Sunday, August 31, 2008

कश्मीरी नहीं चाहते आजादी

Rajasthan Patrika 31-08-2008
देश के अंग्रेजीदा लोग कभी इस देश की नब्ज को समझ ही नहीं पाए। पहले तो इंडिया और भारत में बड़ी खाई थी। पर जब इंडिया में रहने वालों को लगा कि भारत के साथ जुड़े बिना पहचान नहीं बनेगी तो वे उतर कर जमीन पर आने लगे और दुनिया की नजर में एक्टिविस्ट कहलाने लगे। पिछले दिनों देश की एक मशहूर अंग्रेजी पत्रिका की कवर स्टोरी का निचोड़ था कि कश्मीरी पूरी आजादी चाहते हैं। ये सही नहीं है। कश्मीर को जानने वाले और श्रीनगर की घाटी में मुसलमानों के साथ लगातार संपर्क रखने वाले भी यही बताते हैं कि ‘हमें चाहिए आजादी’, का नारा मुट्ठी भर चरमपंथियों की देन है। जिसे नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी ने केवल सियासत के मकसद से समर्थन दिया है।

हकीकत तो यह है कि घाटी का मुसलमान न तो आजादी चाहता है और न ही पाकिस्तान के साथ विलय। पिछले 50 सालों में जो मुसलमान पाकिस्तान गए वे वहां आज तक मुहाजिर बन कर रह रहे हैं। घाटी के युवाओं को पाकिस्तान के आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों में बड़ी तादाद में ले जाया गया। जहां न सिर्फ उनका मानसिक शोषण हुआ बल्कि उन्हें शारीरिक दुराचार का भी शिकार बनाया गया। घाटी के लोग जानते हैं कि अगर वो पाकिस्तान में मिल गए तो पाकिस्तानी उनकी नस्ल बिगाड़ देंगे। उनकी औरतों की इज्जत बचना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए वे पाकिस्तान के साथ कतई जाने को तैयार नहीं हैं। दूसरी तरफ अगर वे आजाद हो जाते हैं तो उनकी अर्थव्यवस्था बुरी तरह चरमरा जाएगी। आज भारत सरकार घाटी के हर आदमी पर 9,754 रूपए प्रति वर्ष खर्च करती हैं जबकि बिहार में प्रति व्यक्ति 876 रूपए खर्च किए जाते हैं। अगर कश्मीर को आजादी दे दी जाए तो इस राहत की भरपाई कौन करेगा?

कश्मीर के मुसलमानों ने पूरे भारत के हर बड़े और छोटे शहर में अरबों रूप्ए की संपत्ति खरीद ली है। उनके लम्बे-चैड़े कारोबार चल रहे हैं। बड़े-बड़े शोरूम और गेस्ट हाउस चल रहे हैं। अगर कश्मीर अलग देश बनता है तो ये सब कश्मीरी भारत के लिए विदेशी नागरिक बन जाएंगे और तब इन्हें सवा सौ करोड के भारत के साथ तिजारत करने की या यहां सम्पत्ति रखने की छूट नहीं रहेगी। ये सदमा कश्मीर का व्यक्ति बर्दाश्त करने को तैयार नहीं।

वैसे भी जम्मू-कश्मीर के तीन प्रमुख हिस्से हैं। लद्दाख, श्रीनगर घाटी और जम्मू। लद्दाख भारत के साथ पूर्ण विलय चाहता है और अपनी हैसियत एक संघ शासित प्रदेश के रूप में चाहता है। जबकि जम्मू इलाका पूरी तरह भारत में विलय चाहता है। उल्लेखनीय है कि इस इलाके में डोडा, पुंछ और राजौरी जैसे इलाके भी हैं जहां ज्यादातर मुसलमान रहते हैं। श्रीनगर घाटी के पहाड़ी बोलने वाले लोग जिनमें उड़ी, गंधार, कुरेज शामिल हैं, वे भी भारत से अच्छे संबंध रखना चाहते हैं और इस आजादी के नारे के खिलाफ हंै। यहां तक कि घाटी का गुर्जर समुदाय भी भारत के साथ ही रहना चाहता है।

अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने का मामला कोई मामला ही नहीं था। वो तो बहाना बन गया घाटी के नेताओं की सियासत को परवान चढ़ाने का। दरअसल हुर्रियत के नेताओं को भारत से राजनैतिक पैकेज चाहिए। 1975 के इंदिया गांधी-शेख समझौते के बाद कश्मीर में जो 1953 के विशेषाधिकार मिले थे वे समाप्त कर दिए गए। जिसे वहां के राजनेता आज तक पचा नहीं पाए। 1987 के चुनाव में हुई धांधलियां भी इन नेताओं को बर्दाश्त नहीं हुई। भारतीय फौजों का घाटी में दुव्र्यवहार भी आक्रोश का कारण बना। इसलिए जरूरत इस बात की है कि भारत सरकार संवेदनशीलता के साथ घाटी के राजनेताओं को मुख्यधारा में लाए।

