Sunday, January 31, 2010

खुदी को कर बुलंद इतना

कम्प्यूटर साइंस की दुनिया में बिल गेटस के अलावा एक हिंदुस्तानी नाम आज पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ है। नागा नरेश करातूरा नाम के 21 वर्षीय इस नौजवान ने आईआईटी मद्रास से कम्प्यूटर साइंस में बीटैक की डिग्री हासिल करके गूगल बैंगलौर में एक बढि़या नौकरी हासिल की है। तो इसमें नया क्या ? नया है मुश्किलों से जूझने का नरेश का जज्बा। बे-पढ़े लिखे मजदूर मां बाप का यह लड़का 4 साल की उम्र में एक दुर्घटना में अपनी दोनों टांगे गवा बैठा। इस कदर कि जयपुर फुट भी बांधना मुश्किल था। क्योंकि नितंबों के नीचे टांगें बची ही नही थी। पर इसके हौसले और हर स्तर पर मिले बेहद प्यार और सहयोग ने इसे यहां तक पहुंचा दिया। सबसे प्रभावशाली बात यह है कि नागा नरेश खुद को बहुत सौभाग्यशाली मानता है और भगवान का धन्यवाद करता है कि उसने हर मोड़ पर उसका साथ दिया। उसे किसी से कोई शिकायत नहीं है। हरदम खुश रहने वाला नागा मानता है कि दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है। नागा नरेश का नाम गूगल पर ढूंढने पर उसके बारे में बहुत रोचक जानकारी मिलती है। पर इस लेख का उद्देश्य एक नौजवान के अनोखे जीवन की दास्तान सुनाना नहीं बल्कि उसकी जिंदगी से सबक सीखना है।

आज देश में लाखों नौजवान हट्टे-कट्टे, पढ़-लिखे और साधन सम्पन्न होते हुए भी समाज, दुनिया और भगवान को अपने साथ हो रही बेइंसाफी के लिए कोसते हैं। जिंदगी के महत्वपूर्ण वर्ष नौकरी की तलाश में गुजार देते हैं। नशे और अपराध की तरफ आसानी से फिसल जाते हैं। समाज के लिए भार बन कर जीते हैं। पर नागा नरेश जैसे नौजवानों का जीवन उदाहरण है कि जिंदगी को जिंदादिली से जीने के जज्बे का। राहुल गांधी जब देश के नौजवानों के बीच जाते हैं तो उन्हें देश के काम में जुड़ने के लिए न्योता देते हैं। जिसका उन्हें अच्छा प्रत्युत्तर मिल रहा है। तमिलनाडु के चैन्नई जैसे शहर में नौजवान राहुल के मुरीद हो गए। जरूरी नहीं कि राहुल गांधी ऐसे सब नौजवानों को राष्ट्र निर्माण में जोड़ पाएं। यह भी जरूरी नहीं कि वे इन नौजवानों को पूरी तरह से दिशा दे पाए। पर इतना जरूर है कि अपने इस छोटे से प्रयास से राहुल गांधी बहुत तेजी से युवा वर्ग के बीच लोकप्रिय हो रहे हैं। इससे क्या संदेश मिलता है? यह नहीं कि अब हर दल को इस तरह अपने युवराजों को आगे खड़ा कर वोट बटोरने का नया तमाशा खड़ा करना होगा। बल्कि ये कि देश का नौजवान अपनी ऊर्जा को सकारात्मक रूप से देश के निर्माण के काम में लगाने को तैयार है। उसे सही दिशा निर्देश की जरूरत है।

