Sunday, October 18, 2009

क्या बिक रहे हैं देवस्थान के मंदिर ?



गत दिनों एक प्रमुख दैनिक के प्रथम पृष्ठ पर एक बड़ी खबर छपी कि देवस्थान विभाग के मंदिरों को राजस्थान सरकार बेचने जा रही है। खबर का शीर्षक ही पाठकों को आन्दोलित करने के लिए काफी था। इस खबर के दो हिस्से थे। एक यह कि सरकार इन मंदिरों को बेचने का फैसला कर चुकी है। दूसरा यह है कि भू-माफियाओं के ट्रस्ट ने वृन्दावन के राधामाधव मंदिर के लिए आवेदन किया है। यह दोनों ही सूचनाएं असत्य हैं। आश्चर्य होता है यह देखकर कि प्रमुख अखबारों के संवाददाता भी कैसे बिना जांच परख के न सिर्फ अपनी रिपोर्ट अखबार के कार्यालय में दाखिल कर देते हैं बल्कि उसे इतना सनसनीखेज बना देते हैं कि झूठ भी सच लगने लगे।

राजस्थान सरकार ने अभी तक ऐसी कोई नीति नहीं बनाई है जिसके तहत वह देवस्थान विभाग के मंदिरों को बेचने जा रही हो। जनता की चुनी हुई कोई भी सरकार ऐसा मूर्खतापूर्ण कार्य आसानी से नहीं कर सकती। फिर अशोक गहलोत तो बहुत ही संभलकर चलने वाले मुख्यमंत्री हैं। इस खबर में उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के वृन्दावन स्थित श्री राधामाधव मन्दिर के बारे में जो कुछ लिखा है वह भी तथ्यों से परे है। खबर में जिन दामोदर बाबा को उद्ध्रत किया गया है, उनका अपना आचरण ही इस खबर का आधार होना चाहिए था। क्योंकि वृन्दावन स्थित राधामाधव मन्दिर पर ये दामोदर बाबा गत् दो दशक से अवैध कब्जा जमाये बैठे हैं। इस खबर को पढ़ने से लगता है कि दामोदर बाबा को मन्दिर के भविष्य की चिंता है, जो उनका नाटक मात्र है।

दरअसल दो दशक पहले वृन्दावन के संत श्रीपाद बाबा ने ब्रज अकादमीबनाने व भजन करने के लिए राधामाधव मन्दिर, वृन्दावन का एक हिस्सा राजस्थान सरकार से अस्थायी रूप में लिया था। श्रीपाद बाबा ने अपने जीवनकाल में अपना कोई उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं किया। उन दिनों श्रीपाद बाबा के सम्पर्क में रहने वाले वृन्दावन के चश्मदीद गवाह बताते हैं कि बाबा के इर्द-गिर्द मंडराने वाले ब्रजेश, राकेश और दामोदर बाबा ने श्रीपाद बाबा से बार-बार ट्रस्ट बनाने को कहा। पर बाबा ने इन्हें फटकार दिया और कहा कि मैं अपने मरने के बाद तुम्हें अपने नाम पर दुकानदारी नहीं चलाने दूँगा। वृन्दावनवासी बताते हैं कि इन लोगों ने श्रीपाद बाबा की भावना के विपरीत कार्य किया और वहीं श्रीराधामाधव मन्दिर में जबरन बाबा की समाधि बना दी। जिसका इन्हें कोई कानूनी अधिकार नहीं था। इसके लिए इन्होंने देवस्थान विभाग से अनापत्ति पत्र भी नहीं लिया था। इतना ही काफी न था, इन लोगों ने श्रीपाद बाबा द्वारा जतन से इकट्ठा की गयी पाण्डुलिपियों के स्वामित्व पर भी कानूनी विवाद खड़ा करके करोड़ों रूपये मूल्य की पाण्डुलिपियों को दीमकों के हवाले करके ताले में बन्द करवा दिया। जिससे राधामाधव मन्दिर का एक बड़ा हिस्सा आज भी बन्द है और उसका भवन लगातार ध्वस्त होता जा रहा है। अपने को श्रीपाद बाबा का शिष्य बताने वाले दामोदर बाबा ने इसी राधामाधव मन्दिर में लम्बी-चैड़ी गौशाला खड़ी करके इस मन्दिर के ज्यादातर हिस्से पर कब्जा जमा लिया। जिससे मन्दिर का रहा बचा सौन्दर्य भी जाता रहा। उल्लेखनीय है कि उक्त खबर देने वाले संवाददाता ने इस तथ्य को खबर में छिपाया ही नहीं बल्कि पाठकों को गुमराह करने की कोशिश की है और लिखा है कि मन्दिर के पास गौशाला चलाने वाले दामोदर बाबा।जबकि हकीकत यह है कि यह दामोदर बाबा राधामाधव मन्दिर में ही आज भी अवैध कब्जा जमाये बैठा है।