जम्मू का आंदोलन भाजपा की देन नहीं है जैसाकि तथाकथित धर्मनिरपेक्षवादी, चरमपंथी और आग्रेजीदा पत्रकार बताने की कोशिश कर रहे हैं। दरअसल भाजपा का तो जम्मू में कोई जनाधार ही नहीं है। इस इलाके में भाजपा का एक भी सांसद नहीं है और 37 विधायकों में से केवल 1 विधायक भाजपा का है जबकि 36 विधायक गैर भाजपाई हैं। जम्मू वालों ने भाजपाई नेताओं को अपनी सभाएं सम्बोधित नहीं करने दिया। यह आंदोलन तो पूरी तरह जनांदोलन है। इस आंदोलन में जम्मू क्षेत्र के मुसलमान, हिन्दु और सिक्ख सब शामिल हैं और ये आंदोलन भी केवल अमर नाथ के मुद्दे पर नहीं चल रहा है। इसके पीछे डोगरों के मन में जो आक्रोश वर्षों से दबा पड़ा था वो ज्वालामुखी बन कर फटा है। जम्मू वालों की शिकायत है कि घाटी के साथ केन्द्र सरकार पक्षपात करती आई है। जम्मू की आबादी 28.5 लाख और उनके विधायक हैं 37 व सांसद दो हैं जबकि श्रीनगर की आबादी 25.5 लाख है पर विधायक हैं 46 और सांसद 3। ये जाहिरन नाइंसाफी है। जम्मू इन सीमाओं का पुनर्निर्धारण चाहता है। दूसरी शिकायत जम्मू वालों को इस बात से है कि केन्द्रीय आर्थिक मदद की 70 फीसदी रकम घाटी में खर्च होती है और लद्दाख व जम्मू के हिस्से आता है मात्र 30 फीसदी। इतना ही नहीं सत्ता का सर्वोच्च शिखर होता है राज्य सचिवालय। जिसमें 90 फीसदी नौकरियों श्रीनगर वालों को मिली हुई हैं। इसके लिए जम्मू नाराज है और अपना हक चाहता है। जम्मू के डोगरे चाहे हिन्दू हों या मुसलमान आर्थिक प्रगति चाहते हैं जो उन्हें भारत के साथ जुड़ कर ही मिल सकती हैं पर अब वो घाटी के साथ पक्षपात को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं। घाटी के नेताओं को इसका अंदाजा था और इसी डर से उन्होंने अमरनाथ के मुद्दे को इतनी हवा दी। ‘हमें चाहिए आजादी‘ का नारा भी इसी डर से दिया गया कि कहीं जम्मू के दबाव में भारत सरकार घाटी को मिल रहे फायदों को कम न कर दे। आजादी का नारा एक धमकी भर है, इसमें दम बिलकुल नहीं। इसलिए अगर कोई भी ये कहता है कि कश्मीर आजादी चाहता है तो उसने कश्मीर की जनता के दिलों को टटोला ही नहीं है।



Sunday, August 24, 2008

बड़े वकीलों के कद छोटे

Rajasthan Patrika 24-08-2008
दिल्ली उच्च न्यायालय ने देश के दो नामी और बड़े वकीलों को सजा दी है। उन पर बी.एम.डब्लू. कार दुर्घटना कांड के गवाह को खरीदने का आरोप है। अदालत का मानना है कि ऐसा करके इन बड़े वकीलों ने न्याय की प्रक्रिया में दखल देने की  नापाक कोशिश की है। सजा के तौर पर इनको वरिष्ठ अधिवक्ता से कनिष्ठ अधिवक्ता बना कर इनकी पदावनति कर दी गयी है। अगले चार महीने तक इन पर अदालत में पेश न होने की पाबंदी भी लगा दी गयी है। न्यायधीशों के इस फैसले के विरुद्ध दिल्ली की विभिन्न अदालतों ने हड़ताल करने की चेतावनी दी है। सजा प्राप्त वकील मामले को सर्वोच्च न्यायालय में ले जाने की तैयारी कर रहे है।

इस पूरे प्रकरण में जो बात मीडिया ने देश के सामने रखी है वह आम आदमी की जिंदगी में अक्सर सामने आती है। दूसरे तमाम पेशों की तरह वकालत भी कोई साफ सुथरा पेशा नहीं रह गया है। वकीलों के काले चोगे में कमर के पीछे एक छोटी सी जेब लटकी होती है। यह विलायत की परंपरा है। जहां कि न्याय व्यवस्था को भारत के ऊपर थोप दिया गया था। इस परंपरा के अनुसार वकील मुवक्किल से फीस तय नहीं करते। तय करना तो दूर मांगते भी नहीं। मुवक्किल मुकदमा खत्म होने के बाद अपनी मर्जी से और अपनी हैसियत के मुताबिक जो देना चाहता है वह वकील की पीठ पर टंगी कपड़े की जेब में डाल देता है। खैर ये तो प्रतीकात्मक बात रही। इंग्लैंड में भी वकालत कोई खैरात में नहीं करता। वहां के वकील खूब मोटी रकम वसूल करते हैं। पश्चिमी देशों में तो ये माना जाता है कि डाॅक्टर और वकील सबसे ज्यादा कमाई करते हैं। खुद वकील होते हुए महात्मा गांधी ने 1909 में लिखा था, ‘‘ अंग्रेजी सत्ता की एक मुख्य कंुजी उसकी अदालतें हैं और अदालतों की कुंजी वकील हैं। यदि वकील वकालत छोड़ दें और ये धंध वैश्या के धंधे जैसा नीच माना जाए, तो अंग्रेजी राज्य एक दिन में टूट जाए।’’

