Sunday, January 18, 2009

उद्योग जगत के प्रधानमंत्री

Rajasthan patrika 18-01-2009
अनिल अंबानी, मुकेश अंबानी व सुनील भारती मित्तल जैसे उद्योगपतियों ने बाइब्रेंट गुजरातमहोत्सव में गुजरात के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे योग्य उम्मीदवार बताकर एक विवाद खड़ा कर दिया है। खुद भाजपा को सफाई देनी पड़ी कि वह उनके मत से सहमत नहीं हैं और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का निर्णय दल करेगा जिसने फिलहाल लालकृष्ण आडवाणी को एन.डी.ए. सरकार का प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित कर रखा है। प्रश्न यह नहीं है कि औद्योगिक जगत का मन्तव्य सही है या गलत। नरेन्द्र मोदी ने गुजरात को जो आर्थिक प्रगति की राह दिखायी है, उससे नरेन्द्र मोदी के चाहने वालों की तादाद बहुत बढ़ी है। खासकर औद्योगिक जगत बहुत उत्साहित है। पर इस तरह के वक्तव्य का औचित्य समझ में नहीं आता। क्या इस देश में उद्योगपति ही यह तय करते हैं कि कौन प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे? लोकतंत्र में जनता के वोटों से सरकार बनती है। वोटों की संख्या अगर गिनी जाए तो उद्योगपतियों के वोट की कोई अहमियत नहीं होती। सच तो यह है कि पिछले लम्बे अरसे से कुलीन लोग तो मतदान केन्द्र तक तो जाते ही नहीं थे। इस साल विधानसभा के चुनावों में चुनाव आयोग ने बहुत बढि़या मुहिम चलायी पप्पू साला वोट नहीं डालताजिसके फलस्वरूप बड़ी तादाद में कुलीन वोट डालने निकले। पर फिर भी उनके वोटों से कोई सरकार या प्रधानमंत्री नहीं बनने जा रहा।
उनका यह बयान इसलिए भी अटपटा है कि भारत का औद्य़ोगिक जगत राजनीति के मामले में बहुत लचर है। आज नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा गुजरात के संदर्भ में की जा रही है। कल किसी दूसरे राज्य में कोई दूसरा मुख्यमंत्री ऐसा करेगा तो उसकी भी शान में कसीदे गढ़े जायेंगे। पर अगर उस मुख्यमंत्री का विरोधी सत्ता में आ जाए तो उद्योग जगत को पलटने में देर नहीं लगेगी। सत्तर के दशक में जब इन्दिरा गाँधी को छोड़कर मोरारजी देसाई के नेतृत्व में पुराने काँग्रेसी अलग हुए तो उद्योग जगत ने सिंडीकेट काँग्रेस के समर्थन में ऐसे ही कसीदे गढ़े थे। तब उन्हें लगा कि मोम की गुडि़याराजनीति के इन महारथियों के आगे टिक नहीं पायेगी। पर जब आम चुनाव में इन्दिरा गाँधी गरीबी हटाओका नारा देकर सत्ता में फिर लौट आयीं तो रातों-रात सबके बयान पलट गये। ऐसा नहीं है कि औद्योगिक जगत राजनीति में दखल न दे। लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार है। फिर उद्योगपतियों को क्यों न हो? पर उद्योगपतियों में फिर इतनी तो ईमानदारी होनी चाहिए कि जिस विचारधारा से जुड़े उसके साथ खड़े रहें। जैसा अमरीका में होता है। जो उद्योगपति रिपब्लिकन पार्टी के समर्थक होते हैं वे उसके ही समर्थक रहते हैं। जो डेमोक्रेट पार्टी के होते हैं, वे उसी के साथ जुड़े रहते हैं। भारत के उद्योगपतियों की तरह नहीं कि हमेशा जीते हुए दल के साथ दिखना चाहते हैं। ये तो राजनैतिक समझ का उदाहरण नहीं है। इसे साफ शब्दों में अवसरवादिता ही कहा जायेगा।