जहाँ तक भूमाफियाओं के कब्जे का सवाल है तो यह सही है कि आर्थिक संसाधनों के अभाव में देवस्थान विभाग के कई मन्दिर इसी तरह के लोगों ने अवैध रूप से कब्जे में ले रखे हैं। राजस्थान सरकार के देवस्थान विभाग के पास न तो इतने साधन हैं और न ही अधिकारी जो इन मंदिरों को संभाल सके। पर आश्चर्य की बात है कि इन कब्जा करने वालों के चरित्र और व्यक्तित्व पर इतने वर्षों में किसी संवाददाता ने कोई खोज नहीं की। कैसे यह लोग देवस्थान मंदिर की संपत्तियों पर कबिज हुए? कैसे इन्होंने मंदिर परिसरों को अपनी निजी जागीर की तरह बना लिया? कैसे इन लोगों ने निराधार कानूनी विवाद खड़े कर के देवस्थान विभाग को मुकदमों में उलझा दिया? क्यों देवस्थान विभाग आज तक इन मंदिरों पर से कब्जे नहीं हटवा पाया? कैसे चल रही है इन मंदिरों की सेवा-पूजा? कितने दशक लगेंगे जब देवस्थान के यह अधिकारी इन मंदिरों को कब्जों से मुक्त करा पाएंगे? क्या इन मंदिरों के खर्चे उनकी आमदनी से कई गुना ज्यादा हैं? इन मंदिरों की दयनीय आर्थिक दशा सुधारने के लिए क्या नीति बनाई अब तक राजस्थान की सरकारों ने?

कब्जे हटेंगे नहीं, मुकदमें चलते रहेंगे, हाकिम दौरे नहीं करेंगे, मंदिरों की संपत्ति साधनों व देखभाल के अभाव में खंडहर होती जा रही है। कब्जेदार उन पर अवैध निर्माण करवा रहे हैं। भक्त और दर्शनार्थी इन मंदिरों की तरफ मुंह भी नहीं करते। मंदिरों में विराजे देवों की सेवा-पूजा के लिए देवस्थान विभाग के पास कोई संसाधन नहीं है। ऐसे में क्या है इन मंदिरों का भविष्य?

माफिया या अवैध कब्जेदार इन पर काबिज रहे और इन्हें हज़म कर जाएं या राजस्थान की सरकार बुद्धिमानी से ऐसी नीति बनाए जिसमें इन मंदिरों को ऐसी संस्थाओं को सौंपा जा सके जो इनके जीर्णाेद्धार में मोटी रकम लगाने को तैयार हो। जो इन मंदिरों में से अवैध कब्जे हटवाने की ताकत रखतीं हो। जो इन मंदिरों का कलात्मक जीर्णाेद्धार करवा सके। जो मंदिरों के विग्रहों की श्रेष्ठ सेवा की व्यवस्था कर सके। जो अपनी बुद्धि, योग्यता, नवीनता, निष्कामता से देवस्थान विभाग के इन मंदिरों को सजा-संवारकर उनका अगले 30-40 वर्षों तक रख-रखाव करने को तैयार हो। जो इतना सारा धन और साधन इन मंदिरों पर लगाने के बाद भी इनके स्वामित्व का कोई हक न मांगते हो। जो राजस्थान सरकार के इन मंदिरों के प्रति नहीं निभ पा रहे फर्ज को अपने साधनों से निभाने को तैयार हों। जिनके ट्रस्टी चरित्रवान, समाज में प्रतिष्ठित और योग्य व्यक्ति हो। ऐसी संस्थाएं अगर इन मंदिरों की निष्काम भावना से सेवा करने को तैयार हों तो भला राजस्थान सरकार को इसमें आपत्ति क्यों होनी चाहिए?

