Sunday, March 29, 2009

गांधी का ग्राम स्वराज्य वैश्विक चर्चा में

Rajasthan Patrika 29 Mar 2009
अमरीका और यूरोप की अर्थव्यवस्था के स्तम्भ धराशाही हो रहे हैं। फ्रैडीमाई लेहमैन ब्रदर्स, मैरिल लिंच  जैसी बीमा कंपनियां चित्त पड़ी हैं। अमरीका में केवल पिछले महीने में 6 लाख लोग बेरोजगार हो गये हैं। रूस में भी लाखों बेरोजगार अपराध की तरफ बढ़ रहे हैं। उधर जापान की भी हालत बिगड़नी शुरू हो गयी। जपान की कारों और इलैक्ट्रोनिक उपकरणों का सबसे बड़ा बाजार अमरीका था। पर आज के हालात में जब आम अमरीकी अपनी नौकरी ही नहीं बचा पा रहा तो कार कहां से खरीदेगा ? इसलिए इनके निर्यात में 30 फीसदी तक गिरावट आ चुकी है। चूंकि चीन में श्रम सस्ता होने के कारण पश्चिमी देशों के सभी मशहूर ब्राण्डों का उत्पादन चीन में ही हो रहा था। इसलिए आर्थिक मंदी की इस मार का सीधा असर चीन पर पड़ा है। जहां हजारों कारखानें बन्द हो चुके हैं और करोड़ों लोग बेरोजगार हो चुकें है। भारत में मंदी का असर धीरे-धीरे फैलता जा रहा है। पर भारत की ज्यादातर जनता सौभाग्यवशाली है क्योंकि वह आज भी कृषि पर आधारित जीवन जीती है। इसलिए उस पर इस मंदी का वैसा असर नहीं पड़ेगा जैसा विकसित देशों में पड़ रहा है। अलबत्ता भारत के शहरों में रोजगार तेजी से गिरते जा रहे हैं। लगता तो यह भी है कि चुनाव का बुखार उतरते ही अर्थ व्यवस्था का नग्न चेहरा देश के सामने आएगा।

इन हालातों में महात्मा गांधी की लघु पुस्तिका ग्राम स्वराज्यकी सार्थकता और मांग पूरी दुनिया में फिर बढ़ रही है। देखने में तो यह लघु पुस्तिका एक राजनैतिक पर्चे से ज्यादा नहीं है। भाषा भी सरल है। विचार भी सीधे सपाट हैं। पर इसमें जो बातें कहीं गयी हैं वे इतनी सटीक हैं कि आज आठ दशक बाद भी खरी की खरी हैं। लोगों को ही नहीं बल्कि नामी-गिरामी अर्थशास्त्रियों को यह साफ दिख रहा है कि उदारीकरण, औद्यौगिक साम्राज्यों का केन्द्रीय कृतनियंत्रण और वैश्वीकरण आर्थिक संकट से उबारने में सक्षम नहीं है। अब फिर सार्वजनिक क्षेत्रों, कम खर्चीली प्रशासनिक व्यवस्थाओं और अनावश्यक उपभोग पर कटौती करने की जरूरत महसूस की जा रही है। साथ ही यह भी समझ में आ रहा है कि पर्यावरण के साथ भी संतुलन बनाए बिना बेड़ा पर नहीं होगा। इसलिए दशकों बाद गांधी की छोटी सी पुस्तिका ग्राम स्वराज को धूल के ढेर से निकाल कर फिर चाव से पढ़ा जा रहा है। दुनिया भर के अर्थशास्त्री गांधी को समझने की कोशिश कर रहे हैं और उसमें से रास्ता खोज रहे हैं। उधर दुनिया भर के पर्यावरणविद् प्रकृति के साथ किये जा रहे खिलवाड़ को लेकर बहुत चिंतित है। उन्होंने चेतावनी दी है कि अगर दुनिया के देशों के हुक्मरान नहीं सुधरे तो आने वाले वर्षों में हर देश मंे गृह युद्ध छिड़ जाएगा। क्योंकि अस्तित्व के लिए आवश्यक खेत, हवा, पानी और जंगल पर भारी संकट छाया है। तकलीफ की बात तो यह है कि इतनी भयावह स्थिति के द्वार पर खड़े होकर भी हमारे हुक्मरान न तो जाग रहे हैं। न सोच रहे हैं और  न कुछ ऐसा नीतिगत बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं जिससे भारत पश्चिमी मकड़जाल से निकल कर अपनी क्षमता और अपनी सीमाओं के साथ एक मजबूत राष्ट्र बन सके।

