलता है कि न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठकर गांव का एक साधारण व्यक्ति भी निजी राग-द्वेष से ऊपर उठ जाता है और निष्पक्ष न्याय करता है। पर आज नैतिकता के वो मान दण्ड नहीं है। ऐसे में न्यायपालिका के सुधार की दिशा में कोई नया कदम उठाने से पहले काफी सोचने की जरूरत है। यह चिंतन न्यायपालिका के सदस्य भी करें और सरकार भी तो कोई बेहतर विकल्प निकल आएगा।

फिलहाल तो देश को चाहिए कि वह केंद्रीय सकर्तता आयोग को इस पहल के लिए बधाई दे और साथ ही सरकार पर यह दबाव बनाए कि जस्टिस सब्बरवाल के मामले में कोई रियायत न दी जाए। वे आज एक आम आदमी है और आम आदमी की तरह अपने अपराध की सजा पाने के लिए उन्हें तैयार रहना चाहिए। अगर ऐसा होता है तो न्यायपालिका में कैंसर की तरह फैलते भ्रष्टाचार पर स्वतः अंकुश लग जाएगा।

Sunday, June 22, 2008

बिना भ्रष्टाचार के कैसे जिएं राजनेता ?


आम जनता, पत्रकार और समाज सुधारक सब राजनेताओं को ही कोसते हैं। पर उनका दर्द कोई नहीं जानना चाहता। क्या वे जन्म से भ्रष्ट होते हैं या हालात भी उन्हें भ्रष्ट होने पर मजबूर कर देते हैं ? इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में क्या बिना भ्रष्ट हुए चुनाव लड़ा जा सकता है या राजनीति की जा सकती है। दुनिया के दूसरे लोकतंत्रों में क्या व्यवस्था है ? सच्चाई ये है कि राजनीति में लोग जन सेवा की भावना से ही आते रहे हैं। पर राजनैतिक दलों ने इन लोगों की जिंदगी की हकीकत को अनदेखा किया। इसलिए राजनीति का स्तर इतना गिरा।

एक ग्रामीण प्राथमिक विद्यालय के निर्धन शिक्षक का बेटा संघ में आता है और फिर भाजपा में पहुंचते हजारों करोड़ का आदमी कैसे बन जाता है ? उसे दल के पुराने नेताओं से ज्यादा अहमियत कैसे मिलती है ? राम मनोहर लोहिया की वैचारिक आग में तपा एक अदना सा सामाजिक कार्यकर्ता राजनीति के शिखर पर पहुंच कर अपराध और अपहरण का पर्याय कैसे बन जाता है ? सर्वहारा की दयनीय हालत पर आंसू बहाने वाले वामपंथी नेता कैसे निजी जीवन में पांच सितारा ऐशो आराम का मजा लेते हैं ? गांधी की विरासत को आगे बढ़ाने का दावा करने वाली कांग्रेस के नेता राजनीति में सफल होते ही हजारों करोड़ की दौलत कैसे इकठ्टा कर लेते हैं ?

एक कार्यकर्ता अगर सच्चाई और ईमानदारी से समाज में काम करता है तो उसे न तो अपने बड़े राजनेताओं का दुलार मिलता है और नाही जनता से कोई आर्थिक मदद। ऐसे में अगर राजनैतिक कार्यकर्ता के कंधों पर अपने परिवार का बोझ भी हो तो वो अपना परिवार कैसे पाले ? मजबूरन उसे दलाली करनी पड़ती है। एक बार दलाली में सफलता मिली तो वह समाज सेवा भूल कर केवल शुद्ध दलाली करने में व्यस्त हो जाता है। इसी तरह चुनाव लड़ने के लिए हर प्रत्याक्षी को मोटी रकम चाहिए। आप कितने भी अच्छे व्यक्ति क्यों न हो और आप समाज के बारे में कितना ही अच्छा सोचते हो पर ईमानदारी से चुनाव नहीं लड़ सकते। इसलिए अगर आप विधानसभा या लोक सभा का चुनाव लड़ने का  फैसला करो तो चुनाव के खर्चे के लिए मोटी रकम उद्योगपति या राजनैतिक दल ही देता है। कितनी रकम इकठ्ठा होती है, कोई नहीं जानता। जाहिर है कि चुनाव की अफरा-तफरी में कोई नहीं पूछता कि तुमने चुनाव के नाम पर कितनी रकम इकठ्ठा की और कितनी खर्च की ? ऐसा पैसा प्रायः प्रत्याक्षी ही हड़प कर जाता है। इस समस्या का एक बेहतर विकल्प है और यह विकल्प दुनिया के बड़े लोकतंत्रों में अपनाया जा रहा है।

