Sunday, July 25, 2010

कियानी के बिना भारत पाक वार्ता बेमानी

अमरीका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लfoटन जब पाकिस्तान जाती हैं तो केवल विदेश मंत्री शाह महमूद कुरेशी से ही नहीं मिलती बल्कि पाकिस्तानी फौज के जनरल परवेज कियानी से भी मिलती हैं। साफ जाहिर है कि लोकतंत्र का ढिंढोरा पीटने वाला अमेरिका यह जानता है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र नाम का है असली ताकत आज भी फौज के हाथ में है। इसलिए राजनायिक शिष्टाचार से परे हटकर ये कवायद की जाती है। जबकि हमारे गृहमंत्री और विदेश मंत्री जब पाकिस्तान जाते हैं तो केवल अपने समकक्ष मंत्रियों से ही वार्ता करके लौट आते हैं। इसलिए नतीजा कुछ भी नहीं निकलता।

जहां तक विदेश मंत्री श्री कृष्णा के ताजा पाकिस्तान दौरे से उठे विवाद का प्रश्न है तो इसके पीछे कांग्रेस की अन्दरूनी उठा-पटक भी देखी जा रही है। क्या वजह है कि गृहमंत्री पी0 चिदाम्बरम का पाकिस्तान दौरा तो बड़ी सुगमता से, सौहार्दपूर्ण वातावरण में पूरा हो गया और कोई विवाद नहीं हुआ। जबकि विदेश मंत्री श्री कृष्णा की पाकिस्तान में ही किरकिरी हो गयी। हासिल तो वाजपेयी जी की यात्रा से आज तक हुई किसी भी यात्रा से कुछ नहीं हुआ और आसानी से भविष्य में कुछ हासिल होने की संभावना भी कम है। पर इस यात्रा के दौरान भारत के गृह सचिव जी. के. पिल्लई का आईएसआई के विरुद्ध बयान देना उचित नहीं था। यही बात यात्रा के बाद भी कही जा सकती थी। वैसे जो उन्होंने कहा उसमें नया कुछ भी नहीं था। आईएसआई की भूमिका के बारे में भारत हमेशा ही जोर से कहता रहा है। पर इंका के गलियारों में चर्चा है कि इस घटना के पीछे कोई और वजह है। कहा जा रहा है कि पी0 चिदाम्बरम गृहमंत्रालय से उकता गये हैं। नक्सलवाद और आतंकवाद को लेकर वे जो कुछ करना चाहते थे, नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए वे अपना मंत्रालय बदलना चाहते हैं। उनकी इच्छा शुरू से वित्त मंत्रालय हासिल करने की रही है। पर प्रणव मुखर्जी जैसे भारी भरकम नेता के रहते उन्हें यह मंत्रालय मिलना संभव नहीं है। इसके बाद उनकी प्राथमिकता विदेश मंत्रालय हासिल करने की है। जिसमें वे अपनी हार्वड शैली में दुनिया भर में छवि बना सकते हैं। चर्चा है कि गृह सचिव के बयान का समय जानबूझ कर ऐसा रखा गया कि श्रीकृष्णा की स्थिति हास्यादपद बन जाए। वह बनी भी। अब इसमें चिदाम्बरम की राय शामिल थी या पिल्लई ने खुद ही यह पहल कर डाली यह तो ऊपर वाला ही जानता है।

वैसे यह विवाद न भी होता तो भी शाह महमूद कुरेशी कोई थाली पर व्यंजन परोसने वाले नहीं थे। आरोप उन्होंने भारत के प्रतिनिधि मंडल पर लगाया जबकि वे खुद लगातार आईएसआई से संपर्क साधे हुये थे और उसी के इशारे पर वार्ता कर रहे थे। आईएसआई नहीं चाहती कि भारत से कोई रिश्ता कायम हो। आईएसआई फौज के अधीन है और फौज का न तो लोकतंत्र में विश्वास है और न ही भारत के साथ मधुर संबंधों में। इसलिए वह हर उस प्रयास को विफल करने में लगी रहती है जिसमें दो देशों के रिश्तों को सुधारने की कोशिश की जाती है। दोनों मुल्कों का आवाम और काफी सारे सियासतदान दोनों मुल्कों के बीच अमन और चैन चाहते हैं। पर पाकिस्तान की फौज जानती है कि अगर इन दो मुल्कों के बीच अमन कायम हो गया तो उसकी सार्थकता ही नहीं बचेगी।