अदालतों में भ्रष्टाचार की बात आम आदमी, कार्यपालिका, मीडिया ही नहीं करता बल्कि खुद सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीशगण तक कई बार यह कह चुके हैं कि नीचे से ऊपर तक अदालतों में भ्रष्टाचार है और इसे रोकने के मौजूदा कानून नाकाफी है। अगर भारत के मुख्य न्यायाधीश ही स्वीकारते हैं कि अदालतों में भ्रष्टाचार है तो प्रश्न उठता है कि इस भ्रष्टाचार का स्वरूप क्या है ? अदालत में भ्रष्टाचार यानी न्याय का खरीदा बेचा जाना। न्याय को खरीदने बेचने का माध्यम बनते हैं वे वकील जो भ्रष्ट न्यायाधीशों से मिलकर अपने मुवक्किल के हक में अनैतिक रूप से फैसला करवाते हैं। बिना किसी लालच के कोई न्यायधीश किसी वकील की सिफारिश पर न्याय का गला क्यों घोटेगा ? सबको पता है कि ऐसे न्यायधीश वकीलों की मार्फत रिश्वत लेकर फैसले दिया करते हैं। इस रिश्वत का अच्छा खासा हिस्सा उस वकील की जेब में भी जाता है।

सच्चाई तो ये है कि अक्सर साधन संपन्न मुवक्किल कचहरी में वकील का चयन करते समय इस बात की परवाह नहीं करते कि उसकी काबलियत कितनी है बल्कि ये पता लगाते हैं कि उसकी न्यायधीश से निकटता कितनी है ? क्या वह ले-देकर फैसला हमारे पक्ष में करवा देगा ? जो वकील इसकी गारंटी लेते हैं उनसे ही वे पैरवी करवाते हैं। इस तरह देश की अनेक अदालतों में हजारों मामलों में हर दिन न्याय का गला घोटा जाता है। पिसता तो है आम आदमी जिसकी न्याय प्रक्रिया में आस्था होती है। वह टूट जाती है जब वो देखता है कि गुनहगार छूट गया। उसे कोई सजा नहीं मिली तो वह हताश हो जाता है। पर वह कर कुछ भी  नहीं पाता। यह दुखद स्थिति है। जो घटने की बजाय बढ़ती जा रही है। इस पतन पर सेमिनार, गोष्ठी और लेख तो बहुत लिखे जाते हैं। पर हालात सुधरते नहीं। चिंता की बात तो यह है कि जनता के बीच या मीडिया पर जो वकील नैतिकता की दुहाई देते है उनमें से अनेकों मौका आने पर अपने ताकतवर मुवक्किल के लिए न्याय खरीदने में संकोच नहीं करते। ऐसे तमाम अनुभव देश के तमाम बड़े वकीलों के बारे में अक्सर सुने जाते हैं।

ऐसा नहीं है कि न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका में सभी तत्व ऐसी अनैतिक सोच वाले हैं। एक से एक ईमानदार, मुवक्किल के हित के प्रति सजग, न्यायपालिका की गरिमा में विश्वास रखने वाले वकील हर अदालत में हैं। इन वकीलों से अगर यह कहा जाए कि आप फैसला हमारे पक्ष में दिलवाने की गारंटी करें तो हम आपको मुंह मांगी फीसदेने को तैयार हैं। तो वे ईमानदार वकील उखड़ जाते हैं और कड़ाई से जवाब देते हैं कि वे वकालत करते हैं दलाली नहीं। अब ये मुवक्किल पर निर्भर है कि उसे पैरवी अच्छी करवानी है या न्याय खरीदना है। देखने में यही आया है कि आम आदमी ही नहीं बड़े बड़े औद्योगिक घराने तक वही वकील ढूंढ़ते हैं जो उनके हक में फैसला दिलवा सके। फिर हम केवल वकीलों को ही दोषी कैसे ठहरा सकते हैं ?

दरअसल न्याय प्रक्रिया की खामियों पर निगाह तो सबकी है पर इन हालातों को बदलने की राजनैतिक इच्छा शक्ति किसी भी राजनैतिक दल में नहीं है। इसलिए सभी दल कभी कभी  संसद शोर मचा कर चुप हो जाते हैं। न्याय व्यवस्था की इन खामियों को सुधारने की पहल या तो लगातार हताश होती जा रही जनता करेगी या फिर वकीलों को करनी चाहिए। अगर पीडि़त जनता ने ये पहल की तो हालात काफी वीभत्स हो सकते हैं। तब न्याय व्यवस्था की गरिमा को भारी झटका लगेगा। बेहतर हो कि हर जिले, प्रांत और देश की अदालतों के न्यायधीशों और प्रमुख वकीलों का एक सम्मेलन हो और उस सम्मेलन में न्याय व्यवस्था को सुधारने के बारे में कोई ठोस निर्णय लिए जाएं जो फिर सरकार के माध्यम से कानून बनें। अगर ऐसी पहल उनकी तरफ से नहीं होती है तो आने वाले समय में न्याय व्यवस्था का व्यापक पतन देखने को मिलेगा।

Sunday, August 17, 2008

कितने आजाद हैं बुद्धिजीवी ?