अगर राजनैतिक दल अपने समर्पित कार्याकर्ता की आर्थिक सुरक्षा की गारंटी नहीं कर सकता तो उसे अपने कार्यकर्ता को साधन इकठ्ठा करने की छूट दे देनी चाहिए। हर कार्यकर्ता को छूट होनी चाहिए कि वह एक धर्मार्थ ट्रस्ट का पंजीकरण करवा लें। जिसमें उसके परिवार के दो से अधिक सदस्य न हों। शेष सदस्य समाज के अन्य क्षेत्रों के प्रतिष्ठित व्यक्ति हों। जो भी धन इकठ्ठा किया जाए वह इसी ट्रस्ट में जमा हो। इसमें से एक निश्चित सीमा तक धन राजनेता की व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए निकाला जाना मान्य हो। शेष धन समाज के कार्यों या चुनाव पर खर्च किया जाए। अमरीका में सेनेटर का चुनाव लड़ने वाले कुछ ऐसी ही व्यवस्था के चलते आराम से अपना राजनैतिक जीवन चला ले जाते हैं।

अभी तक राजनैतिक दलों ने या सरकार ने यहां तक कि चुनाव आयोग ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया है। भारत में ट्रस्ट का पंजीकरण कराना हो तो यह घोषणा करनी होती है कि इसके माध्यम से कोई राजनैतिक कार्य नहीं किया जाएगा। यानी सरकार राजनैतिक कार्य को व्यवसाय मानती है धर्मार्थ कार्य नहीं। फिर ये क्यों कहा जाता है कि राजनेता समाज के लिए कार्य करते हैं। अगर राजनीति धर्मार्थ कार्य नहीं है तो फिर क्या यह भी एक धंधा है ?

चुनाव आयोग व सरकार को चाहिए कि नियमों में बदलाव करें और राजनैतिक जीवन जीने वालों की जरूरतों को ध्यान में रखकर कानून बनाए। जैसे ट्रस्ट के पंजीकरण में उसके गैर राजनैतिक होने की अनिवार्यता न हो। ऐसे ट्रस्टों को दिए गए धन पर कर से छूट हो। धर्मदा आयुक्त यह सुनिश्चित करें कि ट्रस्टी ट्रस्ट के पैसे का दुरूपयोग न करें। राजनैतिक कार्यकर्ता की निजी आवश्यकताओं की पूर्ति के प्रावधान इस न्यास के संविधान में हों।

इस तरह जो व्यवस्था बनेगी उसमें पारदर्शिता ज्यादा होगी। राजनेता को बेईमानी करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। उसके मन में असुरक्षा की भावना नहीं रहेगा। जनता को भी पता होगा कि उनका विधायक या संासद अपना जीवन कैसे जी रहा है ? राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार पर चिंता जताने में कोई पीछे नहीं रहा है। सर्वोच्च अदालत, संसद व स्वयं प्रधानमंत्री तक इस पर अनेक बार वक्तव्य दे चुके हैं। पर लगता है कि राजनैतिक भ्रष्टाचार से निपटने का रास्ता किसी के पास नहीं है। ऐसे में ट्रस्ट के इस विकल्प पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है।

