Sunday, August 30, 2009

प्रधानमंत्री जी भ्रष्टाचार की बात मत करो!

सी.बी.आई. और राज्यों के भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो के सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री डाॅ.मनमोहन सिंह ने बड़ी मछलियों को पकड़ने की जरूरत पर जोर दिया और सी.बी.आई. से आत्मविश्लेषण करने को कहा। ये कोई नई बात नहीं। ऐसे हर सम्मेलन में हर प्रधानमंत्री यही कहता है और फिर ऐसा कुछ भी नहीं कर पाता जिससे देश भ्रष्टाचार से मुक्त हो सके। 1997 में भारत के प्रधानमंत्री ने लालकिले की प्राचीर से देश को सम्बोधित करते हुए कहा था कि, ‘‘मैं भ्रष्टाचार के सामने असहाय हू¡’’ गनीमत है कि इन्द्र कुमार गुजराल ने इस असलियत को खुलेआम स्वीकार लिया। डा¡. सिंह को भी स्वीकार लेना चाहिए। क्योंकि वे खुद चाहें जितने ईमानदार हों, भ्रष्टाचार से लड़ नहीं सकते। कारण स्पष्ट है। इस व्यवस्था में जो भी सफल है और सम्पन्न है, उसकी सफलता के पीछे सौ फीसदी नैतिक आचरण नहीं हो सकता। इसके अपवाद सम्भव हैं। पर अमूमन यही देखने में आता है।

आश्चर्य की बात तो ये है कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध सबसे ज्यादा आवाज उठाने वाले लोग ही अगर अपने गिरेबान में झा¡के तो पायेंगे कि खुद उनका ही आचरण अनुकरणीय नहीं रहा। आज की तारीख में मैं ऐसे कितने ही नामी-गिरामी लोगों की सूची यहा¡ दे सकता हू¡ जो भ्रष्टाचार के विरूद्ध बढ़चढ़कर लिखते और बोलते हैं। जबकि उनकी भौतिक सफलता का ग्राफ उनके ज्ञात आय स्रोतों से सैंकड़ों गुना ज्यादा है। किसी का नाम लेने की बात नहीं है, एक सच्चाई है जिसे जानना जरूरी है।

राजनेता के लिए तो भ्रष्टाचार से लड़ना असम्भव ही है। क्योंकि जो राजनैतिक व्यवस्था आज बन चुकी है, उसमें ईमानदार व्यक्ति राजनीति में सफल हो ही नहीं सकता। यही कारण है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए जितने भी कानून बने हैं, वे सब लचर हैं और उनमें सुधार की काफी गुंजाइश है। परन्तु न तो कोई राजनैतिक दल और न ही कोई राजनेता इन कानूनों को सुधारने की बात करता है। जबकि एक बार तो संसद का विशेष अधिवेशन तक इस मुद्दे पर हो चुका है। पर बात भाषण से आगे नहीं बढ़ती।

जब भी देश में कोई संकट आता है, जैसे मुम्बई पर आतंकी हमला या देश में राजनैतिक उथल-पुथल या चुनावों में किसी को स्पष्ट बहुमत न मिलना, तो औद्योगिक जगत के सिरमौर लोग देश के हालात पर चिंता जताने के लिए बैठकें शुरू कर देते हैं। कुछ दमदार उद्योगपति तो अपनी भड़ास अखबारों में बयान देकर निकाल देते हैं। पर इन्हीं के समूह में जब भ्रष्टाचार से निपटने के कानूनों में मूलभूत परिवर्तन करके इनको प्रभावी बनाने की बात आती है तो ये लोग विषय बदल देते हैं या अगली बैठक में इस चर्चा को उठाने की बात करके बैठक समाप्त कर देते हैं। कारण साफ है, बड़े-बड़े औद्योगिक साम्राज्य बिना नेता और अफसरशाही को मोटे-मोटे कमीशन दिये खडे़ नहीं होते। उत्पादन कर, आयकर, आयात शुल्क आदि ऐसे कर हैं जिन्हें बचाने का काम लगभग हर उद्योगपति करता है। इसी तरह विदेशी खातों में पैसा जमा करना पैसे वालों के लिए आम बात है। यह पैसा हवाला के जरिये देश के बाहर ले जाया जाता है, इसलिए गैरकानूनी है। इसलिए कोई नहीं चाहता कि स्विट्जरलैंड के बैंकों से भारत का धन वापिस लाया जाये। इसे चुनाव में भाजपा ने मुद्दा भले ही बनाया हो, पर अगर सत्ता में आ जाती तो लागू करने की हिम्मत भाजपा की भी नहीं थी।

