Sunday, November 9, 2008

आम आदमी के हवाले कानून

Rajasthan Patrika 9-11-2008
भिवानी (हरियाणा) के बी.ए. के छात्र कुलदीप को पुलिस वालों ने अकारण बदमाश समझकर जान से मार डाला। इससे भिवानी में लोग बेकाबू हो गये, पुलिस वालों की जमकर धुनाई की। सरकारी सम्पत्ति को आग लगायी और शहर बन्द हो गया। हत्या के आरोपी पुलिसकर्मियों के खिलाफ केस दर्ज हो गया। दिल्ली पुलिस से सेवानिवृत्त हुए संयुक्त पुलिस आयुक्त मैक्सवैल परेरा ने अपनी हाल में प्रकाशित हुई पुस्तक ‘द अदर साईड आॅफ पुलिसिंग’ में लिखा है कि लोग पुलिस को भ्रष्ट, निकम्मी, असंवेदनशील और अराजक समझते हैं। वे नहीं जानते कि वर्दी के पीछे छिपे इन्सान की क्या मजबूरी है? क्या सभी भ्रष्ट हैं? क्या सभी पुलिस वाले झूठी मुठभेड़ दिखाकर बेकसूर लोगों को मारते हैं? क्या सभी पुलिस अधिकारी निकम्मे हैं? वे कहते हैं कि हर महकमे की तरह पुलिस में भी हर तरह के लोग हैं, पर अपने काम को मुस्तैदी से अंजाम देने वालों की तरफ जनता का ध्यान नहीं जाता। वे स्वीकार करते हैं कि पुलिस का भारी पतन हुआ है पर इस पतन के लिए जिम्मेदार न सिर्फ राजनेता हैं, बल्कि आम जनता भी जिसने इस पतन को होने दिया और उसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की।

VARTA 14-11-2008
इसी बात को हाल ही में जारी हुयी एक फिल्म ‘ए वैडनसडे’ में बहुत ही सशक्त तरीके से प्रस्तुत किया गया है। फिल्म का नायक नसरूद्दीन शाह मुम्बई का एक आम नागरिक है। वो इस बात से हैरान हैं कि आतंकवादियों के चलते वो सामान्य जिन्दगी नहीं जी पा रहा। उसकी बीबी को हर वक्त डर लगा रहता है। वो घड़ी-घड़ी फोन करके उसकी खैर-खबर लेती है। ये आम आदमी इस बात से परेशान है कि आतंकवादियों के चलते मुसलमान दाढ़ी बढ़ाकर और हाथ में तसबी लेकर चलने में डरते हैं कि कहीं उन्हें आतंकवादी न समझ लिया जाए। इस आम आदमी को पुलिस से सख्त नाराजगी है। जो आतंकवादियों से निपटने में नाकाम है। ये आम आदमी बहुत समझदारी से एक ऐसा तानाबाना बुनता है कि पुलिस की कैद में बन्द चार खूँखार और मशहूर आतंकवादियों को पुलिस के हाथों ही बड़ी सूझबूझ से मरवा देता है। फिर मुम्बई के पुलिस आयुक्त को एक लम्बा-चैड़ा भाषण पिलाता है। इससे ज्यादा बताने से फिल्म का मजा चला जाएगा। पर ये फिल्म हर उस इन्सान को जरूर देखनी चाहिए जो आतंकवाद से परेशान है। फिल्म का पैगाम साफ है कि अगर पुलिस, कानून और हुक्मरान हमारी मुश्किलें कम नहीं कर सकते तो आम आदमी को मजबूर होकर कानून अपने हाथ में लेना होगा।