Sunday, June 15, 2008

ऐसे नहीं निकलेगा काला धन चिदांबरम जी

Rajasthan Patrika 15-06-2008
भारत के वित्तमंत्री श्री पी. चिदांबरम काले धन को लेकर काफी चिंतित हैं। उसे पकड़ने के काफी इंतजाम भी कर रहे हैं। कुछ सफलता भी मिली है। पर ये बहुत कम है। इसलिए चिदांबरम जी गाहे बगाहे टीवी चैनलों और प्रेस वार्ताओं में देशवासियों को चेतावनी देते रहते हैं कि वे उनका सारा का सारा काला धन निकलवा कर ही दम लेंगे। गत सोमवार को नई दिल्ली में आयकर आयुक्तों के वार्षिक सम्मेलन के बाद एक प्रेस का¡नफ्रेंस में उन्होंने जानबूझ कर आयकर अदा नहीं करने वालों को सीधे चेतावनी दी है। उन्होंने कहा है कि आयकर जमा नहीं करने वाले या तीन वर्षों तक लगातार आयकर जमा नहीं करने वालों के खिलाफ केवल आर्थिक कार्रवाई ही नहीं की जाएगी, बल्कि उनके खिलाफ कड़े कानूनी कदम उठाए जाएंगे। इससे पहले कि हम चिदांबरम जी को देश के विदेशों में अवैध रूप से जमा काले धन की हकीकत याद दिलाएं बेहतर होगा कि देशवासियों के रवैये में आये बदलाव पर भी नजर डाल लें।

चिदांबरम जी की पहल का कमाल है या देशवासियों में बढ़ता जिम्मेदारी का भाव कि इस वर्ष आयकर संग्रह सरकार की उम्मीदों से भी काफी ज्यादा है। पिछले वर्ष 2007-08 के दौरान कुल आयकर संग्रह 3 लाख 14 हजार 416 करोड़ रुपये रहा है, जो सरकार के बजटीय अनुमानों से 117.56 फीसदी ज्यादा है। वर्ष 2006-07 के आयकर संग्रह के मुकाबले यह 36.62 फीसदी ज्यादा है। दूसरी तरफ देश का 40 लाख. करोड़ रुपया विदेशी बैंकों में अवैध रूप से जमा है। स्विटजरलैंड के अलावा भी दुनिया के कई देश ऐसे हैं जो भारत के भ्रष्ट राजनैताओं, उद्योगपतियों, फिल्म और क्रिकेट कलाकारों, भ्रष्ट अधिकारियों और तस्करों की अकूत दौलत अपने बैंकों में खुफिया रूप से जमा किए हुए हंै। यह रकम चोरी से देश के बाहर ले जायी गई है। यह धन हमारे कुल विदेशी कर्ज का तेरह गुना है। अगर यह काला धन विदेशों से देश में वापिस आ जाए तो न सिर्फ भारत विदेशी कर्ज से मुक्त हो जाएगा बल्कि देश के 45 करोड़ गरीब लोगों को एक एक लाख रूपया प्रति व्यक्ति बांटा जा सकता है। यानी देश से गरीबी एक झटके में भगाई जा सकती है।

क्या भारत के वित्तमंत्री में इतनी ताकत और हिम्मत है कि वे विदेशों में जमा भारत का 40 लाख करोड़ रुपया निकलवा सकें ? अगर हैं तो उन्हें संसद में विधेयक लाना चाहिए। जिससे भारत सरकार ऐसे लोगों के खिलाफ कड़े कदम उठाकर यह पैसा निकलवा सके। क्योंकि यह इस देश के आम आदमी की दौलत है और इसका प्रयोग देश की आर्थिक तरक्की के लिए होना चाहिए। पर यह विधेयक पास तो सांसद ही करेंगे। क्या हमारे सांसद यह चाहते हैं कि काला धन बाहर आये ? अगर चाहते तो चुनाव आयोग को चुनावों में काले धन के इस्तेमाल के खिलाफ इतने कदम क्यों उठाने पड़ते ? फिर भी क्या चुनावों में काले धन का प्रयोग रूक पाया है ? तो फिर चिदांबरम जी इतने तेवर क्यों दिखाते हैं ?