अगर आन्ध्र प्रदेश में गोदावरी के तट पर एक छोटे से गांव टीपार्रू में गरीब घर में पैदा हुआ विकलांग बच्चा इसी समाज में इतनी ऊंचाई तक पहुंच सकता है तो बाकी नौजवान क्यों नहीं? साफ जाहिर है कि उनमें कुछ कर गुजरने का या तो जज्बा नहीं है या रास्ते का ज्ञान नहh है। आज देश का मीडिया अपना बाजार बढाने के लिए ही सही नौजवानों को पढ़ने और रोजगार पाने के नए नुस्खे बताने लगा है। ऐसा पहले नहीं होता था। जाहिर है कि इन नुस्खों से नौजवानों को काफी सार्थक जानकारी मिल रही है और वे आगे भी बढ़ रहे हैं। पर प्रश्न है कि क्या डिग्री हासिल करना और नौकरी पाना ही नौजवानों का लक्ष्य होना चाहिए। कहा जाता है कि भारत कृषि प्रधान देश है। यहां की 70 फीसदी आबादी गांवों में बसती है। पर जो सूचनाएं मीडिया की मार्फत इन नौजवानों को दी जा रही है क्या उनमें अपने गांव और खेती को सुधारने के नुस्खे भी इन्हें बताए जा रहे हैं। शायद नहीं। क्योंकि गांव की बात करना फैशनेबल नहीं माना जाता। इसलिए अब गांव की बात कोई नहीं करता। मीडिया भी नहीं क्योंकि उसको चलाने वाले और पढ़ने, देखने वाले शहरों में रहते है। वे गांव के उत्पादनों का उपभोग तो डटकर करते हैं पर बदले में गांव को कुछ देना नहीं चाहते। सब कुछ शहरों तक सीमित रखना चाहते हैं। इससे दो नुकसान हो रहे हैं। एक तो गांवों का सही विकास नहीं हो रहा और दूसरा गांव में गरीबी बढ़ रही है। एक उदाहरण काफी होगा कि 1967 में कृषि उत्पादनों का जो दाम था वो 2007 तक 40 साल में, मात्र 10 गुना बढ़ा। जबकि इन्हीं 40 वर्षों में शहरों में होने वाले उत्पादनों की कीमत 30 फीसदी बढ़ गयी। साफ जाहिर है कि इन 40 वर्षों में गांव वालों को डटकर लूटा गया। जिससे शहर बढ़े और गांव बर्बाद हुए। अब ये इतनी बड़ी चुनौती है कि अगर गांव का नौजवान इसे स्वीकार कर ले और तय करे कि उसे अपने गांव को आत्मनिर्भर बनाना है तो कोई वजह नहीं कि वह नागा नरेश से पीछे रह जाए। ऐसा संकल्प करने वाले नौजवान किसी की नौकरी के मोहताज नहीं रहेगs। वे तो उपलब्ध संसाधनों से ही अपना संसार बना लेंगे। ऐसी सोच और ऐसे मार्ग दर्शन की देश के नौजवानों को भारी जरूरत है। अगर साधन सम्पन्न लोग विशेषज्ञों को बुलाकर गांव के नौजवानों को गांव में ही रहकर सुखी और सम्पन्न जीवन जीने की कला सिखा सके तो वे समाज का बहुत भला करेंगे।

नागा नरेश जैसी घटनाएं कभी-कभी प्रकाश में आती रहती हैं और इनसे नौजवानों को प्रेरणा भी मिलती है। पर वह अल्पकालिक होती है। भारत जैसे देश को जहां नौजवानों की संख्या 40 करोड़ तक जा पहुंची है, देश के नौजवानों के लिए सरकार को एक नई दृष्टि से सोचना होगा। अपनी नीतियों और योजनाओं में ऐसे बुनियादी बदलाव करने होंगे जिससे देश का युवा नौकरी की आस छोड़ उत्पादन, सृजन या निर्माण में जुट जाए। आईआईटी में तो गिने चुने ही जाते हैं। पर बाकी करोड़ों नौजवानों को रास्ता नहीं सूझता। इसलिए उन्हें सही नेतृत्व या यूं कहें कि सही मार्ग दर्शन की तलाश रहती है। सही लोगों का मार्ग दर्शन मिल जाए तो ये नौजवान दुनिया के किसी भी कोने में जाकर झंडे गाढ़ सकते हैं।

Sunday, January 24, 2010

ये कैसा मजहब?

मलेशिया के उच्च न्यायालय ने ईसाइयों को गाड की जगह अल्ला शब्द के इस्तमाल की अनुमति दे दी। जिससे मलेशिया में तूफान मच गया। कट्टरपंथियों ने गिरजाघरों और गुरूद्वारों पर हिंसक हमले किये। मजबूरन सरकार को अदालत से फरियाद करनी पड़ी कि वे अपने इस फैसले को पलट दे। सवाल उठता है कि हम भगवान गाड या खुदा को मजहब के आधार पर अलग कैसे कर सकते हैं। क्या यह सही नहीं है कि लाखों हिंदू रोज बोलचाल की भाषा में भगवान को खुदा कहने में संकोच नहीं करते? तो क्या अब हिंदू तय कर लें कि वे खुदा शब्द का प्रयोग नहीं करेंगे। इससे दूरियां बढ़ेंगी या घटेंगी? पेड़ से एक सेब तोड़ो और हिंदू से पूछो इसको किसने पैदा किया तो जवाब मिलेगा भगवान ने। मुसलमान कहेगा खुदा ने और ईसाई कहेगा गाड ने। पर सेब तो एक ही है, तो फिर बनाने वाले तीन कैसे हो गए? जवाब साफ है कि एक बनाने वाले को तीन अलग-अलग मजहब के लोग अपने-अपने नाम से बुलाते हैं। मलेशिया के ईसाई अगर अल्ला शब्द का इस्तमाल करते हैं तो हर्ज क्या है। हां यह बात गलत है कि ईसाई मिशनरी स्थानीय धर्म और परंपराओं का अनुसरण कर लोगों के धर्म बदलवाते हैं। जैसे झारखण्ड में गिरजाघर का रंग और पादरी का चोगा सफेद नहीं केसरिया कर दिए गए हैं। क्योंकि इस रंग का हिंदू समाज में सम्मान किया जाता है। वे अपने गिरजाघरों को प्रभु ईशु का मंदिर बताते हैं। यह ढाsaग क्यों?