दरअसल अगर गइराई से देखा जाए तो नक्सलवाद का जन्म पुलिस और सरकार के ऐसे ही नकारात्मक रवैये के कारण हुआ था। भारत सरकार के गृह मंत्रालय में नक्सलवादियों की समस्या से जूझ रहे एक संयुक्त सचिव ने मुझे बताया कि जब वे आन्ध्र प्रदेश मंे जिलाधिकारी थे तो उन्हें एक दिन नक्सलवादियों ने जंगल में पकड़ लिया। एक
पेड़ से बांध दिया। फिर एक फूलनदेवीनुमा लड़की बन्दूक तानकर उन्हें मारने आयी। चंूकि वे तेलगू भाषी थे और नक्सलवादियों के प्रति संवेदनशील थे इसलिए उन्होंने बातों में उलझाकर धीरे-धीरे उन लोगों का दिल जीत लिया। इस लड़की की कहानी रोंगटे खड़े करने वाली थी। बूढ़े माँ-बाप की जवान लड़की गाँव में अपने ही घर में स्थानीय नेता के लड़के और उसके दोस्तों की हवस का शिकार हो गयी। उसी वक्त उसका जवान भाई खेत से लौट आया। जिसे उन बदमाशों ने वहीं ढेर कर दिया। बेचारी लुटी-पिटी बदहाल थाने पहुँची तो थाने वालों ने कई दिन तक उसके साथ बलात्कार किया। किसी तरह भाग छूटी और नक्सलवादियों से जा मिली। अब पुलिस, नेता और प्रशासनिक अधिकारियों को देखते ही उसकी आँखों में खून उतर आता है। बड़ी बेदर्दी से मारती है उन्हें।

ऐसी घटनाएंे हमारे अखबारों और टीवी चैनलों पर रोज दिखाई जाती हैं। हम चटखारे लेकर उन्हें पढ़ते हैं या उपेक्षा से पन्ना पलट देते हैं। पर कुछ करने को पे्रेरित नहीं होते। नतीजतन हालात रोजाना बद से बदतर होते जा रहे हैं। एक तरफ तो हम इस बात पर फक्र करते हैं कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। दूसरी तरफ हम आज भी राजतंत्र पसन्द करते हैं। कोई काबिल प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, जिलाधिकारी या पुलिस कप्तान तैनात हो जाए और हमारे सब दुख दर्द दूर कर दे। ‘‘उमरे दराज माँगकर लाये थे चार दिन, दो आरजू में कट गए दो इन्तजार में।’’ इसी उम्मीद में बैठे रहते हैं कि दूसरा हमारे हालात सुधार देगा। सिविल सोसाइटी का ये मतलब नहीं होता। अब वक्त आ गया है कि हम जिस भी पेशे में हों, अपने गाँव, मुहल्ले और शहर के बन्दोबस्त में कुछ वक्त निकालें। प्रशासनिक व्यवस्था पर दबाब बनायें। जाति, धर्म और क्षेत्र के संकुचित दायरों से निकलकर उन मुद्दों पर अपनी आवाज बुलन्द करें जिनका हमारी जिन्दगी से सरोकार है। केवल प्रदर्शन करने और बयान जारी करने से हल नहीं निकला करते। समस्या है तो समाधान भी होगा। हम संगठित हों और समस्याओं को रेखांकित करें फिर उनका समाधान लेकर प्रशासन पर जाऐं। उस पर लगातार दबाब बनायें। तब कहीं जाकर हालात बदलने शुरू होंगे।

यह कोरी कल्पना नहीं है। पुणे, सूरत, दिल्ली, हैदराबाद जैसे कई शहरों में नागरिकों ने जबसे जनहित के मु्द्दों पर संगठित होकर आवाज उठानी शुरू की है और सरकार के साथ समाधान ढूंढने में सहयोग करना शुरू किया है, हालात बदलने लगे हैं।पान की दुकानों, चाय के ढाबों, काॅलेज और दफ्तर की कैंटीनों और मौहल्ले के चैराहों पर जितना वक्त हम फालतू गप्प करने मं े जाया करते हैं, उतने वक्त में इलाके का थाना, बिजली-पानी दफ्तर और नगर पालिका के सफाई कर्मी, सब दुरूस्त हो सकते हैं। अगर हम चाहते हैं कि कुलदीप की तरह किसी और के कुल का दीपक नाहक पुलिस के हाथ मारा न जाए। अगर हम चाहते हैं कि आतंकवादी सड़क पर आने की हिम्मत न जुटा सकें। अगर हम चाहते हैं कि हमारी सड़कें और गलियाँ हमेशा साफ और रोशन रहें। अगर हम चाहते हैं कि हमारे कर के पैसे सरकारी मुलाजिम अपनी जेबों में न ठूंसें तो हमें खबरदार रहना होगा। लोकतंत्र में तंत्र लोक के हाथ में होना चाहिए। हुक्मरानों को अपनी जिन्दगी की जिम्मेदारी सौंपकर न तो हम निश्चिन्त हो सकते हैं और न ही सुकून से जी सकते हैं। फैसला हमें ही करना है।

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