लगभग 25 वर्ष पहले की बात है मैं एक दैनिक अखबार का संवाददाता था। तब मैंने अनौपचारिक बातचीत में एक तत्कालीन ताकतवर केंद्रीय मंत्री से पूछा कि आप लोग ऐसे कानून क्यों नही बनाते कि काला धन पैदा ही न हों ? उनका जवाब था, ’अगर हम ऐसे कानून बना देंगे तो हमें कौन पूछेगा’। मशहूर फ्रांसीसी लेखक ज्यां पाॅल सात्र की ये बात मैं अक्सर याद करता हूं। उन्होंने अपनी पुस्तक ’द फ्लाईज’ (मक्खियां) में लिखा है कि शासक वर्ग जानबूझ कर ऐसे कानून बनाता है कि जनता उन्हें तोड़ने पर मजबूर हो और फिर लगातार अपराध बोध के साथ जीती रहे। यही हालत हमारे देश की भी है। इतने सारे कानून है कि आप बिना कानून तोड़े जी ही नहीं सकते। बार-बार इन कानूनों को सुधारने और सुविधाजनक बनाने की बात उठती है। पर गंभीरता से कुछ भी किया नहीं जाता।

कर सुधार के भी तमाम सुझाव गत 40 वर्षों में अनेक अर्थशास्त्री व कर विशेषज्ञ देते रहे हैं। सरकार भी कर सुधार के सुझाव आमंत्रित करने के लिए अनेक आयोग बना चुकी है। इन आयोगों की रिपोर्टें वित्तमंत्रालय के रिकाॅर्ड रूम में धूल खा रही हैं। अगर इन्हें लागू किया जाता तो देश में काले धन की समस्या इतना विकराल रूप धारण न करती। अब तो यूपीए सरकार का अंतिम वर्ष है। अगले वर्ष किसकी सरकार बनें कौन जाने ? इसलिए अब तो कोई क्रांतिकारी सुधार लागू भी नहीं किए जा सकते। जो चल रहा है वही चलेगा। यह साफ है कि वित्तमंत्री चाहें जितना बिगुल बजा लें विदेशों में जमा भारत का काला धन देश में लाने की क्षमता तो उनमें नहीं है और बिना इस धन के लाए देश में काले धन की समस्या हल होने वाली नहीं है। जो भी कानून है, चेतावनी हैं, सजाएं है और घोषणाएं है वे सब केवल इस देश के आम आदमी के लिए हैं। वो डरा रहे। कर जमा कराता रहे। उसके कर के पैसे पर हुक्मरान पांच सितारा जिंदगी की ऐश लेते रहे। जबकि वो मकान, सड़क, बिजली, पानी, सुरक्षा, स्वास्थ्य और खाद्यान्न के लिए जूझता रहे। चिदांबरम जी ये याद रखिए कि कर दिया जाता है सरकार चलाने के लिए। सरकार का काम होता है जनता की जिंदगी खुशहाल बनाना। एक सर्वेक्षण करवा लीजिए और आम आदमी से पूछिए कि क्या केंद्र और प्रान्त की सरकारों में बैठे नेता और अफसर जनता का दुख दर्द दूर कर रहे हैं या उसके कर के पैसे पर मौज उड़ा रहे हैं। जवाब आप जानते हैं। फिर भी आप धमकाकर कर वसूलना चाहते हैं तो जरूर वसूलिए। क्योकि हमारे देश के आम लोग मार खाकर भी चू नहीं करते। दुश्यन्त कुमार की कविता की ये पंक्तियां इसे बखूबी बयान करती है- ’न हो कमीज तो घुटनों से पेट ढक लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए’।

