Sunday, August 22, 2010

‘पीपली लाइव’ ने खोली टी.वी. चैनलों की पोल

किरण राव और आमिर खान की नई फिल्म पीपली लाइवने टी.वी. समाचार चैनलों का बाजा बजा दिया। पूरी फिल्म में इन चैनलों की रिपोर्टिंग को लेकर जो भी दिखाया गया, वह दर्शकों को हंसाने के लिए काफी था। इनपुट एडिटर हो या एंकर पर्सन, रिपोर्टर हो या कैमरामैन, सबके सब इस फिल्म में विदूषक नजर आ रहे थे। मजे की बात ये कि फिल्म के शुरू में रस्म अदायगी की घोषणा, ‘इस फिल्म में सभी पात्र काल्पनिक हैं...के बावजूद यह साफ देखा जा सकता था कि भारत में चल रहे कौन से टी.वी. समाचार चैनलों और उनके कौन से सितारा एंकर पर्सनों का मजाक उड़ाया जा रहा है। ऐसा नहीं कि का¡मेडी शो की तरह अकारण फूहड़ वक्तव्यों से लोगों को हंसाने की कोशिश की गयी हो। जो कुछ दिखाया गया वह बिल्कुल वही था जो हम हर दिन, हर घंटे टी.वी.समाचार चैनलों पर देखते हैं। अन्तर केवल इतना था कि जो दिखाया जाता है, उसके आगे-पीछे की गतिविधि भी दिखा देने से समाचार संकलन की वर्तमान दुर्दशा का खुला प्रदर्शन हो गया। यह सब कुछ इतने सामान्य और सहज रूप में प्रस्तुत किया गया कि कहीं भी निर्माताओं पर आरोप नहीं लगाये जा सकता। फिर भी दर्शक हंसी के मारे लोट-पोट हो रहे थे। इस दृष्टि से यह फिल्म बहुत सशक्त है जिसे समाचार चैनलों को गम्भीरता से लेना चाहिए।

पिछले हफ्ते ही दिल्ली के इण्डिया इंटरनेशनल सेंटर में फाउण्डेशन फा¡र मीडिया प्रोफेशनल्स ने एक जोरदार बहस आयोजित की, जिसमें प्रिंट और टी.वी. के नामी चेहरे मौजूद थे। विषय था, सरकार का प्रस्तावित प्रसारण नियन्त्रक विधेयक। जहा¡ अधिकतर पत्रकारों ने सरकार की तीखी आलोचना की और ऐसे किसी भी कानून का विरोध किया जो समाचार प्रसारण की आजादी पर बंदिश लगाता हो, वहीं पत्रकारों में से ही अनेकों ने साफगोई से माना कि आज टी.वी. समाचारों का स्तर इतना गिर गया है और उसमें इतना छिछलापन आ गया है कि जनता का विश्वास इन चैनलों से उठता जा रहा है। चुनावों में एक दल द्वारा मोटे पैसे देकर टी.वी.चैनल का रूख अपने पक्ष में करवाना आम बात हो गयी है। व्यवसायिक प्रतिष्ठान भी विज्ञापन की तरह पैसा देकर अपने पक्ष में समाचार लगवा लेते हैं। चैनलों के सिरमौरों ने टी.आर.पी. का रोना रोया, तो श्रोता पत्रकारों ने टी.आर.पी. की विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़े किये। कुल मिलाकर यह साफ है कि सरकार कानून लाये या न लाये, टी.वी. चैनलों का मौजूदा रवैया जनता को स्वीकार्य नहीं है। खासकर समझदार जनता को। इसलिए इन चैनलों को साझे मंथन से अपने लिये मानदण्ड निर्धारित करने चाहिएं और उन पर अमल करने की ईमानदार कोशिश करनी चाहिए। वरना अभी तो पीपली लाइवजैसी फिल्मों और लाफ्टर शोमें ही टी.वी. समाचारों का मजाक उड़ रहा है, पर वह दिन दूर नहीं जब आम जनता भी इन चैनलों को लाफ्टर चैनल से ज्यादा कुछ नहीं समझेगी। टी.वी. जैसे सशक्त माध्यम के लिए यह आत्महत्या से कम न होगा।

पीपली लाइवमें दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा कर्जे में डूबे किसानों की आत्महत्या का उठाया गया। फिल्म के रिव्यू पढ़ने से जिन्हें लगता था कि यह फिल्म उबाऊ होगी या मदर इण्डियासरीखी आंसू बहाने वाली, उन्हें यह सुःखद अनुभव हुआ कि फिल्म काफी रोचक और मनोरंजक थी। किरण राव ने बड़ी खूबसूरती से देश की भयावह गरीबी और उससे जूझते एक लाचार परिवार की ह्रदय विदारक दास्तान को एक हल्की-फुल्की पेशकश से बेहद रोचक बना दिया। यहाँ तक कि फिल्म के पर्दे पर विषाद के क्षणों में भी दर्शक हँस रहे थे। इसका अर्थ यह नहीं कि निर्माताओं ने इतने संवेदनशील मुद्दे का मजाक उड़ाया है, बल्कि खासियत यह है कि गम्भीर बात इतनी सहजता से कही गयी कि दर्शकों के चेहरे पर हंसी और आंख में आंसू साथ-साथ झलक रहे थे। जिसके लिये किरण राव और आमिर खान व उनकी टीम बधाई की पात्र है। पिछले कुछ वर्षों में आमिर खान ने एक के बाद एक गम्भीर मुद्दों पर रोचक फिल्में बनाकर देश का ध्यान कुछ बुनियादी सवालों पर आकर्षित किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अपने शेष लम्बे जीवन में आमिर खान देशवासियों को इसी तरह सोचने पर मजबूर करने वाली किंतु रोचक फिल्में देते रहेंगे।

यहाँ यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि देश के मौजूदा माहौल में एक तरफ हमारे समाचार टी.वी.चैनल हैं, जो टी.आर.पी. का बहाना लेकर कचड़ा परोसने में लगे हुये हैं और दूसरी ओर हैं आमिर खान जैसे फिल्म निर्माता हैं जिन्होंने खुदी को इतना बुलंद किया है कि खुदा उनसे उनकी रज़ा पूछता है। यानि वे टी.आर.पी. की परवाह नहीं करते, अपनी बात जोरदारी से कहते हैं और फिर इंतजार करते हैं लोगों की प्रतिक्रिया का। जो अब तक उनके हक में गयी है। चाहे लगानहो, ‘तारे जमीन परहो या थ्री इडियटस्हो। साफ जाहिर है कि भारत की जनता इतनी मूर्ख नहीं कि समाचार चैनलों पर कचड़ा कार्यक्रम देखना चाहती हो। अगर उसे देश के गम्भीर सवालों पर सोचने को मजबूर करने वाले कार्यक्रम आमिर खान की तरह रोचक शैली में प्रस्तुत किये जायें तो टी.वी.चैनलों को टी.आर.पी. की चिंता नहीं करनी पड़ेगी। पर उसके लिए शोध, विषय चयन और प्रस्तुति में गम्भीरता, अनुभव, ज्ञान, और धैर्य की जरूरत पड़ेगी, जिसका शायद आज हमारे टी.वी. संवाददाताओं व निर्माताओं के पास काफी टोटा है।

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