अप्रवासी भारतीय फिलहाल तो आर्थिक मंदी की मार झेल रहे हैं। पर साल दो साल पहले तक जब उनके जेब में पैसा खनकता था तो वे भारत को सुधारने की बात करते थे। सबसे ज्यादा आलोचना भारत में व्याप्त भ्रष्टाचार की करते थे। कई बार इन देशों में भाषण देने गया हू¡। हर बार मेरे मेजबान रात्रि भोज के बाद भ्रष्टाचार का मुद्दा उठा देते थे और मुझसे कहते थे कि आप देश में आन्दोलन खड़ा कीजिए, हम मदद करेंगे। चूंकि कानूनन यह मदद नहीं ली जा सकती थी, इसलिए मैंने प्रस्ताव को कभी गम्भीरता से नहीं लिया। पर यही अप्रवासी भारतीय जब भारत आते हैं तो ढूंढते हैं उन सम्पर्कों या दलालों को जिनकी मार्फत रिश्वत देकर इस देश में लटके हुए अपने कामों को ये सुलटा सकें। कुल मिलाकर मामला ये है कि अप्रवासी भारतीय भी घडि़याली आ¡सू बहाते हैं और व्यवस्था का अनुचित लाभ लेने में हिचकते नहीं हैं।

देश में अनेक ऐसे समाजसेवी हैं जिन्हें देश उनके काम के कारण जानता है। ये वो लोग हैं जिनके विचार अक्सर पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ये लोग खूब बोलते हैं और कानून में क्रांतिकारी परिवर्तन की वकालत करते हैं। पर जब कोई ठोस मुद्दा देश के सामने आता है और उसमें इनके समर्थक फंसे होते हैं तो उनकी क्रांतिकारिता ठण्डी पड़ जाती है।

कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि जिन्हें भ्रष्ट व्यवस्था से लाभ है, वे क्रांतिकारी कदम उठाते नहीं हैं। पर देश की बहुसंख्यक आबादी साधारण जीवन स्तर जीती है और भ्रष्टाचार की सबसे ज्यादा मार इन पर ही पड़ती है। पर न तो ये संगठित हैं और न ही लम्बी लड़ाई लड़ सकते हैं। ऐसे में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कोई भी ताकतवर समूह या नेता नहीं है। सब जबानी जमा खर्च करते हैं। इसलिए भ्रष्टाचार को काबू नहीं किया जा सकता। इसलिए प्रधानमंत्री को उतना ही बोलना चाहिए जितना वो करके दिखा सकें।

Sunday, August 23, 2009

भाजपा को भी सोनिया गांधी की जरूरत

सुनने में यह अटपटा लगेगा पर हकीकत यही है कि सोनिया गांधी को विदेशी मूल का बताकर भारतीय राजनीति के परिदृश्य से 10 बरस पहले हटाने की मुहीम चलाने वाली भाजपा को ही आज “kk;n सोनिया गांधी के नेतृत्व की जरूरत है। जो पार्टी को एक जुट रख सके। वरना पार्टी लगातार बिखरती जा रही है। जसवंत सिंह को इस तरह बे-आबरू करके कूचे से निकाला जाना यह सिद्ध करता है कि भाजपा में आज नेतृत्व नाम की कोई चीज बची नहीं है। दिशाहीनता और भारी हताशा के बीच बिना सोचे समझे एक के बाद एक अटपटे फैसले लिये जा रहे हैं। अचानक संघ एक बार फिर मंच पर सामने आ गया है और खुलकर भाजपा के अंदुरूनी मामलों में दखल दे रहा है। राजस्थान में वसुंधरा राजे के नेतृत्व पर उठा विवाद हो या आडवाणी का वारिस चुनने का सवाल दूसरी लाईन के नेताओं में काफी तू-तू मै-मै हो रही है। आडवानी की कुर्सी पर निगाह रखने वालों की लंबी कतार है। सब दूसरे को नीचा दिखाकर अपने नंबर बढ़ाने चाहते हैं। कहीं मौका न छूट जाए। भाजपा के शिखर नेतृत्व में बैठने के लिए जो अनुभव और संस्कार चाहिए वो इनमें दिखाई नहीं दे रहा है।

सबसे प्रबल दावेदार माने जाने वाले नरेन्द्र मोदी का ग्राफ गिरना “kqरू हो गया है।  पहले तो वे संघ और विहिप की आंखों में खटकते थे पर अब भाजपा नेतृत्व का एक बड़ा वर्ग मोदी को राष्ट्रीय परिदृश्य में आने नहीं देना चाहता। इसलिए भाजपा में उनकी खिलाफत करने वाले काफी लोग है। खुद मोदी भी अभी गुजरात छोड़ना नहीं चाहते। सुषमा स्वराज और अरूण जेटली दोनों ही भाजपा के नेतृत्व के लिए स्वयं को सबसे बड़े दावेदार मानते हैं। समस्या यह है कि इन दोनों ही नेताओं का कोई प्रभावशाली जनाधार नहीं है। पर एक बात स्पष्ट है कि अगर भाजपा हालात से मजबूर होकर और संध के दबाव फिर से हिंदुत्व को अपनाना चाहती है तो सुषमा स्वराज का नेतृत्व हिंदुत्व के ज्यादा निकट है जबकि दूसरी तरफ से अरूण जेटली के आध्यात्मिक रूझान के कोई प्रमाण अभी तक नहीं मिले है। जेटली की छवि रणनीतिकार व चुनाव व्यवस्था करने की ज्यादा है हिंदुत्व के मुद्दे पर लड़ने की नहीं। ऐसे में कैसे उम्मीद की जाए कि जेटली हिंदुत्व की लहर पैदा कर देंगे।