Sunday, June 8, 2008

महंगाई, आम आदमी और असहाय हुक्मरान


कमरतोड़ मंहगाई से हर हिंदुस्तानी त्रस्त है। प्रधानमंत्री व पेट्रोलियम मंत्री का कहना है कि हमको मजबूरी में यह कदम उठाना पड़ा। सब जानते हैं कि इस मूल्य वृद्धि से मंहगाई और भी बढ़ जाएगी। पहले से बदहाली में रहने वाले हिंदुस्तानी का क्या होगा, किसे फिक्र है कहने को हमारी आर्थिक प्रगतिदर 8.5 फीसदी है पर इसका असर देश के किसान मजदूरों पर नहीं पड़ रहा। अर्थशास्त्री अर्जुन सेन गुप्ता की सरकारी रिपोर्ट बताती है कि भारत में 77 फीसदी लोग 20 रु. प्रतिदिन से कम में गुजर बसर करते हैं। 20 रु. में कोई क्या खाएगा, क्या पहनेगा, कैसे घर में रहेगा, इलाज कैसे कराएगा और बच्चों को कैसे पढ़ाएगा ? इसकी चिंता गरीबी की परिभाषा देने वालों को नहीं।

आज दुनिया भर में पेट्रोलियम पदार्थों व खाद्यान्न का संकट खड़ा हो गया है। इसलिए मंहगाई भी बढ़ रही है। पर कोई यह जानने की कोशिश नहीं कर रहा कि यह हालात पैदा कैसे हुए ? सारी दुनिया को तरक्की और ऐशोआराम का सपना दिखाने वाले अमरीका जैसे देशों के पास कोई हल क्यों नही है। अभी तो भारत के एक छोटे से मध्यमवर्ग ने अमरीकी विकास माॅडल का दीवाना बन कर अपनी जिंदगी में तड़क भड़क बढ़ानी शुरू की है।  जिस तरह के विज्ञापन टीवी पर दिखाकर मुठ्ठी में दुनिया कैद करने के सपने दिखाये जाते हैं अगर वाकई हर हिंदुस्तानी ऐसी जिंदगी का सपना देखने लगे और उसे पाने के लिए हाथ पैर मारने लगे तो क्या दुनिया के अमीर देश एक सौ दस करोड़ भारतीयों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाएंगे ? क्या दे पाएंगे उन सबको जरूरत का खाद्यान्न और पेट्रोल ? आज दुनिया में गरीबी समस्या नहीं है। समस्या है दौलत का चंद लोगों के हाथ में इकठ्ठा होना। धनी देश और धनी लोग साधनों की जितनी बर्बादी करते हैं उतनी में बाकी दुनिया सुखी हो सकती है। उदाहरण के तौर पर इंग्लैंड के लोग हर वर्ष 410 अरब रु. की कीमत का खाद्यान्न कूड़े में फेंक देते है।

पश्चिमी विकास का मा¡डल  और जीवन स्तर हमारे देश के लिए बिल्कुल सार्थक नहीं है। पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में हमारी सरकारें जनविरोधी नीतियां अपना कर अपने प्राकृतिक साधनों का दुरुपयोग कर रही है और उन्हें बर्बाद कर रही हैं। दुनिया का इतिहास बताता है कि जब जब मानव प्रकृति से दूर हुआ और जब जब हुक्मरान रक्षक नहीं भक्षक बने तब तब आम आदमी बदहाल हुआ। कुछ वर्ष पहले एक टेलीविजन चैनल पर एक वृत्तचित्र देखा था जिसमें दिखाया था कि विश्व बैंक से मदद लेने के बाद अफ्रीका के देशों में कैसे अकाल पड़े और कैसे भुखमरी फैली। क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय मदद को तो बेईमान नेता, अफसर और दलाल खा गये। जनता के हिस्से आई मंहगाई, मोटे टैक्स, खाद्यान्न का संकट और भुखमरी। इस फिल्म में रोचक बात यह थी कि उस देश के आम लोगों ने मिट्टी, पानी, सूरज की रोशनी और हवा की मदद से अपने जीने के साधन फिर से जुटाना शुरू कर दिया था।

