Sunday, March 7, 2010

आंकड़ों से बदलता व्यापार का संसार

एक बार ला¡स एन्जेलिस में उद्योगपतियों के एक सम्मेलन को सम्बोधित करते समय मैने श्रम आधारित तकनीकी के समर्थन और औद्योगिकरण के विरोध में काफी जोर से भाषण दिया। तब वहां मौजूद एक धनाड्य उद्योगपति गणपत पटेल ने मुझे एक पुस्तक भेंट की। जिसमें बताया गया था कि 1920 में अमरीका में जिन क्षेत्रों में रोजगार काफी मात्रा में उपलब्ध था वे क्षेत्र 1960 के दशक में गायब हो गए। पर इससे बेरोजगारी नहीं बढ़ी क्योंकि अनेक नए रोजगार क्षेत्र विकसित हो गए। उदाहरण के तौर पर 1920 के दशक में हाथ की मशीन पर टाइप करने वालों की भारी मांग थी। पर कम्प्यूटर आने के बाद यह मांग समाप्त हो गयी। 1920 में हवाई जहाज के पायलटों की कोई मांग नहीं थी। पर बाद में हजारों पायलटों की मांग पैदा हो गयी। श्री पटेल ने मुझसे जोर देकर कहा कि तकनीकी आने से बेरोजगारी नहीं बढ़ती। ऐसा ही अनुभव आज देश में सूचना क्रान्ति को देखकर हो रहा है। सूचना क्रान्ति ने हर क्षेत्र को बहुत व्यापक रूप में प्रभावित किया है।

कुछ वर्ष पहले तक व्यापारी के बहीखातों में आमदनी-खर्च का जो हिसाब रखा जाता था वो इतना माकूल होता था कि उसमें एक पैसे की भी गलती नहीं होती थी। सदियों से भारत में यही प्रथा चल रही थी। पर कम्प्यूटर का्रंति ने सब बदल कर रख दिया। अब व्यापार के आंकडे़ केवल आमदनी खर्च तक सीमित नहीं है। अब तो व्यापारी यह जानना चाहता है कि उसका कौन सा उत्पादन किस इलाके में ज्यादा बिक रहा है। उसके ग्राहक किस वर्ग के हैं। साल के किस महीने में उसकी बिक्री बढ़ जाती है। कौन सी राजनैतिक या सामाजिक घटनाओं के बाद किस वस्तु की मांग अचानक बढ़ जाती है। जैसे-जैसे यह जानकारी उत्पादक या वितरक कम्पनी के पास आती जाती है वैसे-वैसे उसका नजरिया और नीति बदलने लगती है। जबकि बहीखाते में केवल आमदनी-खर्च या लाभ-घाटे का हिसाब रखा जाता था।

साम्प्रदायिक दंगों का अंदेशा हो तो अचानक शहर में डबल रोटी, दूध, चाय, काॅफी के पैकेट, दाल-चावल, चीनी, मोमबत्ती, टाॅर्च, शस्त्रों की मांग बढ़ जाती है। जाहिर है कि इन वस्तुओं के निर्माताओं को देश की नाड़ी पर इस नजरिये से निगाह रखनी पड़ती है। जिस इलाके में साम्प्रदायिक तनाव बढ़े वहां इन वस्तुओं की आपूर्ति तेजी से बढ़ा दी जाए। इसी तरह बरसात से पहले छाते और बरसाती की मांग, गर्मी से पहले कूलर और एसी की मांग, जाड़े से पहले हीटर और गीजर की मांग बढ़ जाना सामान्य सी बात है। पर एसी दस हजार रू0 वाला बिकेगा या चालीस हजार रु0 वाला यह जानने के लिए उसे ग्राहकों का मनोविज्ञान और उनकी हैसियत जानना जरूरी है। अगर निम्न वर्गीय रिहायशी क्षेत्र में लिप्टन की ग्रीन लेबल चाय के डिब्बे दुकानों पर सजा दिए जाएं तो शायद एक डिब्बा भी न बिके। पर रैड लेबल चाय धड़ल्ले से बिकती है। धनी बस्ती में पांच रु0 वाला ग्लूकोज बिस्कुट का पैकेट खरीदने कोई नहीं आयेगा। पर पांच सौ रू0 किलो की कूकीज़ के पैकेट धड़ल्ले से बिकते हैं। इसलिए इन कम्पनियों को हर पल बाजार और ग्राहक के मूड़ पर निगाह रखनी होती है।

इससे यह कम्पनियां कई अहम फैसले ले पाती हैं। मसलन उत्पादन कब, कैसा और कितना किया जाए। वितरण कहां, कब और कितना किया जाए।  विज्ञापन का स्वरूप कैसा हो। उसमें किस वर्ग का प्रतिनिधित्व किया जाए और क्या कहा जाए जो ग्राहक का ध्यान आकर्षित कर सके। इसी सूचना संकलन का यह असर था कि 10 वर्ष पहले सभी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपने विज्ञापन अंग्रेजी की बजाय क्षेत्रीय भाषाओं में देने शुरू कर दिए। वरना हमारे बचपन में तो लक्स साबुन का विज्ञापन हिंदी के अखबार में भी अंग्रेजी भाषा में आता था। जब सूचना का इतना महत्व बढ़ गया है तो जाहिर है कि इस सूचना को एकत्र करने वाले, प्रोसेस करने वाले और उसका विश्लेषण करने वाले सभी की मांग बजार में बेहद बढ़ गयी है। यहां तक कि केवल इसी किस्म की सेवायें देने वाली कम्पनियों की बाढ़ आ गयी है। जैसे पहले शेयर मार्केट को चलाने वाले बड़े-बड़े दलाल और बड़ी कम्पनियां होती थीं। पर आज इंटरनेट की मदद से देश के हर कस्बे और शहर में शेयर मार्केट में खेलने वाली हजारों कम्पनियां खड़ी हो गयीं है।

अर्थव्यवस्था ही नहीं कानून की स्थिति को बनाये रखने के लिए भी इस सूचना का्रंति ने भारी मदद की है। आज अपराधियों या आतंकवादियों के बारे में सूचना का भंडार पुलिस विभाग के पास उपलब्ध है और आवश्यकता पड़ने पर मिनटों में देश में इधर से उधर भेज दिया जाता है। इसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी इस सूचना का्रंति ने शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए ज्ञान के सैकड़ों दरवाजे खोल दिये हैं। आज देश के आम शहरों में इंटरनेट की मदद से बच्चों के पास दुनिया भर की जानकारी पहुंच रही है।

जब 1985 में युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कम्प्यूटराईजेशन की बाद की थी तो विपक्षी दलों और उनसे जुड़े पत्रकारों ने श्री गांधी का खूब मखौल बनाया था। उन पर कार्टून बनाये गये थे। जिनमें दिखाया गया कि भूखे लोगों को राजीव गांधी कम्प्यूटर सिखा रहे हैं। उस वक्त हमला करने वाले आज सबसे ज्यादा कम्प्यूटर का प्रयोग कर रहे हैं। यह अनुभव यही बताता है कि हम राजनीति में हों या मीडिया में तथ्यों का विवेकपूर्ण मूल्यांकन करें तो देश का लाभ होगा। विरोध के लिए विरोध करना सनसनीखेज तो हो सकता है पर इससे जनहित नहीं होता। क्या यह बात हमारे सांसद सोचेंगे?

No comments:

Post a Comment