उधर राजनाथ सिंह कब से आस लगाए बैठे हैं कि उन्हें दल में नंबर एक पोजिशन मिले। वे तो चुनाव के पहले यह भी कहते थे कि कि इंग्लैंड में लोकतंत्र की परंपराओं की तरह भारत में भी विपक्ष के नेता को ही प्रधानमंत्री बनना चाहिए। पर आडवाणी जी ने उन्हें उसी वक्त चुप करवा दिया था। चुनावी परिणाम ने तो आडवाणी जी की भी यह हसरत पूरी नहीं की। इसलिए आडवाणी जी ने विपक्ष के नेता का पद छोड़ने का अपना निर्णय लटका दिया। “kk;n वे चाहते हैं कि उत्तराधिकार का मामला उनके सामने ही निपट जाए। पर यह टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। आज पूरी भाजपा दिशाहीन है। उसके प्रमुख विचारक, लेखक, सांसद, पत्रकार व मंत्री रहे अरुण ही भाजपा के नेतृत्व पर तोपें दाग रहें हैं। आज भाजपा में अगर सोनिया गांधी जैसा नेतृत्व होता तो उसकी ऐसी दुर्गति नहीं होती। भाजपा के समर्थक कहेंगे कि वे वंशवाद में नहीं लोकतंत्र में विश्वास करते हैं। इसलिए यह परिस्थिति अपरिहार्य है। पर सवाल है कि जसवंत सिहं को हटाया जाना या राजनेताओं के पुत्र-पुत्र वधुओं को चुनाव में लड़ाना या कार्यकर्ताओं के मतों की उपेक्षा कर दिल्ली से निर्णय थोपना क्या लोकतांत्रिक परंपराओं का प्रमाण है?

पिछले दो दशक में हिंदुत्व से जुड़े मुद्दों पर भाजपा नेतृत्व ने जिस तरह बार-बार अपनी नीति और बयान बदले हैं उससे उसकी विश्वसनीयता उसके ही वोट बैंक के बीच खतरे में पड़ गयी है। इस चुनाव में भाजपा के खराब प्रदर्शन का कारण उसकी गिरी हुई साख ही है। ऐसे में उसे अपनी विचारधारा के विषय में गंभीर चिंतन करना चाहिए। जब तक दृष्टि साफ न हो जाए तब तक कोई नीति घोषित नहीं करनी चाहिए। शिमला की चिंतन बैठक में ऐसे सवालों पर चर्चा होनी चाहिए थी फिर वो चाहे जसवंत सिहं की किताब का सवाल ही क्यों न हो। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। चैबे जी चले थे छब्बे बनने, दुबे बनकर लौटे।

आश्चर्य की बात यह है कि भाजपा के रणनीतिकार केन्द्र में अपनी सरकार न बनने से इतने हताश हैं कि उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा। यह दुखद स्थिति है। पांच बरस अपनी खोई प्रतिष्ठा को लौटाने का अच्छा अवसर है। चिंतन, मंथन, क्रियानवन सब कुछ इस तरह किया जा सकता है कि भाजपा राष्ट्र और व्यापक हिंदू हितों की पैरोकार बनकर पुनः स्थापित हो सकती है। पर उसके लिए जिस तरह की मेधा, ऊर्जा, ताज़गी और समर्पण चाहिए वैसा एक भी नेता भाजपा में आज दिखाई नहीं दे रहा है। यदि कोई हो और उसे मौका मिले तो वह इस हताशा को आशा और नये उत्साह में बदल सकता है। सत्ता की नहीं जनता की बात करनी होगी। मजबूती से अपनी बात रखनी होगी। राहुल गांधी को हल्की तरह से लेने वाले आज धीरे-धीरे राहुल के व्यक्तित्व और प्रयासों के मुरीद होते जा रहे हैं। सारा समाज कभी किसी एक नेता या दल के पीछे नहीं चलता। हर विचारधारा के समर्थक समाज में होते हैं। जिसका पलड़ा भारी दिखता है बाकी लोग उसके पीछे खड़े होने लगते हैं। भाजपा को २ाायद यही डर सता रहा है कि राहुल गांधी की कार्यशैली और रफ्तार अब भाजपा को जल्दी पैर जमाने नहीं देगी। इसलिए संघ और उसके नेतृत्व ने हिंदुत्व की बात करना “kqरू कर दिया है। पर यह मानना कि लोग भाजपा को इस मामले में गंभीरता से लेंगे बचपना होगा। लोग इतने मूर्ख नहीं है कि हिंदुत्व के मामले पर भाजपा नेतृत्व के लचर और अवसरवादी इतिहास को भूल जाए। इसलिए बयानों और नारों से आगे बढ़ना होगा। वरना भाजपा अपनी सार्थकता खो देगी।

