Sunday, December 20, 2009

कोपेनहेगन विफल: अशोक गहलोत सफल

Rajasthan Patrika 20-Dec-2009
जो उम्मीद थी कोपेनहेगन में वही हुआ। न तो विकासशील देश दबे और न ही विकसित देशों ने उनकी मांग मानी। अब दिसम्बर 2010 में मैक्सिको में फिर यही सर्कस होगा। फिर दुनिया भर के हजारों पर्यावरणविदों का मेला जुटेगा, तर्कों की गरमी पैदा होगी पर ग्लेश्यिरों का पिघलना जारी रहेगा। मालदीव, बांग्लादेश, भारत का तटीय क्षेत्र ही नहीं दुनिया के तमाम देश जल प्रलय में डूबने की कगार पर पहुंचते जायेंगे। जैसा हमने अपने पिछले लेख में लिखा था कि जलवायु परिर्वतन को यदि रोकना है तो हमें भारतीय जीवन पद्धत्ति को अपनाना होगा। पश्चिम की उपभोक्तावादी संस्कृति ने जीने के आधार को जितनी तेजी से पिछले कुछ दशकों में खत्म किया है उतना विनाश मानव इतिहास में पिछले लाखों सालों में नहीं हुआ था।

जीवन जीने के लिए और जलवायु को दुरस्त रखने के लिए पहाड़, जंगल, नदी-पोखर, जमीन, हवा व वन्य जीवन सबकी रक्षा करना जरूरी होता है। हवा प्रदूषित होगी तो हरियाली पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। लाखों जीव-जन्तु समाप्त हो जायेंगे। वातावरण दूषित होगा और पृथ्वी सूर्य से जो गर्मी लेगी वह आकाश तक लौटा नहीं पायेगी। इससे तापक्रम बढ़ेगा। ध्रुवों की बर्फ पिघलेगी। समुद्र का जल स्तर ऊंचा उठेगा और दुनिया पर जलप्रलय का खतरा मंडराने लगेगा।

जंगल कटेंगे तो वर्षा कम होगी। खेती कम होगी। जमीन की नमी कम होगी। अकाल और भूख से लोग मरेंगे। पर्वत टूटेंगे तो रेगिस्तान बढ़ेगा। चारागाह घटेंगे। दूध की कमी होगी। वर्षा कम होगी। भू-जल स्तर नीचे चला जायेगा। भू-चाल ज्यादा आयेंगे। भारी तबाही होगी। जमीन में रासायनिक उर्वरक डाले जायेंगे तो जमीन जहरीली होगी। फसल नुकसानदेह होगी। बीमारियां बढ़ेंगी। इसलिए जरूरी है कि जमीन, जंगल, पहाड़, पानी व हवा सबको हीरे-पन्ने से भी ज्यादा सावधानी से बचाकर सुरक्षित रखा जाए। कोपेनहेगन में यही तय होना था। पर हुआ नहीं। जीने का आधुनिक तरीका बदले बिना यह होगा नहीं। इसलिए कड़े निर्णय लेने की जरूरत है। पर्यावरण बचाने के बयान और नारे तो हम गत 30 वर्षों से सुन रहे हैं पर ऐसे हुक्मरान दिखाई नहीं देते जो अपनी कथनी और करनी को एक करने की कोशिश करें। पर राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कथनी और करनी को एक कर इतिहास रच दिया है।

उन्होंने हरित राजस्थान का नारा दिया और इसके लिए देशभर के विशेषज्ञों और स्वयंसेवी संस्थाओं को बुलाकर इस काम में जोड़ा। जब उनका ध्यान डीग और कामा के पर्वतों पर चल रहे खनन की ओर दिलाया गया तो उन्होंने चंद घंटों में समस्या की गंभीरता को समझ लिया। ब्रज क्षेत्र के बीच आने वाले इन पर्वतों को एक ही दिन में आरक्षित वन घोषित कर दिया। जिससे न सिर्फ राजस्थान और ब्रज भूमि के पर्वतों की रक्षा हो सकी बल्कि पूरे पर्यावरण की रक्षा हुई। यह एक ऐसा ऐतिहासिक कदम था जिसने राजस्थान के मुख्यमंत्री की प्रतिष्ठा को पूरी दुनिया की नजर में रातों-रात काफी ऊंचा उठा दिया। दुनिया भर के कृष्ण भक्त और संत ही नहीं बल्कि मुसलमान, ईसाई, चीनी और बौद्ध लोगों ने भी ई-मेल पर उनके इस कदम की वाह-वाही की। यहां तक कि संसद में विपक्ष के नेताओं ने श्री गहलोत को बधाई संदेश भेजे। इस तरह जहां एक तरफ कोपेनहेगन में दुनिया के पर्यावरणविद हताश और विफल हो रहे थे वहीं श्री गहलोत ने आशा और विश्वास की लहर का संचार किया। यह विश्वास दिलाया कि मुठ्ठी भर वोटरों के ब्लैकमेल और अवैध खनन के अवैध काले धन से उन्हें दबाया या खरीदा नहीं जा सकता। जाहिर है कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को भी श्री गहलोत के इस कदम से बल मिलेगा और वे देश के बाकी हिस्सों में पर्यावरण की रक्षा को लेकर लड़ी जा रही लड़ाईयों को इसी तरह निर्णायक स्थिति में ले जाने की गंभीर कोशिश करेंगे।