Rajasthan Patrika 17-08-2008
जब हम अपनी आज़ादी की 51वीं वर्षगांठ मना रहे हैं तभी रूस में वैचारिक आजादी के सितारे, नोबेल पुरस्कार विजेता एलेक्जेंडर सोलझेनित्स के महाप्रयाण पर लोग आंसू बहा रहे हैं। सोलझेनित्स ने कम्युनिस्ट शासन के खिलाफ इतना दबंगाई से लिखा कि उन्हें देश निकाला दे दिया गया। ठीक वैसे ही जैसे आजादी की लड़ाई के दौर में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लिखने वालों से गोरी सरकार कड़ाई से निपटती थी। उनके प्रकाशन जब्त कर लिए जाते थे। उन्हें जेलों में डाल दिया जाता था या देशद्रोही करार कर दिया जाता था। यह सब सहकर भी गुलाम भारत के बुद्धिजीवियों ने समझौता नहीं किया और हमें आजादी मिली।

आजादी के बाद हम विदेशी हुकूमत के गुलाम नहीं थे। हमारी सरकार लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी थी। हमारे यहां संसद में पक्ष और विपक्ष दोनों थे। संविधान में हमें लिखने और बोलने की आजादी दी गयी थी। आपातकाल के स्याह दौर को छोड़कर या पश्चिमी बंगाल की साम्यवादी सरकार के खिलाफ खड़े हुए नक्सलवादियों पर हुए दमन को छोड़कर, देश में शायद ऐसा कोई दौर नहीं गुजरा जब इस देश के बुद्धिजीवियों से उनकी आवाज छीनी गयी हो या सरकार के खिलाफ लिखने और बोलने पर दमनात्मक कारवाही की गयी हो। फिर क्या वजह है कि हमारे देश के बुद्धिजीवी आजाद नहीं हैं ? वे गुलाम की तरह जीते हैं। विश्वविद्यालयों में, शोध संस्थानों में, साहित्य में और पत्रकारिता में कितने लोग हैं जो आत्मा की आवाज पर लिखते हैं। देश के करोड़ों निरीह लोगों के हक में बोलते हैं ? देश में कितने बुद्धिजीवी ऐसे हैं जो सच को सच कहने की ताकत रखते हैं ?

क्या वजह है कि खुद को बुद्धिजीवी बताने वाले अपनी बुद्धि को गिरवी रखकर जीते हैं ? फिर भी भ्रम यही पाले रहते हैं कि हम ही देश को समझते हैं, दूसरे नहीं। दरअसल आजादी के बाद विशेषकर तीसरी पंचवर्षीय योजना के विफल होने के बाद नेहरू खेमे में घबराहट हो गयी। जो सपने दिखाये गये थे पूरे नहीं हो रहे थे। स्थिति हाथ से निकल रही थी। तब पंडित नेहरू के प्रबंधकों ने विरोध का स्वर दबाने के लिए बुद्धिजीवियों को ‘मैनेज’ करना शुरू किया। उन्हें विदेश यात्रा, फैलोशिप, सरकारी समितियों की सदस्यता, सरकारी मकानों के आवंटन, प्राथमिकता के आधार पर अनेक सार्वजनिक सेवाओं को मुहैया कराना जैसे तमाम हथकंडे अपनाये गये।

सरकार के इस नए रूख को सबसे पहले ’साम्यवादी बुद्धिजीवियों’ ने पकड़ा और इस हद तक पकड़ा कि इस देश की सोच पर, शिक्षा पर, सूचना तंत्र पर, ये लोग हावी हो गये। ऐशोआराम की एक बेहतर जिंदगी जीने के लालच में इन्होंने न सिर्फ खुद को सरकार का चारण और भाट बना लिया बल्कि सच कहने वालों को अपने संस्थानों में हर स्तर पर दबाने का काम भी किया। इनका जाल इस कदर फैल गया कि ये देश की सभी प्रमुख बौद्धिक संस्थाओं पर हावी हो गये। इनकी देखा-देखी अनेक गांधीवादियों और समाजवादियों की भी यही हालत हो गयी।

ऐसे माहौल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से जुड़े पढे लिखे लोग खुद को राष्ट्रभक्त बता कर सरकारी बुद्धिजीवियों का उपहास करते थे। तब लगता था कि जब संघ समर्पित सरकार बनेगी तो यह लोग सत्ता की मोहिनी से दूर रहकर देश हित में लिखेगें और बोलंेगे। पर ऐसा नहीं हुआ। राजग के शासनकाल में या जिन-जिन प्रांतों में भाजपा की सरकार रही है और आज भी है, वहां संघ से जुड़े बुद्धिजीवियों ने भी वही आचरण दिखाया जो पूर्ववर्ती सरकारों के दौर में साम्यवादी और समाजवादी बुद्धिजीवियों का था। अपने राजनैतिक आकाओं के विरुद्ध बोले जा रहे सच को दबाना, झूठ का प्रचार करना, प्रतिभाओं की उपेक्षा कर भाई-भतीजावाद करना, एक ही तरह के मुद्दे पर मौके के अनुसार अलग-अलग टिप्पणी करना और यहां तक कि सत्ता की दलाली करना। अपवाद हर दौर में रहे हैं। लेकिन केवल अपवाद ही।