अभी हाल ही में फ्रांस में महिलाओं के बुर्का पहनने पर पाबंदी लगा दी है। फ्रांस की धर्म निरपेक्ष सरकार इस तरह के धार्मिक प्रतीकों का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं होने देना चाहती। उधर स्विटजरलैंड ने मस्जि़दों में मीनारों के निर्माण पर रोक लगा दी है। उदारनीतियों का वायदा कर सत्ता में आए अमरीकी बराक ओबामा खुद एक मुसलिम पिता की संतान हैं। पर वे भी अमरीका में इस्लाम के प्रति बढ़ते आक्रोश को रोक नहीं पाए। आज अमरीका में अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक सम्मेलनों का आयोजन होना घट गया है। क्योंकि आयोजकों को इस बात का भरोसा नहीं कि दुनिया के दूसरे देशों से मुसलमानी नाम वाले लोगों को वे बुलाएंगे तो उन्हें वीजा़ मिलेगा भी या नहीं। अमरीका के आव्रजन अधिकारी इतने रूखे हो गए हैं कि हर गैर अमरीकी को अपमानित करते नजर आते हैं। पिछले दिनों बालीवुड सितारे शाहरूख खान तक इस व्यवहार के शिकार हुए। ओसामा बिन लादेन के अनुयायियों को अमरीका में घुसने से रोकने के लिए अमरीकी प्रशासन काफी गंभीर और सतर्क है। पर बाकी लोगों से ऐसा रूखा व्यवहार क्यों ?

क्या वजह है कि पूरी दुनिया में इस मजहब के लोगों के प्रति असष्णिुता लगातार बढ़ती जा रही है। जहां कट्टरपंथी इस बात से खुश होंगे कि उनकी गतिविधियों के कारण मुसलिम समाज का ध्रुवीकरण हो रहा है वहh उदार मुसलमान इस्लाम के इस रूप से इत्तफाक नहीं रखते वे धर्म को निजी मामला मानते हैं और मिल-जुल कर रहने में विश्वास करते हैं। पर कट्टरपंथियों के आगे उनकी दाल नहीं गलती। हर मजहब का मकसद होता है सर्वोच्च सत्ता की प्राप्ति या यूं कहें कि भगवत् प्राप्ति। ऐसा जो भी सफर होगा वह द्वेष का नहीं बल्कि प्रेम और सौहार्द के रास्ते का होगा। परस्पर विश्वास का होगा। रूहानियत दिलों को जोड़ती है तोड़ती नहीं। बशर्ते हम धर्म का दिखावा न कर रूहानियत का रास्ता अपनायें। दुनियां जलवायु संकट, जल संकट, खाद्यान संकट और प्राकृतिक विपदाओं से पहले ही त्रस्त है। उस पर यह मजहबी आतंकवाद लोगों की जिंदगी में नासूर बन गया है। इसने दुनिया के हर कोने में बैठे आम आदमी को खौफ के साये में जीने को मजबूर कर दिया है।

अगर मजहब का इसी तरह दुरूपयोग होता रहा और उसके मानने वाले इस दुरूपयोग को रोकने के लिए सामने नहीं आए तो पूरी दुनिया में बहुत तबाही मचेगी। सबसे ज्यादा चिंता की बात तो यह है कि मजहबी कट्टरता के प्रति पढ़े लिखे युवाओं का आकर्षण तेजी से बढ़ रहा है। जो एक खतरनाक प्रवृति है। अमरीका के वल्र्ड-ट्रेड सेंटर पर आत्मघाती हमला करने वाला मुसलमान और लंदन की मैट्रो में बंम विस्फोट करने वाला मुसलमान युवा क्रमशः इंजीनियर व डा¡क्टर थे। साफ जाहिर है कि मजहब की घुट्टी उन्हें इस तरह पिलाई गई है कि वे आगे पीछे देखे बिना अपनी जान देने को भी तैयार हो जाते है। काश इन पढ़े लिखे नौजवानों की ताकत व दिमाग जन सेवा की तरफ मुड़ जाए तो चमत्कार हो जायेगा। इनके काम से लोगों को राहत मिलेगी और इन्हें भी आम आदमी की जिंदगी सुधारने में फक्र महसूस होगा। समय की मांग है कि हर पढ़ा-लिखा मुसलमान युवा इन बातों को समझें और मजहब को विनाश का नहीं सुख और समृद्धि का कारण बनायें। फिर उनके मजहब का भी सम्मान बढ़ेगा और उन्हें भी जीवन का सही रास्ता दिखाई देगा।