पर सरकार को यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि जिस संस्था को वह इन मंदिरों के जीर्णाद्धार व रख-रखाव का दायित्व सौंपे उस संस्था ने इस क्षेत्र में अपने काम से अपनी विश्वसनीयता व साख कायम की हो। ऐसी संस्थाओं के साथ करार करके राजस्थान सरकार न सिर्फ अपनी धरोहरों को सुरक्षित कर लेगी बल्कि फिर से उन्हें आध्यात्मिक गतिविधियों से झंकरित कर देगी। दो संस्थाओं के बीच इस करार में सरकार का पक्ष हमेशा हावी रहेगा। ऐसे में किसी संस्था को भी देवस्थान विभाग की संपत्ति से खिलवाड़ करने की छूट नहीं होगी। खबर लिखने वाले संवाददाताओं को ऐसे तमाम सवालों के जवाब खोजने चाहिए थे। अधकचरी सूचना और तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर छापने से संवाददाता और उस अखबार की विश्वसनीयता पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाते हैं। देवस्थान विभाग के मंदिर हमारी विरासत हैं। इनकी बढि़या देख-भाल और इनका जीर्णोद्धार होना राजस्थान की जनता के लिए हर्ष की बात होगी। बिना स्वामित्व खोए अगर राजस्थान सरकार ऐसी कोई अनूठी योजना बना सकती है तो निश्चित रूप से इन धरोहरों का भविष्य सुरक्षित होगा। अन्यथा यह क्रमशः धर्म के व्यापारियों या भू-माफियाओं के हाथ में सरकती जाएंगी।

Sunday, October 11, 2009

राजमार्गों के कातिल चालक

Rajasthan Patrika 11 Oct 2009
सऊदी अरेबिया में औद्योगिक सलाहकार का काम करने वाले राकेश सिंह ने 7 दिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के ढाबों और सड़कों पर बिताए। वे जानना चाहते थे कि गत मई महीने में उनके 16 वर्षीय जवान बेटे को कुचलकर भागने वाला ट्रक ड्राईवर कौन था? आखिर उन्हें कामयाबी मिली। जो काम उ0प्र0 पुलिस नहीं कर सकी, वो एक जागरूक और दुःखियारे पिता ने कर दिखाया। बावजूद इसके ट्रक ड्राईवर को इलाहाबाद उच्च न्यायालय से जमानत मिल गयी। इस खोज के दौरान श्री सिंह को पता चला कि राजमार्गों पर भारी वाहन चलाने वाले ड्राईवर मात्र 100 रूपया रिश्वत देकर भी ड्राईविंग लाईसेंस प्राप्त कर लेते हैं। स्वीकृत सीमा से कई गुना ज्यादा लदान करते हैं और ट्रक का संतुलन नहीं रख पाते। आये दिन जानलेवा दुर्घटनाऐं करते रहते हैं। मौजूदा कानून इस मामले में बहुत लचर है। अब वे नीतिश कटारा की माँ की तरह इन हत्यारे ड्राईवरों के विरूद्ध एक जेहादछेड़ना चाहते हैं ताकि उनके इकलौते बेटे की कुर्बानी बेकार न जाये।