लगता है कि सत्ता की मोहिनी इतनी आर्कषक है कि किसी भी विचारधारा में पले-बढ़े बुद्धिजीवी क्यों न हों, भौतिक सुख की लालसा में अपनी खुद्दारी और हैसियत को भूल जाते हंै। सरकार के भाट बन कर तमाम फायदे लेते हैं और जब उनकी विरोधी विचारधारा के लोग सत्ता में आते हैं तो यही बुद्धिजीवी मुखर हो जाते हैं। तिल का ताड़ बना देते हैं। कोई मंच नहीं छोड़ते तूफान मचाने से। यही आचरण हर पक्ष करता है। हर पक्ष अपने मौके पर निजी लाभ के लिए देश और समाज का हित बलि चढ़ा देता है। यही वजह है कि जब जिसकेे पक्ष के लोग सत्ता में आते हैं उसी पक्ष के चारण और भाट बुद्धिजीवियो को पद्मभूषण देने से लेकर सांसद, राजदूत और न जाने क्या-क्या बनाया जाता है। इस तरह सच्चाई को दबाकर, झूठ का साथ देकर, अपने फायदे के लिए समाज के हित की उपेक्षा करके जीवन जीने वाले बुद्धिजीवी कैसे हो सकते है ?

ऐसे लोग न तो समाज को दिशा दे सकते हैं और न ही समाज में उठ खड़े होने का जज़्बा पैदा कर सकते है। आजाद भारत के लोगों के लिए यह बहुत दुखद स्थिति है कि इसने बुद्धिजीवियों की एक जमात खड़ी नहीं की। बुद्धिजीवियों के नाम पर राजनैतिक दलों के दरबार में खड़े रहने वाले याचक पैदा किए हैं। पर संतोष की बात यह है कि फिर भी देश में हजारों लोग ऐसे हैं जो सही लिखते बोलते और सोचते हैं पर उन्हें जानबूझकर गुमनामी के अंधेरे में रखा जाता है। उन्हें अखबारों में छापा नहीं जाता, कोई टीवी चैनल उनका साक्षात्कार प्रसारित नही करता या उन्हें बौद्धिक चर्चाओं में नहीं बुलाता। विचारों के मुक्त आदान प्रदान के लिए बने विश्वविद्यालय भी ऐसे वक्ताओं को बुलाने में संकोच करते हैं। ’आत्मघोषित बुद्धिजीवी माफिया’ की रणनीति के तहत ऐसे लोगों को दबा कर रखा जाता है। दूसरी तरफ जिन्हें बुद्धिजीवी बता कर प्रचारित किया जाता है वे केवल किराये के भांड हैं। यही हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी त्रासदी है, जिससे हमें निकलना ही होगा।

Sunday, August 10, 2008

देश को जरूरत है एक धर्मनीति की

Rajasthan Patrika 10-08-2008
हिमाचल प्रदेश के नैना देवी मंदिर में भगदड़ में डेढ़ सौ से अधिक जाने गयीं। इससे पहले महाराष्ट्र के पंडरपुर में भी ऐसा ही हादसा हुआ था। बिहार के देवघर में शिवजी को जल चढाने गयी भीड़ की भगदड़ में मची चीतकार हृदय विदारक थी। कुंभ के मेलों में भी अक्सर ऐसे हादसे होते रहते हैं। जब से टेलीविजन चैनलों का प्रचार प्रसार बढ़ा है तब से तीब्र गति से भारत में तीर्थस्थलों और धार्मिक पर्वो के प्रति भी उत्साह बढ़ा है। आज देश के मशहूर मंदिरों में पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा भीड़ जाती है। जितनी भीड़ उतनी अव्यवस्था। उतना ही आतंकवादी हमले का खतरा। पर स्थानीय प्रशासन कुछ भी नहीं करता। साधनों की कमी की दुहाई देता है। हमेशा हादसों के बाद राहत की अफरा-तफरी मचती है।

आजादी के बाद से धर्म निरपेक्षता के नाम पर एक ऐसा माहौल बना दिया गया कि धर्म की बात करना शिष्टाचार के विरुद्ध माना जाने लगा। नतीजा ये हुआ कि हर धर्म के तीर्थस्थल उपेक्षित होते चले गये। गुरू़द्वारों की प्रबंध समितियों ने और अनुशासित सिख समाज वे गुरूद्वारों की व्यवस्था स्वयं ही लगातार सुधारी। मस्जिदों और चर्चो में क्रमबद्ध बैठकर इबादत करने की व्यवस्था है इसलिए भगदड़ नहीं मचती। पर हिंदू मंदिरों में देव दर्शन अलग-अलग समय पर खुलते हैं। इसलिए दर्शनार्थियों की भीड़, अधीरता और जल्दी दर्शन पाने की लालसा बढ़ती जाती है। दर्शनों के खुलते ही भीड़ टूट पड़ती है। नतीजतन अक्सर हृदय विदारक हादसे हो जाते हैं। आन्ध्र प्रदेश में तिरूपतिबाला जी, महाराष्ट्र में सिद्धि विनायक, दिल्ली में कात्यानी मंदिर, जांलधर में दुग्र्याना मंदिर और कश्मीर में वैष्णो देवी मंदिर ऐसे हैं जहां प्रबंधकों ने दूरदर्शिता का परिचय देकर दर्शनार्थियों के लिए बहुत सुन्दर व्यवस्थाएं खड़ी की हैं। इसलिए इन मंदिरों में सब कुछ कायदे से होता है।