Sunday, January 17, 2010

नये नहीं हैं राजनेताओं के सैक्स स्कैंडल

पिछले दिनों आंध्र प्रदेश के राज्यपाल को सैक्स स्कैंडल के मामले में बड़े बेआबरू होकर राजभवन और अपने राजनैतिक जीवन को अलविदा कहना पड़ा। पर राजनेताओं के सैक्स स्कैंडल कोई नई बात नहीं है। फ्रांस के बहुचर्चित राष्टृपति निकोलस सरकोजी साफ सरकार और मूल्य आधारित राजनीति के वायदों के साथ चुनाव जीते थे। पर आज उनके और उनके मंत्रीमण्डल के सहयोगियों के रंगीले जीवन के किस्से पेरिस की गलियों में चर्चा-ए-आम बन चुके हैं। उनके मंत्रीमण्डलीय सहयोगी फ्रैडरिक मित्रां ने खुलेआम स्वीकारा है कि वे थाईलैंड के वैश्यालयों में पैसे देकर नौजवान लड़कों के साथ सैक्स करते रहे हैं। यह अलग बात है कि फ्रांस और थाईलैंड दोनों ही सैक्स पर्यटन को हतोत्साहित करने का प्रयास कर रहे हैं। इटली के प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी के सैक्स कारनामों से जनता इतनी आजि़ज आ गई कि उनकी सरेआम पिटाई कर दी गयी। उन्हें बमुश्किल लहुलुहान हालत में भीड़ से बचाया गया। बहुत दिन नहीं बीते जब अमरीका के व्हाइट हाउस में अमरीका के तत्कालीन राष्टृपति बिल क्लिंटन को मोनिका लेवांस्की के रहस्योद्घाटन के बाद अपने अवैध सैक्स सम्बन्धों को स्वीकारने पर मजबूर होना पड़ा था।

देश की राजधानी दिल्ली और प्रांतों की राजधानियों में राजनीति के उच्चस्तरीय सामाजिक दायरों में हाईक्लास का¡लगर्लभेजने का काम औद्योगिक घराने जमाने से करते आ रहे हैं। ऐसी कुछ महिलायें तो इतनी बैखौफ होती हैं कि अपने सम्बन्धों को खुलेआम स्वीकारने में संकोच नहीं करतीं। हरियाणा के पुलिस महानिदेशक एस.पी.एस. राठौर का किस्सा अभी चर्चा में चल ही रहा है। प्रशासनिक सेवाओं में महत्वपूर्ण पदों पर बैठने वाले अधिकारी प्रायः लोगों को नौकरी या फायदे देने के ऐवज में अपनी कामवासनाओं की पूर्ति करते रहते हैं। कभी-कभी ऐसे किस्से चर्चा में भी आ जाते हैं।

हर धर्म के मठाधीशों के साये तले सैक्स के गुमनाम कारोबार पर भी दुनियाभर का मीडिया बीच-बीच में रहस्योद्घाटन करता रहता है। फिल्म जगत में व उद्योग जगत में तो इसे आम बात माना जाता है। शायनी आहूजा तो सूली चढ़ गया, पर उसके जैसे कितने शायनी मुम्बई में रोज यही जिंदगी जीते हैं। शैक्षिक संस्थानों और वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में छात्र-छात्राओं व शोधकर्ताओं के शारीरिक शोषण के किस्से काफी आम होते हैं।

कुल मिलाकर नाजायज सैक्स सम्बन्ध कोई ऐसी अनहोनी घटना नहीं जो कभी-कभी दुर्घटना के रूप में घटती हो। यह क्रम इतना व्यापक है कि अगर सारी घटनायें प्रकाश में आयें तो मीडिया में सैक्स स्कैंडलों को उछालने के अलावा कुछ बचेगा ही नहीं। गनीमत है कि ऐसी घटनायें कभी-कभी प्रकाश में आती हैं। अगर सामाजिक सर्वेक्षण करने वालों की मानें तो दस फीसदी घटनायें भी प्रकशित नहीं होतीं। ऐसे में क्या माना जाए कि जो पकड़ा गया वही अपराधी है या जो पकड़ा गया वो बद्किस्मत है?