राकेश सिंह इस लड़ाई में अकेले नहीं हैं। देशभर में लाखों माँ-बाप हैं जो अपने आँखों के तारों को इन लापरवाह ड्राईवरों की बलि चढ़ते देख चुके हैं। संजीव नंदा के बी.एम.डब्ल्यू. केस का क्या हुआ, ये सारे देश ने देखा। एक तरफ तो हम राष्ट्रमंडल खेलों के लिए देश की राजधानी को अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप देना चाहते हैं, दूसरी तरफ ये वही राजधानी है जहाँ ब्ल्यू लाइन बसें राकेश सिंह की तरह ही हजारों पिताओं को पुत्रविहीन कर चकी है। एक तरफ तो हमारे सड़क परिवहन मंत्री बीस कि.मी. राजमार्ग रोज बनाने का लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं, दूसरी तरफ इन्हीं राजमार्गों पर हर रोज न जाने कितनी मौतें ऐसे लापरवाह चालकों के हाथों हो रही हैं। एक तरफ तो 240 कि.मी. प्रति घंटा की रफ्तार से चलने वाली दुनिया की सबसे मंहगी कारें भारत में बनने और बिकने लगी हैं और दूसरी ओर सड़कों का आलम ये है कि आवारा पशु से लेकर साईकिल सवार तक, बैलगाड़ी से लेकर भारी ट्रक तक, सब एक ही सड़क पर चलते हैं। नतीजतन बेगुनाह लोग अकारण सड़क हादसों में जान गंवा बैठते हैं। इस पूरे मामले में राज्य और केन्द्र की सरकार सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। राकेश सिंह के शब्दों में तो सरकार ही इन अपराधों की गुनाहगार है। क्योंकि वह न तो ऐसे कानून बनाती है जिनसे ये दुर्घटनाऐं रूक सकें और न ही मौजूदा कानून में बदलाव करती है जिससे लापरवाह चालकों के मन में कानून का डर पैदा हो। इस मामले में दिल्ली के आबकारी मंत्री अशोक वालिया ने एक बढि़या पहल की है। उन्होंने सार्वजनिक स्थलों पर शराब पीने वालों पर पचास हजार रूपये तक का जुर्माना और नकली शराब बनाने वाले को मृत्यु दण्ड दिये जाने के कानून को दिल्ली विधानसभा में प्रस्तुत किया है।

कुछ इसी तरह का प्रावधान वाहन चालकों के संदर्भ में भी किया जाना चाहिए। अयोग्य व्यक्ति को ड्राईविंग लाईसेंस दिलवाने या देने वाले सभी अधिकारियों को आजीवन कारावास का प्रावधान किया जाना चाहिए और लापरवाही से वाहन चलाने वाले उन ड्राईवरों को जो बेगुनाह लोगों की जान ले लेते हैं, मृत्यु दण्ड या इसके समकक्ष सजा की व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि इन वाहन चालकों के मन में कानून का डर बैठ सके। यहाँ एक सवाल उठेगा कि ये फेसला कैसे किया जाये कि दुर्घटना के लिए जिम्मेदार कौन है? चालक या दुर्घटना का शिकार मारा गया व्यक्ति! ऐसा भी होता है जब दुर्घटना में मरने वाला अपनी ही लापरवाही से मारा जाता है। अभी पिछले हफ्ते दिल्ली-आगरा राजमार्ग पर दो बीस वर्षीय युवा अपनी नई मोटर साईकिल पर तेजी से गलत दिशा में जा रहे थे और सामने से आते हुए ट्रक से भिड़ गये और वहीं खत्म हो गये। प्रायः ऐसे हादसों में आसपास के गाँव वाले भीड़ लगा लेते हैं और कारण जाने बिना चालक की अच्छी तरह मरम्मत कर देते हैं। जबकि इस दुर्घटना के मृतकों के पिताओं ने माना कि उनके बेटे अपनी गलती से मारे गये हैं। कभी-कभी ट्रक चालक भी मानवीयता का नमूना प्रस्तुत करते हैं। मुरादाबाद के एक ट्रक चालक सरदार सोहन सिंह के ट्रक के सामने अचानक भागती हुयी एक दस बरस की ग्रामीण लड़की आ गयी। वे सीमा के भीतर ट्रक चला रहे थे। पर इस अप्रत्याशित स्थिति का सामना नहीं कर सके। लड़की कुचलकर मर गयी। नित्य ग्रंथसाहब का पाठ करने वाले सोहन सिंह जी का कलेजा मुँह को आ गया। क्लीनर के लाख चेतावनी देने के बावजूद वे नहीं माने और मौके से भागे नहीं। उस सुनसान सड़क पर पड़ी लाश को गोद में लेकर 2 कि.मी. दूर पैदल चलकर उस लड़की के घर पहुँचे। जाहिरन वहाँ कोहराम मच गया। गाँव वालों ने उनकी भलमनसाहत की परवाह न करते हुए उनकी धुनाई कर दी। फिर भी वे लड़की के घरवालों को जो धन उनके पास था, देकर ही वहाँ से हटे। यह एक असामान्य स्थिति है। पर ऐसे चालक भी होते हैं। अगर कानून इतना सख्त हो जायेगा तो कभी-कभी ऐसे बेगुनाह चालकों को भी इसका शिकार बनना पड़ेगा। इसलिए कानूनविद् इस मामले में एकमत नहीं हैं।