जब भारत के ही विभिन्न प्रांतों के इन मंदिरों में इतनी सुन्दर व्यवस्था बन सकी और सफलता से चल रही है तो शेष लाखों मंदिरों में ऐसा क्यों नहीं हो सकता ? जरूरत इस बात की है कि भारत सरकार में धार्मिक मामलों के लिए एक अलग मंत्रालय बने। जिसमें कैबिनेट स्तर का मंत्री हो। इस मंत्रालय का काम सारे देश के सभी धर्मों के उपासना स्थलों और तीर्थस्थानों की व्यवस्था सुधारना हो। केंद्र और राज्य सरकारें राजनीतिक वैमनस्य छोड़कर पारस्परिक सहयोग से नीतियां बनाएं और उन्हें लागू करें। ऐसा कानून बनाया जाए कि धर्म के नाम पर धन एकत्रित करने वाले सभी मठों, मस्जिदों, गुरूद्वारों आदि को अपनी कुल आमदनी का कम से कम तीस फीसदी उस स्थान या उस नगर की सुविधाओं के विस्तार के लिए देना अनिवार्य होगा। इसमें बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक धर्मस्थानों के बीच भेद न किया जाए। सब पर एक सी नीति लागू हो। हां इस बात का ध्यान रखा जाए कि किसी एक धर्म या संप्रदाय का चढ़ावा दूसरे संप्रदाय या धर्म पर तब तक न खर्च किया जाए जब तक कि ऐसा करने के लिए संबंधित संप्रदाय के ट्रस्टीगण लिखित अनापत्ति न दे दें। वरना नाहक वैमनस्य बढ़ेगा।

इसके साथ ही हर मठ, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च आदि को भी यह आदेश दिए जाए कि अपने स्थल के इर्द-गिर्द तीर्थयात्रियों द्वारा फेंका गया कूड़ा उठवाने की जिम्मेदारी उसी मठ की होगी। यदि हमारी धर्मनीति में ऐसे नियम बना दिए जाए तो धर्मस्थलों की दशा तेजी से सुधर सकती है। इसी तरह धार्मिक संपत्तियों के अधिग्रहण की भी स्पष्ट नीति होनी चाहिए। अक्सर देखने में आता है कि धर्मस्थान बनवाता कोई  और है पर उसके सेवायत उसे निजी संपत्ति की तरह बेच खाते हैं। धर्मनीति में यह स्पष्ट होना चाहिए कि यदि किसी धार्मिक संपत्ति को बनाने वाले नहीं रहते हैं तो उस संपत्ति का सरकार अधिग्रहरण करके एक ट्रस्ट बना देगी। इस ट्रस्ट में उस धर्मस्थान के प्रति आस्था रखने वाले लोगों को सरकार ट्रस्टी मनोनीत कर सकती है। इस तरह एक नीति के तहत देश के सभी तीर्थस्थलों का संरक्षण और संवर्धन हो सकेगा। इस तरह हर धर्म के तीर्थस्थल पर सरकार अपनी पहल से और उस स्थान के भक्तों की मदद से इतना धन अर्जित कर लेगी कि उसे उस स्थल के रख-रखाव पर कौड़ी नहीं खर्च करनी पड़ेगी। तिरूपति और वैष्णों देवी का उदाहरण सामने है। जहां व्यवस्था अच्छी होने के कारण अपार धन बरसता है। इतना कि कई बार प्रांतीय सरकारों को भी ऋण लेने की जरूरत पड़ जाती है।

देश में अनेक धर्मों के अनेकों पर्व सालभर होते रहते हैं। इन पर्वों पर उमड़ने वाली लाखों करोड़ों लोगों की भीड़ को अनुशासित रखने के लिए एक तीर्थ रक्षक बल की आवश्यकता होगी। इसमें ऊर्जावान युवाओं को तीर्थ की देखभाल के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित किया जाए। ताकि वे जनता से व्यवहार करते समय संवेदनशीलता का परिचय दें। यह रक्षा बल आवश्यकतानुसार देश के विभिन्न तीर्थस्थलों पर बड़े पर्वों के दौरान तैनात किया जा सकता है। रोज-रोज एक ही तरह की स्थिति का सामना करने के कारण यह बल काफी अनुभवी हो जाएगा। तीर्थयात्रियों की मानसिकता और व्यवहार को सुगमता से समझ लेगा।