यहां यह उल्लेख करना अप्रसांगिक न होगा कि डीग और कामा के यह पर्वत पौराणिक महत्व के भी हैं। इनका सीधा संबंध भगवान श्रीकृष्ण की अनेक लीलाओं से है। इसलिए तमाम साधु-संत और भक्त वर्षों से इनकी रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे थे। आश्चर्य की बात यह है कि स्वयं को हिंदू धर्म का रक्षक बताने वाली भाजपा की राजस्थान सरकार ने इन संतों और भक्तों को 5 वर्ष तक मानसिक, शारीरिक और आर्थिक यातना दी। उनकी एक न सुनी। जब चुनाव सिर पर आया और भाजपा के पास चुनाव के लिए कोई मुद्दा न बचा तो उसे रामसेतु का मुद्दा पकड़ना पड़ा। रामसेतु की बात करें और ब्रज के पर्वतों को तोड़े यह चल नहीं सकता था। इसलिए वसुधरा राजे ने चुनाव से पहले चुनावी स्टंट के तौर पर डीग और काॅॅमा के पर्वतों को वन विभाग को हस्तांतरित करने का नाटक किया। नाटक इसलिए कि न तो इसे आरक्षित वन घोषित किया और न ही यहां से स्टोन-के्रशर हटवाये। अगर वे गंभीर थीं तो उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन जनहित याचिका में शपथ पत्र दाखिल करना चाहिए था कि वह ब्रज रक्षक दल के याचिकाकर्ताओं से सहमत है और इस क्षेत्र में खनन न होने देने के लिए प्रतिबद्ध है। ऐसा होता तो सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय भी जल्दी ही आ जाता। पर श्रीमती वसुंधरा राजे को एक तीर से कई शिकार करने थे। संतों को फुसला दिया कि तुम्हारी मांग मान ली। देश में प्रचारित करवा दिया कि रामसेतु के लिए लड़ने वाले सभी पौराणिक पर्वतों की रक्षा के लिए वे प्रतिबद्ध हैं। जबकि 5 वर्षों में इन्हीं पर्वतों का उन्होंने नृश्रंस विनाश करवाया। स्टोन क्रेशर वालों व खान वालों को झुनझुना थमा दिया कि फिलहाल चुप बैठो जब हम चुनाव जीत कर आयेंगे तो फिर इस निर्णय को पलट देंगे। पर नियति को कुछ और ही मंजूर था।

अब श्री गहलोत को चाहिए कि डीग और काॅमा के इन पर्वतों की सुरक्षा के लिए कड़े कदम उठायें। यहां अवैध खनन रोकें। इस क्षेत्र में सघन वृक्षारोपण व तीर्थाटन के लिए विशेष प्रयास करे। साथ ही भवन निर्माण उद्योग की मांग पूरी करने के लिए वैकल्पिक इलाके में खनन का इंतजाम करें। इसके लिए काॅमा से लगे पहाड़ी क्षेत्र के पर्वतों का नेशनल रिमोट सेंसिंग ऐजेंसी की मदद से उपग्रह सर्वेक्षण करवायें। इस क्षेत्र से संबंधित राजस्व खातों की पारदर्शी पड़ताल करवायें। जिससे पहाड़ी क्षेत्र में बंदर बांट किये गये खनन के पट्टों को तार्किक आधार पर फिर से बांटा जा सकें। इस तरह डीग और काॅमा से विस्थापित होने वाले खनन उद्योग को पहाड़ी क्षेत्र वैकल्पिक खान आवंटित की जाए। यदि संभव हो तो उन्हें आवश्यकतानुसार कर में रियायत दी जाए जिससे वे अपना धंधा ब्रज के बाहर चला सके। पर खनन कहीं भी हांे अवैज्ञानिक और विध्वंसकारी तरीके से न हो।

अगर राजस्थान सरकार गंभीरता और तेजी से काम करेगी तो डीग और काॅमा सजेंगे और पर्यटन से इतना रोजगार पैदा करेंगे कि लोग अवैध खनन की आमदनी को भूल जायेंगे। वैष्णों देवी के जीर्णाेद्धार से पहले वहां के उपराज्यपाल जगमोहन जी को पंडों का विरोध महीनों झेलना पड़ा। उन्होंने बाजार बंद किये, सड़कों पर लेट गये, पर जगमोहन नहीं झुके। वैष्णों देवी को अपनी योजना के अनुरूप तीर्थयात्रियों के सुख के लिए वैज्ञानिक तरीके से विकसित किया। आज वही पंडे सबसे ज्यादा खुशहाल हैं। उन्ही की टैक्सियां दौड़ रही हैं। गेस्ट हाउस सोना उगल रहे हैं। बाजारों में उनके नौनिहाल बड़े-बड़े दुकानदार बन गये हैं। कल विरोध करने वाले आज यशगान कर रहे हैं। ऐसा ही डीग और कामा में भी होगा। समय का अंतर है। आज जो असंभव लग रहा है वह कल संभव होगा और तब लोग उन संतों, पर्यावरण व आन्दोलनकारियों को साधुवाद देंगे जिनके त्याग और तप से ब्रज के पहाड़ बचे हैं। इतिहास अशोक गहलोत को इस पहल के लिए सदियों तक याद रखेगा। जलवायु परिर्वतन का अगला वैश्विक संम्मेलन 2010 में मैक्सिको में जब होगा तब न जाने क्या परिणाम आये पर राजस्थान के डीग और काॅमा तब तक जलवायु संरक्षण की दिशा में बहुत आगे बढ़ चुके होंगे।

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