Sunday, August 16, 2009

रियल्टी शो की रियल्टी

दुनिया भर के संसाधनों का दोहन कर पिछले चार दशकों में सम्पन्नता के शिखर पर पहुचा पूरा अमरीकी समाज सुख सुविधाओं के सागर में डूब गया था। मेहनत कम और आमदनी ज्यादा। सामाजिक सुरक्षा की गारण्टी। कल्याणकारी राज्य के फायदे। नतीजा ये कि बिना कुछ करे भी मौज-मस्ती की गारण्टी। जैसे रोज रसगुल्ला  खाया जाये तो आकर्षण समाप्त हो जाता है। ऐसे ही मौज-मस्ती के सभी पारंपरिक तरीके अमरीकी समाज में जब पिट गये तो नये तरीके खोजे जाने लगे। समलैंगिकता को महिमामंडित करना, बिना विवाह के साथ रहना और संतान उत्पन्न करना, कामोत्तेजक साहित्य, फिल्म, संगीत, उपकरण व सजीव शो इसी दिशा में किये गये कुछ बेहद सफल प्रयोग थे। पिछले दशक के प्रारम्भ तक इनका कारोबार खूब पनपा। फिर लोग उबने लगे। ऐसे में उपभोक्तावाद को बढ़ाने की दृष्टि से बाजार की शक्तियों ने टी.वी. जैसे सशक्त माध्यम को लोगों की मानसिकता बदलने का औजार बनाया। रियल्टी शो इसी प्रक्रिया का हिस्सा हैं।

जंगल में लोगों को खुला छोड़ देना और उनके जीवट का फिल्मांकन कर दिखाना वास्तव में एक रोमांचक रियल्टी शो है। आजकल भारत में दिखाये जा रहे मुझे इस जंगल से बचाओशो इसी भावना पर आधारित हैे। इसमें कथानक स्वंय विकसित होता है। पात्र नाटक न कर वास्तविक अभिव्यक्ति करते हैं। रोमांच, अवसाद और हर्ष के क्षण स्वभााविक रूप से आते-जाते रहते हैं। यह सब कुछ इतना सहज होता है कि दर्शक टी.वी. के पर्दे से चिपका रहता है। दावा किया जाता है कि ऐसे रियल्टी शो बच्चों और बढ़ों को मानसिक रूप से विषम परिस्थितियों का सामना करने के लिए तैयार करते हैं। पर हकीकत ये है कि आज के आधुनिक युग में जब संचार और यातायात के साधनों का जाल बिछ चुका है, ऐसी विषम परिस्थिति का सामना करने के हालात करोड़ों लोगों में से शायद ही किसी एक-दो के सामने आते हों। कुल मिलाकर पूरा खेल लोगों की तकलीफ को दिखाकर सनसनी पैदा करना, अपना शो लोकप्रिय बनाना और विज्ञापनों को बढ़ावा देना है। इन्हें देखकर जो दिल और दिमाग पर असर पड़ता है, उसके नुकसान का आंकलन अभी भारत में शुरू नहीं हुआ। पर पश्चिमी देशों में इस पर खूब अध्ययन हुये हैं। यही कारण है कि वहाॅ पढ़े-लिखे समझदार लोग टी.वी. को बुद्धू बक्साकहते हैं।

सच का सामनाभी इसी क्रम में एक रियल्टी शो है, जिसकी मूल भावना बहुत घातक है। यह शो लोगों के निजी जीवन में इतनी कड़वाहट पैदा कर देता है कि भागीदार आत्महत्या तक करने को मजबूर हो जाता है। शो के प्रस्तुतकर्ता अपने समर्थन में कुछ भी तर्क क्यों न दें, सच्चाई तो यह है कि लोगों को पैसे का लालच देकर उनके निजी प्रसंगों का प्रसारण करना उस व्यक्ति ही नहीं उसके पूरे परिवार और परिवेश पर घात्क प्रभाव डालता है। पैसे की चाहत में भागीदार नुकसान का अनुमान नहीं लगा पाते और निर्माता रूपी बाजारू शक्तियों के शिकंजे में फंस जाते हैं। जैसे भोले-भाले किशोर नशीले दवाओं के सौदागरों के कब्जे में फंसकर यह भूल जाते हैं कि क्षणिक सुख उनका पूरा जीवन तबाह करने वाला है।

