Sunday, July 19, 2009

जाके पांव ना फटी बिवाई

36 सांसद और पूर्व मंत्री नई दिल्ली के महलनुमा सरकारी बंगले अवैध रूप से कब्जा करे बैठे हैं। जिनमें रामविलास पासवान, जार्ज फार्नाडीज, शंकर सिंह बाघेला व सुखवीर सिंह बादल शामिल हैं। कानून के मुताबिक चुनाव हारने या पद से हटने के 30 दिन बाद इन्हें ये बंगले खाली कर देने चाहिए। अन्यथा इन पर एक लाख रूपया महीना किराया चढ़ता है और यह भी सीमित समय तक ही करना संभव है। इन नेताओं की इस जबरदस्ती के कारण सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायाधाीशों की नियुक्ति रूकी पड़ी है। क्योंकि उन्हें देने के लिए सरकार के पास बंगले नहीं है। इस कारण पहले से लंबित पड़े मुकदमों में और देरी हो रही है।

प्रश्न उठता है कि लोकतंत्र के कर्णधारों को आम जनता का वोट मिलने के बाद आम जनता से काटकर रातों रात राजसी ठाट-बाट क्यों दिया जाता है? क्यों उनकी आदत बिगाड़ी जाती है? क्यों उनके वैभव पर गरीब जनता के कर का पैसा बर्बाद किया जाता है? इंग्लैंड व अमरीका दो देशों के संविधान से नकल करके हमने अपने लोकतंत्र की कई परंपरायें स्थापित की हैं। यह दोनों ही देश भारत के मुकाबले कई ज्यादा संपन्न हैं। पर इन देशों में भी सांसदों और नेताओं को लंदन या वाशिंगटन डीसी में अपने परिवार के साथ रहने को बंगला या अपार्टमेंट नहीं मिलता। केवल एक काम चलाऊ यूनिट मिलती है जिसमें वह अपना दफ्तर चला सकते हैं। जब इतने धनी देश अपने नेताओं पर यह फिजूल खर्चे नहीं करते तो हम क्यों नहीं इस बर्बादी को रोकते? ममता बनर्जी जैसे राजनेता कम ही हैं, पर यह सिद्ध करने के लिए काफी है कि बड़े से बड़ा और गंभीर से गंभीर मंत्रालय संभालने वाले व्यक्ति को भी बंगले की जरूरत नहीं होती। पहली यूपीए सरकार में गृहमंत्री रहे इन्द्रजीत गुप्ता मंत्री बनने के बाद भी जनपथ स्थित वैस्टर्नकोर्ट के अपने सरकारी फ्लैट में ही रहते रहे व गृहमंत्री के लिए आवंटित बड़ा बंगला लेने से मना कर दिया।

होता यह है कि जब आप किसी छोटे से गांव, कस्बे या शहर से चुनाव जीत कर आये पार्टी के एक कार्यकर्ता को रातों-रात राजसी ठाट-बाट मुहैया करा देते हैं तो उसका जमीन से नाता टूट जाता है। उसका परिवार दिल्ली आकर बस जाता है। जिससे अपने मतदाताओं से उसका रहा बचा संबंध भी समाप्त होने लगता है। उसे पता ही नहीं चलता कि जनता कैसे रह रही है। यह लोकतंत्र के हित में नहीं है। जरूरत इस बात की है कि इन सांसदों व नेताओं को दिल्ली में या प्रांतों की राजधानी में दो-दो कमरे के फ्लैट दिये जांए जिनमें इनका कार्यालय चले और यह स्वयं संसद या विधान सभाओं के अधिवेशन के दौरान दिल्ली या राज्यों की राधानी में रह सके। जबकि हर सांसद या विधायक के लिए अपने परिवार को अपने संसदीय या विधान सभा क्षेत्र में ही रखना अनिवार्य होगा। इससे न सिर्फ भारी फिजूल खर्ची बचेगी बल्कि राजनेताओं में अपने मतदाताओ के प्रति जिम्मेदारी का भाव भी बढ़ेगा।

आर्थिक संकटों से जूझती सरकारें अपने सांसदों और विधायकों और मंत्रियों के लिए बनाए गए बंगलों को पर्यटन विभाग को सौंप कर उनका व्यवसायिक लाभ उठा सकती हैं या उनमें सामाजिक सारोकार के कार्यक्रम चला सकतीं हैं। जिनमें भाग लेने आने वाले देशभर के आम लोगों को इन बंगलों के खुले बगीचों में बैठकर देश की समस्याओं पर आपस में विचार विमर्श करने का मौका मिल सके। दिल्ली में सरकारी बंगलों को हासिल करने के लिए हमेशा मार मची रहती है। बड़े से बड़े अधिकारियों या अन्य आवंटियों की कोशिश बढि़या से बढि़या बंगला हथियाने की रहती है। बंगला मिलने के बाद कुछ लोग तो अपने या अपने मंत्रालय के साधनों से पचासों लाख रूपया इन बंगलों की साज-सज्जा पर खर्च करते हैं। जिसके लिए इनके पास कोई वैध अनुमति भी नहीं होती। इसमें कुछ क्षेत्रीय दलों को छोड़कर हर दल के नेता शामिल हैं। सुरेश कलमाडी व अमर सिंह के बंगले देखकर तो लगेगा ही नहीं कि यह कोई सरकारी बंगला है। इस प्रवृति का कारण यह है कि जिस नेता को मंत्री बनने के बाद बंगला मिल गया तो वे उसे निजी जायदाद समझने लगते हैं और उसमें इतना रूपया यही सोचकर लगाते हैं कि वे अब जीवन भर यहीं रहने वाले हैं।

यदि सांसदों व विधायकों को बंगले और फ्लैट मिलने बंद हो जांए और उन्हें भी शहर में रहने वाले लोगों की तरह अपने लिए आवास किराये पर ढूंढना हो तो उन्हें जिंदगी की हकीकत दिखाई देगी। वे जान पाऐंगे कि बिना बिजली आए, बिना पानी मिले, बिना चारों तरफ सफाई हुए आम आदमी कैसी जिंदगी जी रहा है। एक कहावत है कि, ‘‘जाके पांव ना फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई’’

मुश्किल इस बात की है कि संसद और विधान सभा में अन्य मुद्दों पर आसमान सिर पर उठा लेने वाले राजनैतिक दल जब सांसदों और विधायकों की सुविधाओं का सवाल आता है तो बिना हिचक एकजुट व एकमत हो जाते हैं और हर उस प्रस्ताव को झट से पारित कर देते हैं जिसमें उनकी सुविधायें बढ़ रही हों और हर उस कदम का विरोध करते हैं जहां उन पर अंकुश लगाने की बात सामने आती है। ऐसे में बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा? लोग कस्बों और शहरों में बिजली और पानी को तरसते रहेंगे और यह राजनेता इसी तरह जनता के पैसे पर राजसी जीवन जीते रहेंगे।

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