पिछले दिनों मैंने पुराने टी.वी. सीरियल चाणक्य के 47 एपिसोड तन्मयता से बैठकर देखे। इस सीरियल में ईसा से 300 वर्ष पूर्व के राजनैतिक भारत का काफी सटीक दर्शन कराया गया है। उस समय भी सत्ता के दायरों में और धनिकों के समाज में वैश्याओं और नर्तकियों के उपभोग का प्रचलन आम था। यह बात उन हजारों ग्रंथों में भी दर्ज है जिन्हें समय-समय पर समकालीन इतिहासकारों ने दर्ज किया। बाबर की आत्मकथा बाबरनामामें तो खुद बादशाह बाबर इस बात का दुःख प्रकट करता है कि हिन्दुस्तान में उसे खूबसूरत लौंडे दिखाई नहीं देते इसलिए उसे गजनी के लौंडों की याद सताती है।

भारत के धर्मग्रन्थों में विशेषकर महाभारत जैसे पुराणों में जिस तरह के सामाजिक जीवन का वर्णन है, उसमें भी ऐसा नहीं लगता कि सैक्स के सम्बन्धों को लेकर नैतिकता के नियम बहुत कड़े रहे हों। संस्कृत के विद्वानों का तो यह तक कहना रहा है कि क्षत्रिय आचरण करने वाले को यदि कामवासना की पूर्ति न हो तो शासन करना और अपने दिमाग का संतुलन बनाये रखना सरल न होगा। इसीलिए पुराने जमाने के राजाओं की बहुपत्नियों की प्रथा को सहजता से स्वीकारा जाता है।

ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि राजनेताओं या प्रशासनिक पदों पर बैठे महत्वपूर्ण व्यक्तियों का निजी जीवन क्या पूरी तरह पारदर्शी होना चाहिए? क्या इसे नैतिकता के सर्वोच्च मानदण्डों पर खरा उतरना चाहिए? अगर हा¡ तो क्या  ऐसे शुद्ध आचरण वाले लोग थोक में ढू¡ढे जा सकेंगे और क्या यह सम्भव होगा कि सत्ता के शिखर पर केवल वही बैठें जो अपना आचरण सिद्ध कर सकें? प्रश्न यह भी उठाया जाता है कि शासन चलाने वाले का काम देखना चाहिए, उसके काम का परिणाम देखना चाहिए, किन्तु उसकी निजी जिन्दगी में ताकझांक करने का हक किसी को भी नहीं मिलना चाहिए, चाहे वह मीडिया ही क्यों न हो। यहा¡  यह बात भी रखी जाती है कि यदि ऐसा व्यक्ति अपनी कामवासना की पूर्ति के लिए अपने पद का दुरूपयोग करता है तो उसे अपराध की श्रेणी में माना जाना चाहिए। पर यह बहस शाश्वत है। इसका कोई समाधान नहीं। जब-जब राजपुरूषों के सैक्स स्कैंडल सामने आते हैं, ऐसी चर्चाऐं जोर पकड़ लेती हैं। फिर समाज में वही सब चलता रहता है और कोई कुछ नहीं कहता। 