सच ही दिखाना है या सच का सामना ही करना है तो इस देश में ऐसा बहुत कुछ है जिसे दिखाकर देश के हालात सुधारे जा सकते हैं। आज देशी घी के नाम पर चर्बी बेची जा रही है। खाद्यानों और फल-सब्जियों में जहरीले रसायन मिलाये जा रहे हैं। विकास के कार्यक्रमों को लेकर जो लूट मची है, उससे आम जनता कितनी तबाह है। हमारा जीवन प्र्रक्रति के प्रति कितना असंवेदनशील हो गया है कि हम खुद ही अपने लिए और अपने बच्चों के लिए खाई खोद रहे हैं। बाजार की शक्तिया¡ किस तरह बाजार पर नियन्त्रण कर हमारे जीवन को स्थायी रूप से असुरक्षित और तनावग्रस्त बना रही हैं? ऐसा बहुत कुछ घट रहा है जिसे दिखाकर लोगों की भावनाओं को सद्मार्ग की ओर प्रेरित किया जा सकता है। उन्हें विकल्प बताये जा सकते हैं। जिससे समाज और राष्टृ को वास्तविक रूप में सुखी और सम्पन्न बनाया जा सकता है। पर ऐसे कार्यक्रम पहले ही कम थे, अब बिल्कुल गायब होते जा रहे हैं। खैनी का विज्ञापन देने वाले क्यों चाहेंगे कि लोग खैनी खाने के खतरों से आगाह किये जायें? वे ऐसे किसी कार्यक्रम को विज्ञापन नहीं देंगे। यही हाल दूसरे उत्पादनों का भी है। विज्ञापन मिलेगा उससे जिसका मुनाफा तगड़ा है। मुनाफा तगड़ा उसका होगा जो समाज का ज्यादा से ज्यादा अहित करेगा। ऐसा विज्ञापन देने वाला क्यों चाहेगा कि लोगों को जगाने वाले कार्यक्रम बनें? इसलिए लोगों को भयाक्रांत, विचलित, तनावग्रस्त व अनावश्यक रूप से चिन्तित करने वाले कार्यक्रम बनाये जा रहे हैं। लोगों की फीयर साइका¡सिसयानि भय की मानसिकताको भुनाने का जघन्य कार्य किया जा रहा है। डरा दिमाग जल्दी आत्मसमर्पण कर देगा। समर्पित दिमाग को काबू करना आसान होगा। फिर चाहे रासायनिक फ्रूटी बेचनी हो या आत्मघाती अन्य साजो सामान। जितने ये शो लोकप्रिय होते जायेंगे, उतना ही बाजारू शक्तियाॅं हमारे दिलो-दिमाग पर काबिज होती जायेंगी। फिर हम गुलाम की जिंदगी जीयेंगे और तब ये निहित स्वार्थ हमें अपना हर कचरा माल बेचने में सफल हो जायेंगे।

भारत का समाज नकारात्मक वस्तुओं से नहीं, सकारात्मक प्रतीकों से आनन्द लेता आया है। जितने त्यौहार, उत्सव व मेले भारत में होते हैं, इतने अन्यत्र नहीं। इनके माध्यम से गरीब और अमीर सब आनन्द लेते हैं और यह आनन्द नित्य बढ़ता ही है, घटता नहीं। जबकि बाजारू शक्तियों द्वारा दिये जा रहे मनोरंजन के पैकेज से अन्ततः जीवन में निराशा, घुटन, अकेलापन, व्याधि व दुःख आता है। इंसान जीवनी शक्ति खो देता है। अमरीकी समाज में पिछले दशकों में यही हुआ। फिर यह आक्रोश हिप्पी संस्कृति’, अनैतिक यौनाचार, हिंसा और अपराध और अन्ततः आत्महत्याओं में परिणीत होता चला गया। इसलिए अब वहा के लोग तेजी से जाग रहे हैं और दुनियाभर में अपनी समस्याओं के समाधान के लिए आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और पारंपरिक समाधान खोज रहे हैं। पर्यटन और अध्ययन के माध्यम से पूर्वी संस्कृति को जानने की कोशिश कर रहे हैं और हम सबकुछ होते हुये उनके कूड़े के ढेरों को अपने घर में सजाकर खुश होने का भ्रम पाल रहे हैं।

Sunday, August 9, 2009

खुफिया तंत्र का आतंकवाद

कभी दुनिया के देशों में राजनैतिक हत्यायें कराने वाली सी.आई.ए. आज ओबामा के अमरीकी प्रशासन में जाँच का सामना कर रही है। आंतकवाद के नाम पर पकड़े गये नौजवानों को जेल में दी गयी यातनाओं के लिए उनसे सवाल पूछे जा रहे हैं। मानवाधिकार से जुड़े संगठन ब्रिटेन में वहाँ की खुफिया एजेंसी एम17 को कचहरी में घसीट रहे हैं। नतीजतन इन देशों के खुफिया अधिकारी अब अपने काम में कानूनी सलाह लेने लगे हैं। आतंकवाद, मानवाधिकार और कानून का पालन इन तीनों के रिश्ते कभी मधुर नहीं रहे, विरोधाभासी रहे हैं।

आतंकवाद के लिए जिम्मेदार लोग अमानवीय हैं, पाश्विक हैं, निर्मम हैं, इसलिए उनके साथ कोई उदारता नहीं बरती जानी चाहिए। इस पर लगभग हर उस व्यक्ति की सहमति होगी जिसने आतंकवाद का सामना किया है या उसके खौफ में जी रहा है। इस मानसिकता के लोग मानवाधिकार या कानून की प्रक्रिया को आतंकवाद खत्म करने के रास्ते में रोड़ा मानते हैं। मुम्बई हमले का आरोपी आमिर कसाब जिसने छत्रपति शिवाजी स्टेशन पर दर्जनों निरीह लोगों को मौत के घाट उतार दिया, जिनमें हिन्दू और मुसलमान शामिल थे, उसका क्या मानवाधिकार बचा और क्या कानूनी हक बचा? इन दोनों ही प्रक्रियों को आतंकवाद के खात्मे में रूकावट मानने वाले पुलिस अधिकारी चाहें वे भारतीय पुलिस के हों या अमरीकी पुलिस के, मानते हैं कि आतंकवादी को देखते ही गोली मार देनी चाहिए। एक बार पंजाब के पूर्व पुलिस महानिदेशक के.पी.एस. गिल से एक जनसभा में प्रश्न पूछा गया कि एन.डी.ए. सरकार ने आतंकवादियों को कांधार जाकर  रिहा कर दिया, क्या आप इसे उचित मानते हैं? श्री गिल का उत्तर था, उन्हें गिरफ्तार ही क्यों किया गया? जब लोगों को यह उत्तर समझ में आया तो पूरे हाॅल में ठहाका लग गया। बिना कहे गिल का उत्तर था कि उन्हें पहले ही मार देना चाहिए था।