भारत में वर्ग के अनुसार तीनों तरह के तीर्थयात्री हैं। उच्च वर्ग के तीर्थयात्री अनेक तामझामों के साथ कुछ क्षणों के लिए आते हैं और फिर जल्दी ही लौट जाते हैं। जबकि मध्यम वर्ग के तीर्थयात्री कुछ दिन ठहरते हैं और निम्न वर्ग के बहुत बड़ी तादात में आते हैं और सड़क के किनारे चूल्हा बनाकर अपना भोजन तैयार करते हैं। तीनों की आवश्यकताएं और आदतें अलग-अलग होती हैं। धर्म नीति यह तय करे कि सरकार को तीनों वर्गों के लिए कैसे व्यवस्था करनी है। राजस्थान सरकार में देवस्थान विभाग है। जो सभी मंदिरों की सफल व्यवस्था करता है। इसी माॅडल पर राष्ट्रीय स्तर पर भी व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि व्यवस्था में एकरसता आए।

ऐसा नहीं है कि भाजपा हिंदुओं के तीर्थस्थलों की बेहतर व्यवस्था करती है। ब्रज क्षेत्र में तो भाजपा के शासन काल में, चाहे वो राजस्थान में हो या उत्तर प्रदेश में, चारों ओर विनाश ही विनाश हुआ है। इसलिए इस मुद्दे पर किसी भी दल को राजनीति करने की छूट नहीं है। सबका यह कर्तव्य है कि हमारे देश के धर्मस्थलों को सजाने संवारने में सहयोग दें। क्योंकि ये धर्मस्थल हमारी आस्था के प्रतीक है और हमारी सांस्कृतिक पहचान हैं। इनके बेहतर रख-रखाव से देश में पर्यटन भी बढ़ेगा और दर्शनार्थियों को भी सुख मिलेगा। बिना किसी धर्म के प्रति विशेष झुकाव दिखाए अगर सभी धर्मों के लिए ऐसी धर्म नीति लागू की जाए तो धर्म जनता का अफीम नहीं बनेगा। वहां आपस में दंगे नहीं करवाएगा। बल्कि देश में पारस्परिक सौहार्द की स्थापना करेगा।

Sunday, August 3, 2008

क्या संघीय सुरक्षा बल से रूकेगा आतंकवाद ?

Rajasthan Patrika 03-08-2008
अहमदाबाद और बैंगलूर में हुए श्रंखलाबद्ध बम विस्फोटों के बाद पूरे देश में ऐसी घटनाओं की पुर्नरावृत्ति की आशंका से आम आदमी चिंतित हैं। सरकारें भी इस संभावना से चैकन्नी हो गयीं हैं। राजनेता दलगत राजनीति से उपर उठकर आतंकवाद का मुकाबला करने की जरूरत पर जोर दे रहे हैं। केन्द्रीय गृहमंत्री शिवराज पटिल ने आतंकवाद से निपटने के लिए एक बार फिर संघीय सुरक्षा बल के गठन की जरूरत पर जोर दिया है। पर क्या इससे आतंकवाद रूक पाएगा ? क्या यह बल आम जनता की सुरक्षा की गांरटी दे पाएगा ? क्या देश के मौजूदा कानून आतंकवाद से निपटने के लिए काफी नहीं है ? नए सुरक्षा बल के गठन से पहले हुक्मरानों को इन सवालों के जवाब खोजने चाहिए।

एक बात तो साफ है कि अगर मानव बम बनकर यानी आत्मघाती मानसिकता से कोई आतंकवादी सामान्य जन-जीवन को हानि पहुंचाना चाहे तो उसे कोई नहीं रोक सकता। न तो सुरक्षा ऐजेंसी और न ही खुफिया ऐजेंसी। दुर्भाग्य से पिछले कुछ वर्षों में एक विशेष संप्रदाय के लोगों में इस तरह की मनोवृत्ति काफी तेजी से बढ़ी है। इसलिए पूरी दुनिया की सरकारें चिंतित हैं और इसका हल नहीं निकाल पा रही हैं। अमरीका में हुई 9 सितंबर की भयावह घटना हो या भारत की संसद पर हुआ हमला, इन सब घटनाओं में इसी मानसिकता के पढ़े लिखे नौजवान शामिल रहे हैं। पर यह भी सही है कि आत्मघाती मानसिकता का कोई आतंकवादी भी बिना स्थानीय संरक्षण और मदद के कामयाब नहीं हो सकता। आतंकवाद की इसी जड़ पर कुठाराघात करने की जरूरत है।