यह पेचीदा स्थिति है। कानून सख्त नहीं होगा तो सड़क हादसे नहीं रूकेंगे और सख्त होगा तो कभी-कभी बेगुनाह उसका खामियाजा भुगतेंगे। जरूरत इस बात की है कि सड़क दुर्घटनाओं के विषय में कानून बनाते समय इन तथ्यों का ध्यान रखा जाये। ऐसी गंुजाइश छोड़ी जाये कि जाँच के बाद अगर यह सिद्ध होता है कि दुर्घटना के लिए वाहन चालक जिम्मेदार नहीं है तो उसे किसी भी तरह की सजा या मृतक के परिवार को कोई भी मुआवजा देने के लिए बाध्य न किया जाये।

केवल कानून बनाने से ही समस्या का हल नहीं निकलेगा। गुजरात में नशाबंदी लागू है। पर महात्मा गाँधी के जन्मस्थान पोरबंदर में सबसे ज्यादा अवैध शराब बिकती है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध तमाम कानून और ऐजेंसियाँ हैं पर आज देश की सर्वोच्च न्यायपालिका के आचरण पर ही उंगलियाँ उठ रही हैं। यही हश्र सड़क दुर्घटना से सम्बन्धित नये कानून का भी हो सकता है अगर उसे लागू करने वाले अधिकारी ईमानदार और सख्त नहीं हैं। मौजूदा कानून में ही चालक लाईसेंस देने के पहले क्या परीक्षाऐं ली जानी चाहिए, इसका विस्तृत विवरण है। पर बावजूद इसके देश के हर लाईसेंसिग कार्यालय में बिना परीक्षा के ड्राईविंग लाईसेंस दिलवाने वाले दलालों की कतारें खड़ी रहती हैं। यहाँ तक कि आपके नाम, फोटो, राशनकार्ड आदि को भी नहीं देखा जाता। गत् दिनांे उत्तर भारत के एक शहर में एक नागरिक ने मुम्बई आतंकी हमले के दोषी मौ0 अजमल कसाब के नाम से ड्राईविंग लाईसेंस बनवा लिया और बाद में उसे पत्रकार सम्मेलन में जारी किया। जब कोई कसाब बनकर लाईसेंस ले सकता है तो असली कसाबों को लाईसेंस लेने में क्या दिक्कत आयेगी? यह शर्मनाक स्थिति है।