Sunday, January 10, 2010

अनोखे सफर की अनोखी दास्तान

भारत की राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा सिंह पाटिल ने, चार दिन पहले उनसे मिलने आये, एक त्रिदंडी अमेरिका स्वामी से पूछा कि उन्हें भारत की संस्कृति में ऐसा क्या लगा जो वे भारत के होकर रह गए। राधानाथ स्वामी का जवाब था कि भारत की संस्कृति एक महासागर है। जिसमें सारी दुनिया की संस्कृतियों का समावेश है। यह तथ्य 1950 में शिकागो के एक सम्पन्न यहूदी परिवार में जन्में रिची को तब समझ में आया जब उसने 19 वर्ष की उम्र में गृहत्याग कर आध्यात्मिक सफर की शुरूआत की। अमरीका से यूरोप और यूरोप से पश्चिम एशिया का 6 महीने तक रोमांच, अवसाद और खतरों से भरा सफर करते हुए रिची पाकिस्तान की ओर से भारत में प्रवेश करने के लिए बाघा सीमा पर पहुंचा। वहां खडे भारत के आव्रजक अधिकारी ने इस धूल-धूसरित फटेहाल अमरीकी नौजवान से कहा कि भारत में पहले ही बहुत भिखारी हैं, मैं तुम्हें प्रवेश नहीं दूंगा।कुछ घंटे बाद जब उसकी ड्यूटी बदली तो एक उम्रदार सरदार जी ड्यूटी पर आए। उन्होंने इस नौजवान की दयनीय दशा और आद्र प्रार्थना सुनकर उसे भारत में आने दिया। जिसके बाद कई वर्षों तक, बिना पैसे के, अयाचक भाव से देशभर में घम-घूम कर रिची ने पूरे भारत की आध्यात्मिक परंपराओं का नजदीकी से अध्ययन किया। देश के सभी बड़े संतों से सत्संग किया और अंत में भक्तियोग का मार्ग अपना लिया और उसका नाम हुआ राधानाथ स्वामी। आज राधारानाथ स्वामी का प्रचार क्षेत्र पूरा विश्व है। उनके हजारों शिष्यों में सैकड़ों नौजवान मेडिकल, आईआईटी, आईआईएम के स्नातक हैं, मुंबई के दर्जनों बड़ें उद्योगपति हैं। यह सब हजारों शिष्य चाहे गरीब हो या अमीर आपसी प्रेम और सहयोग के साथ एक वृहद परिवार के रूप में रहते हैं। कोई किसी की निंदा नहीं करता। दूसरे को अपनी सेवा, दीनता व प्रेम से जीतने का प्रयास करते हैं। ऐसा अद्भुत अनुभव कम स्थानों पर ही होता है।

रिची से राधानाथ स्वामी तक का अनोखा सफर बहुत रोमांचकारी था। जिसे अब 40 वर्ष बाद स्वामी जी ने द जर्नी होमया अनोखा सफरनाम से प्रकाशित अपनी पुस्तकों में लिखा है। मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी सौरभ गांगुली का कहना है कि, ‘यह पुस्तक पूरी युवा पीढ़ी के लिए उत्कृष्ट भेंट है। अशांति से भरे हमारे संसार में यह एक अमरीकी युवक द्वारा संतुष्टि की खोज की कथा है।आज भारत का युवा पश्चिम की चमक-दमक से चकाचैंध है। डीजे, डिस्को, ड्रग्स, सैक्स व उपभोगतावाद के जाल में उलझता जा रहा है। दूसरी तरफ रिची ने 19 वर्ष की आयु में  संपन्नता के शिखर पर बैठे अमरीकी समाज को छोड़ा था तो वहां संपन्नता से उकताये लाखाs युवा हिप्पी बन रहे थे। रिची भी बन सकता था। पर उसे तलाश थी जीवन के ध्येय की जो उसे मिला भारत की सनातन संस्कृति में। आज भारत आर्थिक सफलता की ओर तेजी से बढ़ रहा है। फिर भी उसे अभी ऐसी सफलता नहीं मिली कि एक सौ दस करोड़ भारतीयों के पास वैभव के ढेर लग गए हों और भारत की युवा पीढ़ी इस वैभव से उकताने लगी हो। अभी तो भारत में मुठ्ठीभर लोगों के हाथ में अकूत दौलत आयी है। शेष भारत तो आज भी दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहा है। ऐसे में पश्चिम की संस्कृति का अंधानुकरण आत्मघाती सिद्ध हो रहा है। पर युवाओं को झकझोरने वाला, जगाने वाला और रास्ता दिखाने वाला कोई नहीं। इसलिए भटकन है। इसलिए बिखराव है और इसीलिए हताशा है।

अनोखा सफरएक ऐसी सम-सामायिक पुस्तक है जिसे पढ़कर भारत के युवा, विशेषकर वे युवा जो पश्चिम से आकर्षित हैं, भारत की संस्कृति में ही अपनी कुंठाओं के हल खोज सकते हैं। 336 पेज की यह पुस्तक इतनी सरल भाषा में लिखी गयी है कि पाठक को हर क्षण लगता है कि वह रिची के साथ इस रोमांचक यात्रा को स्वयं कर रहा है। राधानाथ स्वामी ने इस्लाम, ईसायित, बौद्धधर्म, तांत्रिक व औघड़ पंरपरायें, हठयोग जैसी अनेक आध्यात्मिक धाराओं का अनुभव किया।  इस अनुभव को इतनी खूबसूरती से इस पुस्तक में जड़ दिया कि बिना किसी के प्रति नकारात्मक भाव अभिव्यक्ति किये ही भारत की सनातन संस्कृति की ही श्रेष्ठता को पाठकों के लिए प्रस्तुत कर दिया। आज से कई दशक पहले 1946 में एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी एक योगी की आत्मकथा।इस पुस्तक ने दुनियाभर में तहलका मचा दिया था। आज दशकों बाद भी इस पुस्तक की ढेरों प्रतियां पूरे विश्व में बिकती रहती हैं। उस पुस्तक के लेखक परमहंस योगानंद एक भारतीय स्वामी थे। जिन्होंने हठयोग और ध्यान की अपनी सिद्धि को स्थापित कर पश्चिमी जगत को चमत्कृत किया था। आज दशकों बाद एक अमरीकी स्वामी ने अपनी आध्यात्मिक खोज को युवा पीढ़ी के सामने इस तरह प्रस्तुत किया है कि उसे जीवन का सही रास्ता खोजने की प्रेरणा मिल सके।