उधर अमरीका यह जानता है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र का कोई वजूद नहीं है। इसलिए फौज से रिश्ता बना कर रखता है। दरअसल आईएसआई और तालिबान दोनों की ताकत के पीछे अमरीका का हाथ रहा है। अफगानिस्तान में रूसियों के दखल के बाद सीआईए ने तालिबान को खड़ा किया और इधर पाकिस्तानी फौज और आईएसआई को रसद देकर मजबूत किया। रूस के हटने के बाद तालिबान अमरीका के गले की हड्डी बन गया। अब अगर अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा साल के अंत तक अफगानिस्तान से अमरीकी फौजों की वापसी की अपनी घोषणा पर वास्तव में अमल करते हैं तो अफगानिस्तान में अमरीकी फौजों के हटने से जो शून्य पैदा होगा उसे कौन भरेगा? जाहिर है कि अमरीका का विश्वास पाकिस्तान की फौज पर है। इसलिए अफगानिस्तान के राष्ट्रपति करजाई लगातार कयानी से मिल रहे हैं। जग जानता है कि पाकिस्तान अफगानिस्तान में भारत की मौजूदगी को कतई मंजूर नहीं करता। उसकी पहली शर्त होगी अफगानिस्तान से भारत के माल असबाब की रूखसती। मतलब यह की भारत ने करजाई को पढ़ाने लिखाने और बचाकर रखने की जो कवायद की वो बेकार गयी। भारत अफगानिस्तान को जो मदद दे रहा है वह भी गढ्ढे में गयी। अफगानिस्तान पर पाकिस्तानी फौज और उसकी ऐजेंट आईएसआई का कब्जा होगा। जिसके तालिबान से गहरे संबंध हैं। तालिबान आदतन लड़ाकू है। जब उन्हें अफगानिस्तान में लड़ने के लिए अमरीकी फौज नहीं मिलेगी तो वे कश्मीर की घाटी की तरफ रूख कर लेंगे। जैसा पहले होता आया है। ऐसे में पहले से ही आतंकवाद से धधकती कश्मीर की घाटी एक बार फिर आतंकवाद की आग में झौंक दी जायेगी। इस स्थिति से निपटने के लिए भारत को कई स्तरों पर तैयारी करनी होगी। इसलिए इन वार्ताओं से कुछ निकलने वाला नहीं है।

Sunday, July 18, 2010

दलित मुख्यमंत्री के राज में निषाद दुखी क्यों?

भगवान राम को सरयू पार कराने वाले निषाद राज केवट ने राम राज में तो सुख भोगा पर यह कभी नहीं सोचा होगा कि कलियुग में जब दलितों का राज आयेगा तो निषादों की संतानों पर अत्याचार होंगे और उनसे उनके जीने के साधन छीन लिये जायेंगे। प्रयागराज इलाहाबाद में यमुना, गंगा व सरस्वती का मिलन स्थल है। यहां लगभग 300 किमी0 यमुना का कछार बहुत बढि़या यमुना रेत से पटा पड़ा है। जिसे खोद कर बेचने का पारंपरिक कानूनी हक स्थानीय समुदाय को होता है, जो इस इलाके में निषाद है। पर स्थानीय खनन माफिया के चलते आज यह निषाद समुदाय दर-दर की ठोकरे खा रहा है। दुर्भाग्यवश भाजपा, बसपा व सपा के स्थानीय विधायक और नेता भी या तो खनन माफिया के साथ हैं या सीधे लूट में शामिल हैं।