दूसरी तरफ मानवाधिकार वाले यह मानते हैं कि हर वह व्यक्ति जिसे पुलिस गिरफ्तार करती है, जरूरी नहीं कि आतंकवादी ही हो। शक के बिनाह पर गिरफ्तार किया गया नौजवान निर्दोष भी हो सकता है। जैसा कि न्यूयाॅर्कपर फ्राइडेफिल्म में दिखाया गया है। ऐसे नौजवानों को पूछताछ के नाम पर जो यातनाऐं दी जाती हैं, वह उसकी जिन्दगी तबाह कर सकती हैं। उसे न चाहते हुए भी आतंकवादी बनने पर मजबूर कर सकती हैं। अमरीकी प्रशासन के तहत 2002 में सी.आई.ए. ने पूछताछ के तरीकों के इजाफाका गुप्त निर्देश जारी किया था। जिसमें पूछताछ के लिए धरे गये कैदी को पानी में डुबो-डुबो कर तड़पाना, उसके चारों तरफ तेज रोशनियाँ जलाकर उसे खड़े रखकर कई दिनों तक सोने न देना, उसे पकड़कर दीवार से पटक-पटककर मारना, उसे इस तरह उल्टा लटकाना या बेहद तकलीफदेह स्थिति में रखना जिसमें उसकी हिम्मत जबाव दे जाये या उसे ऐसे तंग डिब्बे में बंद कर देना जिसमें आक्रामक जहरीले कीड़े हों, जो उसे बार-बार काटकर सतायें, जैसी यातनायें शामिल थीं। इन निर्देशों के तहत 11 सितम्बर, 2001 के अमरीकी हमले के मुख्य आरोपी खालिद शेख मोहम्मद को 183 बार पानी में डुबो-डुबो कर तड़पाया गया।

बराक ओबामा ने ऐसे सारे अमानवीय तरीकों पर पाबन्दी लगा दी है। इतना ही नहीं ग्वांतानामो खाड़ी में मौजूद अमरीकी जेल को एक वर्ष के भीतर बन्द करने की घोषणा भी की है। अमरीकी फौज की यह जेल युद्ध में गिरफ्तार किये गये सैनिकों और अफसरों की यातना के लिए विश्वभर में बदनाम हो चुकी है। जाहिर है कि सी.आई.ए. के अधिकारी राष्ट्रपति ओबामा के इन क्रांतिकारी कदमों से खुश नहीं हैं और यह मानते हैं कि इससे आतंकवाद के खिलाफ काम करने वाली एजेंसियों का मनोबल गिरेगा। पर दूसरी तरफ अमरीका और यूरोप के समाज में लगभग आधी आबादी इन सुधारों का समर्थन कर रही है। इन लोगों का मानना है कि इस तरह के अमानवीय व्यवहार से आतंकवाद खत्म होने की बजाय बढ़ेगा। ऐसे समुदाय का मानना है कि आतंकवादी के मानवाधिकारों और कानूनी अधिकारों की भी रक्षा की जानी चाहिए और उसे कचहरी में अपनी बात रखने का हक दिया जाना चाहिए। पर खुफिया एजेंसियाँ इससे सहमत नहीं हैं। उन्हें इस बात की चिन्ता है कि अगर अदालतेें इस तरह आतंकवाद से जुड़े मामलों में हर कार्यवाही पर प्रश्नचिन्ह खड़े करेंगी और उनके पीछे तर्क व प्रमाण मांगेगी तो उनके लिए काम करना असंभव हो जायेगा। वे दावा करती हैं कि उनके ऐसे सख्त रवैये के कारण ही अमरीका में 9/11 के बाद से आज तक कोई आतंकवादी घटना नहीं हुयी। दरअसल खुफिया एजेंसियों का काम करने का तरीका अनादिकाल से खुफिया ही रहा है। वे दूसरे देशों में अफवाह फैलाने, सरकारी तंत्र के लोगों को रिश्वत देने, राजनैतिक हत्याऐं कराने, षडयंत्र रचने और समाज में अराजकता फैलाने का काम हमेशा से करती आयी हैं। महान राजनीतिज्ञ चाणक्य पण्डित ने खुफिया एजेंसियों के काम के तरीकों के बारे में विस्तार से लिखा है और उनके काम के महत्व की स्थापना की है। जो राष्ट्र की सुरक्षा के लिए किया जाता है। े