स्वामी जी ने बहुत संजीदगी, संवेदनशीलता और कलात्मक आकर्षण के साथ कृष्णभक्ति और भगवान की लीलास्थली ब्रज क्षेत्र की महिमा को भी प्रस्तुत किया है और इसे ही अपने जीवन का अंतिम पड़ाव बनाया है। यही कारण है कि उनके हजारों अनुयायी ब्रज भूमि और कृष्णभक्ति के प्रति अगाध श्रद्धा रखते हैं और इस भूमि के लिए हर तरह की सेवा करने को तत्पर रहते हैं। अनोखी बात है कि एक अमरीकी युवा इतने कम समय में भारत के प्रबुद्ध और संपन्न लोगों को कृष्ण भक्ति व ब्रज भक्ति के प्रति आकर्षित करने में सफल रहा। हाल ही में जारी हुई यह पुस्तक मराठी, कन्नड़ व तेलगू भाषाओं में भी जल्दी ही जारी हो रही है। निश्चित रूप से इसकी शैली और इसमें व्यक्त की गई भावना भारत के युवाओं को कुछ सोचने पर मजबूर करेगी। बशर्ते कि वे इसे पढ़ने की जहमत उठाने को तैयार हों।

Sunday, January 3, 2010

तीन इडियट ही क्यों?

आईआईटी के छात्र रहे चेतन भगत की पुस्तक पर आधारित फिल्म थ्री इडियटखासी लोक प्रिय हो रही है। सिनेमाघरों के बाहर लंबी कतारें लगी है। फिल्म है भी बहुत बढि़या। पूरे तीन घंटे हंसते-हंसते गुजर जाते हैं। पर इस हंसी के बीच बहुत सारे सार्थक संदेश दिए गए हैं। जो  आज के युवाओं और उनके अविभावकों के बड़े काम के हैं। इस पूरी फिल्म की कहानी उन तीन युवाओं के इर्द-गिर्द घूमती है जो आईआईटी जैसे इंजीनियरिंग संस्थान में पढ़ रहे हैं और भौतिक जिंदगी की दौड़ में आगे निकलने के लिए लगातार एक दबाव में जी रहे हैं। आईआईटी जैसे संस्थानों में होने वाली आत्महत्याओं का कारण भी यही तनाव बताया गया है।

फिल्म का मूल संदेश यह है कि अगर एक नौजवान अपनी दिल की आवाज सुनकर अपनी जिंदगी की राह तय करता है तो वह खुश भी होता है सही मायने में सफल भी। केवल ज्यादा पैसे कमाने के लिए पढ़ने वाले कोल्हू के बैल ही होते हैं। जिनकी जिंदगी में रस नहीं आ पाता। यही कारण है कि आईआईटी जैसी प्रतिष्ठित संस्थानों से पढ़कर सैकड़ों नौजवान आज देश में ऐसे काम कर रहे हैं जिसका उनकी डिग्री से कोई लेना देना नहीं है। मसलन झुग्गीयों में बच्चों को पढ़ाना, आध्यात्मिक आन्दोलनों में भगवत्गीता का प्रचारक बनना या गांव के नौजवानों के लिए छाटे-छोटे कुटीर उद्योग स्थापित करने में मदद करना। दूसरी तरफ इंजीनियरिंग की डिग्री की भूख इस कदर बढ़ गयी है कि एक-एक २kहर में दर्जनों प्राईवेट इंजीनियरिंग का¡लेज खुलते जा रहे हैं। जिनमें दाखिले का आधार योग्यता नहीं मोटी रकम होता है। इन का¡लेजों में योग्य शिक्षकों और संसाधनों की भारी कमी रहती है। फिर भी यह छात्रों से भारी रकम फीस में लेते हैं। बेचारे छात्र अधिकतर ऐसे परिवारों से होते हैं जिनके लिए यह फीस देना जिंदगी भर की कमाई को दाव पर लगा देना होता है। इतना रूपया खर्च करके भी जो डिग्री मिलती है उसकी बाजार में कीमत कुछ भी नहीं होती। तब उस युवा को पता चलता है कि इतना रूपया लगाकर भी उसने दी गयी फीस के ब्याज के बराबर भी पैसे की नौकरी नहीं पाई। तब उनमें हताशा आती है। आज हालत यह है कि एम.बी.ए. की डिग्री प्राप्त लड़के साडि़यों की दुकानों पर सेल्समैन का काम कर रहे हैं। समय और पैसे का इससे बड़ा दुरूपयोग और क्या हो सकता है?