इतना ही नहीं उनके पारंपरिक रोजगारों पर भी इसी माफिया का नियंत्रण है। नदी के किनारे गैर मानसूनी महीनों में खेती करना या नाव पार कराना या मछली पकड़ना स्थानीय समुदाय के नैसर्गिक अधिकार हैं। पर यह सब करने के लिए भी उन्हें स्थानीय माफियाओं को टैक्स देना पड़ता है। जैसे खादर में लगने वाले तरबूज के हर पौधे पर पांच रू0, मछली पकड़ने पर हर किलो 50 रु0। इतना ही नहीं नाव चलाने का ठेका भी किसी निषाद के नाम पर लेकर उसे कोई माफिया ही चलाता है और खुद लाखों कमाता है जबकि निषाद भूखे मरते हैं। इलाहाबाद की बारह, कर्चना तहसील, कोशाम्बी की छैल व मंझनपुर तहसील और चित्रकूट की मउ तहसील के निषादों को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान से पढ़े डाॅ. आषीश मित्तल व उनके साथियों ने आल इंडिया किसान मजदूर सभाके झंडे तले संगठित कर इस शोषण के विरुद्ध लगतार बार-बार प्रर्दशन किये। जिला प्रशासन को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सन् 2008 के आदेश व प्रदेश सरकार के सन् 2000 के आदेशों का हवाला दिया। पर कोई सुनवाई नहीं हुई। बल्कि इन सबके विरुद्ध पुलिस और गुंडों का आतंक बढ़ता गया। बार-बार संघर्ष हुये। जिनमें मजदूर घायल हुये और मारे भी गये। पर पुलिस और प्रशासन का रवैया खनन माफियाओं की तरफदारी वाला रहा और माफिया द्वारा सताये जा रहे निषादों के खिलाफ दर्जनों फर्जी मुकदमें कायम कर दिये गये। बावजूद इसके इन जुझारू निषादों का मनोबल नहीं टूटा और यह आज भी अपने हक के लिए लड़ रहे हैं। क्या यह संभव है कि दलितों के लिए दबंगाई से आवाज उठाने वाली सुश्री मायावती, जोकि प्रदेश की पहली बहुमत वाली दलित सरकार की नेता हैं, को इस दमन चक्र का पता ही न हो?

ऐसी ही लड़ाई छत्तीसगढ़ क्षेत्र में वर्षोंं से छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा स्थानीय वनवासियों के हक के लिए लड़ रहा है। जिनके जंगल, पहाड़ और खदानों पर बाहरी माफियाओं ने कब्जा कर लिया है। इनके लोकप्रिय नेता शंकर गुहा नियोगी की 90 के दशक में माफियाओं द्वारा हत्या कर दी गयी थी। पर उससे उनका संघर्ष दबा नहीं और तीव्र हो गया। यहां तक की उनके ही मजदूर साथी जनक लाल ठाकुर विधायक भी चुन लिये गये। उल्लेखनीय है कि जनक लाल ठाकुर ने न तो मजदूरों की बस्ती में रहना छोड़ा और ना ही उनकी मां ने खदान में पत्थर तोड़ना छोड़ा। 1994 से मैं कई बार रायपुर, राजनंद गांव, भिलाई, दुर्ग, कांकेड़ के इन इलाकों में इन संघर्षों को देखने जा चुका हूं। आईआईटी और लंदन स्कूल आॅफ इक्नाॅमिक्स से पढ़ी सुधा भारद्वाज या दिल्ली के प्रतिष्ठित सैंट स्टीफेंस काॅलेज से पढ़े अनूप सिंह जैसे युवा जो इन मजदूर बस्तियों में रह कर इन मजदूरों को संगठित करते रहे है, कोई अहमक लोग नहीं हैं। गरीब का दर्द उनसे देखा नहीं गया। इसलिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गुलामी और महानगरों की आरामदेह जिंदगी छोड़ इन खदानों में जिंदा शहीद होने चले आये।
तीसरा उदाहरण इन दोनों से अलग है। पर घटनाक्रम एक सा है। राजस्थान के भरतपुर जिले में डीग और काॅमा तहसील के पर्वतों की रक्षा के लिए गत आठ वर्षों से जो संघर्ष चला उसके प्रणेता विरक्त संत रमेश बाबा हैं। जिन पर नक्सलवादी होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता। इस संघर्ष में अपनी आध्यात्मिक रूचि के कारण युवा साधु संतों और स्थानीय ग्रामीणों के साथ मैने और मेरे कई साथियों ने अपनी ऊर्जा लगाई। पर अनुभव वैसे ही हुए जैसे नक्सलवादी या प्रगतिशील नेतृत्व वाले संगठनों को होते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि इन पर्वतों का श्रीकृष्ण लीला में भारी महत्व रहा है। उन दिनों राजस्थान में भाजपा की सरकार थी। फिर भी भगवान की लीलास्थली की रक्षा के लिए हमें वर्षों संघर्ष करना पड़ा। बोलखेड़ा के ग्रामवासियों और धरने पर बैठे युवा साधुओं पर झूठे मुकदमें लगाये गये। 7 दिसम्बर 2006 को खान माफियाओं और स्थानीय भाजपा अध्यक्ष ने खुद खड़े होकर ब्रज रक्षक दल की गाड़ी पर हमला किया जिसमें मेरे अलावा भाजपा के राज्य सभा सांसद व उ0 प्र0 के पूर्व पुलिस महानिदेशक रहे बी.पी. सिंघल सहित अन्य लोग भी सवार थे। यह हमें जान से मारने की साजिश थी। पर भगवत् कृृपा से पूरी तरह तोड़ दी गयी गाड़ी में भी जान बचाकर निकल सके। हमारा 32 किमी0 तक पीछा गया। आश्चर्य की बात है कि तमाम चश्मदीद गवाहों के वहां मौजूद होने के बावजूद पुलिस ने इन आक्रमणकारियों के खिलाफ आज तक ईमानदारी से जांच तक नहीं की, कारवाई करना तो दूर की बात रही। इन पर्वतों को आरक्षित वन घोषित करने वाले इंका के मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत को शायद इस घटना की जानकारी नहीं। वरना ये हमलावर अब तक बेखौफ नहीं घूमते।