भारत में जब भी कोई बड़ी दुर्घटना होती है तो या तो जांच आयोग बिठा दिये जाते हैं या नए विभाग बना दिए जाते हैं। ताजा वारदातों के बाद केन्द्रीय गृहमंत्री का प्रस्ताव भी इसी श्रेणी का है। ऐसा नहीं है कि संघीय सुरक्षा बल का गठन पूरी तरह निरर्थक रहेगा। इससे आतंकवादी घटनाएं रूकें या न रूकें पर यह बल दुर्घटना के बाद अपराधी खोजने में काफी मददगार हो सकता है। क्योंकि तब इस बल को विभिन्न राज्यों में जांच करने में सुविधा रहेगी। मौजूदा व्यवस्था में कई जांच ऐजेंसियां और प्रांतीय पुलिस बल के मौजूद होने के कारण जांच में काफी दिक्कत आती है और समय बर्बाद होता है। संघीय बल दुर्घटना के तुरंत बाद देशभर में जांच शुरू कर सकता है। पर केवल दुर्घटना के बाद। जबकि जरूरत तो ऐसी दुर्घटनाओं को घटने से पहले रोकने की है। आतंकवादियों को मिल रहे स्थानीय प्राश्रय पर चोट करने की है। पाकिस्तान में लाल मस्जिद पर सरकारी हमले के बाद जो जखीरा और आतंकवादी निकले उससे पूरी दुनिया स्तब्ध रह गयी। तभी हमने अपने काॅलम में चर्चा की थी कि भारत के भी कई सौ छोट-बड़े शहरों में इसी तरह धर्म स्थलों और तंग गलियों में रहने वाले लोगों के पास अवैध जखीरा भरा पड़ा है। भारत की खुफिया ऐजेंसियां सरकार को बार-बार चेतावनी देती रहीं है। इस जखीरे को बाहर निकालने के लिए राजनैतिक इच्छा शक्ति चाहिए। जो किसी भी राजनैतिक दल के नेताओं में दिखायी नहीं देती। 51 लाख रूपयेे के इनाम की घोषणा से एक कांड के मुजरिम पकड़े जा सकते है। इस प्रवृत्ति पर रोक नहीं लगाई जा सकती।

देश के कस्बों और धर्म स्थलों से अवैध जखीरा निकालने का जिम्मा यदि भारत की सशस्त्र सेनाओं को सौंप दिया जाए तो काफी बड़ी सफलता हाथ लग सकती है। पर साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि आतंकवाद से निपटने वाले सैन्य बलों और पुलिस बलों को मानव अधिकार आयोग के दायरे से मुक्त रखा जाए। वरना होगा यह कि जान पर खेल कर आतंकवादियों से लड़ने वाले जांबाज बाद में अदालतों में धक्के खाते नजर आएंगे। यह एक कारगर पहल होगी। पर राजनैतिक दखलअंदाजी ऐसा होने नहीं देगी। कुछ वर्ष पहले एक विदेशी पत्रकार ने कश्मीर की घाटी में खोज कर के एक रिपोर्ट ‘फाॅर ईस्टर्न इकनौमिक रिव्यू’ में छापी थी। जिसका निचोड़ था कि आतंकवाद घाटी के नेताओं के लिए एक उद्योग की तरह है। जिसमें मोटी कमाई होती है। जिन दिनों मैंने कश्मीर के आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन को विदेशों से मिल रही अवैध आर्थिक मदद का भांडा फोड़ किया था उन दिनों मुझे भारत सरकार की ‘वाई’ श्रेणी की सुरक्षा में कई वर्ष रखा गया था। तब दिल्ली पुलिस से मिले अंगरक्षक मुझे बताते थे कि जब वे एक केन्द्रीय मंत्री की सुरक्षा में तैनात थे तो यह देखकर उनका खून खौल जाता था कि कश्मीर के आतंकवादी उन मंत्री महोदय् के सरकारी आवास में खुले आम पनाह लेते थे। उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर पाता था। ऐसी ही स्थिति देश के दूसरे प्रांतों की भी है। यह काफी चिंतनीय स्थिति है। दरअसल आतंकवादी उन लोगों से संबंध बनाते हैं जो सत्ता में अपनी पकड़ रखते हैं। फिर वे चाहे नेता हो या मंत्री। इनकी मदद से कहीं भी पहुंचना आसान होता है और आसानी से पकड़े जाने का भय नहीं होता।

इसलिए जरूरत इस बात की है कि स्थानीय पुलिस अधिकारियों को आतंकवाद से निपटने की पूरी छूट दी जाए। उनके निर्णयों को रोका न जाए। अगर हर जिले का पुलिस अधीक्षक यह ठान ले कि मुझे अपने जिले से आतंकवाद का सफाया करना है तो वह ऐसे अभियान चलाएगा जिनमें उसे जनता का भारी सहयोग मिलेगा। आतंकवादियों को संरक्षण देने वाले बेनकाब होगें। जिले में जमा अवैध जखीरे के भंडार पकड़े जाएंगे। पर कोई भी प्रांतीय सरकार अपने पुलिस अधिकारियों को ऐसी छूट नहीं देती। पंजाब में आतंकवाद से निपटने के लिए जब के. पी.एस. गिल को को पंजाब के मुख्य मंत्री बेअंत सिंह ने तलब किया तो गिल की शर्त थी कि वे अपने काम में सीएम और पीएम दोनों का दखल बर्दाश्त नहीं करेंगे। उन्हें छूट मिली और दुनिया ने देखा कि पंजाब से आतंकवाद कैसे गायब हो गया।

मानव अधिकार की बात करने वाले ये भूल जाते हैं कि हजारों लोगों की जिंदगी नाहक तबाह करने वाले के भीतर मानवीयता है ही नहीं। घोर पाश्विकता है। ऐसे अपराधी के संग क्या सहानुभूति की जाए ? कुल मिला कर बात इतनी सी है कि अगर वास्तव में राजनैतिक इच्छा है तो मौजूदा पुलिस और सैन्य बल की मदद से ही आतंकवाद पर काबू पाया जा सकता है।