थ्री इडियटफिल्म में आमिर खान की भूमिका एक ऐसे युवा की है जो हमेशा अपने रास्ते खुद बनाने में विश्वास करता है। लीक का फकीर बनने में नहीं। यह सलाह वह दूसरों को भी देता है। आज देश की 40 फीसदी आबादी युवाओं की है। जीवन की दिशा स्पष्ट न होने के कारण और बने बनाये रास्तों से अलग हटकर रास्ता बनाने की प्रवृत्ति न होने के कारण यह युवा भटक रहे हैं। नक्सलवाद, आतंकवाद व सामान्य अपराधों में यही युवा लिप्त होते जा रहे हैं। यह खतरनाक स्थिति है। अगर इसी तरह नौजवान हिंसा की तरफ बढ़ते गए तो इन्हें फौज और पुलिस की बंदूकों से रोकना संभव न होगा। जरूरत इस बात की है कि थ्री इडियटजैसी फिल्में दिखाकर देश के युवाओं को अपना भविष्य खुद बनाने की प्रेरणा दी जाए। अगर युवा अपने निकट के परिवेश को समझकर समाज को अपनी सेवाऐं प्रदान करेंगे और नई सोच से समस्याओं के हल ढूँढेगे तो यकीनन वे अपने मकसद में कामयाब होंगे। आज शहरी जीवन में हजारों नई तरह की समस्याएं पैदा हो गई हैं। शहर नरक बनते जा रहे हैं। ऐसे में यह युवा अपनी नई सोच से समस्याओं के हल खोजकर अपनी जीविका कमा सकते हैं। अपनी सेवाओं के बदले समाज से खासी आमदनी पैदा कर सकते हैं। इससे देश की तरक्की भी होगी व युवाओं की भटकन दूर होगी।

सरकारी नौकरियों पर निर्भरता, नौकरियों में आरक्षण की मांग, नौकरियाँ पाने के लिए कठिन प्रतियोगिता, सिफारिश, रिश्वत, ये ऐसे झंझट हैं जो एक युवा को उसकी जिन्दगी के सबसे उत्पादक दौर में थका देते हैं। फूल सी ताजगी खत्म कर देते हैं। इस सबके बाद भी अगर नौकरी न मिले तो उसे हताशा और गलत रास्ते पर चलने को मजबूर कर देते हैं। जितनी ऊर्जा केन्द्र और प्रांत की सरकारें नौकरी का आश्वासन देने में और उसका तानाबाना बुनने में लगाती हैं, उसे कहीं कम खर्चें और प्रयास से इन युवाओं को आत्मनिर्भरता के लिए प्रेरित किया जा सकता है। उसके लिए जिलों के प्रशासन को संवेदनशील बनाना होगा ताकि वे इन युवा उद्यमियों के रास्ते में आने वाली प्रशासनिक दिक्कतों को दूर कर सकें। इसके साथ ही देश के शिक्षा संस्थानों में ऐसा माहौल पैदा करने के लिए सबसे पहले शिक्षकों को अपनी प्रवृत्ति बदलनी होगी। रटे-रटाये कोर्स से अलग हटकर जीवन उपयोगी शिक्षा देने का अभ्यास करना होगा। छात्रों से अधिक अंक लाने की अपेक्षा करने की बजाय उन्हें एक अच्छा इंसान, खुश इंसान और संतुष्ट इंसान बनने की प्रेरणा देनी होगी। यदि शिक्षक ऐसा कर पाते हैं तो भारत की मौजूदा युवा पीढ़ी देश के लिए बहुमूल्य निधि बन जायेगी। इसके लिए मानव संसाधन विकास मंत्री श्री कपिल सिब्बल को नीतिगत ढाँचे में बदलाव करने होंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि जिस तरह मुन्नाभाई से देश के मध्यमवर्गीय शहर वालों ने गांधी गिरी सीखी उसी तरह थ्री इडियटफिल्म से शिक्षा के क्षेत्र में गैर पारंपरिक सोच को आगे बढ़ने का मौका मिलेगा।