Sunday, February 15, 2009

सीबीआई के बस का नहीं

निठारीकांड के अभियुक्तों को अदालत ने सजा -ए- मौत सुना दी। मारे गए मासूमों के सीने की आग पर कुछ ठंडक पड़ी। अयुक्त अन्ततः फांसी के फंदे पर लटकेगें या नहीं यह तो भविष्य की कानूनी लड़ाई बताएगी पर एक बात साफ है कि सीबीआई की विश्वसनीयता पर एक बार फिर सवाल खड़ा किया गया है। यह सवाल खुद न्यायालय ने किया है। उसे सबूत छिपाने के आरोप में फटकार पड़ी है। 1995 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी सीबीआई को फटकार लगाते हुए कहा था कि ’’एक थानेदार तुमसे बेहतर काम कर लेता है।’’ राजनीतिक्यों के घोटालों के मामले में सीबीआई को अकसर फटकार पड़ती रहती है। यह कई बार सिद्ध हो चुका है कि सीबीआई घोटालों का कब्रगाह है। जहां हजारों घोटाले बिना जांच के दफन कर दिए गए हैं। पर इसके लिए सीबीआई के अधिकारी ही जिम्मेदार नहीं हैं। क्योंकि सरकार ने सीबीआई को पंगु बना कर रखा है। केन्द्रीय सत्ता में काबिज दल सीबीआई को अपना हथियार बनाकर विरोधियों की नकेल कसते रहते हैं। इसलिए सीबीआई को स्वायत्ता देना कोई नहीं चाहता।

दूसरी तरफ सीबीआई के जिम्मे इतना सारे मामले हैं कि मानवीय स्तर पर उनसे निपटना सीबीआई के बस की बात नहीं। क्योंकि उसके पास जितने अधिकारी और इंस्पेक्टर हैं वे सब पहले से ही काम के बोझ में दबे हुए हैं। इसलिए हजारों केस जांच के स्तर तक भी नहीं पहुंच पाते। सीबीआई को जरूरत है एक लंबी चैड़ी फौज की जो हर छोटे बड़े केस को सुलझाने में सक्षम हो।

आर्थिक मंदी के दौर में सरकारें अपने खर्चे घटा रही हैं। ऐसे में सीबीआई के लिए दर्जनों अफसर नए तैनात करना सरकार के बस की बात नहीं है। उधर देश में सैकड़ों ऐसे आईपीएस अधिकारी और उनसे नीचे के पुलिस अधिकारी हैं जो सेवा निवृत्त होकर घर पर खाली बैठंे हैं। उनका समय काटे नहीं कटता। इन्होंने पूरा जीवन पुलिस में रहकर जांच करने के की काम किए हैं। इनसे बेहतर समझ और अनुभव किसके पास होगा ? वैसे भी ये लोग सरकार से पेंशन पा रहे हैं। इसलिए इन सेवा निवृत्त अधिकारियों को जांच के काम में लगाया जा सकता है। इससे सीबीआई के ऊपर कोई अतिरिक्त आर्थिक भार भी नहीं पड़ेगा और उसका काम बांटने वाले दर्जनों सेवा निवृत्त अधिकारी उसके लिए उपलब्ध रहेंगे। जिससे जांच में तेजी आएगी।

ऐसे अधिकारियों को ढूढंना कोई मुश्किल काम नहीं है। इस विषय में मैंने एक बार केन्द्रीय सतर्कता आयोग के सदस्यों को भी प्रस्ताव भेजा था। उन्होंने इस संभावना पर सहमति जताई थी। पर लगता है कि उनकी इस सलाह को गृहमंत्रालय ने अभी तक स्वीकार नहीं किया है। इसलिए मामला अटका हुआ है। देश में अपराध बढ़ते जा रहे हैं। सीबीआई के पास शिकायतों के पुलंदे बढ़ते जा रहे हैं। सरकार नए अधिकारी नियुक्त करने में समर्थ नहीं है। एक बेचारी सीबीआई किस-किस मोर्चे पर दौड़े। ऐसे में दृढ़ निश्चय लेने वाले नेतृत्व की आवश्यकता होती है। सरकार को चाहिए कि इस दिशा में तेजी से पहल करे। उदारीकरण के दौर में जब सरकार अपने सार्वजनिक उपक्रमों और अन्य प्रशासनिक कार्यों तक में बाहर से सलाहकार नियुक्त कर रही है और उन्हें मोटी फीस भी दे रही है तो अपने ही सेवा निवृृत्त पुलिस अधिकारियों की मदद लेने में उसे कोई गुरेज नहीं होना चाहिए।

दरअसल हमारी पूरी व्यवस्था अनिर्णय की स्थिति में रहती है। जबकि  ठोस परिणाम प्राप्त करने के लिए सही समय पर सही निर्णय लेना होता है। अविश्वास व संक्षय की स्थिति में निर्णय लेना संभव नही ंहोता। व्यवस्था में लगे लोगों का आत्मविश्वास तभी बढ़ता है जब उनके लिए निर्णयों का सम्मान हो। सीबीआई को निर्णय लेने की छूट नहीें है। सीबीआई की मौनीटरिंग करने वाले केन्द्रीय सतर्कता आयोग तक के दांत पहले ही तोड़ दिए गए हैं। उधर सरकार निर्णय लेगी नहीं । नतीजतन सीबीआई गलती करती रहेगी और डांट खाती रहेगी और सत्ता पक्ष के हाथों में कठपुतली की तरह नाचती रहेगी। जनता को इससे कोई राहत नहीं मिलेगी और निठारी जैसे कांड होते रहेंगे, सीबीआई इसी तरह अधकचरी जांच करके केसों को उलझाती रहेगी जैसा उसने आरूषि के मामले में भी किया। यह गंभीर समस्या है। जिससे अनदेखा करना सरकार को भारी पड़ेगा।

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