Sunday, August 30, 2009

प्रधानमंत्री जी भ्रष्टाचार की बात मत करो!

सी.बी.आई. और राज्यों के भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो के सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री डाॅ.मनमोहन सिंह ने बड़ी मछलियों को पकड़ने की जरूरत पर जोर दिया और सी.बी.आई. से आत्मविश्लेषण करने को कहा। ये कोई नई बात नहीं। ऐसे हर सम्मेलन में हर प्रधानमंत्री यही कहता है और फिर ऐसा कुछ भी नहीं कर पाता जिससे देश भ्रष्टाचार से मुक्त हो सके। 1997 में भारत के प्रधानमंत्री ने लालकिले की प्राचीर से देश को सम्बोधित करते हुए कहा था कि, ‘‘मैं भ्रष्टाचार के सामने असहाय हू¡’’ गनीमत है कि इन्द्र कुमार गुजराल ने इस असलियत को खुलेआम स्वीकार लिया। डा¡. सिंह को भी स्वीकार लेना चाहिए। क्योंकि वे खुद चाहें जितने ईमानदार हों, भ्रष्टाचार से लड़ नहीं सकते। कारण स्पष्ट है। इस व्यवस्था में जो भी सफल है और सम्पन्न है, उसकी सफलता के पीछे सौ फीसदी नैतिक आचरण नहीं हो सकता। इसके अपवाद सम्भव हैं। पर अमूमन यही देखने में आता है।

आश्चर्य की बात तो ये है कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध सबसे ज्यादा आवाज उठाने वाले लोग ही अगर अपने गिरेबान में झा¡के तो पायेंगे कि खुद उनका ही आचरण अनुकरणीय नहीं रहा। आज की तारीख में मैं ऐसे कितने ही नामी-गिरामी लोगों की सूची यहा¡ दे सकता हू¡ जो भ्रष्टाचार के विरूद्ध बढ़चढ़कर लिखते और बोलते हैं। जबकि उनकी भौतिक सफलता का ग्राफ उनके ज्ञात आय स्रोतों से सैंकड़ों गुना ज्यादा है। किसी का नाम लेने की बात नहीं है, एक सच्चाई है जिसे जानना जरूरी है।

राजनेता के लिए तो भ्रष्टाचार से लड़ना असम्भव ही है। क्योंकि जो राजनैतिक व्यवस्था आज बन चुकी है, उसमें ईमानदार व्यक्ति राजनीति में सफल हो ही नहीं सकता। यही कारण है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए जितने भी कानून बने हैं, वे सब लचर हैं और उनमें सुधार की काफी गुंजाइश है। परन्तु न तो कोई राजनैतिक दल और न ही कोई राजनेता इन कानूनों को सुधारने की बात करता है। जबकि एक बार तो संसद का विशेष अधिवेशन तक इस मुद्दे पर हो चुका है। पर बात भाषण से आगे नहीं बढ़ती।

जब भी देश में कोई संकट आता है, जैसे मुम्बई पर आतंकी हमला या देश में राजनैतिक उथल-पुथल या चुनावों में किसी को स्पष्ट बहुमत न मिलना, तो औद्योगिक जगत के सिरमौर लोग देश के हालात पर चिंता जताने के लिए बैठकें शुरू कर देते हैं। कुछ दमदार उद्योगपति तो अपनी भड़ास अखबारों में बयान देकर निकाल देते हैं। पर इन्हीं के समूह में जब भ्रष्टाचार से निपटने के कानूनों में मूलभूत परिवर्तन करके इनको प्रभावी बनाने की बात आती है तो ये लोग विषय बदल देते हैं या अगली बैठक में इस चर्चा को उठाने की बात करके बैठक समाप्त कर देते हैं। कारण साफ है, बड़े-बड़े औद्योगिक साम्राज्य बिना नेता और अफसरशाही को मोटे-मोटे कमीशन दिये खडे़ नहीं होते। उत्पादन कर, आयकर, आयात शुल्क आदि ऐसे कर हैं जिन्हें बचाने का काम लगभग हर उद्योगपति करता है। इसी तरह विदेशी खातों में पैसा जमा करना पैसे वालों के लिए आम बात है। यह पैसा हवाला के जरिये देश के बाहर ले जाया जाता है, इसलिए गैरकानूनी है। इसलिए कोई नहीं चाहता कि स्विट्जरलैंड के बैंकों से भारत का धन वापिस लाया जाये। इसे चुनाव में भाजपा ने मुद्दा भले ही बनाया हो, पर अगर सत्ता में आ जाती तो लागू करने की हिम्मत भाजपा की भी नहीं थी।

अप्रवासी भारतीय फिलहाल तो आर्थिक मंदी की मार झेल रहे हैं। पर साल दो साल पहले तक जब उनके जेब में पैसा खनकता था तो वे भारत को सुधारने की बात करते थे। सबसे ज्यादा आलोचना भारत में व्याप्त भ्रष्टाचार की करते थे। कई बार इन देशों में भाषण देने गया हू¡। हर बार मेरे मेजबान रात्रि भोज के बाद भ्रष्टाचार का मुद्दा उठा देते थे और मुझसे कहते थे कि आप देश में आन्दोलन खड़ा कीजिए, हम मदद करेंगे। चूंकि कानूनन यह मदद नहीं ली जा सकती थी, इसलिए मैंने प्रस्ताव को कभी गम्भीरता से नहीं लिया। पर यही अप्रवासी भारतीय जब भारत आते हैं तो ढूंढते हैं उन सम्पर्कों या दलालों को जिनकी मार्फत रिश्वत देकर इस देश में लटके हुए अपने कामों को ये सुलटा सकें। कुल मिलाकर मामला ये है कि अप्रवासी भारतीय भी घडि़याली आ¡सू बहाते हैं और व्यवस्था का अनुचित लाभ लेने में हिचकते नहीं हैं।

देश में अनेक ऐसे समाजसेवी हैं जिन्हें देश उनके काम के कारण जानता है। ये वो लोग हैं जिनके विचार अक्सर पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ये लोग खूब बोलते हैं और कानून में क्रांतिकारी परिवर्तन की वकालत करते हैं। पर जब कोई ठोस मुद्दा देश के सामने आता है और उसमें इनके समर्थक फंसे होते हैं तो उनकी क्रांतिकारिता ठण्डी पड़ जाती है।

कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि जिन्हें भ्रष्ट व्यवस्था से लाभ है, वे क्रांतिकारी कदम उठाते नहीं हैं। पर देश की बहुसंख्यक आबादी साधारण जीवन स्तर जीती है और भ्रष्टाचार की सबसे ज्यादा मार इन पर ही पड़ती है। पर न तो ये संगठित हैं और न ही लम्बी लड़ाई लड़ सकते हैं। ऐसे में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कोई भी ताकतवर समूह या नेता नहीं है। सब जबानी जमा खर्च करते हैं। इसलिए भ्रष्टाचार को काबू नहीं किया जा सकता। इसलिए प्रधानमंत्री को उतना ही बोलना चाहिए जितना वो करके दिखा सकें।

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