Sunday, April 12, 2009

आर्थिक पैकेज या अपराधियों को ईनाम

भारत में हर दल का नेता वोटों के लिए देश की जनता को सपने दिखाने में जुटा है। जबकि हालत यह है कि नये सपने पूरे होना तो दूर मौजूदा हालात में अर्थव्यवस्था को चलाये रखना ही एक बड़ी चुनौती बन चुका है। अभी हमारे देश के लोगों को इस मंदी के कारणों का पूरी तरह से अंदाजा नहीं है। पर जैसे-जैसे दुनिया के समझदार लोग समझते जा रहे हैं, जनता का आक्रोश बढ़ता जा रहा है। अब यह साफ हो चुका है कि पिछली दशाब्दी की आर्थिक प्रगति एक बहुत बड़ा धोखा था, जालसाजी थी और आम जनता की लूट का सामान था। लोगों को यह समझ में आ रहा है कि अपने अधिकारियों को करोड़ो रूपये महीने के वेतन देने वाली कम्पनियाँ जनता के साथ कैसा धोखा कर रही थीं। भारत में हुआ सत्यम घोटाला तो एक झलक मात्र है। आजकल ई-मेल के माध्यम से पूरी दुनिया में इस खेल के जानकार लोग तमाम तरह की सूचनाऐं एक दूसरे को भेज रहे हैं। जिनमें दुनिया के प्रमुख औद्योगिक घरानों के सत्यम जैसे घोटालों के समाचार फ्लैश किये जा रहे हैं। ये ई-मेल भेजने वाले सवाल कर रहे हैं कि तमाम तथ्य मौजूद होने के बावजूद क्या वजह है कि सरकारें इन कम्पनियों के विरूद्ध जाँच नहीं करवा रही?

क्या वजह है कि भारत में सरकार पर दोष मढ़ने वाले विपक्ष के नेता भी इन मामलों पर खामोश रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि चुनाव के दौर में इन कम्पनियों के मालिकों ने विपक्षी राजनेताओं को भी मोटी थैलियाँ देकर खामोश कर दिया है? इसलिए भ्रष्टाचार की बात तो हर दल का नेता कर रहा है पर अपने वक्तव्यों में सत्यम जैसे घोटाले की जाँच की माँग करने की हिम्मत इनमें से किसी की नहीं है। शायद उन्हें डर है कि इस प्रक्रिया में कहीं उनका औद्योगिक जगत से नाता न बिगड़ जाये।

पर दुनिया के जागरूक नागरिक और चार्टर्ड एकांटेट, जो वित्तीय बाजार के खेल को अच्छी तरह जानते हैं, वे इस सबसे बहुत उद्वेलित हैं। इनका आरोप है कि पिछली दशाब्दि में जितने भी लोग खरबों रूपये के लाभ कमाकर बड़े पैसे वाले बने हैं, उन्होंने अपने-अपने देश में वित्तीय व्यवस्था के साथ तालमेल बिठाकर आम जनता को लूटा है। जनता को शेयर बेचकर उसके खून-पसीने की गाढ़ी कमाई बटोरना और उसके ही पैसे से कम्पनियाँ खड़ी करना और ऐशो-आराम की जिंदगी में पैसे को धुएँ में उड़ाना, ये इन रईसों का पेशा रहा है। इसलिए इन वर्षों में शेयर बाजारों में हवाई किले बनाये गये। मसलन अमरीका में पिछले दशक में औद्योगिक जगत का मुनाफा कुल सकल घरेलू मुनाफे का 41 प्रतिशत था। इस तरह आम लोगों में शेयर मार्केट की ललक पैदा की गयी। आम जनता अपने मेहनत की, खून पसीने की कमाई इनके शेयरों में लगाती रही और उसके बैंकर और सलाहकार उसे गुमराह कर शेयरों का तेजी से हस्तांतरण करते और करवाते रहे। इस तरह इन वित्तीय सलाहकारों ने अपने आम निवेशकों को जमकर उल्लू बनाया और अपना उल्लू सीधा किया। अब जब गुब्बारा फूटा तो अर्थव्यवस्था का काल्पनिक रूप से उठना और इतनी नीचाई तक जाकर गिर जाना कितने ही युवाओं और काबिल लोगों को बर्बाद कर चुका है। उनके जीवन भर की कमाई डूब चुकी है। हताशा में ऐसे लोग आत्महत्यायें कर रहे हैं।

दुनिया के कई देशों की जनता में आक्रोश है कि उनकी सरकारों ने ऐसा क्यों होने दिया? क्यों नहीं आम जनता के हक की रक्षा की? बात इतनी सी नहीं है। अब इन घोटालेबाज कम्पनियों की जाँच करने की बजाये या दोषियों को सजा देने की बजाये सरकारें इन कम्पनियों को मोटे-मोटे आर्थिक पैकेज देकर नव जीवन प्रदान कर रही है। इसमें गलत कुछ भी नहीं था अगर ये सामान्य स्थिति में किया जाता। क्योंकि डूबती अर्थव्यवस्था को उबारना सरकार का कर्तव्य होता है। पर अगर आपराधिक रूप से आर्थिक साजिशें करके अर्थव्यवस्था का नकली महल खड़ा किया गया हो और वो धराशायी हो जाये तो इसे अपराध ही माना जाना चाहिए। फिर अपराधियों को सजा मिलनी ही चाहिए। क्योंकि अगर ऐसे आर्थिक अपराधियों को आर्थिक पैकेज देकर बचाया जायेगा तो दो बाते होंगी। एक तो भविष्य के लिए कोई सबक नहीं सीखेगा। दूसरा इन बड़े लोगों के आर्थिक घोटालों और अपराधों का खामियाजा भी आम जनता को ही भुगतना पड़ेगा। क्योंकि जो मोटी रकम इन्हें पैकेज के तौर पर इन्हें बैंकों से मिल रही है वह भी दरअसल छोटे व मझले लोगों की जीवन भर की कमाई है। अब अगर बैंकों में या सरकार के बाॅण्डों में लगा उनका यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष विनियोग भी डूब जाता है तो उनकी रही-सही बचत भी हाथ से निकल जायेगी। देश कंगाली के रास्ते पर चल पड़ेंगे।

इस चुनाव में बहुत सारे टी.वी. चैनल जनता की आवाज उठाने का दावा कर रहे हैं। पर आश्चर्य की बात है कि इन सवालों को पूछने के लिए न तो वे वित्तीय जानकारों को बुला रहे हैं और न ही उनका सामना बड़े राजनेताओं से करवा रहे हैं। केवल बयानों की राजनीति और टी.वी. स्टूडियो में बुलाकर नूरा कुश्ती करवाकर ये चैनल जनता का कोई भला नहीं कर रहे। पर यह मुद्दा आज उतना ही गम्भीर है जितना भ्रष्टाचार और आतंकवाद का। चुनाव के दौर में इस पर बहस हो या न हो, पर चुनाव के बाद यही मुद्दा सबके गले की फांस बनने वाला है। कमजोर और मिली जुली सरकार अगर केन्द्र में काबिज होती है तो वह सहयोगी दलों की ब्लैकमेलिंग के आगे कुछ भी ठोस करने में सक्षम नहीं होगी। ऐसे में हालात बद से बदतर होंगे। देश के निष्पक्ष अर्थशास्त्रियों और वित्त विशेषज्ञों को इन सवालों पर जनता के बीच एक बहस खड़ी करनी चाहिए। जनता को सच्चाई बतानी चाहिए। उसे भविष्य के लिए आगाह करना चाहिए। उन्हें ही इस भंवर से निकलने का रास्ता सुझाना चाहिए।

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