Sunday, July 11, 2010

क्या फुटबाल क्रिकेट को धकिया देगी?

क्रिकेट की तरह तो अभी नहीं हुआ पर फुटबाल का बुखार अब भारत पर भी चढ़ गया है। चढ़ना भी चाहिए था। फुटबाल आम जनता का खेल है। बंगाल और गोवा ही नहीं भारत के पहाड़ी अंचलों में भी फुटबाल लोकप्रिय खेल है। पर इसे कभी ऐसी ख्याति नहीं मिली। जैसी फीफा के कारण मिल रही है। इसका एक कारण भारत में ंचैबीस घंटे चलने वाले 59 टीवी समाचार चैनल भी हैं। जो दिन में कम से कम ढाई घंटे फुटबाल दिखा रहे हैं। इससे इस खेल के प्रति उत्सुकता बढ़ी है। इतने समाचार चैनल तो पूरे यूरोप में भी नहीं। हमारे अखबार भी पहले फुटबाल की खबर खेल के पन्ने पर छोटी सी देते थे। अब फुटबाल पर विशेष संस्करण निकाल रहे हैं।

वैसे भी फुटबाल 134 देशों में खेली जाती है, जबकि क्रिकेट मात्र 13-14 देशों में। औपनिवेशिक देश होने के कारण हमारे देश के कुलीन वर्ग ने क्रिकेट को बड़ी आसानी से अपना लिया। यह प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया। बाद में बाजार की रूचि इस खेल में बढ़ी तो विज्ञापन जगत ने इसे घर-घर का खेल बना दिया। क्रिकेट के खिलाड़ी फिल्मी सितारों से भी ज्यादा विज्ञापनों में दिखने लगे। पर पिछले दशक में विशेष कर पिछले तीन वर्षों में फुटबाल की तरफ बाजार का ध्यान गया। अब फुटबाल उठान पर है। विश्व कप फाईनल देखने भारत से फिल्मी सितारे, उद्योगपति ही नहीं उत्तर-पूर्वी राज्यों के मंत्रीमंडल तक दक्षिण अफ्रिका पहुंच गये हैं। पहले के मुकाबले कई गुना ज्यादा आम दर्शक इस खेल को देखने भारत से जा रहे हैं। यह इसलिए अच्छा है कि एक कम खर्चीले, ज्यादा गतिमान और आम जनता के खेल को बढ़ावा मिल रहा है। पर फुटबाल  के प्रति क्या यह अचानक उमड़ा प्रेम है या यह भी बाजार की एक नई चाल?

देश के सट्टेबाजों से पूछा जाये तो पता चलेगा कि जिस खेल के प्रति देश में कोई रूचि नहीं थी आज उस पर देश में अरबों रूपये का सट्टा लग रहा है। आॅक्टोपस ही नहीं भारत में तोते, गौरेया और तीतर से भविष्य पढ़वाने वालों की भी चांदी हो गयी है। सब सट्टेबाज इनकी तरफ भाग रहे हैं। ताकि भविष्यवाणी जानकर पैसा लगायें। इसलिए इसे एक सामान्य घटना न माना जाये। जाहिरन फुटबाल को लोकप्रिय बनाकर विज्ञापन जगत और सट्टेबाज अपना एक नया बाजार खड़ा करना चाहते हैं। दर्शकों को लुभाने के लिए कार्यक्रमों में आकर्षण होना जरूरी है। क्रिकेट का कवरेज धीरे-धीरे अपना आकर्षण खोने लगा था। आपने पिछले कुछ वर्षों में क्रिकेट मैच के दौरान खाली दर्शक दीर्घाओं को टीवी पर देखा होगा। इसलिए यह एक सोची समझी रणनीति का परिणाम भी हो सकता है। जैसे साबुन या डिटर्जेंट कंपनी अपने उसी उत्पादन को हर वर्ष नये नाम और नये गुणों से भरा बता कर नये-नये विज्ञापनों के माध्यम से बाजार में लाती रहती है। इससे पहले कि क्रिकेट का बुखार उतरे फुटबाल का बुखार चढ़ना शुरू हो गया है। खैर, यह तो पर्दे के पीछे की बातें हैं। आम आदमी को तो जो सामने दिखता है वही सच लगता है और वही अच्छा भी लगता है। चाहे वह नकली ही क्यों न हो। स्वाईनफ्लू का कितना आतंक मचाया गया? पर आज पश्चिमी देशों में भी कुछ जागरूक नागरिकों के कारण यह तथ्य सामने आ रहा है कि दवा कंपनियों ने स्वाईनफ्लू का झूठा आतंक खड़ा किया था। जिससे उन्हें अरबों-खरबों को मुनाफा हो गया।

फिलहाल फुटबाल के मौजूदा बुखार की बात की जाये तो इसमें सबसे सुखद पक्ष यह है कि अब आजादी मिलने के इतने वर्षों के बाद फुटबाल धीरे-धीरे मुख्य धारा का खेल बनता जा रहा है। हमें खुश होना चाहिए कि इससे हमारे बच्चे एक ऐसे खेल में शरीक होंगे कि जो उनके शरीर को सेहतमंद बनायेगा। इस दृष्टि से इस बुखार को बढ़ने देना चाहिए। वैसे भी गरीब और अमीर सब इस खेल को खेल सकते हैं और इसका आनंद ले सकते हैं।

भारत के खेल मंत्रालय को इस बुखार का फायदा उठाना चाहिए और स्कूल और काॅलेजों में इसको बढ़ावा देने के लिए कार्यक्रम चलाने चाहिए। अगर स्पेन 32 वर्ष बाद फुटबाल के दिग्गजों को हरा कर सामने आ सकता है तो भारत को भी फुटबाल में विश्व खिताब जीतने का लक्ष्य बनाना चाहिए। हो सकता है आने वाले दिनों में फुटबाल की भी आईपीएल जैसी स्थिति बन जाये। जब बड़े-बड़े विनिवेशक इस खेल में पैसा लगाने लगे। तब हो सकता है कि अच्छे खिलाडि़यों को तैयार करने के लिए बढि़या प्रशिक्षण के भी इंतजाम किये जाये। अमरीका में भी फुटबाल की टीमों के मालिक बड़े-बड़े उद्योगपति और फाईनेंसर होते हैं जो आईपीएल की तरह पैसा लगाते हैं और करोड़ों कमाते हैं। आज बाजारीकरण के दौर में हर चीज बिकाऊ है तो फुटबाल क्यों पीछे रहे? अब तो इंतजार होगा फुटबाल के उन सितारों का जो धोनी और तेंदुलकर की तरह भारत के युवाओं के हृदय पर छा जायेंगे। तब हमें इस खेल से आम जनता को होने वाले लाभ की तरफ निगाह रखनी होगी।

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