स्वयंसेवी संस्थाओं, बुद्धिजीवियों और जागरूक युवाओं के स्तर पर देशभर में सैकड़ों प्रयास चल रहे हैं। जो गंभीर भी हैं और सार्थक भी। यह हमारा दुर्भाग्य है कि टीवी और प्रिंट मीडिया इन प्रयासों को नजर अंदाज कर रहा है। यह सही है कि गत दस वर्षों में मीडिया की जो भारी तरक्की हुई है वह इस वैश्वीकरण का ही एक हिस्सा है। पर अब जब यह तिलिस्म टूट रहा है तो मीडिया को भी अपना रवैया बदलना पड़ेगा। उसे जमीनी हकीकत को समझना होगा और उसके अनुरूप अपने को ढालना होगा। अगर वह ऐसा नहीं करता तो हालात उसे मजबूर कर देंगे। प्रमाण सामने है। देश के सर्वाधिक सफल टीवी समाचार चैनलों को आज अपने खर्चों में भारी कटौती करनी पड़ रही है। उनके स्टाॅफ के पांच सितारा जीवन पर लगाम कस रही  है। यहां तक कि घटनाओं का कवरेज करने अब पहले की तरह ओ बी वैन नहीं दौड़ रही। नई भर्तियां बन्द है। वेतन वृद्धि का तो कोई मामला ही नहीं बनता। चुनाव की गर्मी में गाड़ी दो महीने खिंच जाऐगी। पर चुनाव के बाद तो काफी चैनलों के बंद होने के हालात पैदा होने जा रहे हैं।

ऐसे माहौल में समाज के हर क्षेत्र में आत्म विश्लेशण की जरूरत है। क्या हम तीसा की महामंदी से भी बुरे हालात में जाकर ही संभलेंगे ? क्या हमारा समाज सामूहिक आत्म हत्याओं के लिए तैयार हैं या भारत के सनातन सिद्धांत को फिर से समझ कर अपनाने के लिए हम अपना दिमाग खोलने को तैयार हैं ? वे सिद्धांत जो हमें इस भंवर से निकाल कर वास्तविक सुख दे सकते हैं। वो सिद्धांत जो हम सुनते तो बचपन से आए थे पर आचरण नहीं किया। जैसे सादा जीवन उच्च विचार, अगर प्रकृति से जो कुछ  लो तो प्रकृति को वापिस करो, जल, जमीन, जंगल, वायु को भगवान मान इनकी पूजा करो। इनका विवेकपूर्ण दोहन करो, इन्हें बिगाड़ों मत, मौसम और प्रकृति के अनुरूप भोजन करो और श्रम आधारित जीवन जीकर शरीर और मन दोनों को स्वस्थ रखो। हाथी-घोड़े, सोना, चांदी आदि असली धन नहीं हैं। असली धन तो है संतोष धन जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समानइन सिद्धांतों पर चलकर दुनिया का कोई भी देश सुखी हो सकता है। पर यह ज्ञान दुनिया को भारत के सिवाय कौन देगा ? दुख की बात तो यह है कि टीवी चैनलों पर इन सिद्धांतों को रात-दिन बखान करने वाले हमारे धर्माचार्य ही इन सिद्धांतो के विपरीत जीवन जी रहे हैं। पांच सितारा भोगवादी जिंदगी जीने वाले तथा कथित संत-महंत लोगों को सनातन धर्म की क्या शिक्षा देंगे ? इसलिए लोगों को हकीकत बताने वाला कोई नहीं। अब तक पश्चिमी विकास माॅडल की चकाचैंध हमें अपने आकर्षण से खींचे लिए जा रही थी। पर अब वहां अंधेरा है। किसी को रास्ता नहीं सूझ रहा। रास्ता मिलेगा तो भारत के इन्हीं सनातन मूल्यों में से। गांधी के ग्राम स्वराज्य में से। दादी-नानियों के उपदेशों में से। पर कोई सुनने वाला तो हो। अगर नेता, मीडिया, धर्माचार्य व बुद्धिजीवी इन बातों को समझ लेंगे तो सही दिशा की तरफ लौटना सरल हो जाएगा। अगर हम अभी भी पश्चिम के मोह में फंसे रहेंगे तो हालात हमें और हमारे हुक्मरानों को अपनी सोच बदलने पर मजबूर कर देंगे।

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