भारत की वैदिक संस्कृति प्रकृति की पुजारी थी। प्रकृति के साथ संबंध बनाकर जीना सिखाती थी। कृषि गौ आधारित थी और मानव कृषि आधारित और दोनों प्रकृति के चक्र को तोड़े बिना शांतिपूर्ण सहअस्तिव का जीवन जीते थे। दूसरी खास बात ये थी कि जब जब हमारे राजा और हुक्मरान शोषक, दुराचारी और लुटेरे हुए तब तब जनता को नानक, कबीर, रैदास, मीरा, तुकाराम, नामदेव जैसे संतों ने राहत दी।  आज सरकार राहत दे नहीं पा रही है। लोकतंत्र होते हुए भी आम आदमी सरकार की नीतियों को प्रभावित नहीं कर  पा रहा है। उसके देखते देखते उसका प्राकृतिक खजाना लुटता जा रहा है और वो असहाय है। तकलीफ की बात तो यह है कि आज उसके जख्मों पर मरहम लगाने वाले संत भी मौजूद नहीं। टीवी चैनलों पर पैसा देकर अपने को परमपूज्य कहलवाने वाले चैनल बाबाओं की धूम मची है। अरबों रूपया कमाकर अपने को वैदिक संस्कृति का रक्षक बताने वाले ये आत्मघोषित संत पांच सितारा आश्रम बनाने और राजसी जीवन जीने में जुटे है। इनकी जीवन शैली में कहीं भी न तो प्रकृति से तालमेल है और ना ही वैदिक संस्कृति का कोई दूसरा लक्षण ही। इनके जीवन में और अमरीका के रईसी जीवन शैली में क्या अंतर है ?

वैदिक ऋषि गाय, जमीन, जंगल और पानी के साथ आनंद का जीवन जीते थे। श्रम करते थे। पर आज अपने को संत बताने वाले अपने परिवेश का विनाश करके भोगपूर्ण जीवन जीते हैं और लाखों लोगों को माया मोह त्यागने और वैदिक मान्यताओं पर आधारित जीवन जीने का उपदेश देते हैं। इनकी वाणी में न तो तेज है और न ही असर। इसलिए आम जनता के संकट आने वाले दिनों में घटने वाले नहीं है। न तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों की पकड़ कमजोर होगी न ही हमारे हुक्मरान अपनी गलतियों को दोहराना बंद करेंगे। इसलिए मंहगाई हो या खाद्यान्न का संकट हमें नए सिरे से अपनी जीवन शैली के विषय में सोचना होगा। सौभाग्य से आज देश में ऐसे अनेकों लोग है जो इन तथाकथित संतों की तरह खुद को परमपूज्य नहीं कहते पर बड़ी निष्ठा, त्याग और अनुभव के आधार पर आम लोगों को वैकल्पिक जीवन जीने के सफल माॅडल दे रहे है। इनकी बात मानकर लाखों लोग सुख का जीवन जी रहे है। इन लोगों को मंहगाई बढ़ने से असर नहीं पड़ता क्योंकि इन्हें इस बाजार से कुछ भी खरीदना नहीं होता। ये अपनी जरूरत की हर वस्तु खुद ही पैदा कर रहे हैं। ऐसा ही एक नाम है सुभाष पालेकर का। महाराष्ट्र के अमरावती जिले में सुभाष पालेकर ने आम आदमी की जिंदगी बदल दी है। आज उनके अनुभव सुनने और उनसे ज्ञान लेने लाखों किसान जुटते हैं और उन्हें दो तीन दिन तक लगातार सुनते है। ऐसे सैकड़ों लोग देश में और भी है जिन्होंने वैदिक जीवन पद्धति को समझने और उसे समसामायिक बनाने में जीवन गुजार दिया। डा महंगाई, आम आदमी और असहाय हुक्मरान. मनमोहन सिंह लाचार भले ही हों और उनके पास आम आदमी के दुख दर्द दूर करने का समाधान भी न हो पर देश में सुभाष पालेकर जैसे लोग आज भी है जो हल दे सकते हैं। बशर्तें हम उनकी बात सुनने और समझने को तैयार हों।