प्रधानमंत्री डा¡. मनमोहनसिंह ने राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी में कोई कोताही न बरतने की सख्त हिदायत दी है। उनका कहना है कि अगर कोई कमी रह जाती है तो इससे भारत की अन्तर्राष्ट्रीय छवि धूमिल पड़ेगी। पर उन्होंने यह नहीं बताया कि लचर कानूनों और सरकारी अधिकारियों के भ्रष्ट व गैरजिम्मेदाराना व्यवहार के कारण भारत की छवि नित्य ही कैसे खराब होती जा रही है। राकेश सिंह अपने पुत्र की मौत से भारी दुखी हैं, जो स्वभाविक है। पर संताप के इन क्षणों को इन्होंने जनहित की लड़ाई के लिए ऊर्जा में बदलने का कार्य किया है। आवश्यकता इस बात की है कि सड़क परिवहन या कानून की जानकारी रखने वाले सभी लोग, चाहें वे देश के किसी भी हिस्से में क्यों न हों, इस विषय पर गम्भीर चिंतन करें कि राजमार्गों पर आये दिन होने वाली ऐसी दुर्घटनाओं को कैसे रोका जाये और उसके लिए कैसे कानून बनें?

Sunday, October 4, 2009

हिन्दी चीनी भाई-भाई!

Rajasthan Patrika 4 Oct 2009
47 साल बाद एक बार फिर हिन्दी चीनी भाई-भाईका नारा लगने लगा है। लेकिन राजनैतिक हलकों में नहीं, व्यापारिक हलकों में। ये नारा पं0 नेहरू के पंचशील सिद्धांतके दौर में लगा था। पर 1962 के चीनी हमले ने भारत और पं0 नेहरू दोनों को हिला दिया था। पारस्परिक विश्वास का रिश्ता टूट गया था। एक बार फिर राजीव गाँधी ने चीन से सेतु बंधन का प्रयास किया। ये सारे प्रयास राजनैतिक स्तर पर थे। उदारीकरण के दौर में जब सभी देशों ने अपने दरवाजे खोले तो दुनियाभर में व्यापारिक गतिविधियों में उछाल आया। भारत का बाजार चीनी माल से पट गया। दीवाली के पटाखे और होली के रंग ही नहीं कम्यूनिस्ट चाइना ने हिंदू देवी देवताओं की मूर्तियाँ तक बनाकर भारत भेजनी शुरू कर दीं।

उधर पश्चिमी देश डब्ल्यू.टी.ओ. (विश्व व्यापार संगठन) के मंच पर विकासशील अर्थव्यवस्थाओं पर दबाब बनाने लगे जिससे कि अन्र्तराष्ट्रीय व्यापार को उनके हक में मोड़ा जा सके। उनकी नाजायज शर्तों से सभी विकासशील देश यहाँ तक कि चीन, कोरिया, ताईवान तक बैचेन थे। पर किसी की दाल नहीं गल रही थी। तब इन सब देशों का नेतृत्व संभाला भारत के तत्कालीन वाणिज्य मंत्री कमलनाथ ने। दोहा के सम्मेलन में कमलनाथ ने जमकर विकासशील देशों की पैरवी की और डब्ल्यू.टी.ओ. अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सका। जहाँ देश में कमलनाथ की पीठ ठोकी गयी, वहीं वे पश्चिमी देशों की आँख में किरकिरी बन गये। जानकारों का तो यह तक कहना है कि दोबारा सत्ता में आयी यू.पी.ए. सरकार में कमलनाथ से वाणिज्य मंत्रालय इन्हीं अन्र्तराष्ट्रीय दबाबों के तहत छीना गया। एक बार फिर नये वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा की पहल पर डब्ल्यू.टी.ओ. की वार्ता के दौर शुरू हो चुके हैं। 2010 तक गुत्थी सुलझाने का लक्ष्य रखा गया है।