बसपा, भाजपा व इंका शासित इन तीनों राज्यों की इन घटनाओं के संदर्भ में  सोचना हागा कि अगर नक्सलवाद, केन्द्रीय गृहमंत्री और प्रधानमंत्री के लिए सबसे बड़ी समस्या बन गया है तो दोष किसका है? नक्सलवादियों का या उस पुलिस, शासन व न्यायतंत्र का जो आम लोगों के प्राकृतिक हक को छीन कर, दानवीवृत्ति से उनके परिवेश व जीने के साधनों को बर्बाद करने वाले खनन माफियाओं का साथ देता है?

Sunday, July 11, 2010

क्या फुटबाल क्रिकेट को धकिया देगी?

क्रिकेट की तरह तो अभी नहीं हुआ पर फुटबाल का बुखार अब भारत पर भी चढ़ गया है। चढ़ना भी चाहिए था। फुटबाल आम जनता का खेल है। बंगाल और गोवा ही नहीं भारत के पहाड़ी अंचलों में भी फुटबाल लोकप्रिय खेल है। पर इसे कभी ऐसी ख्याति नहीं मिली। जैसी फीफा के कारण मिल रही है। इसका एक कारण भारत में ंचैबीस घंटे चलने वाले 59 टीवी समाचार चैनल भी हैं। जो दिन में कम से कम ढाई घंटे फुटबाल दिखा रहे हैं। इससे इस खेल के प्रति उत्सुकता बढ़ी है। इतने समाचार चैनल तो पूरे यूरोप में भी नहीं। हमारे अखबार भी पहले फुटबाल की खबर खेल के पन्ने पर छोटी सी देते थे। अब फुटबाल पर विशेष संस्करण निकाल रहे हैं।

वैसे भी फुटबाल 134 देशों में खेली जाती है, जबकि क्रिकेट मात्र 13-14 देशों में। औपनिवेशिक देश होने के कारण हमारे देश के कुलीन वर्ग ने क्रिकेट को बड़ी आसानी से अपना लिया। यह प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया। बाद में बाजार की रूचि इस खेल में बढ़ी तो विज्ञापन जगत ने इसे घर-घर का खेल बना दिया। क्रिकेट के खिलाड़ी फिल्मी सितारों से भी ज्यादा विज्ञापनों में दिखने लगे। पर पिछले दशक में विशेष कर पिछले तीन वर्षों में फुटबाल की तरफ बाजार का ध्यान गया। अब फुटबाल उठान पर है। विश्व कप फाईनल देखने भारत से फिल्मी सितारे, उद्योगपति ही नहीं उत्तर-पूर्वी राज्यों के मंत्रीमंडल तक दक्षिण अफ्रिका पहुंच गये हैं। पहले के मुकाबले कई गुना ज्यादा आम दर्शक इस खेल को देखने भारत से जा रहे हैं। यह इसलिए अच्छा है कि एक कम खर्चीले, ज्यादा गतिमान और आम जनता के खेल को बढ़ावा मिल रहा है। पर फुटबाल  के प्रति क्या यह अचानक उमड़ा प्रेम है या यह भी बाजार की एक नई चाल?