भारत जैसे देश में जहाँ आतंकवादियों को राजनेताओं, पुलिस अधिकारियों व हवाला कारोबारियों का संरक्षण और समर्थन हासिल है, वहाँ तो शायद इस बहस की अभी सार्थकता स्थापित होने में समय लगेगा। क्योंकि हमारी समस्या तो ये है कि हमारा तंत्र भ्रष्टाचार और कामचोरी के कारण आतंकवाद को सीधे या परोक्ष रूप से समर्थन दे रहा है।

दरअसल इस पूरे मामले का एक पक्ष और भी है, जो कहता है कि कोई आतंकवादी बनता क्यों है, इसकी जाँच की जानी चाहिए। साम्यवादी बंगाल में भी हिंसक नक्सलवादी आंदोलन इसलिए शुरू हुआ क्यांेकि साम्यवाद का ढिढांेरा पीटने वाली पश्चिमी बंगाल की सरकार अपनी जनता के बुनियादी हक भी सुनिश्चित नहीं कर सकी। मजबूरन युवाओं को आतंकवाद व हिंसा का सहारा लेना पड़ा। यही बात देश के अन्य हिस्सों पर भी लागू होती है, जहाँ बलात्कार के बाद भी पुलिस से राहत न मिलने के कारण बलात्कार की शिकार हुयी युवती नक्सलवादी या डाकू बन जाती है और बन्दूक उठा लेती है। कानून का समान रूप से लागू न होना, आर्थिक विषमताओं का बढ़ते जाना, एक संस्कृति पर बाहरी संस्कृति थोपना, कुछ ऐसे कारण हैं जो हताशा और हिंसा को जन्म देते हैं, जिनकी जाँच की जानी चाहिए। इसलिए राष्ट्र की सुरक्षा और कानून का पालन दोनों जरूरी हैं। पर इस उदारता के साथ कि हम हिंसा के कारणों को भी जानने और दूर करने के लिए ईमानदारी से प्रयास करें। अन्यथा समाज में अशांति बढ़ेगी।

Sunday, August 2, 2009

हाई प्रोफाइल अपराधों में कैसे हो गवाहों की सुरक्षा?

ऐसे मामलों की फेहरिस्त बहुत लंबी है जब अपराधी किसी पैसे वाले, बड़े राजनेता या नामी परिवार का कुलदीपक होता है तो कितने भी गवाह क्यों न हों, आखिर तक टिके नहीं रहते। अपने बयान से मुकर जाते हैं। बार-बार बयान बदलते हैं। साफ जाहिर है कि उन्हें मुंह मांगी रकम देकर खरीद लिया जाता है या उन्हें डरा धमकाकर खामोश कर दिया जाता है। इसलिए अब सर्वोच्च न्यायालय ऐसे मामले में संवेदनशील हो गया है। हाल ही में माननीय न्यायाधीशों ने कहा, ‘‘हमारे देश में गवाहों की सुरक्षा की बहुत जरूरत है।’’

संजीव नंदा के बी.एम.डब्ल्यू मामले में चश्मदीद गवाह सुनील कुलकर्णी को न्यायालय में कड़ी फटकार लगाई गई और उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने के आदेश दिये गये। अदालत को इस बात पर नाराजगी है कि सुनील कुलकर्णी ने इस मामले में बार-बार बयान बदले हैं। भारतीय नौसेना के पूर्व एडमिरल के पोते संजीव नंदा पर आरोप है कि उसने 10 जुलाई, 1999 की रात अपनी बी.एम.डब्ल्यू कार से दिल्ली की लोदी रोड पर 6 लोगों को कुचल कर मार डाला। हथियारों के सौदे में बडे स्तर का अंतर्राष्ट्रीय कारोबार करने वाले नंदा परिवार के इस नौनिहाल को लेकर देश में बहुत बहस चली। गवाह के मुकर जाने से अब संजीव के बरी होने का समय आ गया है।

दक्षिणी दिल्ली के एक पाॅश इलाके में जैसिका लाल की हत्या कुलीन लोगों की शराब पार्टी के बीच दर्जनों चश्मदीद गवाहों की मौजूदगी में हुई। जिनमें राजनेता, पुलिस आधिकारी, नामी वकील व दिल्ली की मशहूर हस्तियां शामिल थीं। पर 29 गवाहों के मुकर जाने से इस मामले में पूर्व राष्ट्रपति का पोता मनु शर्मा बरी हो गया। यही बात 2002 के वदोदरा के साम्प्रदायिक दंगे के मशहूर बेस्ट बेकरी केस में भी हुई। पूर्व सांसद अहसान जाफरी की हत्या के मामले में चश्मदीद गवाह जाहिरा शेख ने बार-बार बयान बदल कर मामले को पेचीदा बना दिया। उसे अदालत की खासी फटकार मिली। इतना ही नहीं दिल्ली के एक छोटे व्यापारी ललित सुनेजा की पत्नी वीना सलूजा अपने ही पति की हत्या के मामले में अपने बयान से मुकर गई। नतीजतन अंडर वल्र्ड सरगना बबलू श्रीवास्तव इस मामले में बरी हो गया।