दरअसल देश के ज्यादातर राज्यों के कानून और व्यवस्था इतनी बिगड़ चुकी है कि उद्योग और व्यापार जगत को बहुत दिक्कत आ रही है। इसलिए जो जरा भी हटकर प्रशासन करता है या बिना देरी के तेजी से निर्णय लेता है, उससे माहौल फौरन बदल जाता है। तब हर किसी को लगता है कि यही मसीहा हमारे दुख दूर कर सकता है। दुनिया की पहली लखटकिया कार नैनो को ही लें। बंगाल रतन टाटा को राहत नहीं दे सका। नरेन्द्र मोदी ने चटपट टाटा की समस्या का हल निकाल लिया। फिर टाटा मोदी से खुश क्यों न हों? दरअसल उद्योगपति हों या आम आदमी सरकार से कोई आसमान के सितारे नहीं माँगा करते। बहुत बुनियादी चीजें माँगते हैं जैसे बिजली, पानी, सफाई, कानून और व्यवस्था। अगर इतनी बुनियादी चीजें भी कोई राज्य या केन्द्र सरकार न दे पाये तो फिर सरकार होने का क्या मायना?

नरेन्द्र मोदी ने इन बुनियादी जरूरतों पर संजीदगी से ध्यान दिया है। इसलिए वे मध्यम और उच्च वर्ग के लोगों का ध्यान आकर्षित करने में सफल रहे हैं। ऐसा नहीं है कि हर वर्ग उनसे संतुष्ट है। गुजरात के देहातों में सामाजिक कार्य करने वाले जागरूक और चिन्तनशील लोगों का मानना है कि नरेन्द्र मोदी की विकास की तेज रफ्तार गुजरात के पर्यावरण व प्राकृतिक संसाधनों को काफी तेजी से खराब कर रही है। इसलिए वे नरेन्द्र मोदी के विकास के दावों से सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि प्राकृतिक संसाधनों का अविवेकपूर्ण दोहन गुजरात का जो नुकसान कर रहा है उसको विकास की तीव्र गति के आवरण से ढंका नहीं जा सकता। उनकी नजरों में गुजरात अमरीका की तरह सतही विकास कर रहा है। जबकि उसकी बुनियाद काफी खोखली है। 
उनका एक सवाल यह भी है कि नरेन्द्र मोदी उनकी नजर में प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे योग्य उम्मीदवार इसलिए हैं क्योंकि अपने राज्य में उद्योगपतियों का मुनाफा तेजी से बढ़ाया है। इसका मतलब साफ है कि जो उद्योगपति नरेन्द्र मोदी को यह तमगा दे रहे हैं, वे नरेन्द्र मोदी की प्रशासनिक क्षमता के कायल हों या न हों पर इसमें संदेह नहीं कि उनका वक्तव्य निजी लाभ के आंकलन पर आधारित है। चूंकि नरेन्द्र मोदी से उन्हें फायदा हो रहा है, इसलिए वे उनकी नजर में प्रधानमंत्री पद के सबसे योग्य दावेदार हैं। यानि औद्योगिक जगत को पूरे समाज के लाभ से कोई सराकार नहीं है। सारा मामला अपने फायदे का है। फिर उनकी टिप्पणियों का क्या महत्व जब वे खुद ही पारदर्शी सरकारें नहीं चाहते?
मुम्बई हमले के बाद से मुम्बई के बड़े औद्योगिक घराने काफी विचलित हैं। अब तक आतंकी हमलों में गरीब आम आदमी मरता रहा है। इसलिए औद्योगिक जगत को कोई विशेष चिंता नहीं हुयी पर मुम्बई हमले के बाद उन्हें अपने वजूद का डर सताने लगा है। इसलिए वे एक ऐसे नेता की तलाश में हैं जो उनके मन से यह डर निकाल सके। आज की तारीख में उन्हें नरेन्द्र मोदी ही ऐसा उम्मीदवार दिखायी देता है जो ठोस और कड़े निर्णय बिना देरी के लेकर राहत दे सकता है। इसलिए वे इतने स्पष्ट बयान दे रहे हैं। बयान ही नहीं दे रहे, कोशिश भी कर रहे हैं कि एन.डी.ए. में नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी को सुनिश्चित किया जा सके। आने वाले चुनावों में सारी दुनिया की निगाह नरेन्द्र मोदी पर होगी। देखना है वे क्या निर्णय लेते हैं? चुनाव लड़कर प्रधानमंत्री की दावेदारी पेश करते हैं या आडवाणी जी के लिए मंच खाली छोड़ देते हैं।

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