देश के सट्टेबाजों से पूछा जाये तो पता चलेगा कि जिस खेल के प्रति देश में कोई रूचि नहीं थी आज उस पर देश में अरबों रूपये का सट्टा लग रहा है। आॅक्टोपस ही नहीं भारत में तोते, गौरेया और तीतर से भविष्य पढ़वाने वालों की भी चांदी हो गयी है। सब सट्टेबाज इनकी तरफ भाग रहे हैं। ताकि भविष्यवाणी जानकर पैसा लगायें। इसलिए इसे एक सामान्य घटना न माना जाये। जाहिरन फुटबाल को लोकप्रिय बनाकर विज्ञापन जगत और सट्टेबाज अपना एक नया बाजार खड़ा करना चाहते हैं। दर्शकों को लुभाने के लिए कार्यक्रमों में आकर्षण होना जरूरी है। क्रिकेट का कवरेज धीरे-धीरे अपना आकर्षण खोने लगा था। आपने पिछले कुछ वर्षों में क्रिकेट मैच के दौरान खाली दर्शक दीर्घाओं को टीवी पर देखा होगा। इसलिए यह एक सोची समझी रणनीति का परिणाम भी हो सकता है। जैसे साबुन या डिटर्जेंट कंपनी अपने उसी उत्पादन को हर वर्ष नये नाम और नये गुणों से भरा बता कर नये-नये विज्ञापनों के माध्यम से बाजार में लाती रहती है। इससे पहले कि क्रिकेट का बुखार उतरे फुटबाल का बुखार चढ़ना शुरू हो गया है। खैर, यह तो पर्दे के पीछे की बातें हैं। आम आदमी को तो जो सामने दिखता है वही सच लगता है और वही अच्छा भी लगता है। चाहे वह नकली ही क्यों न हो। स्वाईनफ्लू का कितना आतंक मचाया गया? पर आज पश्चिमी देशों में भी कुछ जागरूक नागरिकों के कारण यह तथ्य सामने आ रहा है कि दवा कंपनियों ने स्वाईनफ्लू का झूठा आतंक खड़ा किया था। जिससे उन्हें अरबों-खरबों को मुनाफा हो गया।

फिलहाल फुटबाल के मौजूदा बुखार की बात की जाये तो इसमें सबसे सुखद पक्ष यह है कि अब आजादी मिलने के इतने वर्षों के बाद फुटबाल धीरे-धीरे मुख्य धारा का खेल बनता जा रहा है। हमें खुश होना चाहिए कि इससे हमारे बच्चे एक ऐसे खेल में शरीक होंगे कि जो उनके शरीर को सेहतमंद बनायेगा। इस दृष्टि से इस बुखार को बढ़ने देना चाहिए। वैसे भी गरीब और अमीर सब इस खेल को खेल सकते हैं और इसका आनंद ले सकते हैं।

भारत के खेल मंत्रालय को इस बुखार का फायदा उठाना चाहिए और स्कूल और काॅलेजों में इसको बढ़ावा देने के लिए कार्यक्रम चलाने चाहिए। अगर स्पेन 32 वर्ष बाद फुटबाल के दिग्गजों को हरा कर सामने आ सकता है तो भारत को भी फुटबाल में विश्व खिताब जीतने का लक्ष्य बनाना चाहिए। हो सकता है आने वाले दिनों में फुटबाल की भी आईपीएल जैसी स्थिति बन जाये। जब बड़े-बड़े विनिवेशक इस खेल में पैसा लगाने लगे। तब हो सकता है कि अच्छे खिलाडि़यों को तैयार करने के लिए बढि़या प्रशिक्षण के भी इंतजाम किये जाये। अमरीका में भी फुटबाल की टीमों के मालिक बड़े-बड़े उद्योगपति और फाईनेंसर होते हैं जो आईपीएल की तरह पैसा लगाते हैं और करोड़ों कमाते हैं। आज बाजारीकरण के दौर में हर चीज बिकाऊ है तो फुटबाल क्यों पीछे रहे? अब तो इंतजार होगा फुटबाल के उन सितारों का जो धोनी और तेंदुलकर की तरह भारत के युवाओं के हृदय पर छा जायेंगे। तब हमें इस खेल से आम जनता को होने वाले लाभ की तरफ निगाह रखनी होगी।