इस देश में बेगुनाह गरीबों को बरसों जेल के सीखचों में डालकर रखा जाता है। उनके खिलाफ आरोप पत्र तक दाखिल नहीं होते। आम आदमी को न्याय के लिए बरसों अदालतो ंके धक्के खाने पड़ते हैं। पर रईसजादों के अपराधों पर पर्दा डालकर उन्हें जल्दी से जल्दी बरी करा लिया जाता है। क्योंकि इन मुकदमों के गवाहों को अपराधी पक्ष द्वारा मैनेजकर लिया जाता है। चूंकि इन गवाहों की सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है इसलिए भी कुछ गवाह मुकर जाते हैं। कुछ बरस पहले मैं एक व्याख्यान देने कोलकाता गया। मेरे मेजबान का भतीजा चार्टड एकाउंटेंड था और बेहद भयभीत था। उसे धनबाद के कोयला खान माफिया के खिलाफ रांची की अदालत में सीबीआई की तरफ से गवाही देनी थी। वो जाने से घबरा रहा था। क्योंकि खान माफिया ने उसे फोन पर जान से मारने की धमकी दी थी। इधर सीबीआई अदालत में पेश न होने पर उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने की धमकी दे रही थी। उसकी पत्नी रो-रोकर बेहाल थी। मैंने सीबीआई के तत्कालीन निदेशक श्री त्रिनाथ मिश्रा से वहीं से बात की और उनसे अनुरोध किया कि इस व्यक्ति को कोलकाता से रांची सुरक्षित लाने ले जाने की जिम्मेदारी उनके क्षेत्रीय अधिकारी सुनिश्चित कर दें। यह व्यवस्था हो गई और वह अगली तारीख पर गवाही दे आया। पर ऐसी व्यवस्था हर उस गवाह के लिए नहीं होती जिसे ऐसी विषम परिस्थतियों का सामना करना पड़ता है। एक तरफ कुंआ दूसरी तरफ खाई। गवाह करे तो क्या करे?

आपराधिक कानून में गवाह एक अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष होता है। हत्या व बलात्कार जैसे संगीन जुर्मों के अपराधी भी गवाह के अभाव में अक्सर छूट जाते हैं। जांच ऐजेंसियों को मुकदमे को अंतिम परिणाम तक ले जाने के लिए अपराध के सबूतों के साथ गवाहों को भी ढू़ंढने की भारी कवायद करनी पड़ती है। कानून की प्रक्रिया की जटिलता के चलते आसानी से कोई गवाह बनने को तैयार नहीं होता। उसे डर होता है कि गवाह बनकर उसकी जिंदगी बरबाद हो जायेगी। उसके लिए मुश्किलें बढ़ जायेंगी। ऐसे में अगर कुछ लोग हिम्मत करके अपनी अंतरआत्मा की आवाज पर गवाही देने को तैयार हो जाते हैं तो समाज को उनका आभार मानना चाहिए। कानून की प्रक्रिया को चलाने में मदद देने वाले इन लोगों को यह आश्वासन मिलना चाहिए कि उन्हें गवाही देकर परेशानी में नहीं डाला जायेगा। इतना भी न हो तो कम से कम उनकी सुरक्षा की व्यवस्था तो सरकार को करनी ही चाहिए।

ऐसा नहीं है कि देश के न्यायविद्ों को इस समस्या का अहसास नहीं है। भारत के विधि आयोग की  14वीं, 154वीं व 172 वीं रिपोर्ट में गवाहों की सुरक्षा को लेकर कई सुझाव दिये गये। जिन पर कायदे से अमल नहीं किया गया। 2003 में एक मामले की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि इस देश में गवाहों की सुरक्षा के लिए न तो कोई कानून है और न ही केन्द्र और राज्य सरकारों ने कोई नीति ही बनाई है।

कई बार यह बात उठी कि ऐसे संनसनीखेज मामलों में, जिनमें ताकतवर लोग अपराधी हों, गवाहों की पहचान को छिपा दिया जाए। पर न्यायाविद् इससे सहमत नहीं है। कानून के मुताबिक अपराधी को भी गवाह से अदालत में सवाल पूछने को हक होता है। अगर गवाह की पहचान छिपा दी जायेगी तो कानून की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होगी। इसलिए मौजूदा व्यवस्था में ही गवाहों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के कानूनी और प्रशासनिक कदम उठाने की जरूरत है। हाई प्रोफाइल मुकदमों में देश की जनता के सामने व मीडिया में हो रही ऐसे मुकदमों की किरकिरी से सबक लेकर व सर्वोच्च न्यायालय की इस पहल से केन्द्र व राज्य सरकारें अब इस गंभीर मुद्दे की उपेक्षा नहीं कर सकती। उन्हें गवाहों की सुरक्षा के लिए कानून बनाना ही होगा। यह बात दीगर है कि कानून बनने के बाद उसे लागू करवाना भी आसान नहीं होगा। पर पहले आगाज़ तो हो, अंजाम फिर देखा जायेगा।