इस बीच एक रोचक प्रवृत्ति विकसित हुयी है। ऐशियाई देशों में पारस्परिक समझोतों की होड़ लग गयी है। इस वक्त भी लगभग 62 समझौतों के लिए वार्ताऐं अन्तिम चरण में पहुँच रही हैं। जहाँ 1991 में ऐसे कुल 6 समझौते हुए थे, वहीं 1999 में 42 समझौते हुए और इस वर्ष जून तक ही इनकी संख्या 166 पहुँच चुकी है। चाहे वो दो चीन के बीच के समझोते हों या भारत और चीन के बीच या आसियान के देशों के बीच या फिर दक्षिण ऐशियाई देशों के बीच। इन देशों को यह समझ में आ रहा है कि जब कच्चा माल, तकनीकि, कुशल श्रमिक व प्रबन्धकीय योग्यता इन्हीं देशों में मौजूद है तो ये सम्पन्न माने जाने वाले पश्चिमी देशों के जाल में क्यों फंसे? क्यों न आपसी समझौते करके अपने माल को यहीं तैयार करें और जितना बिक सके यहीं बेचें और शेष को बाकी दुनिया के लिए निर्यात करें। वैसे भी अब यह स्पष्ट हो चुका है कि पश्चिमी देशों की आर्थिक वृद्धि की दर बढ़ने वाली नहीं बल्कि घटने की तरफ है। दूसरी तरफ ऐशियाई अर्थव्यवस्थायें अब उठान पर हैं और अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि अगले दशक में ऐशियाई अर्थव्यवस्थायें विशेषकर भारत और चीन बहुत तेजी से आगे बढ़ेगें। ऐसे में यदि ये दोनों देश पारस्परिक आर्थिक सम्बन्धों को सुदृढ़ बनाते हैं तो उससे दोनों को ही भारी लाभ होगा। पश्चिमी देश इसी बात से चितिंत हैं। वे नहीं चाहते कि हिन्दी चीनी भाई-भाईका नारा एशिया में फिर से गूंजे। इसलिए उनकी भरसक कोशिश है कि वे इन दोनों देशों के बीच किसी न किसी तरह खाई पैदा करते रहें। हो सके तो दोनों को भिड़ाते रहें। यह भी न हो तो कम से कम चीन को इस तरह अकेला छोड़ दें जिससे उसकी पश्चिमी बाजार पर पकड़ समाप्त हो जाये। जिससे उसकी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा जाये। चीन इस बात को समझ रहा है। इसीलिए खुले हृदय से एशियाई देशों के साथ लगातार व्यापारिक संधियाँ करता जा रहा है।

इन सन्धियों की कुछ सीमाऐं भी हैं। अन्र्तराष्ट्रीय व्यापार के विशेषज्ञों का मानना है कि इन समझौतों के कारण नियमों और शर्तों का इतना सघन ताना-बाना बुन जाता है कि अन्र्तराष्ट्रीय व्यापार का मार्ग सुगम होने की बजाए और भी जटिल हो जाता है। इसलिए वे एशियाई देशों को ऐसे क्षेत्रीय समझौतों के खतरों के बारे में आगाह करते हैं। पर वे जानते हैं कि इन एशियाई देशों में आर्थिक विशेषज्ञों का स्तर किसी से कम नहीं। बल्कि कई मामलों में तो पश्चिमी देशों के विशेषज्ञों से बेहतर ही है। क्योंकि इनके पास सैद्धान्तिक ज्ञान के अलावा जमीनी अनुभव भी काफी है। जो इन्हें आर्थिक घटनाक्रम का ज्यादा सटीक और सार्थक विश्लेषण करने में मदद करता है। जबकि दूसरी ओर पश्चिम के अर्थशास्त्री पिछले वर्ष आयी भारी मंदी का कोई पूर्वानुमान नहीं लगा सके।

कुल मिलाकर यह स्पष्ट है कि डब्ल्यू.टी.ओ. अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पायेगा। भारत के मौजूद वाणिज्य मंत्री को उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखना होगा। अगर वे पश्चिम की वाहवाही लूटने के लिए डब्ल्यू.टी.ओ. में पूर्व वाणिज्य मंत्री से पलट व्यवहार करते हैं तो न सिर्फ राष्ट्र का अहित होगा बल्कि वे स्वंय भी देश में भारी आलोचना के शिकार बनेंगे। अब देखना यह है कि भारत किस ओर करवट लेता है।